रविवार, 11 अप्रैल 2010
मार गई महंगाई
ऐसा लगता है महंगाई अब कम हो जायेगी। क्योंकि इस बार सरकार ने एक नही दो नही तीन तीन कमेटियॉं गठित कर दी है। बस तो समझ लो महंगाई हो जायेगी छू मन्तर । ऐसा नही है इससे पहले कदम नही उठाये गए। इस देश का सबसे बड दुर्भाब्य यही है कि यहां हर बीमारी के समितियों के चश्में से देखा जाता है। इसका मतलब यह नही की मैं कमेटी कमेटी का खेल खेलने के सख्त खिलाफ हंू। मालूम है की राजनीति में मामले को लटकाये रखने का यह बेहतरीन टॉनिका है। मगर महंगाई रोकने के लिए क्या किसी समिति की वाकई जरूरत है। जब बीमारी और इलाज दोनो का पता है तो यह नौटंकी नही तो और क्या है। सबको मालूम है कि महंगाई बडने के पीछे की वजह क्या होती है। अगर मांग और आपूर्ति में अन्तर है तो पैदावार बडाओ। माल डंप करने वालों को जेल में डालों । सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुडे तन्त्र को चुस्त दुरूस्त करों। आवश्यक वस्तु अधिनियम के साथ साथ कालाबजारी के काम को रोकने से जुडे कानून का बेहतर क्रियान्यवन करो। बजाय इसके समितियों का खेल शुरू कर दिया है। किसान को समय से बीज, पानी ,ऋण वो भी सस्ती ब्याज.दर में और बेहतर समर्थन मूल्य दो। अनाज के रखरखाव को उचित व्यवस्था करो। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं उत्पादन के लिहाज से भारत का किसान इस मुल्क आत्मनिर्भर बना सकता है। यह महज अनुमान नही है, पहली हरित क्रान्ति में उसने इस बात को साबित किया है। बस उस पर विश्वास जताना होगा। कुप्रबंधन की काले दाग को छुपाने के लिए समितियों का खेल उस आबादी के साथ भददा मजाक है जो महंगाई की मार से त्रस्त है। सरकार ने अबतक नही माना कि महंगाई बडने की एक बडी वजह सरकारी कुप्रबंधन भी है। मगर लगता है सरकारों को गेन्द एक दूसरे के पाले में डालने में मजा आता है। महंगाई क्यो बडी। मानसून ने दगा दे दिया। गरीब की थाली का भार थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकडों से तोला जाता है। उसके बाद आंकडेबाजी का गन्दा खेल जिसे जनता का कोई लेना देना नही। इस देश की परिस्थितियों से सख्ती से निपटने की आदद नही है। हालात बिगडने के बाद में विधवा अलाप करने में यहां सरकारें माहिर है। मगर सवाल यह ऐस कबतक चलेगा। इस अध्याय का समापन्न कभी तो होना चाहिए।
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