मंगलवार, 28 जून 2011

तेल का खेल

बीते सप्ताह सरकार ने डीजल के दाम 3 रूपये, रसोई गैस के पचास रूपये और किरोसीन के दाम में 2 रूपये की बढ़ोत्तरी की। इसके पीछे वजह अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ते कच्चे तेल को बताया गया है। भारत सरकार अपनी जरूरत का 84 फीसदी तेल आयात बाहर से करती है। ऐसे में ग्लोबल स्तर में किसी भी तरह के बदलाव का सीधा असर हमारे देश में पड़ता है। इसी को आधार बताकर सरकार अपने कदम को जायज ठहराया है। सरकार के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम 115 रूपये प्रति डाॅलर के आसपास है। ऐसे में घरेलू दामों को बढ़ाने के अलावा उसके पास कोई चारा नही है। अच्छी बात यह है कि सरकार ने इस बार करों में कुछ कमी जरूर की है, जिसकी मांग पिछले कई महिनों से की जा रही है। मसलन कच्चे तेल में सीमा शुल्क पांच फीसदी कम कर दिया है। डीजल में सीमा शुल्क 7.5 फीसदी से घटाकर 2.5 फीसदी कर दिया गया ह,ै जबकि डीजल पर ही उत्पाद शुल्क 4.60 रूपये से घटाकर कर 2 रूपये लीटर कर दिया। सरकार के मुताबिक इससे उसे सालाना 49000 करोड़ का नुकसान होगा। तेल उत्पादों के दामों में बड़ा हिस्सा करों का होता है। उदाहरण के लिए दिल्ली को ही ले लीजिए। मार्च 2010 के पहले सप्ताह में दिल्ली में बिना शुल्क लगाए पेट्रोल की कीमत 23.02 रूपये थी। इसके उपर 3.56 फीसदी सीमा शुल्क् , 31.16 फीसदी उत्पाद शुल्क और 16.6 फीसदी वैट। यानि कुल शुल्क हुआ 51.47 प्रतिषत। इससे पेट्रोल की कीमत 23.02 से बड़कर 47.43 रूपये हो जाती है। जो दिल्ली में आज 63.37 रूपये प्रति लीटर से ज्यादा है। इसी तरह बिना कर के डीजल की कीमत दिल्ली में 24.74 रूपये थी। जैसे ही इसमें सीमा शुल्क 5.07 प्रतिषत, उत्पाद शुल्क 13.36 फीसदी और वैट या ब्रिक्री कर 11.81 प्रतिषत लगता है तो डीजल के दाम 24.74 रूपये से बड़कर 35.47 रूपये तक पहंुच जाते हैं। यानि तेल उत्पादों के महंगे होन के पीछे का एक बड़ा कारण करों की मार है। सरकार किरीट पारिख समिति  के सुझाव के मुताबिक पेट्रोल के दामों को बाजार के हवाले कर चुकी है। जबकि इस समिति ने डीजल के दामों को भी बाजार के हवाले करने की सिफारिश की थी। मगर सरकार इतना बड़ा राजनीतिक जोखिम नही उठा सकती। यूपीए सरकार अपने दूसरे अवतार यानि 2009 में सत्ता में आने के बाद पेट्रोल के दाम 50 फीसदी तक बढ़ा चुकी है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 21 सालों में पेट्रोल के दाम 8 रूपये से बढ़कर 63 रूपये तक पहंुच गए हैं। आखिरी बढ़ोत्तरी जून में 5 रूपये प्रति लीटर की गई थी। शायद यह पहला मौका होगा जब एक साथ पांच रूपये की बढोत्तरी की गई। मगर यहां भी सरकार ने अपनी मजबूरी का रोना रोया। आज पड़ोसी देशों के मुकाबले सबसे ज्यादा महंगा पेट्रोल और डीजल भारत में बिकता है जबकि रसोई गैस और किरोसीन बाकी देशों के मुकाबले यहां काफी सस्ता है। इसलिए भारत सरकार अपने इश्तेहारों में हमेशा किरोसीन और रसोईगैस का ही जिक्र करती है। दूसरे देशों की बात की जाए तो श्रीलंका में पेट्रोल पर 37 फीसदी, थाइलैंड में 24 फीसदी, पाकिस्तान में 30 फीसदी, जबकि भारत में  51 फीसदी कर लगाया जाता है। इसी तरह डीजल में श्रीलंका में 20 फीसदी, थाईलैंड में 15 फीसदी, पाकिस्तान में 15 फीसदी, जबकि भारत में  30 फीसदी से ज्यादा कर लगाया जाता है। सरकार यह आंकड़ा अपने इश्तेहारों में कभी नही छापती। वर्तमान