मंगलवार, 8 दिसंबर 2009
इस देश में कितने गरीब है?
गरीबी हटाओं का नारा इस देश में नया नही है। बहस इस बात पर हो सकती है कि राजनीति में इस मुददे की वैलीडीटि रह गयी है या नही। इतना ही नही गरीबी हटाओं योजनाओं का तो अंबार है। मगर इतने सालों में न तो गरीबी हटी न ही गरीब कम हुए। हां एक वर्ग की कमाई में खास इजाफा हुआ। आजादी के 62 सालों बाद इस सवाल का ही जवाब नही ढूंढ पाये। कि सही मायने में इस देश में कितने गरीब है। कभी कभी तो मेरा भी माथा ठनक जाता है। । दरअसल दिन रात हमारा पाला इन्ही योजनाओं से पड़ता है। कितना पैसा मिला, कितना खर्च हुआ। क्या कमियां है। इन सब के अंकगणित में हमारा ज्यादा समय बितता है। मगर यह समझ से परे है कि इतनी योजनाओ के बाद भी आज बडी आबादी दो जून की रोटी के लिए संघशZ क्यों करती नजर आ रही है। अर्जुन सेना गुप्ता की रिपोर्ट कहती है कि 77 फीसदी आबादी की हैसियत प्रतिदिन 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। एन सी सक्सेना कमिटि कहती है 50 फीसदी लोग गरीबी के दायरे के नीचे आते है। एनएसएसओ का सर्वे कहता है कि 27 करोड 50 लाख लोग ही गरीब है। तेंदुलकर कमिटि का अध्यन है कि 38 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही है। सबसे विचित्र बात यह है कि यह सारी कमेटियां सरकार की ही है। मगर सबके सुर अलग अलग है। मगर इतनी तो समझ आप हम भी रखते है कि गरीबों की तादाद 27 करोड़ से उपर है। इतना ही नही वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने बजट भाशण के दौरान जोर शोर से ऐलान कर दिया कि 2014 तक हमारे देश में गरीबों का संख्या मौजूदा संख्या से आधी यानी 14 करोड से भी नीचे आ जायेगी। मगर गप्रणव बाबू को क्या मालूम था कि यह कमेटिया उनकी सरकार के इनक्लूसिव ग्रोथ की हवा निकाल देंगी। अब हो यह रहा है हर कोई सरकार से एक ही सवाल पूछ रहा है कि श्रीमान यह तो बताइये कि इस देश में गरीब कितने है। यह सब भी तब हो रहा है, जब सरकार घर बनाने से लेकर पीने का पानी मुहैया कराने, बिजली पहुंचाने से लेकर सस्ता राशन उपलब्ध कराने के लिए, पैस पानी की तरह बहा रही है। योजना आयोग के मुताबिक एक रूपया गरीब तक पहुंचाने के लिए सरकार को 3 रूपये 65 पैसे खर्च करने पड़ते है। इन सब के बावजूद हालात इस तरह है क्यों है तो जवाब केन्द्र के पास रटा रटाया ही रहता है। हमारा काम है योजना बनाकर राज्यों को आार्थक सहायता उपलब्ध कराना। राज्य कामयाब नही तो हम क्या करें। दुर्भाग्य देखिए की 62 साल बात बहस इस बात पर चल रही है कि गरीब कौन है कौन नही । दरअसल गरीबी तय करने का फार्मूला योजना आयेगा ने बनाया था। जो 1993 94 को अधार पर तय किया गया थ। इसका आज के हालात से लेना देना नही है। अब कहा जा रहा है कि इस पर विचार चल रहा है की नया फार्मूला क्या हो। इधर राज्य सरकारों की बेचैनी का क्या हो। उनके मुताबिक केन्द्र सरकार हमारे गरीब को गरीब नही मान रही है। उदाहरण के तौर पर बिहार सरकार कहती है कि उनके राज्य में गरीब 1.5 करोड़ है, मगर केन्द्र सरकार महज 65 लाख का गरीब मानती है। तमिलनाडू सरकार ने तो सबको बीपीएल कार्ड जारी कर रखे है। इससे उन्हें कोई मतलब नही की केन्द्र किनको गरीब मानता है। ऐसा ही कहना ता कुछ और राज्य सरकारों का भी है। मगर इस बहस में कोई नही पड़ता चाहता कि इस देश में जो गरीब नही है उन्हे गरीबी रेखा के नीचे दिखाने के अपराध के लिए कौन जिम्मेदार है। 1.5 करोड़ फर्जी बीपीएल कार्ड निरस्त किये गए उसके लिए कौन जिम्मेदार है। दिल्ली में अकेली एक महिला के नाम पर 900 से ज्यादा राशन कार्ड जारी किये गए थे इसका जिम्मेदार कौन है। कब वो दिन आयेगा जब हमारे देश में जिम्मेदारी तय होगी। क्या इन दोशियों को कानून के तहत सजा नही मिलनी थी। इतना ही नही अभी तो हमें यह भी नही मालूम कि कितने और करोड़ की तादाद में फर्जी राशन कार्ड इस व्यवस्था में मौजूद है। उनकी तो बात करना छोडिये जो जरूरत मंद है मगर उनके पास यह साबित करने का सर्टीफिकेट नही है कि वो गरीब है। अगर अब भी आंख नही खुली यह सिलसिला निरन्तर चलते रहेगा और हम संसद से सड़क तक एक ऐसी बहस पर पडे होगे जिसमें तकोZ का तो अंबार होगा मगर बीमारी की सही इलाज नही। बीमारी भी ऐसा जिसका का कारण और निवारण दोनो से हम भली भांति परिचित है। मगर इस ओर कोई ध्यान नही दे रहा है। शायद कोई इस व्यवस्था में मौजूद कैंसर का इलाज करना नही चाहता। अखिर बदलेंगे कैसे। हमाम में सभी जो नंगे है। विदेशी बैंको में हमारा खरबों का धन रखा पडा है। मगर उसे लाने को लेकर जुबानी बहस के अलावा क्या हुआ। प्रधानमंत्री बडी मछलीयों को पकडने की बात कहते है। मगर जब उनके अपने मंत्री पर भ्रश्टाचार के आरोप लगते है तो वह उसे तथ्यहीन कह देते है। आज मधु कोडा का चर्चा हर आमो खास में है। मगर यह कोई नही सोच रहा है कि इस कोडा के पीछे कितने राजनीतिक कोडाओं का हाथ होगा, क्या इसपर से पर्दा उठ पायेगा। दरअसल इस देश में इतने कोड़ा है जिन्हे पकडने की फिक्र आज किसी को नही है। राजनेताओं में पोलिटिकल विल की कमी इसका सबसे बडा कारण है। कोई बदलना नही चाहता। वरना ऐसा नही कि यहां बदला नही जा सकता। सब कुछ संभव है, मगर राजनीतिक लोक कुछ करना चाहते ही नही। डरते है, कही किसी मोड पर आकर उनका भी पर्दाफाश न हो जाये।
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