संसद का मानसून सत्र 1 अगस्त से 7 सितंबर तक चलेगा। ऐसा कम ही मौकों में देखने को मिलता है कि मानसून सत्र की शुरूआत अगस्त में हो। वह भी तब जब इस मानसून सत्र का इंतजार बेसब्री से हो रहा हो। बहरहाल सरकार इस बीच में लोकपाल विधेयक पर राजनीतिक दलों की नब्ज टटोलने की कवायद पूरा कर लेना चाहती है। मगर नागरिक समाज द्धारा उठाये गए मुददों पर उसका नजरिया समझ से परे है। मसलन संयुक्त मसौदा समिति, दो महिने में 9 बैठकों के बावजूद आम सहमति नही बना पाई। इसलिए अब अन्ना हजारे और उनके साथी सरकार की नियत पर सवाल उठा रहे हैं। दरअसल वर्तमान में आए दिन हो रहे नए- नए घोटालों के खुलासे और इसमें राजनीतिज्ञों की भूमिका ने मौजूदा माहौल में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी है। देष की जनता अपने को ठगा महसूस कर रही है। लोगों के मन में सरकार का कार्यशैली को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। सबसे बड़ सवाल क्या संसद के मानसून सत्र में लोकपाल कानून का रूप ले पायेगा। क्या राजनीतिक दल वर्तमान में आवाम में मौजूद बेचैनी को दूर करने में कामयाब रहेंगे। क्या सरकार सिविल सोसइटी की मांग के अनुरूप जन लोकपाल लाएगी। ये वह ज्वलंत प्रश्न है जिसका इंतजार भारत की आवम को है। सबसे बड़ी चुनौति इस बात की है वर्तमान में मौजूद इस निराशावादी माहौल को दूर करने की आखिरी आष देश की सर्वोच्च नीति निधार्रक संस्था के कंधों पर है। बहरहाल सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच कुछ मुददों आम राय नही बन पाई। नागरिक समाज का मसौदा कहता है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए। मगर सरकार इस पर राजी नही। जबकि 2001 में विधि मंत्रालय की स्थाई समिति प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने की सिफारिष कर चुकी है। यहां तक की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और खुद डाॅ मनमोहन सिंह लोकपाल के दायरे में आने की इच्छा व्यक्त कर चुके हैं। इसके अलावा सरकार सांसदों, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीष को भी लोकपाल के दायरे में लाने के लिए तैयार नही। लोकपाल की नियुक्ति और इसमें कितने और कौन लोग षामिल होंगे तथा लोकपाल समिति को हटाने की ताकत किसके पास होगी। इस पर भी दोनों का नजरिया अलग अलग है। सीबीआइ और सीवीसी केा लोकपाल संस्था से जोड़ने जैसे मुददों पर सरकार और नागरिक समाज अलग अलग रास्ते पर है। नागरिक समाज के प्रतिनिधियों के मुताबिक सीबीआई और सीवीसी को लेकपाल के साथ जोड़ दिया जाए। मगर सरकार ऐसा कुछ भी करने के पक्ष में नही है। अब सरकार राजनीतिक दलों के बीच आम राय बनाने की बात कह रही है। आखिर एसे जरूरी मुददों पर सरकार आमराय की बात कहकर जनता को अंधेरे में रखेगी। आखिर और कितना इंतजार इसके लिए करना होगा। वैसे पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट ही जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। पिछले तीन विधेयकों को संसद की स्थाई समिति को सौंपा गया। इसके अलावा 2002 में संविधान के कामकाज के आंकलन के लिए बनाये गय राष्ट्रीय आयोग ने भी लोकपाल के जल्द गठन की सिफारिश की थी। 2007 में गठित दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी एक मजबूत लोकपाल की वकालत की। मगर सरकार आम सहमति के नाम पर इस कानून को अब तक लटकाने में सफल रही। मगर जन्तर मन्तर में अन्ना हजारे के अनशन को मिले जनता के अपार समर्थन ने सत्ता में बैठे हुक्मरानों के नींद उड़ा दी है। इसलिए सरकार खुद भी इस मामले को लटकाने के पक्ष मे नही दिखाई देती। समग्र विकास का नारा बुलंद करने वाली मनमोहन सरकार आज चारों तरफ ओर से घोटालों से घिरी हुई है। 2जी, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्ष सोसइटी और न जाने अभी तो आने वाले समय में और कितने घोटलों से पर्दा उठेगा। देष में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए 1988 में प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट बनाया गया। मगर कितने नेता, कितने अफसर और कितने उद्योगपति आज जेल में है। यह सब जानते हुए की नेता, अफसर और उद्योगपतियों की तिकड़ी खुलेआम कैसे राष्ट्रीय संसाधनों की लूट खसूट रही है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि कानून को लागू करने वाली एजेंसिया सरकार के अधीन काम करती है। यही कारण है कि सरकार इसका इस्तेमाल हाईप्रोफाइल मामलों में राजनीतिक नफा नुकसान के हिसाब से करती है। आज 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों के मामलों में जो गिरफतारी हुई हैं वह मीडिया, जनसमुदाय के दबाव और सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के चलते हुई है। वरना इनका भी कुछ होन वाला नही था। आज देष के तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। मगर ज्यादातर लोकायुक्तों का हमने नाम तक नही सुना होगा। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया तो नौबत उनके इस्तीफा देने तक पहंुच गई। बाकी राज्यों में भी यह महज सिफारिशी संस्थान बन कर रह गए हैं। कई राज्यों में तो सालों से विधानसभा के पटल पर इसकी रिपोर्ट तक नही रखी गई। जबकि सालाना इसकी रिपोर्ट रखने का प्रावधान है। इससे सरकारों की कार्यषौली का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भ्रष्टाचार भारत के विकास में सबसे बड़ी बांधा है। आने वाले समय में हमें 10 फीसदी विकास दर का सपना दिखाया जा रहा है। 2020 में हम भारत को विकसित राष्ट के तौर पर देखने का सपना संजोये है। मगर जिसे पैमाने पर भ्रष्टाचार चल रहा है उसे देखकर यह मुमकिन नही लगता। आज देष में भ्रष्टचार से लड़ने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी महज एक सिफारिशी संस्थान बनकर रह गया है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां गंभीर मामलों में कितनी न्याय कर पाती होंगी। अगर इन संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा गया होता तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता था। इसीलिए आशंका सरकारी मसौदे का लोकपाल महज एक सिफारिशी संस्थान बनाकर न रख दे। आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सषक्त लोकपाल बनाने का ऐतिहासिक मौका संसद के पास है। अगर सियासतदान फिर भी नही समझे तो आने वाले समय में जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि जनता के सब्र का बांध अब टूट चुका है और इसकी बानगी है जन्तर मन्तर में उमड़ा जनसैलाब है।
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