में हमारा तेल का प्रबन्धन जिस तरह चल रहा है उसको देखकर इस बात के पूरे आसार है की जल्द ही पेट्रोल 100 रूपये लीटर तक पहुंच जायेगा। बहरहाल केन्द्र सरकार ने राज्यों के पाले में गेंद डाल दी है। क्योंकि तेल उत्पादों से मिलने वाला करों का एक बड़ा हिस्सा राज्यों के खजाने में जाता है जो उसके अप्रत्क्ष कर का सबसे बड़ा हिस्सा है। यह आंध्र प्रदेश में 33 फीसदी और उड़ीसा में 30 फीसदी के आसपास है। बहरहाल ममता बनर्जी ने रसोई गैस में ब्रिकी कर को खत्म करके इसकी शुरूआत कर दी है। अब जरा समझने की कोशिष करते हैं तेल के खेल को। इस समय कच्चे तेल के दाम अंर्तराष्ट्रीय बाजार में 115 डाॅलर प्रति बैरल है। एक डाॅलर की कीमत 45.03 रूपये। जबकि एक बैरल का मतलब तकरीबन 160 लीटर। अब हिसाब लगाते हैं कि कितना दाम वाकई बड़ा है। इस हिसाब से कच्चे तेल का दाम प्रति लीटर 32.37 रूपये हुआ। भारत में आयात कर इसका शोधन किया जाता है। इसके बाद इसे पेट्रोल, डीजल, एलपीजी और किरोसीन के तौर पर बाजार में उतारा जाता है। आज पेट्रोल की कीमत बाजार में 63.37 रूपये प्रति लीटर है। यानि बाकि का सारा पैसा विभिन्न करों के रूप में हमारी जेब से सरकार के खजाने में जाता है। हमारे देश में तेल शोधन की पर्याप्त व्यवस्था है। बल्कि कंपनियां देश की मांग के बाद इसका निर्यात भी करती हैं। डीजल, पेट्रोल, नाफता और एटीएफ इत्यादी का घरेलू मांग पूरी करने के बाद निर्यात किया जाता है। जहां घरेलू उत्पादन में ज्यादा जोर देने की जरूरत है वही उत्पादक कंपनियों अनुसंधान में एक फीसदी से ज्यादा खर्च नही करती। इधर महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल किया हुआ है। सरकार अपने बयानों में तो इसे सबसे प्राथमिकता में बताती है मगर सही मायने में उसका इशारा साफ है। जनता को इस महंगाई के साथ जीना सीख लेना चाहिए। क्योंकि सरकार के इस कदम के बाद महंगाई में आग लगेगी और इसके फिर से दहाई में पहुंचने की संभावना है। दूसरी बात जो सरकार इन सार्वजनिक उपक्रमों मसलन आइओसी, बीपीसी और एचपीसी के बारे में कहती है कि इनकी माली हालत बिगड़ती जा रही है। लेकिन सरकार के बयान और पेट्रोलियम मंत्रालय की 2008- 09 की सालाना रिपोर्ट पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो कहानी कुछ और दिखाई देती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2008-09 में आइओसी का शुद्ध लाभ 2950 करोड़ का था। साथ ही यह दुनिया की 18वीं सबसे बड़ी कंपनी है। इसी तरह 2009-10 दिसंबर तक लाभ कर देने के बाद 4663.78 रहा जबकि कुल कारोबार 208289.46 रहा। इसके अलावा लाभांश के तौर पर 2007-08 में 656 करोड़, 2008-09 में 910 करोड़ केन्द सरकार को दिया गया। इसी तरह अन्य उपक्रम मसलन एचपीसी और बीपीसी का लाभ अप्रैल से दिसंबर 2009 के बीच 544 करोड़ और 834 करोड रूपये रहा। फिर कहां से इन कंपनियों के दीवालिया होने का सवाल उठता है। सवाल असली यह है कि पिछले एक साल के ज्यादा के समय से महंगाई की मार झेल रही जनता को राहत देने के लिए सरकार के पास क्या नीति है। आखिर कब तक जनता सरकार के कुप्रबंधन की मार झेलेगी। क्योंकि महंगाई रोकने के रिजर्व बैंक के उपायों का भी असर उसी के बजट को बिगाड़ रहा है। इस बात की भी पूरी संभावना है की जुलाई में भी रिजर्व बैंक रेपो और रिवर्स रेपो दर बड़ाने जा रहा है। मतलब साफ है की आम आदमी की मुश्किलें और बड़ने वाली है।

