प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने योजना आयोग की हालिया बैठक में 12वीं पंचवर्षिय योजना में स्वास्थ्य क्षेत्र पर विशेष जोर देने की बात दोहराई है। इसके लिए बकायदा जो खाका तैयार किया गया है उसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2.5 फीसदी 12वीं पंचवर्षिय योजना के अन्त तक खर्च करने की बात कही है। योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षिय योजना में मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, अस्पताल में प्रसव कराने और सम्पूर्ण टीकाकरण को लेकर जो लक्ष्य निर्धारित किए थे उससे हम काफी दूर है। मगर 2005 में लागू की गई महत्वकांक्षी योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अस्तित्व में आने के बाद हालात जरूर बदले हैं। मगर सफर अभी बहुत लंबा है। भारत में अगर स्वास्थ्य क्षेत्र पर नजर दौड़ाई जाए तो कई चैकाने वालें आंकड़ों से हमें दो चार होना पड़ेगा। मसलन इस क्षेत्र का 80 फीसदी हिस्सा निजी हाथों में है। महज 20 फीसदी हिस्सा सरकार के जिम्मे है। इस 20 फीसदी में भी 80 फीसदी राज्य सरकार के अधीन आता है। चंूकि स्वास्थ्य क्षेत्र राज्यों का विषय है लिहाजा लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाऐं पहुंचाना राज्य सरकार का प्राथमिक जिम्मेदारी बन जाती है। मगर राज्यों ने अपने सालाना बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटन में कुछ खास दरियादिली नही दिखाई। यही कारण है कि केन्द्र सरकार के बजट आवंटन बढ़ाने के बावजूद हम जरूरत के मुताबिक समुचित राशि का प्रबंध नही कर पा रहे हैं। आज दुनिया की आबादी में हमारी हिस्सेदारी 16 फीसदी के आसपास है, मगर बीमारी में हमारा योगदान 20 फीसदी से ज्यादा है। यूपीए सरकार जब 2004 में सर्वसमावेशी विकास के नारे का साथ सत्ता में आसीन हुई तो उसने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बात की घोषणा की कि स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर को बदलने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2 से 3 फीसदी इस क्षेत्र में दिया जायेगा। मगर अभी तक गाड़ी 1.04 फीसदी के आसपास है। अगर षुद्ध जल मुहैया कराने और स्वच्छता को दिए गए बजट को भी जोड़ लिया जाए तब भी यह आंकड़ा 1.08 फीसदी तक ही पहुंचता है। क्योंकि स्वास्थ्य क्षेत्र का 59 फीसदी बजट दूषित पानी से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च हो जाता है। इसलिए पानी और स्वच्छता को मिलने वाले बजट पर भी नजर रखना आवष्यक है। विष्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि विकासषील देषों को जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करना चाहिए। मगर हम अभी इससे काफी दूर हैं। जरूर 11 पंचवर्षिय योजना में 140135 करोड की राशि का निर्धारण किया गया है,जो 10वी पंचवर्षिय योजना के मुकाबले 227 फीसदी ज्यादा है। इसमें से अकेले 90558 करोड़ की राशि केवल केन्द्र सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए रखे गए थे। स्वास्थ्य क्षेत्र के सामने आज सबसे बड़ी चुनौति मानव संसाधन की कमी को पूरा करने की है। इसमें सबसे ज्यादा खराब तस्वीर ग्रामीण क्षेत्रों की है। भौतिक सुविधाओं को मुहैया कराने में सरकार कुछ हद तक जरूर सफल रही है, जिसमें प्रमुख है उपकेन्द, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और जिला अस्पताल । मगर डाक्टर और नर्सो की भारी टोटा सरकार के माथे में बल ला देता है। हमारे देष में डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः1667 है। यानि 1667 आबादी पर 1 डाक्टर। जबकि अमेरिका में यह अनुपात 1ः375 और ब्रिटेन में 1ः365 है। डब्लयूएचओं के मुताबिक डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः250 होना चाहिए। मगर ग्रामीण भारत में यह अनुपात डराने