सिब्सडी सुधार
सिब्सडी सुधार पर माथापच्ची जोरों पर है।। सरकार इस पर आगे बड़ना चाहती है मगर इस बेदर्द राजनीति का क्या करे हमेशा आडे आ जाती है। बजट में तेल के दाम बडाने का ऐलान क्या किया विपक्षी दलों के साथ साथ सहयोगी भी हाथ धोकर पीछे पड गये। अब लगता है प्रणव मुखर्जी को ना चाहते हुए भी इस पर कुछ बीच का रास्ता निकालना पडेगा। मगर अहम सवाल यह की सुधार होना चाहिए या नही। अर्थशास्त्र के धुरंधरों का तो यही कहना है की इस मसले पर सरकार को ठोस कदम लेना होगा। इस समय सरकार खाघ, फर्टीलाइजर और तेल पर सिब्सडी दे रही है। 2010 -11 के लिए सरकार ने इन मदों में मसलन फर्टीलाइजर के लिए 49981करोड़ का, खाघ सिब्सडी 55578 करोड़ का प्रावधान किया है। सिब्सडी सुधार पर कई समितियां सरकार को सिफारिशें दे चुकी है। इनमें प्रमुख है
लहरी समिति 2004
रंगराजन समिति 2006
बीके चतुZवेदी समिति 2008
और किरीट पारीख समिति 2009
इसके अलावा योजना आयोग ने एकीकृत उर्जा नीति नीर्धारण के लिए एक विशेशज्ञ समिति बनाई । प्रधानमन्त्री की आर्थिक सलाहाकार परीशद ने भी समय समय पर सरकार को सुधार की राह में आगे बडने की सलाह दी। मगर राजनीतिक मजबूरियों के चलते सरकार कोई भी कदम उठाने से बचती रही। मगर बजटवाणी में सुधार को लेकर संकेत दिये गये है। जहां 2009-10 में सरकार का सिब्सडी बिल 123936 करोड़ पहुंच गया वही इस वशZ के लिए इसे घटाकर 108667 करोड़ कर दिया गया है, जो सकल घरेलू उत्पाद का 1.6 फीसदी के आसपास है। आगे चलकर इस खर्च को 2011-12 में जीडीपी के 1.5फीसदी करने और 2012-13 में 1.3 फीसदी करने का अनुमान है।
इस पर अमल करने की दिशा में भी सरकार ने कदम बडा लिया है। बजट पेश होते ही देश भर में तेल की कीमतें बड़ चुकी है। मगर विचार इस बात में किया जाना चाहिए की क्या सिर्फ इन्ही सिब्सडी के चलते सरकार का घाटा बड़ रहा है। सिब्सडी सुधार के पीछे सबसे बडी वजह यह है कि यह मकसद को पाने से कोसों दूर है। मतलब साफ है जरूरतमन्दों तक यह नही पहुंच पाती । मसलन सार्वजनिक वितरण प्रणाली का राशन 52 फीसदी बाजार में कालाबजारी के लिए चला जाता है। पर्वोत्तर राज्यों में तो और अंधेर नगरी है। यहां 90 प्रतिशत तक सरकारी राशन खुले बाजार में बिक जाता है। ऐसा ही कुछ हाल यूरिया, एमओपी और डीऐपी का है। किसान की समस्या यह है कि उसे न तो यह समय से मिलता है और न ही पर्याप्त मात्रा में। मगर नेपाल और बंग्लादेश में इसकी तस्करी जोरों पर है। हाल ही में कैबिनेट ने यूरिया के दाम 10 फीसदी बड़ाने और एमओपी और डीऐपी के दाम बाजार भाव में तय करने को हरी झण्डी दे दी है। हमारे देश में फर्टीलाइजर की औसत खपत 117.07 किलो प्रति हेक्टेयर है जो चीन 289.10, ईजीप्ट 555.10 और बंग्लादेश 197.6 किलों प्रति हेक्टेयर है। यानि हमारी प्रति हेक्टेयर खपत बंग्लादे‘ा से भी कम है। एक अनुमान के मुताबिक 2001-02 से लेकर 2007-08 के बीच हमारा फसलों का उत्पादन 8.37 फीसदी बड़ा, उत्पादकता 6.92 फीसदी मगर सिब्सडी का बिल 214 फीसदी तक बड़ गया । इसके पीछे सबसे बडा कारण विदेशी बाजार में तेल के आसमान चडते दाम है जो जुलाई 2008 में 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए। अब बची तेल की बात तो यहां भी सरकार पसोपेश में है। सवाल उठ रहा है कि लाखों कमाने वाले और महंगी कार में घूमने वालों को रियायत क्यों। बात में दम तो है। इसीलिए पारिख समिति ने तेल और डीजल के दाम को बाजार को तय किये जाने का अधिकार देने , केरोसीन के दाम 6 रूपये प्रति लीटर बडा़ने और घरेलू गैस के दाम 100 रूपये तक बड़ाने की सिफारिश की है। मगर लगता नही सरकार इन सिफारिशों को जमीन में उतार पायेगी।
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
बजटवाणी भाग 2
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