मुश्किल में माया


कानून व्यवस्था दुरूस्त करने और विकासकार्यो में तेजी लाने के लिए मायावती ने सूबे को तीन भागों में बांट दिया है। हर जोन में 6 मंडल होंगे और इसमें तैनात अधिकारियों को कानून व्यवस्था और विकास कार्यो से जुड़ी रिपोर्ट सरकार को भेेजनी होगी। ऐसा विपक्ष के दबाव में आकर मायावती ने किया है। लगातर बिगड़ती कानून व्यवस्था और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं से मायावती सरकार चैतरफा दबाव में दिखाई दे रही है। साथ ही विपक्षी पार्टीया सपा भाजपा और कांगे्रस इस माहौल को 2010 के चुनाव तक बनाए रखना चाहती है। बहरहाल मायावती ने कुछ सख्त संकेत जरूर दिये है। मसलन महिलाओं के खिलाफ अपराध में गिरफ्तारी 10 दिन में की जाएगी। अगर ऐसा नही होता तो आरोपी की कुर्की के आदेश दिए जाऐंगे। उत्तरप्रदेश में बीते दो सप्ताह में 14 बलात्कार के मामले सामने आए हैं। साथ ही पुलिस और डाॅक्टरों की मिलीभगत को भी गंभीरता से लेने की बात कही है। सूबे में चुनाव को अब ज्यादा समय नही बचा है। ऐसे में हर राजनीतिक दल सरकार के खिलाफ निर्णायक माहौल तैयार करना चाहता है। दरअसल 2007 में कानून व्यवस्था के चलते मुलायम सिंह को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। अकेला एक निठारी कांड उनकी सरकार पर भारी पड़ा। यही कारण था कि 2007 में यूपी की जनता ने मुलायम के खिलाफ वोट डाला था जिसका सीधा फायदा बसपा को मिला। मायावती इस बात से बेखबर नही इसलिए नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े का हवाला दिया जा रहा है। कि बाकि राज्यों के मुकाबले दिल्ली में बलात्कार की घटनाऐं कम है। मसलन असम, दिल्ली, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के मुकाबले यूपी में यह घटनाऐं कम हुई है। राजनीति का मिजाज़ देखिए की बलात्कार जैसी घटनाओं में भी आंकड़ेबाजी के सहारे एक दूसरे को गिरेबान में झांकने की नरीहत दी जाती है। पीड़ित लड़की पर क्या बीत रही होगी इसकी चिन्ता कसी को नही। वह रे राजनीति तू जो न दिखाए वो कम है।

