राशन वितरण प्रणाली जो देश में भूख से लड़ने की सबसे बड़ी योजना है उसमें सुधार की बात कोई नही करता। दुनिया का सबसे बड़ा सस्ता राशन प्रदान करने का नेटवर्क हमारे देश में है। तकरबीन 5 लाख सस्ते गल्ले की दुकानें इस व्यवस्था के तहत काम कर रही है। गरीब का भूख से लड़ने का एक मात्र सहारा। मगर यह सहारा चंद लोगों के लालच की भेंट तले दम तोड़ रहा है। नेता, अफसर, ठेकेदार, दुकानदार और बाबू सबके सब इस योजना में अपना हाथ साफ कर रहे हैं। मगर इनके खिलाफ करवाई करने की जहमत कोई नही उठाता। दरअसल नीचे से लेकर उपर तक हर कोई इस योजना को लूटने घसूटने में लगा है, ऐसे में कारवाई की उम्मीद करना बेमानी है। हमारे देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में समय- समय पर बदलाव किए गए। योजना का मकसद गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को सस्ता राशन मुहैया कराना था। ताकि देश से भूखमरी और कुपोषण को दूर किया जा सके। इसके तहत गेहूं ,चावल चीनी और किरोसिन सस्ते दामों में बीपीएल कार्ड धारकों को मुहैया कराया जाता है। केन्द्र सरकार इसके लिए हर साल हजारों करोड़ रूपये सब्सिडी के तौर पर खर्च करती है। यह 2006 में 23827 करोड़ से बढ़कर 2010 में 58242 करोड़ पहुंच गई। आज देश के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों का सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। हालांकि राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यही कारण है कि अकसर राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। अभी हाल में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर गांव में 26 रूपये और शहरों में 32 रूपये प्रतिदिन खर्च क्षमता वाला व्यक्ति को गरीब नही माना। क्या यह हमारे नीतिनिर्धारकों का मानसिक दिवालिया पन नही है। क्या आज की इस महंगाई में कोई व्यक्ति प्रतिदिन 26 और 32 रूपये में अपना जीवन निर्वाह कर सकता है। लगता है सरकार सही आंकड़ा अपनाने में हिचकिचा रही है। क्योंकि इसका सीधा असर उसके समग्र विकास के नारे के साथ- साथ उन सभी योजनाओं पर पड़ेगा जिसका अधार बीपीएल श्रेणी है। मुश्किल तो यह है कि एक बड़ी जरूरतमंद आबदी के पास बीपएल कार्ड नही हैं। मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गरीब न होने के बावजूद बीपीएल कार्ड धारक है। इसी कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कई झोल दिखाई दे रहें हैं। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का खाद्यान्न काले बाजार में बिक जाता है। इसका मतलब राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। कितनी शर्म की बात है कि 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है। मगर सरकारों के पास शिकायतें महज मुठठी भर दर्ज होती है। क्योंकि सारा खेल नेताओं और अफसरशाही की आड़ में होता है। इसलिए कोई भी मामला दर्ज नही हो पाता। सरकारों के नुमाइंदे चाहे वह खाद्य मंत्री हो या खाद्य सचिव दिल्ली के विज्ञान भवन में आकर वितरण प्रणाली में सुधार पर माथापच्ची करते हंै। जबकि इस खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी या कहें कमाऊपूत यही लोग हैं। खेल का सबसे बड़ा हिस्सा इन्ही की झोली में जाता है। कहने का मतलब है चोरों से चोरी कैसे रोकी जायी इस पर चर्चा की जाती है। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। जरा सोचिए जिस देश का 51 फीसदी आनाज कालेबाजार में बिक जाता है वहां मुठ्ठी भर शिकायतें भी दर्ज नही होती। क्या इस निकम्मेपन के सहारे हम वितरण व्यवस्था को सुधारने का दंभ भर रहे है। जब मामले ही दर्ज नही होगें तो कार्यवाही कहां से होगी। जबकि कुछ जरूरी कदम उठाकर इस व्यवस्था में बदलाव आ सकता है। बस जरूरत है कुछ ठोस उपाय करने की।
