सोमवार, 27 जुलाई 2009
बदलेगा भारत।
साफ सुथरा रहना किसकों पसन्द नही। गंदगी से निजात हर कोई पाना चाहता है। मगर भारत में स्वच्छता ज्यादातर आवाम के लिए दूर की कौड़ी है। कारण साफ है जागरूकता और सुविधाओं का आभाव। इसी के चलते 1 से पॉच साल तक के बच्चे काल के गाल में समाते जा रहे है। 10 में से पॉच बडी जान लेवा बीमारी आस पास की गंदगी की देन है। उल्टी दस्त, पीलियॉं मलेरिया डेंगू और पेट में कीड़े की बीमारी रोजाना हजारों मासूमों की आखों को हमेंशा के लिए बन्द कर देती है। अकेले डायरिया हजारें बच्चों को मौंत की नींद सुला रहा है। इनमें से एक तिहाई अभागों को तो इलाज भी नही मिल पाता। यह उस देश की कहानी है जो अपनी आर्थिक तरक्की में इतराता नही थकता। जहॉ सेंसक्स, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को विकास का िशल्पी माना जाता है। जहॉं देश की आधी आबादी को समान अधिकार देने की गाहे बगाहे आवाज़ सुनाई देती है। वही ज्यादातर महिलाऐं खुले में शौच जाने को मजबूर है। 93 फीसदी कामगार असंगठित क्षेत्र से आते है जिनका देश की सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 60 फीसदी से ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर साफ सफाई को ही ले लिजिए। 1986 में सरकार ने केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता अभियान के सहारे इस बदनुमा दाग को धोने की कोिशश जरूर की। मगर हमेशा की ही तरह और योजनाओं की तरह यह योजना भी अधूरे में ही दम तोडती दिखाई दी। तब जाकर 1999 में सरकार ने सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का नारा छेडा। अभियान के तहत सरकार शौचालय बनाने के लिए सिब्सडी दे रही है। मगर अब भी आधी आबादी शौच के लिए खुले में जाने को मजबूर है। जिनके लिए शौचालय बनाये भी गए वो उसमें जान के बचाये खुले में जा रहे है। इसके जिम्मेदार भी हम ही है। ऐसे कई उदाहरण है जो आज हमारे सामने है। सपने हम 2020 तक विकसित राश्ट्र बनने का देख रहे है। आज 90 करोड जनता के पास पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध नही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कि मुताबिक अगर सिर्फ साफ पानी हम लोगो को मयस्सर करा दें तो देश की बीमारियों को हम 15 प्रतिशत नीचे लें आयेगें। आज बहस आउटले बढाये जाने को लेकर हो रही है। मगर असली मुददा आउटकम का है। जिसपर किसी का घ्यान नही जा रहा है। हमपर आज दबाव 2012 तक मिलेनियम डेवलैपमेंट गोल के तहत तय किये गए उदेश्यो को पूरा करने का भी है।। मगर हमारे मुल्क में निर्धारित लक्ष्यों की समयप्रप्ति दूर की कौडी है। भविश्य के लिए भी सिर्फ कयास लगाए जा सकते है। आज सरकार सामाजिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता में लेते हुए अनेक कल्याणकारी योजनाऐं चला रही है। भारत निर्माण, नरेगा, और राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन गांवों की तस्वीर बदल रहक है, तो शहरों को मजबूत करने के लिए जवाहर लाल नेहरू राश्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन जैसे कार्यक्रम मौजूद है। मसला सिर्फ एक ही है जिसका हल भारत पिछले 62 सालों में भी नही ढूंढ पाया वह है भ्रश्ट्रचार। यही समस्या सभी उदेश्यों पर पानी फेर रही है। सबकों मालूम है कि केन्द्र का 1 रूपया गांवों तक पहुंचते पहुंचते 15 पैसे रह जाता है। मगर समाधान के प्रति क्यों गंभीरता नही। इस देश में भ्रश्ट्रचार से जुडे मामलों की सुनवाई के लिए अलग से कोर्ट गठित की जाये। क्यों इस देश में भ्रश्टाचारियों को सजा नही मिल रही है। क्यों नही उन्हे फांसी चढाया जाता। जब तक इस तबके पर डर पैदा नही होगा तबतक हर योजना का बंटाधार होता रहेगा और हम गरीबी अशिक्षा और बेरोजगारी जैसे मूलभूत मुददों पर घडियाली आंसू बहाते रहेंगे।