रविवार, 26 जून 2011

लोकपाल पर होगी संसद की अग्निपरीक्षा

संसद का मानसून सत्र 1 अगस्त से 7 सितंबर तक चलेगा। ऐसा कम ही मौकों में देखने को मिलता है कि मानसून सत्र की शुरूआत अगस्त में हो। वह भी तब जब इस मानसून सत्र का इंतजार बेसब्री से हो रहा हो। बहरहाल सरकार इस बीच में लोकपाल विधेयक पर राजनीतिक दलों की नब्ज टटोलने की कवायद पूरा कर लेना चाहती है। मगर नागरिक समाज द्धारा उठाये गए मुददों पर उसका नजरिया समझ से परे है। मसलन संयुक्त मसौदा समिति, दो महिने में 9 बैठकों के बावजूद आम सहमति नही बना पाई। इसलिए अब अन्ना हजारे और उनके साथी सरकार की नियत पर सवाल उठा रहे हैं। दरअसल वर्तमान में आए दिन हो रहे नए- नए घोटालों के खुलासे और इसमें राजनीतिज्ञों की भूमिका ने मौजूदा माहौल में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी है। देष की जनता अपने को ठगा महसूस कर रही है। लोगों के मन में सरकार का कार्यशैली को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। सबसे बड़ सवाल क्या संसद के मानसून सत्र में लोकपाल कानून का रूप ले पायेगा। क्या राजनीतिक दल वर्तमान में आवाम में मौजूद बेचैनी को दूर करने में कामयाब रहेंगे। क्या सरकार सिविल सोसइटी की मांग के अनुरूप जन लोकपाल लाएगी। ये वह ज्वलंत प्रश्न है जिसका इंतजार भारत की आवम को है। सबसे बड़ी चुनौति इस बात की है वर्तमान में मौजूद इस निराशावादी माहौल को दूर करने की आखिरी आष देश की सर्वोच्च नीति निधार्रक संस्था के कंधों पर है। बहरहाल सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच कुछ मुददों आम राय नही बन पाई। नागरिक समाज का मसौदा कहता है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए। मगर सरकार इस पर राजी नही। जबकि 2001 में विधि मंत्रालय की स्थाई समिति प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने की सिफारिष कर चुकी है। यहां तक की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और खुद डाॅ मनमोहन सिंह लोकपाल के दायरे में आने की इच्छा व्यक्त कर चुके हैं। इसके अलावा सरकार सांसदों, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीष को भी लोकपाल के दायरे में लाने के लिए तैयार नही।  लोकपाल की नियुक्ति और इसमें  कितने और कौन लोग षामिल होंगे तथा लोकपाल समिति को हटाने की ताकत किसके पास होगी। इस पर भी दोनों का नजरिया अलग अलग है। सीबीआइ और सीवीसी केा लोकपाल संस्था से जोड़ने जैसे मुददों पर सरकार और नागरिक समाज अलग अलग रास्ते पर है। नागरिक समाज के प्रतिनिधियों के मुताबिक सीबीआई और सीवीसी को लेकपाल के साथ जोड़ दिया जाए। मगर सरकार ऐसा कुछ भी करने के पक्ष में नही है। अब सरकार राजनीतिक दलों के बीच आम राय बनाने की बात कह रही है। आखिर एसे जरूरी मुददों पर सरकार आमराय की बात कहकर जनता को अंधेरे में रखेगी। आखिर और कितना इंतजार इसके लिए करना होगा। वैसे पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट ही जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। पिछले तीन विधेयकों को संसद की स्थाई समिति को सौंपा गया। इसके अलावा 2002 में संविधान के कामकाज के आंकलन के लिए बनाये गय राष्ट्रीय आयोग ने भी लोकपाल के जल्द गठन की सिफारिश  की थी। 2007 में गठित दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी एक मजबूत लोकपाल की वकालत की। मगर सरकार आम सहमति के नाम पर इस कानून को अब तक लटकाने में सफल रही। मगर जन्तर मन्तर में अन्ना हजारे के अनशन को मिले जनता के अपार समर्थन ने सत्ता में बैठे हुक्मरानों के नींद उड़ा दी है। इसलिए सरकार खुद भी इस मामले को लटकाने के पक्ष मे नही दिखाई देती। समग्र विकास का नारा बुलंद करने वाली मनमोहन सरकार आज चारों तरफ ओर से घोटालों से घिरी हुई है। 2जी, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्ष सोसइटी और न जाने अभी तो आने वाले समय में और कितने घोटलों से पर्दा उठेगा। देष में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए 1988 में प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट बनाया गया। मगर कितने नेता, कितने अफसर और कितने उद्योगपति आज जेल में है। यह सब जानते हुए की नेता, अफसर और उद्योगपतियों की तिकड़ी खुलेआम कैसे राष्ट्रीय संसाधनों की लूट खसूट रही है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि कानून को लागू करने वाली एजेंसिया सरकार के अधीन काम करती है। यही कारण है कि सरकार इसका इस्तेमाल हाईप्रोफाइल मामलों में राजनीतिक नफा नुकसान के हिसाब से करती है। आज 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों के मामलों में जो गिरफतारी हुई हैं वह मीडिया, जनसमुदाय के दबाव और सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के चलते हुई है। वरना इनका भी कुछ होन वाला नही था। आज देष के तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। मगर ज्यादातर लोकायुक्तों का हमने नाम तक नही सुना होगा। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया तो नौबत उनके इस्तीफा देने तक पहंुच गई। बाकी राज्यों में भी यह महज सिफारिशी संस्थान बन कर रह गए हैं। कई राज्यों में तो सालों से विधानसभा के पटल पर इसकी रिपोर्ट तक नही रखी गई। जबकि सालाना इसकी रिपोर्ट रखने का प्रावधान है। इससे सरकारों की कार्यषौली का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भ्रष्टाचार भारत के विकास में सबसे बड़ी बांधा है। आने वाले समय में हमें 10 फीसदी विकास दर का सपना दिखाया जा रहा है। 2020 में हम भारत को विकसित राष्ट के तौर पर देखने का सपना संजोये है। मगर जिसे पैमाने पर भ्रष्टाचार चल रहा है उसे देखकर यह मुमकिन नही लगता। आज देष में भ्रष्टचार से लड़ने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी महज एक सिफारिशी संस्थान बनकर रह गया है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां गंभीर मामलों में कितनी न्याय कर पाती होंगी। अगर इन संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा गया होता तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता था। इसीलिए आशंका सरकारी मसौदे का लोकपाल महज एक सिफारिशी संस्थान बनाकर न रख दे। आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सषक्त लोकपाल बनाने का ऐतिहासिक मौका संसद के पास है। अगर सियासतदान फिर भी नही समझे  तो आने वाले समय में जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि जनता के सब्र का बांध अब टूट चुका है और इसकी बानगी है जन्तर मन्तर में उमड़ा जनसैलाब है।