रविवार, 16 जनवरी 2011
महंगाई डायन खाए जात है (भाग 3)
महंगाई पुराण में हर रोज कुछ नया हो रहा है। अब कृषि मंत्री शरद पवार ने साफ कर दिया है कि महंगाई का दोष उनके मंत्रालय के मथ्थे नही मड़ा जा सकता । महंगाई रोकने की जिम्मेदारी सामूहिक है। वैसे देखा जाए तो बात कुछ गलत भी नही है। शरद पवार को अकेले कैसे बलि का बकरा बनाया जा सकता है। सवाल तो बाकि मंत्रालय से भी पूछे जाने चाहिए जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में महंगाई रोकने के लिए जिम्मेदार हैं। सवाल राज्यों से भी पूछे जाने चाहिए। मगर पूछेगा कौन। केन्द्र राज्यों के पाले में गेंद डाल रहा है तो राज्य सरकारें अपनी मजबूरी का रोना रो रही हैं। ऐसे में सिर्फ जनमानस को ही सरकारों को राह दिखानी होगी। मैं कुछ सीधे सवाल सरकार और विपक्ष से पूछना चाहता हूं । क्या सरकार ने या किसी राजनीतिक दल ने यह कहने की हिम्मत दिखाई कि मैं प्याज का तब तक सेवन नही करूंगा जब तक की आम आदमी तक इसकी दुबारा पहुंच न हो जाए। क्या सरकार के भीतर यह कहने का माद्दा है की दाम बड़ने के पीछे बहुत हद तक कुप्रबंधन जिम्मेदार है। क्यों नही घोषणा की जाती की शरद पवार से खाद्य मंत्रालय वापस लिया जाएगा क्योंकि वह इस मंत्रालय को संभालने में नाकामयाब रहे हैं। याद करिये वह दिन जब हमारे देश में अनाज की भारी कमी हो गई थी। लाल बहादुर शास्त्री की हफते में एक दिन उपवास रखने की अपील को जनमानस ने सहज क्यों स्वीकार किया? दरअसल लोगों को उनपर विश्वास था। देश ने इसे एक राष्ट्रीय चुनौति के तौर पर लिया और इससे बाहर निकलने का संकल्प लिया। मगर क्या आज कोई नेता या राजनीतिक दल ऐसा कहने का माद्दा दिखा सकता है। नही क्योंकि जनता जानती है कि केवल अनाज की कमी इसका कारण नही है। मामला कुछ और भी है। जनता जानती है की चन्द लोगों के लालच का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। कहते है अवसर ईमान का दुश्मन होता है और आज इन्ही अवसरों जमाखोरों और कालाबाजारियों की एक लम्बी फौज खड़ी कर दी है। दुख तो तब होता है जब नेताओं का खुला संरक्षण इन्हें प्राप्त होता है।अगर प्याज 100 रूपये किलो भी हो जाए तो इनकी सेहन में क्या फर्क पड़ता है। अगर दाल 500 रूपये भी हो जाए तो इन्हें कहां इसकी परवाह है। असर तो गरीब की थाली पर होता है जो दिन में कुआं खोदकर रात को दो वक्त की रोटी जुटा पाता है। इतिश्री महंगाई पुराणों तृतीयों अध्यायो समाप्तः
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