गुरुवार, 7 जनवरी 2010
न्यायिक सुधार
न्यायिक सुधार की बहस बरसों पुरानी है मगर अभी तक हस ओर कुछ नही हुआ। लंबित मामलों का अंबार। इंसाफ पाने के लिए टकटकी लगाए सालों तक इंतजार करना पडता है। रूचिका जैसे मामले व्यवस्था को बदलने की कितनी जरूरत इस ओर साफ इशारा करते है। मगर काम तो सरकारों को करना है। अहम सवाल यह कि लम्बी बहस और माथापच्ची के बाद क्या वाकई हम सुधारों की ओर आगे बड़ पायेंगे। इस संदर्भ में विधि और कानून मंत्री विरप्पा मोईली का बयान थोडी राहत पहुंचाने वाला है। न्यायाधीश मानक और जवाबदेही विधेयक का खाका तैयार हो चुका है। माना जा रहा है कि कैबीनेट की हरी झंडी मिलने के बाद बजट सत्र में पेश किया जाएगा। यह विधयेक 1968 के न्यायाधीश जांच विधेयक के जगह लेगा। इस विधेयक के मुताबिक आयोग्य व्यक्ति जज नही बन पायेगा, जवाबदेही सुनििश्चत की जायेगी। खास बात यह है कि इसमें हटाने या सजा देने का बंदोबस्त भी किया गया है। आप सभी जानते है कि इस देश में जजों को हटाने की कार्यवाही बडी जटील है जिसे हम महाभियोग नाम से जानते है । 1991 में वी रामास्वामी के खिलाफ पहली बार इसका इस्तेमाल किया गया, मगर जरूरी समर्थन के अभाव में यह अंजाम तक नही पहुंच पाया। हाल फिलहाल में सौमित्र सेन और पीडी दिनाकरन मामले ने इस सुधार को और आवश्यक बना दिया है। भारत में नायाब चीज यह है कि यहां जज का चुनाव कोलिजियम प्रणाजी के तहज जज ही करते है। जिसे अब बदलने की बात कही जा रही है। लंबित पडे मुकदमों को भी सरकार जल्द निपटाना चाहती है। सरकार की माने तो 2014 तक एक साल से पुराने मामलों सिर्फ 1 प्रतिशत रह जाऐंगे। इसके लिए सरकार 15 हजार जजों को ठेका पद्धति के तहत नियुक्त करेगी। इन्हे 2 साल में तीन शिफटों में काम करना होगा। साथ ही सालाना तौर पर इन्हे 2500 मुकदमों का निपटारा करना होगा। आज निचली अदालतों 27203185 मुकदमे, हाई कोर्ट में 4045177 मामले और सुप्रीम कोर्ट में 53680 मामले लंबित पडे है। देश में 1 सुप्रीम कोर्ट, 21 हाइकोर्ट और 3150 जिला अदालतें है। इसके अलावा फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या 1237 है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कह चुके है कि देश में 35000 निचली अदालतों की जरूरत है जबकि अभी 16000 है जिनमें से 14000 सिर्फ काम कर रही है। यानि 21000 अभी और बनानी है। आज ग्राम न्यायालय कानून 2008 अस्तित्व में आ चुका है। जिसके तहत 5067 ग्राम न्यायालय स्थापित किये जाऐंगी। सरकार इस पर 1400 करोड़ रूपये खर्च करेगी। लंबीत मुकदमो की करोडों की संख्या की एक वजह सरकारी उदासीनता भी रही है। 10वीं पंचवशीZय योजना में 700 करोड़ आवंटित किये थे। जिसे ग्यारवीं पंचवशीZय योजना में बढाकर 1470 करोड़ रूपये कर दिया गया है। यानि 9वीं पंचवशीZय योजना में बजट का .071 प्रतिशत, 10वीं में .078 प्रतिशत और ग्यारवीं में थोड़ बड़ा दिया गया। मगर यह राशि सस्ता सुलफ और जल्द न्याय देने के सिद्धान्त पर एक तमाचा था। आप इसे ऐसे भी समझ सकते है। लोकसभा और राज्य विधानसभाऐं कानून पर कानून बनाते गए। मगर इसका न्यायपालिका के मौजूदा ढांचे पर क्या असर पडेगा, इसकों जानने की कोशिश कभी नही की गई। आज जेलों के हाल भी बेहाल है। क्षमता से ज्यादा कैदियों को रखा जा रहा है। महज 30 फीसदी लोग ऐसे है जिन्हें सजा सुनाई गई है। भारत में जज जनसंख्या अनुपात दुनिया में सबसे ज्यादा कम है। भारत में 10 लाख में 1 जज है जबकि अमेरीका और ब्रिटेन में यह संख्या 150 के करीब है। विधि आयोग अपनी 120वीं रिपोर्ट में इस संख्या को 10 से बढकार 50 करने की सिफारिश कर चुका है। मगर जहां, मौजूदा रिक्त पडे पद ही नही भरे गए हों वहां नयी नियुक्तियों की उम्मीद बेमानी सी लगती है। बस हम आशा कर सकते है कि 2010 में न्यायिक सुधारों केा अमलीजामा पहनाया जाए।
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