वाला है। ग्रामीण भारत में 34000 की आबादी में 1 डाक्टर है। योजना आयोग के मुताबिक भारत में 8 लाख डाक्टर और 20 लाख नर्सो की कमी है। इस मुष्किल से निपटने के लिए सरकार अब इस कमी को पूरा करने के लिए बैचुलर आफ रूरल हेल्थ केयर मसलन रूरल एमबीबीएस कोर्स पर विचार कर रहा है। यह पाठ्यक्रम चार साल का होगा जिसमें 6 माह की इंटरनशिप शामिल है। अहम सवाल उठता है कि आज हालात ऐसे क्यों बने। आखिर क्या वजह है की दक्षिणी राज्यों स्वास्थ्य में मामले में उत्तरी राज्यों से आगे हैं। आइये जरा समझने की कोषिष करते है। आज देश में तकरीबन 300 मेडीकल कालेजों में 190 सिर्फ पांच राज्यों में है। इसमें कर्नाटक, महाराष्ट, तमीलनाडू, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक शामिल है। जबकि बिहार में के पास महज 9 मेडीकल कालेज है जबकि उसकी आबादी 7 करोड़ से ज्यादा है। ऐसे ही कुछ हाल झारखंड का भी है। 3 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में केवल 3 मेडीकल और 1 नर्सिंग कालेज है। आज इस अन्तर को पाटने की भी सख्त दरकार है। दूसरी तरफ सरकार के लिए मिलीनियम डेवलपमेंट गोल के तहत निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पाना किसी चुनौति से कम नही होगा। सरकार 2012 तक मातृ मृत्यु दर को प्रति लाख 100 तक लाना चाहती है। जो 2007 में 254 था। इसी तरह शिषु मृत्यु दर को 30 तक जो 2007 मंे 55 था। जननी सुरक्षा योजना के अस्तित्व में आने के बाद जरूर अस्पताल में प्रसव कराने आने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। वहीं 2012 तक संपूर्ण टीकाकरण की राह लंबी है। फिलहाल यह आंकड़ा 60 से 65 फीसदी के आसपास है। भारत सरकार के लिए आज सबसे बड़ी चुनौति डाक्टरों का गांवों से अलगाव है। आखिर यह स्थिति क्यों। इसमें कोई दो राय नही कि डाक्टरी आज सेवा करने का एक माध्यम नही बल्कि, एक विषद्ध व्यवसाय बन गया है। इंडियन मेडीकल सोसइटी के सर्वे के मुताबिक 75 फीसदी डाक्टर शहरों में काम कर रहे हैं। 23 फीसदी अल्प शहरी इलाकों मे और महज 2 फीसदी डाॅक्टर ग्रामीण इलाकों में अपनी सेवा प्रदान कर रहे है। क्या इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार नही। बहरहाल मेडीकल काउंसिल आॅफ इंडिया ने कुछ बड़े फैसले किए है जिसमें शिक्षक छात्र अनुपात को 1ः1 से बढ़कार 1ः2 कर दिया गया है। साथ ही जमीन की उपलब्धता जैेस मुददों में भी राहत प्रदान की गई हैं। हमारे देश में आज प्राचीन चिकित्सा प्रणाली पर कोई खास ध्यान नही दिया गया। आर्युवेदिक, होमयोपैथिक, सिद्धा और यूनानी जैसी चिकित्सा प्रणाली की तरफ समुचित ध्यान न दिए जाने के कारण ऐसे हालत पैदा हुए हैं। ऐसा नही कि यह चिकित्सा प्रणाली फायदेमंद नही है। दरअसल सवाल यह है कि इसे फायदेमंद बनाने के लिए हम कितने गंभीर है। जरा सोचिए जब देश की 77 फीसदी आबादी की हैसियत एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। तो वह क्या फाइव स्टार की तर्ज पर बने निजि अस्पतालों में जाकर इलाज करा सकते हैं। इसलिए समय की मांग है कि इन बहुमुखी सुविधाओं से लैस अस्पतालों के उपर एक प्राधिकरण का गठन किया जाए। भारत सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन को लागू हुए पांच साल से ज्यादा बीत चुके हैं। मगर यह अपने उददेष्य के मुताबिक गांवों में कोई आमूलचूल परिवर्तन नही कर पाया है। इसके तहत जारी धनराषि खर्च तक नही हो पा रही है उपर से भ्रष्टाचार ने भी इस योजना को घेर रखा है।हाल में उत्तर प्रदेश में हुए घोटाला इसका ताजा उदाहरण है। आजादी के 64 साल बीत जाने के बात भी हम अपने नागरिकों को जब स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाऐं भी मुहैया नही करा पा रहें हैं तो हम समग्र विकास के दावे का स्वांग क्यों रचते हैं।
शनिवार, 3 सितंबर 2011
स्वास्थ्य क्षेत्र में है व्यापक सुधार की दरकार