1-सस्ता गल्ला की दुकानों को जल्द ही कम्पयूटीकृत कर दिया जाए। साथ ही इनकी दुकानों का खुलने का दिन व समय निश्चित हो।
2-जरूरत मंदों चिन्हित कर उन्हें स्मार्ट कार्ड उपलब्ध कराऐं जाए।
3- हर राज्य की राजधानी में एक केन्द्रीय व्यवस्था का निर्माण किया जाए ताकी कोई भी कहीं से भी पीडीएस से जुड़ी जानकारी प्राप्त कर सके।
4-हर जिले में शिकायत निवारण की व्यवस्था की जाए।
5-चावल, गेंहू ,चीनी, दाल और तेल को खुले के बजाय सील पैकेट में दिया जाए।
6-खाद्यान्न ले जाने के लिए परिवहन नीति को कठोर बनाया जाए।
7-पीडीएस की ढुलाई करने वाले वाहनों में जीपीएस सिस्टम लगाया जाए। ताकि कालाबाजारी के समय आसानी से इसे चिन्हित किया जा सके।
8-परिवहन से जुड़े ठेकेदारों के चयन के लिए विशेष प्रावधान किया जाए। मसलन कालाबाजारी की सजा 10 साल। खास बात यह है कि इस मामले के निपटारे में 1 साल से ज्यादा का समय न लगे।
इसके अलावा कुछ अहम सवाल जिनके जवाब सियासतदानों को ढूंढने होंगे। क्या आज तक किसी खाद्य मंत्री को कालाबाजारी के चलते जेल की हवा खानी पड़ी है। जबकि यह तथ्य किसी से नही छिपा कि कालाबाजारी से कमाई गई रकम के सबसे बड़े हिस्सेदार यही लोग होते है। क्यों आज तक एक भी खाद्य सचिव को सजा नही हुई। क्यों जिलापूर्ति अधिकारी को जवाबदेही नही बनाया गया। क्यों हमेशा बाबू के गले में रस्सी पहनाकर मामले को रफा दफा कर दिया जाता है। इस व्यवस्था को ना सुधारने के पीछे हमारे नेताओं का सबसे बड़ा हाथ है। कौन चाहता है कि इस सरकारी दुधारू गाय का दूध मिलना बंद हो जाए। उदाहरण के तौर पर अब तक 1 करोड़ 80 लाख से ज्यादा फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके है। अकेले दिल्ली यानि देश की राजधानी में एक महिला के नाम 801 राशन कार्ड जारी किए गए। सवाल आज मंशा का है और वह भी ऐसे समय में जब हम खाद्य सुरक्षा विधेयक का प्रारूप तैयार कर चुके हैं। मगर वितरण प्रणाली में सुधार की बात कोई नही कर रहा है। जबकि सब जानते है कि अगर मौजूदा प्रणाली में बदलाव नही किया गया तो यह कानून का हश्र भी बाकी योजनाओं की तरह ही होगा। इसलिए जरूरी है कि लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में समय रहते आमूलचूल परिवर्तन किए जाऐं। बहरहाल सरकार जरूरत मंदों के खाते में सीधे नकद राशि पहुंचाने की बात कह रही है। इसके लिए नंदन निलेकणी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है जो जरूरत मंदों तक सीधी सहायता राशि कैसे पहुंचाई जाए इस पर सिफारिश देगी। मगर उससे पहले जरूरतमंदों के बैंक में पहुंच बनानी होगी। आज केवल 40 फीसदी आबादी की पहुंच बैंकों तक है। ऐसे में 2000 की आबादी में बैंक स्थापित करने की दिशा में तेजी से काम करना होगा। इसके बाद ही नकद धनराशि खाते में पहुंचाने पर काम किया जा सकता है।
निश्चित है दौर तबाही है,
शिशे की अदालत में पत्थर की गवाही है।
इस दुनिया में कहीं ऐसी तफ़सील नही मिलती ,
कातिल ही लुटेरा है, कातिल ही सिपाही है।
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