बुधवार, 19 नवंबर 2014

आफस्पा पर आफत

जम्मू और कश्मीर में चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। ऐसे में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर पूर्व मंत्री चिदंबरम के बयान पर बीजेपी ने पलवार किया है। बीजेपी ने सवाल पूछा है कि अगर यह कानून अमानवीय है तो यूपीए ने दस साल में इसको मानवीय बनाने के लिए क्या किया। जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस पहले ही इस कानून को लेकर आमने समाने रहे हैं। राज्य में गठबंधन की सरकार बनने के बाद से ही मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला राज्य के कुछ हिस्सों से अशांत क्षेत्र अधिनियम और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की बात कही थी। वैसे यह पहला मौका नही था जब उमर इस कानूून को हटाने की पैरवी कर रहें हों। इससे पहले भी वह कई बार इस कानून को राज्य से हटाने की बात कह चुके हैं। मगर हर बार आमसहमति न बनने के कारण इस मामले पर फैसला नही हो पाता था। खासकर रक्षा मंत्रालय के ऐतराज के चलते गृहमंत्रालय इस मुददे पर फैसला करने में असमर्थ रहा। सश्स्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 में अस्तित्व में आया। इस कानून में सुरक्षा बलों को आतंकवादियों से निपटने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं। मसलन वह बिना वारंट के सर्च कर सकतें है। किसी भी गिरफतारी की जा सकती है। पूछताछ की जा सकती है यहां तक की संदेह की स्थिति में गोली मारने तक का प्रावधान है। मगर उनके उपर मुकदमा या कारवाई बिना केन्द्र सरकार की अनुमति से नही हो सकती। इसी के चलते इस कानून का जम्मू कश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों खासकर मणिपुर में लम्बें समय से प्रबल विरोध हो रहा है। मगर इस कानून के रहने या न रहने पर राय बंटी हुई है। सेना जहां इसके पक्ष मंे है, वहीं मानवाधिकार संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता इसे काले कानून की संज्ञा देते हुए इसे तत्काल हटाने के लिए संघर्षरत है। उनके मुताबिक यह लोगों को मारने के एक तरह से वैध लाइसेंस है जबकि सेना का कहना है इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए उसे इस तरह के अभेद्य कवच की आवश्यकता है। इन सब के बीच कुछ ज्वलंत सवालों का जवाब तलाशना जरूरी है। क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे कानून जो सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देतें हों को जायज ठहराया जा सकता है? क्या वाकई एएफएसपीए के बिना मणिपुर और दूसरे राज्यों में उग्रवाद का सामना नही किया जा सकता? कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई जस्टिस जीवन रेड्डी समिति की सिफारिशों का क्या हुआ? इस कानून की समीक्षा कर इसे और मानवीय नही बनाया जा सकता जैसा की 2006 के असम दौरे में प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी। सवाल उठता है कि कानून लागू होने की आधी सदी के बाद भी पूर्वोत्तर में आतंकवादी समस्याओं का समाधान क्यों नही हो पा रहा है? क्या मणिपुर की तकलीफ, रेड्डी समिति की सिफारिश और इरोम शर्मिला के अनशन की अनदेखी की जा सकती है? इरोम चानू शर्मिला नवंबर 2000 से भूख हड़ताल में हैं। 2004 के उस मंजर को कौन भूल सकता है जब इस कानून के विरोध में मणिपुर के कांगला किले में महिलाओं ने नग्न प्रर्दशन किया था जिसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत हुई। खासकर मणिपुर में इस कानून का भारी विरोध होता राह है। वहां की जनता इसे काले कानून की संज्ञा देती है। इस कानून के तहत राज्यपाल को किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करना पड़ता है। उसके बाद वहां अर्धसैनिक बलों की तैनाती की जाती है। यह पूरा मामला 2004 में तब सूर्खियों में आया  जब असम राइफल्स के जवानों के उपर मनोरमा देवी के बलात्कार और हत्या का आरोप लगा। इसी के बाद जस्टीस जीवन रेड्डी समिति का गठन किया जिसके रिपोर्ट गृह मंत्रालय के पास मौजूद है। मगर भारतीय सेना नही चाहती कि इसे हटाया जाए। क्योंकि कई बार केन्द्रीय बलों को असम, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड, और अरूणांचल प्रदेश के कुछ इलाकों में आतंकवादियों के खिलाफ आपरेशन चलाए जाने के लिए उन्हें सीनियर पुलिस अधिकारियों का मुख देखना पडेगा। इन सबके बीच ज्वलंट सवाल कई हैं। क्या वाकई एएफएसपीए के बिना मणिपुर और दूसरे राज्यों में उग्रवाद का सामना नही किया जा सकता? कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई जस्टिस जीवन रेडडी कमीटि का क्या हुआ? क्या इसे कुछ और  मानवीय नही बनाया जा सकता जैसा की नवंबर 2006 में असम दौरे के दौरान प्रधानमंत्री ने कही। जीवन रेडडी कमिटि ने कहा है कि अनलाफुल एक्टिविटी प्रिवेंशन एक्ट में कुछ बदलाव कर इसे एएफएसपीए के बदले लागू किया जा सकता है। अर्धसैनिक बलों को मुकदमें में छूट का प्रावधान इसी मेें जोडा जा सकता है। मगर सेना की दलील को भी दरकिनार नही किया जा सकता। खासकर अगर कानून हटाया गया तो इससे सेना के मनोबल पर क्या असर पड़ेगा। सेना को बिना आवश्यक कानूनी संरक्षण संरक्षण के बिना उग्रवाद प्रभावित इलाकों में काम करना मुश्किल होगा। मगर जब पोटा जैसे कानून को रदद किया जा सकता है तो एएफएसपीए जैसे कानून केा बनाये रखने का क्या औचित्य? सवाल कई और भी हैं। कि कानून लागू होने की आधी सदी के बाद भी पूर्वोत्तर में आतंकवादी समस्याओं का समाधान क्यों नही हो पा रहा है? क्या मणिपुर की तकलीफ, रेडडी कमिटि की सिफारिश  और शर्मिला के अनशन की अनदेखी की जा सकती है? कानून लोगों की सुरक्षा के लिए बनाया जाता है। अगर लोग ही इसे संदेह की निगाह से देखते हों तो जरूरी है इसमें बदलाव के लिए गंभीरता से विचार करना चाहिए।

