बीते सप्ताह सरकार ने डीजल के दाम 3 रूपये, रसोई गैस के पचास रूपये और किरोसीन के दाम में 2 रूपये की बढ़ोत्तरी की। इसके पीछे वजह अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ते कच्चे तेल को बताया गया है। भारत सरकार अपनी जरूरत का 84 फीसदी तेल आयात बाहर से करती है। ऐसे में ग्लोबल स्तर में किसी भी तरह के बदलाव का सीधा असर हमारे देश में पड़ता है। इसी को आधार बताकर सरकार अपने कदम को जायज ठहराया है। सरकार के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम 115 रूपये प्रति डाॅलर के आसपास है। ऐसे में घरेलू दामों को बढ़ाने के अलावा उसके पास कोई चारा नही है। अच्छी बात यह है कि सरकार ने इस बार करों में कुछ कमी जरूर की है, जिसकी मांग पिछले कई महिनों से की जा रही है। मसलन कच्चे तेल में सीमा शुल्क पांच फीसदी कम कर दिया है। डीजल में सीमा शुल्क 7.5 फीसदी से घटाकर 2.5 फीसदी कर दिया गया ह,ै जबकि डीजल पर ही उत्पाद शुल्क 4.60 रूपये से घटाकर कर 2 रूपये लीटर कर दिया। सरकार के मुताबिक इससे उसे सालाना 49000 करोड़ का नुकसान होगा। तेल उत्पादों के दामों में बड़ा हिस्सा करों का होता है। उदाहरण के लिए दिल्ली को ही ले लीजिए। मार्च 2010 के पहले सप्ताह में दिल्ली में बिना शुल्क लगाए पेट्रोल की कीमत 23.02 रूपये थी। इसके उपर 3.56 फीसदी सीमा शुल्क् , 31.16 फीसदी उत्पाद शुल्क और 16.6 फीसदी वैट। यानि कुल शुल्क हुआ 51.47 प्रतिषत। इससे पेट्रोल की कीमत 23.02 से बड़कर 47.43 रूपये हो जाती है। जो दिल्ली में आज 63.37 रूपये प्रति लीटर से ज्यादा है। इसी तरह बिना कर के डीजल की कीमत दिल्ली में 24.74 रूपये थी। जैसे ही इसमें सीमा शुल्क 5.07 प्रतिषत, उत्पाद शुल्क 13.36 फीसदी और वैट या ब्रिक्री कर 11.81 प्रतिषत लगता है तो डीजल के दाम 24.74 रूपये से बड़कर 35.47 रूपये तक पहंुच जाते हैं। यानि तेल उत्पादों के महंगे होन के पीछे का एक बड़ा कारण करों की मार है। सरकार किरीट पारिख समिति के सुझाव के मुताबिक पेट्रोल के दामों को बाजार के हवाले कर चुकी है। जबकि इस समिति ने डीजल के दामों को भी बाजार के हवाले करने की सिफारिश की थी। मगर सरकार इतना बड़ा राजनीतिक जोखिम नही उठा सकती। यूपीए सरकार अपने दूसरे अवतार यानि 2009 में सत्ता में आने के बाद पेट्रोल के दाम 50 फीसदी तक बढ़ा चुकी है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 21 सालों में पेट्रोल के दाम 8 रूपये से बढ़कर 63 रूपये तक पहंुच गए हैं। आखिरी बढ़ोत्तरी जून में 5 रूपये प्रति लीटर की गई थी। शायद यह पहला मौका होगा जब एक साथ पांच रूपये की बढोत्तरी की गई। मगर यहां भी सरकार ने अपनी मजबूरी का रोना रोया। आज पड़ोसी देशों के मुकाबले सबसे ज्यादा महंगा पेट्रोल और डीजल भारत में बिकता है जबकि रसोई गैस और किरोसीन बाकी देशों के मुकाबले यहां काफी सस्ता है। इसलिए भारत सरकार अपने इश्तेहारों में हमेशा किरोसीन और रसोईगैस का ही जिक्र करती है। दूसरे देशों की बात की जाए तो श्रीलंका में पेट्रोल पर 37 फीसदी, थाइलैंड में 24 फीसदी, पाकिस्तान में 30 फीसदी, जबकि भारत में 51 फीसदी कर लगाया जाता है। इसी तरह डीजल में श्रीलंका में 20 फीसदी, थाईलैंड में 15 फीसदी, पाकिस्तान में 15 फीसदी, जबकि भारत में 30 फीसदी से ज्यादा कर लगाया जाता है। सरकार यह आंकड़ा अपने इश्तेहारों में कभी नही छापती। वर्तमान में हमारा तेल का प्रबन्धन जिस तरह चल रहा है उसको देखकर इस बात के पूरे आसार है की जल्द ही पेट्रोल 100 रूपये लीटर तक पहुंच जायेगा। बहरहाल केन्द्र सरकार ने राज्यों के