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने योजना आयोग की हालिया बैठक में 12वीं पंचवर्षिय योजना में स्वास्थ्य क्षेत्र पर विशेष जोर देने की बात दोहराई है। इसके लिए बकायदा जो खाका तैयार किया गया है उसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2.5 फीसदी 12वीं पंचवर्षिय योजना के अन्त तक खर्च करने की बात कही है। योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षिय योजना में मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, अस्पताल में प्रसव कराने और सम्पूर्ण टीकाकरण को लेकर जो लक्ष्य निर्धारित किए थे उससे हम काफी दूर है। मगर 2005 में लागू की गई महत्वकांक्षी योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अस्तित्व में आने के बाद हालात जरूर बदले हैं। मगर सफर अभी बहुत लंबा है। भारत में अगर स्वास्थ्य क्षेत्र पर नजर दौड़ाई जाए तो कई चैकाने वालें आंकड़ों से हमें दो चार होना पड़ेगा। मसलन इस क्षेत्र का 80 फीसदी हिस्सा निजी हाथों में है। महज 20 फीसदी हिस्सा सरकार के जिम्मे है। इस 20 फीसदी में भी 80 फीसदी राज्य सरकार के अधीन आता है। चंूकि स्वास्थ्य क्षेत्र राज्यों का विषय है लिहाजा लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाऐं पहुंचाना राज्य सरकार का प्राथमिक जिम्मेदारी बन जाती है। मगर राज्यों ने अपने सालाना बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटन में कुछ खास दरियादिली नही दिखाई। यही कारण है कि केन्द्र सरकार के बजट आवंटन बढ़ाने के बावजूद हम जरूरत के मुताबिक समुचित राशि का प्रबंध नही कर पा रहे हैं। आज दुनिया की आबादी में हमारी हिस्सेदारी 16 फीसदी के आसपास है, मगर बीमारी में हमारा योगदान 20 फीसदी से ज्यादा है। यूपीए सरकार जब 2004 में सर्वसमावेशी विकास के नारे का साथ सत्ता में आसीन हुई तो उसने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बात की घोषणा की कि स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर को बदलने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2 से 3 फीसदी इस क्षेत्र में दिया जायेगा। मगर अभी तक गाड़ी 1.04 फीसदी के आसपास है। अगर षुद्ध जल मुहैया कराने और स्वच्छता को दिए गए बजट को भी जोड़ लिया जाए तब भी यह आंकड़ा 1.08 फीसदी तक ही पहुंचता है। क्योंकि स्वास्थ्य क्षेत्र का 59 फीसदी बजट दूषित पानी से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च हो जाता है। इसलिए पानी और स्वच्छता को मिलने वाले बजट पर भी नजर रखना आवष्यक है। विष्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि विकासषील देषों को जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करना चाहिए। मगर हम अभी इससे काफी दूर हैं। जरूर 11 पंचवर्षिय योजना में 140135 करोड की राशि का निर्धारण किया गया है,जो 10वी पंचवर्षिय योजना के मुकाबले 227 फीसदी ज्यादा है। इसमें से अकेले 90558 करोड़ की राशि केवल केन्द्र सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए रखे गए थे। स्वास्थ्य क्षेत्र के सामने आज सबसे बड़ी चुनौति मानव संसाधन की कमी को पूरा करने की है। इसमें सबसे ज्यादा खराब तस्वीर ग्रामीण क्षेत्रों की है। भौतिक सुविधाओं को मुहैया कराने में सरकार कुछ हद तक जरूर सफल रही है, जिसमें प्रमुख है उपकेन्द, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और जिला अस्पताल । मगर डाक्टर और नर्सो की भारी टोटा सरकार के माथे में बल ला देता है। हमारे देष में डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः1667 है। यानि 1667 आबादी पर 1 डाक्टर। जबकि अमेरिका में यह अनुपात 1ः375 और ब्रिटेन में 1ः365 है। डब्लयूएचओं के मुताबिक डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः250 होना चाहिए। मगर ग्रामीण भारत में यह