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

स्वच्छ भारत, सुखी भारत

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत तो  कर दी है। मगर 2019 तक हम इस लक्ष्य को पूरा कर पाऐंगे इसको लेकर आशंका प्रबल हो  रही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस अभियान में जिस तरह लोगों को जोड़ा उसे बदलाव की दिशा में देखा तो जा रहा है मगर समय कम है और काम ज्यादा। अभी हाल ही में मुझे प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी जाने का मौका मिला। प्रधानमंत्री क्योटो
की तर्ज पर काशी को बनाना चाहते हैं मगर वहां के हालात देखकर मेरी चिन्ता स्वाभाविक थी। खासकर गंगा किनारे बने घाटों को देखकर एक साफ सुथरे भारत को देखने की मेरी कल्पना को मानो कपोल साबित हो रही हो। मगर हालात में जो बदलाव आया है उससे यह विश्वास भी जगा है कि कहीं से तो शुरूआत करनी होगी। वह शुरूआत हो चुकी है। जिम्मेदारी जवाबदेही इस बार सरकार या नगरपालिका की नही, बल्कि हमारी है। वैसे भी साफ सुथरा रहना किसकों पसन्द नही। गंदगी से निजात हर कोई पाना चाहता है। मगर भारत में स्वच्छता ज्यादातर आवाम के लिए दूर की कौड़ी है। कारण भी साफ है, जागरूकता और सुविधाओं का आभाव। इसी के चलते पांच में से 1 बच्चा अपनी जान गवा रह है। 10 में से 5 बडी जान लेवा बीमारी आस पास की गंदगी की देन है।  उल्टी दस्त, पीलिया, मलेरिया डेंगू और पेट में कीड़े की बीमारी रोजाना हजारों मासूमों की आखों को हमेशा के लिए बन्द कर देती है। अकेले डायरिया हजारें बच्चों को मौंत की नींद सुला रहा है। इनमें से एक तिहाई अभागों को इलाज़ तक नही मिल पाता। यह उस देश की कहानी है जो अपनी आर्थिक तरक्की में इतराता नही थकता। जहां विकास दर , सेंसेक्स और  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को विकास का शिल्पी माना जाता है। जहां देश की आधी आबादी को समान अधिकार देने की गाहे बगाहे आवाज़ सुनाई देती है। जहां  55 फीसदी महिलाऐं खुले में शौच जाने को मजबूर है। वहां साफ सफाई की महत्वता को केवल सरकार की योजना के भरोसे नही छोड़ा जा सकता। 1986 में सरकार ने केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता अभियान के सहारे इस बदनुमा दाग को धोने की शुरूआत  जरूर की। मगर हमेशा की ही तरह योजना भी अधूरे में ही दम तोडती दिखाई दी। तब जाकर 1999 में सरकार ने सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का नारा छेडा। अभियान के तहत सरकार शौचालय बनाने के लिए सरकार सब्सिडी दे रही है। इसके बाद 2013 में इसे निर्मल भारत नाम दे दिया गया। मगर लक्ष्य के मुताबिक नतीजे नही मिल रहें। पहली सरकार ने 2012 का लक्ष्य रखा मगर पूरा नही कर पाई। अब मंजिल 2019 में पानी है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहलेके मुकाबले इस बार विश्वास और अपेक्षा ज्यादा है। सही मायने में  सवा सौ करोड़ भारतीय की परीक्षा है कि उन्हें अपने देश के प्रधानमंत्री के वचन को सुफल बनाना है।