पाले में गेंद डाल दी है। क्योंकि तेल उत्पादों से मिलने वाला करों का एक बड़ा हिस्सा राज्यों के खजाने में जाता है जो उसके अप्रत्क्ष कर का सबसे बड़ा हिस्सा है। यह आंध्र प्रदेश में 33 फीसदी और उड़ीसा में 30 फीसदी के आसपास है। बहरहाल ममता बनर्जी ने रसोई गैस में ब्रिकी कर को खत्म करके इसकी शुरूआत कर दी है। अब जरा समझने की कोशिष करते हैं तेल के खेल को। इस समय कच्चे तेल के दाम अंर्तराष्ट्रीय बाजार में 115 डाॅलर प्रति बैरल है। एक डाॅलर की कीमत 45.03 रूपये। जबकि एक बैरल का मतलब तकरीबन 160 लीटर। अब हिसाब लगाते हैं कि कितना दाम वाकई बड़ा है। इस हिसाब से कच्चे तेल का दाम प्रति लीटर 32.37 रूपये हुआ। भारत में आयात कर इसका शोधन किया जाता है। इसके बाद इसे पेट्रोल, डीजल, एलपीजी और किरोसीन के तौर पर बाजार में उतारा जाता है। आज पेट्रोल की कीमत बाजार में 63.37 रूपये प्रति लीटर है। यानि बाकि का सारा पैसा विभिन्न करों के रूप में हमारी जेब से सरकार के खजाने में जाता है। हमारे देश में तेल शोधन की पर्याप्त व्यवस्था है। बल्कि कंपनियां देश की मांग के बाद इसका निर्यात भी करती हैं। डीजल, पेट्रोल, नाफता और एटीएफ इत्यादी का घरेलू मांग पूरी करने के बाद निर्यात किया जाता है। जहां घरेलू उत्पादन में ज्यादा जोर देने की जरूरत है वही उत्पादक कंपनियों अनुसंधान में एक फीसदी से ज्यादा खर्च नही करती। इधर महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल किया हुआ है। सरकार अपने बयानों में तो इसे सबसे प्राथमिकता में बताती है मगर सही मायने में उसका इशारा साफ है। जनता को इस महंगाई के साथ जीना सीख लेना चाहिए। क्योंकि सरकार के इस कदम के बाद महंगाई में आग लगेगी और इसके फिर से दहाई में पहुंचने की संभावना है। दूसरी बात जो सरकार इन सार्वजनिक उपक्रमों मसलन आइओसी, बीपीसी और एचपीसी के बारे में कहती है कि इनकी माली हालत बिगड़ती जा रही है। लेकिन सरकार के बयान और पेट्रोलियम मंत्रालय की 2008- 09 की सालाना रिपोर्ट पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो कहानी कुछ और दिखाई देती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2008-09 में आइओसी का शुद्ध लाभ 2950 करोड़ का था। साथ ही यह दुनिया की 18वीं सबसे बड़ी कंपनी है। इसी तरह 2009-10 दिसंबर तक लाभ कर देने के बाद 4663.78 रहा जबकि कुल कारोबार 208289.46 रहा। इसके अलावा लाभांश के तौर पर 2007-08 में 656 करोड़, 2008-09 में 910 करोड़ केन्द सरकार को दिया गया। इसी तरह अन्य उपक्रम मसलन एचपीसी और बीपीसी का लाभ अप्रैल से दिसंबर 2009 के बीच 544 करोड़ और 834 करोड रूपये रहा। फिर कहां से इन कंपनियों के दीवालिया होने का सवाल उठता है। सवाल असली यह है कि पिछले एक साल के ज्यादा के समय से महंगाई की मार झेल रही जनता को राहत देने के लिए सरकार के पास क्या नीति है। आखिर कब तक जनता सरकार के कुप्रबंधन की मार झेलेगी। क्योंकि महंगाई रोकने के रिजर्व बैंक के उपायों का भी असर उसी के बजट को बिगाड़ रहा है। इस बात की भी पूरी संभावना है की जुलाई में भी रिजर्व बैंक रेपो और रिवर्स रेपो दर बड़ाने जा रहा है। मतलब साफ है की आम आदमी की मुश्किलें और बड़ने वाली है।
आंकड़ों के खेल मैं उलझा रही सरकार के लिए आंकड़ों भरा अच्छा जवाब है . सरकार की कीशा इश्तेहारों में साफ़ झलक रही है कि आने वाले दिनों में तेल उत्पादों की कीमतों में और बढ़ोत्तरी होगी.सरकार ने तेल की कीमतों को पूरी तरह बाज़ार के हवाले करने कि जो सोची है.
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