रविवार, 11 मई 2008

हम हेांगे कामयाब

महिला आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया हैंं। फिर से इसके पास हाने की उम्मीेदो ंका सपना महिलाऐं संजोेने लगी है। आखिर हो भी क्यों न, बारह साल से तो वो सिर्फ इंतजार ही कर रही है। सडक से लेकर संसद तक इस दौरान खूब प्रदशZन हुए। शायद इसी दबाव में चलते सरकार ने बीती 6 तारीख को इस विधेयक को भारी हंगामें के बावजूद आनन फानन में राज्य सभा में पेेश कर दिया। फिलहाल मामला अब विधि मंत्रालय से संबंधित स्थाई समिति के समक्ष है। इन सब के बीच विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे है। आरजेडी सपा और जेेडीयू को बिल के मौजूदा स्वरूप से कडा ऐतराज है। उनकी माने तो इसका फायदा केवल एक खास वर्ग को ही मिल पायेगा। लिहाजा इस कोटे के ही भीतर पिछडी और मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान हो। इसके पीछे उनका तर्क सामाजिक न्याय की मूल अवधारणाओ को जीवित रखना है। पिछले 12 सालों में चार सरकारों के समक्ष आमसहमति बनाने का राजनीतिक डामा होता रहा। अब भी कुछ नया होता नही दिखाई दे रहा है। महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले देवगौडा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में 12 सितंबर 1996 में रखा गया। उसके बाद एनडीए सरकार के दौरान भी इसे पास कराने के तीन प्रयास भी 1999, 2002 और 2003 में किये गये मगर नतीजा सिफर रहा।अब यह मामला एक बार फिर सूिर्खयों में है। हर राजनीतिक दल अपनी ाव को मान लेते कि रांजनीतिक पार्टियॉं स्वयं यह सुनििश्चत करें कि वह टिकट वितरण के समय 33 फीसदी टिकट महिलाओं केा दे।तो समस्या का समाधान हो जाता। मगर यहॉं तेा कथनी और करनी में धरती आसमान का फर्क है। आज समाज से महिलाओं से जुडी कई ज्वलन्त समस्याऐं है। राष्टीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों 2006 के आंकडे डराने वाले है। आंकडो के मुताबिक अकेले बलात्कार की घटनाओें में 1971 के मुकाबले आज 678 प्रतिशत बो ंलाचार है औरत, जरूरत पडे तो तलवार है औरत। मॉं है बहन है पित्न ह,ै हर जिम्मेदारी के लिए तैयार है औरत।

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