अनुपात डराने वाला है। ग्रामीण भारत में 34000 की आबादी में 1 डाक्टर है। योजना आयोग के मुताबिक भारत में 8 लाख डाक्टर और 20 लाख नर्सो की कमी है। इस मुष्किल से निपटने के लिए सरकार अब इस कमी को पूरा करने के लिए बैचुलर आफ रूरल हेल्थ केयर मसलन रूरल एमबीबीएस कोर्स पर विचार कर रहा है। यह पाठ्यक्रम चार साल का होगा जिसमें 6 माह की इंटरनशिप शामिल है। अहम सवाल उठता है कि आज हालात ऐसे क्यों बने। आखिर क्या वजह है की दक्षिणी राज्यों स्वास्थ्य में मामले में उत्तरी राज्यों से आगे हैं। आइये जरा समझने की कोषिष करते है। आज देश में तकरीबन 300 मेडीकल कालेजों में 190 सिर्फ पांच राज्यों में है। इसमें कर्नाटक, महाराष्ट, तमीलनाडू, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक शामिल है। जबकि बिहार में के पास महज 9 मेडीकल कालेज है जबकि उसकी आबादी 7 करोड़ से ज्यादा है। ऐसे ही कुछ हाल झारखंड का भी है। 3 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में केवल 3 मेडीकल और 1 नर्सिंग कालेज है। आज इस अन्तर को पाटने की भी सख्त दरकार है। दूसरी तरफ सरकार के लिए मिलीनियम डेवलपमेंट गोल के तहत निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पाना किसी चुनौति से कम नही होगा। सरकार 2012 तक मातृ मृत्यु दर को प्रति लाख 100 तक लाना चाहती है। जो 2007 में 254 था। इसी तरह शिषु मृत्यु दर को 30 तक जो 2007 मंे 55 था। जननी सुरक्षा योजना के अस्तित्व में आने के बाद जरूर अस्पताल में प्रसव कराने आने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। वहीं 2012 तक संपूर्ण टीकाकरण की राह लंबी है। फिलहाल यह आंकड़ा 60 से 65 फीसदी के आसपास है। भारत सरकार के लिए आज सबसे बड़ी चुनौति डाक्टरों का गांवों से अलगाव है। आखिर यह स्थिति क्यों। इसमें कोई दो राय नही कि डाक्टरी आज सेवा करने का एक माध्यम नही बल्कि, एक विषद्ध व्यवसाय बन गया है। इंडियन मेडीकल सोसइटी के सर्वे के मुताबिक 75 फीसदी डाक्टर शहरों में काम कर रहे हैं। 23 फीसदी अल्प शहरी इलाकों मे और महज 2 फीसदी डाॅक्टर ग्रामीण इलाकों में अपनी सेवा प्रदान कर रहे है। क्या इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार नही। बहरहाल मेडीकल काउंसिल आॅफ इंडिया ने कुछ बड़े फैसले किए है जिसमें शिक्षक छात्र अनुपात को 1ः1 से बढ़कार 1ः2 कर दिया गया है। साथ ही जमीन की उपलब्धता जैेस मुददों में भी राहत प्रदान की गई हैं। हमारे देश में आज प्राचीन चिकित्सा प्रणाली पर कोई खास ध्यान नही दिया गया। आर्युवेदिक, होमयोपैथिक, सिद्धा और यूनानी जैसी चिकित्सा प्रणाली की तरफ समुचित ध्यान न दिए जाने के कारण ऐसे हालत पैदा हुए हैं। ऐसा नही कि यह चिकित्सा प्रणाली फायदेमंद नही है। दरअसल सवाल यह है कि इसे फायदेमंद बनाने के लिए हम कितने गंभीर है। जरा सोचिए जब देश की 77 फीसदी आबादी की हैसियत एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। तो वह क्या फाइव स्टार की तर्ज पर बने निजि अस्पतालों में जाकर इलाज करा सकते हैं। इसलिए समय की मांग है कि इन बहुमुखी सुविधाओं से लैस अस्पतालों के उपर एक प्राधिकरण का गठन किया जाए। भारत सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन को लागू हुए पांच साल से ज्यादा बीत चुके हैं। मगर यह अपने उददेष्य के मुताबिक गांवों में कोई आमूलचूल परिवर्तन नही कर पाया है। इसके तहत जारी धनराषि खर्च तक नही हो पा रही है उपर से भ्रष्टाचार ने भी इस योजना को घेर रखा है।हाल में उत्तर प्रदेश में हुए घोटाला इसका ताजा उदाहरण है। आजादी के 64 साल बीत जाने के बात भी हम अपने नागरिकों को जब स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाऐं भी मुहैया नही करा पा रहें हैं तो हम समग्र विकास के दावे का स्वांग क्यों रचते हैं।
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