रविवार, 16 नवंबर 2014

जी 20 सम्मेलन


जी 20 सम्मेलन 18 और 19 तारीक को मक्सीकों के
अन्तर्राष्टीय सहयोग का प्रसिद्ध फोरम
इसके तहत 19 सदस्य देश और यूरोपीय यूनियन है।
90 फीसदी जीडीपी का
80 फीसदी अन्तराष्टीय व्यापार
 दो तिहाई विश्व की जनसंख्या इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस फोरम की महत्वत्ता क्या है।

बैठक का एजेंडा
वैश्विक अर्थव्यवस्था को किस तरह से सुधारा जाए और आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाया जाए।
यूरो कैसे डालेगा विश्व अर्थव्यवस्था को मुश्किल में
विश्व जीडीपी में इन देशें की भागीदारी मतलब ईयू की 26 फीसदी है।
और यूरोजोन की 19.4 फीसदी
ग्लोबल इक्वीटी मार्केट टर्नओवर में 10 फीसदी हिस्सा
ग्लोबल रिजर्व होल्ंिडग में 26 फीसदी हिस्सा।

विकास और रोजगार बढ़ाने पर रहेगा जोर
ग्रोथ कैसे सस्टेन हो।
विश्व के दिग्गजों की मुलाकात एक ऐसे समय में हो रही है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में गिरावट देखने
को मिल रही है। यूरोजोन और वैश्विक अर्थव्यवस्था के मद्देनजर यह बैठक महत्वपूर्ण होने जा रही है।

मुश्किल में यूरोप
यूरोन डाल रहा है सबकेा मुश्किल में। यूरोप इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में उसका
अपना बड़ा अंश है। भारत के लिहाज से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत का बड़ा व्यापार और
निवेश का साझीदार है। इसलिए यहां उपजी दिक्कतों के चलते भारत की वृद्धि दर प्रभावित हो रही है।

प्रधानमंत्री ने मैक्सिकों में जाने से पहले क्या कहा
इस फोरम के सामान वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने की चनौतियेां से निपटने की रणनीति तैयार करना होगा।
फ्रेमवर्क एक मजबूत टिकाउ और संतुलित विकास के लिए जो रूपरेखा तैयार की जा रही है उसको भारत को चेयर कर रहा है।
प्रधानमंत्री  ने कहा कि उनका जोर विकास के र्मोचें पर आगे बढ़ने और मांग में बढोत्तरी के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश करने पर
जोर देना होगा।

यूरो क्राइसेस
1999 में यूरो लांच हुआ
ग्रीस आयरलैंड पुर्तगाल स्पेन और हाल में में इटली ।
सोवरेन डैट की रेटिंग डाउनग्रेड कर दी, जिसके चलते डिफाल्टर होने का भय, और कर्ज में भारी बढोत्तरी।
यह क्राइसेस केवल सोवरेन डैट और बैकिंग फाइनेंशियल तक सीमित नही है बल्कि इसकी जड़े कही ंऔर है यानि स्टैक्चलन प्रोबलम से जुड़ा
 हुआ मुददा है।

भारत और यूरोप
भारत के निर्यात का हिस्सा 20.2 फीसदी
आयात का हिस्सा 13.3 फीसदी
द्धिपक्षिय व्यापार 2006-10 तक 9.6 फीसदी
एफडीआई की बात करें 3 बिलियन एफडीआई ईयू से आई औश्र .6 बिलियन यहां से गई।

चीन और यूरोप

अमेरिका और यूरोप
अमेरिका के सबसे ज्यादा आर्थिक हित यहां लगें है। अमेरिका के बैंक के 600 बिलियन डालर यहां लगे है।
सबसे बड़ा टेडिंग पाटर्नर और निवेश के लिए मुफीद जगह।

सोवरेन डेट क्या होता है
जब कोई सरकार विदेशी मुद्रा में बांड इश्यू करती है ताकि देश की आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखने के लिए वित्त की व्यवस्था की जा सके।
विकासशीन देशों के सोवरेन डैट को रिस्क्यिर माना जाता है जबकि विकसित देश के डैट को सेफ।
सरकार की स्थिरत इस में बहुत बढ़ा रोल अदा करती है।
सोवरेट के्रडिंट ऐजेंसी के माध्यम से आप इसकी स्थिति का पता लगा सकते है।

आरबीई की तिमाहिक मौद्रिक नीति
ब्याज़ दरों में कोई बदलाव नही। निराशा खासकर वर्तमान माहौल में।
रेट ने घटाने के पीछे क्या कारण है। महंगाई