सोमवार, 20 जुलाई 2009
ये दिल मांगे मोर।
शिक्षा के क्षेत्र में आज व्यापक बहस चल रही है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के 100 दिन के एजेंडे का लोग आंकलन कर रहे है। सबका अपना अपना सोचना है। मगर एक बात तो सच है कि आजादी के 62 सालों के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हमारा देश पिछडा हुआ है। चाहे वो प्राथमिक हो माघ्यमिक हो या उच्च शिक्षा। हालात अच्छे नही है। यही कारण है कि शिक्षा के अभाव के चलते समाज में अनेक समस्याऐं पैदा हुई है। शिक्षा समवर्ती सूची में है लिहाजा केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर इस क्षेत्र के लिए काम करना होगा। मगर आज सरकार जागी है। शिक्षा के हर पडाव पर बदलाव के संकेत दिखने लगे है। बुनियादी शिक्षा को मजबूत करने के लिए 2000 में एनडीए सरकार के कार्यकाल में सर्वशिक्षा अभियान की शुरूआत हुई। आज जो नतीजे है वह निश्चित तौर पर उत्साहित करने वाले है। जहां स्कूल से बाहर रहने वालों की संख्या 3.50 करोड थी। वह आज 80 लाख के करीब है। आज इस क्षेत्र पर होन वाला खर्च भी बडा है जेा 13100 करोड है। ग्यारवीं पंचवशीZय योजना में सर्व शिक्षा अभियान को 71000 करोड दिये गए है। 10वीं पंचवशीZय योजना के मुकाबले 54000 करोड ज्यादा। उपर से मीड डे मील कार्यक्रम के तहत 15 करोड बच्चे जुडे है। अब चुनौति इस बात की है कि स्कूल से जुडे बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल को न छोडे। साथ ही शिक्षा अच्छी हो जिसका की घोर अभाव दिखाई देता है। उदाहरण के तौर पर 5वीं कक्षा के बच्चे घडी देखना तक नही जानते । जोड घटाना नही जानते। कई स्कूलों में तो शिक्षकेा को सवाल किये गए तो वो बगले झांकने लगे। अब इस कार्यक्रम के दूसरे चरण में सरकार प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर घ्यान दे रही है। इसके बाद बारी है माघ्यमिक शिक्षा की । देश में माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच सिर्फ 100 में से 28 बच्चों की है। यानि 72 बच्चे अब भी स्कूल से बहार। मार्च 2009 से भारत सरकार राश्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की शुरूआत कर चुकी है। इसे बजट में 1354 करोड दिये गए है। मगर इतनी धनराशि बहुत कम है। उच्च शिक्षा का हाल तो और भी बुरा है। भारत में 100 में से 12 बच्चे ही उच्च शिक्षा ले पाते है। जबकि विदेशो ंमें यह आंकडा 60 का है। ज्ञान आयोग की माने तो अगर इस आंकडे को 15 करना है तो 1500 नए विश्वविघालय बनाने होगे। ऐसा नही है कि कोई पडना नही चाहता। दिक्कत यह है कि विकल्प क्या है। संसाधन कहां है। अब जब बात इसमें व्यापक बदलाव की हो रही है तो इसमें कमियां निकालने से ज्यादा इसको अमल में लाने की होनी चाहिए। क्योंकि पहले ही 62 साल आप निकाल चुके है। युवा शक्ति भारत की ताकत है।उसकी पहचान है। उसको शिक्षित करना हमारा कर्तव्य है जिससे सरकारें मुंह नही मोड सकती। केन्द्र और राज्य सरकारों के मिलकर इस महायज्ञ में अपना योगदान देना होगा। अगर आज विदेशी विश्वविघालयों को भारत में आने दिया जाता है तो हमें घबराने की जरूरत नही है। सरकार को पहले से ही नियम कानून सक्त करनें चाहिए।। यशपाल समिति और ज्ञान आयोग की सिफारिशों पर गहनविचार होना चाहिए। सरकार आज जीडीपी का 3 से 4 फीसदी शिक्षा पर खर्च रही है जिसे बढाकर 6 से सात फीसदी करना होगा। साथ ही निजि क्षेत्र को लाना होगा क्योंकि भारी निवेश के बिना यह संभव नही। एक अनुमान के मुताबिक उच्च िश्क्षा में मौजूद खर्च का 10 गुना भी कर दिया जाए तो भी कम होगा। हमें आज शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलावों की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि इन बदलावों का जिम्मा एक अच्छे राजनेता के कंधे पर है।