चुनाव सुधार का यह विषय आज सभी विषयों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है। इसी बुनियादी सुधार के लिए यह देश 4 दशक से इंतजार कर रहा है। मगर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में अनूठा प्रयोग करके यह साफ कर दिया है कि अगर राजनीतिक दल बदलाव नही करेंगे तो वह सुधार का बीड़ा खुद उठाऐंगे। इसमें सबसे जरूरी है चुनाव सुधार। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर हमेशा सहमति जताते हैं, मगर सही मायने में चुनाव सुधार को लेकर कोई भी राजनीतिक दल प्रतिबद्ध नही। देश में
राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट जैसे मुददों पर बहस की शुरूआत हुई है मगर लगता नही की इस संकेत को राजनीतिक दल समझ रहें हैं। क्या यह राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी नही हैं। कि राष्टीय पार्टियों को दरकिनार कर लोगों ने एक नई पार्टी पर भरोसा जताया है। यानि जनता बदलाव के लिए उत्सुक है। अगर ऐसा है चुनाव सुधार करने का सही वक्त आ गया है। सोचिए एक लोकतंत्र में यह कैसे मान्य होगा कि गंभीर अपराधों में लिप्त व्यक्ति देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने का काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों से परहेज करें। हमारे देश में चुनाव सुधार पर बहस लगभग तीन दशक से ज्यादा पुरानी है। सरकार के पास सिफारिशों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मगर जनप्रतिनिधित्व काननू 1951 में बदलाव करने की जहमत किसी ने नही उठाई। सुधारों की वकालत हर दल की जुबां पर है, मगर सवाल यह की इसे धरातल पर उतारेगा कौन। जबकि इसके लिए अब तक आधा दर्जन से ज्यादा समितियों की सिफरिशें सरकार के पास मौजूद हैं। 1975 तारकुण्डे समिति, 1990 में दिनेष गोस्वामी समिति, 1993 एनएन वोहरा समिति और 2001 में इंद्रजीत गुप्ता समिति का गठन चुनाव सुधार को उद्ेदश्य बनाकर किया गया था। इसके अलावा विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के साथ विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई
समिति की रिपोर्ट भी सरकार के पास मौजूद हैं। लगता है यह सिफारिशें आज भी सिर्फ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रही है। दरअसल चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर जमीन में इसे लेकर कुछ नही हुआ। यही वजह है कि चुनाव सुधार से जुड़े मुददे आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक ही सिमट कर रह गए हैं। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते हैं। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी- कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है, मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। हालांकि चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। अगर आज हमें जनप्रतिनिधियों के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से ही संभव हो पाया। वरना नेताओं की जमात को यह बर्दाश्त नही होता कि कोई उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्ति
के बारे में जाने। आजकल मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर देष में बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया, मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौटा दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से काई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान था। वही लोकसभा में लाए गए एक निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है। मगर वर्तमान में चुनौतियां जबरदस्त है। 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहते हैं कि अगर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में बदलाव नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब लोकसभा और विधानसभा में दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैसे लोगों के पहुंचने का गंभीर खतरा है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट ऐसे गंभीर आरोप तय करता है, जिसकी सजा 5 साल से ज्यादा है तो उसे चुनाव लड़ने के लिए अवैध करार दिया जाए। फिर उसके खिलाफ मामले में सुनवाई ही क्यों न चल रही है। दरअसल हमारे देश में जब तक कोर्ट किसी व्यक्ति को मुजरिम करार नही दे देता तब तक उसके चुनाव लड़ने में प्रतिबंध नही है। एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा बन बैठे हैं। आज जरूरत है कि हर कीमत पर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जाए। हमें विचार करना होगा की चुनावों में पैसों के बेताहाशा इस्तेमाल पर कैसे अंकुष लगे। आयाराम गयाराम की परंपरा को कैसे रोका जाए। पेड न्यूज के बड़ते चलन पर पर कैसे रोक लगे। एक व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो राजनीतिक दल उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं। क्या यह जनता के मत का अपमान नही है। एक व्यक्ति को एक ही जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विकल्प पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। हाल के दिनों में विधि
मंत्रालय ने चुनाव सुधार के कुछ छोटे मोटे सुधारों पर मुहर लगाई है। मगर जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आम सहमति बनाये और इसे लागू करे।
राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट जैसे मुददों पर बहस की शुरूआत हुई है मगर लगता नही की इस संकेत को राजनीतिक दल समझ रहें हैं। क्या यह राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी नही हैं। कि राष्टीय पार्टियों को दरकिनार कर लोगों ने एक नई पार्टी पर भरोसा जताया है। यानि जनता बदलाव के लिए उत्सुक है। अगर ऐसा है चुनाव सुधार करने का सही वक्त आ गया है। सोचिए एक लोकतंत्र में यह कैसे मान्य होगा कि गंभीर अपराधों में लिप्त व्यक्ति देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने का काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों से परहेज करें। हमारे देश में चुनाव सुधार पर बहस लगभग तीन दशक से ज्यादा पुरानी है। सरकार के पास सिफारिशों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मगर जनप्रतिनिधित्व काननू 1951 में बदलाव करने की जहमत किसी ने नही उठाई। सुधारों की वकालत हर दल की जुबां पर है, मगर सवाल यह की इसे धरातल पर उतारेगा कौन। जबकि इसके लिए अब तक आधा दर्जन से ज्यादा समितियों की सिफरिशें सरकार के पास मौजूद हैं। 1975 तारकुण्डे समिति, 1990 में दिनेष गोस्वामी समिति, 1993 एनएन वोहरा समिति और 2001 में इंद्रजीत गुप्ता समिति का गठन चुनाव सुधार को उद्ेदश्य बनाकर किया गया था। इसके अलावा विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के साथ विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई
समिति की रिपोर्ट भी सरकार के पास मौजूद हैं। लगता है यह सिफारिशें आज भी सिर्फ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रही है। दरअसल चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर जमीन में इसे लेकर कुछ नही हुआ। यही वजह है कि चुनाव सुधार से जुड़े मुददे आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक ही सिमट कर रह गए हैं। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते हैं। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी- कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है, मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। हालांकि चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। अगर आज हमें जनप्रतिनिधियों के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से ही संभव हो पाया। वरना नेताओं की जमात को यह बर्दाश्त नही होता कि कोई उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्ति
के बारे में जाने। आजकल मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर देष में बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया, मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौटा दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से काई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान था। वही लोकसभा में लाए गए एक निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है। मगर वर्तमान में चुनौतियां जबरदस्त है। 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहते हैं कि अगर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में बदलाव नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब लोकसभा और विधानसभा में दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैसे लोगों के पहुंचने का गंभीर खतरा है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट ऐसे गंभीर आरोप तय करता है, जिसकी सजा 5 साल से ज्यादा है तो उसे चुनाव लड़ने के लिए अवैध करार दिया जाए। फिर उसके खिलाफ मामले में सुनवाई ही क्यों न चल रही है। दरअसल हमारे देश में जब तक कोर्ट किसी व्यक्ति को मुजरिम करार नही दे देता तब तक उसके चुनाव लड़ने में प्रतिबंध नही है। एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा बन बैठे हैं। आज जरूरत है कि हर कीमत पर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जाए। हमें विचार करना होगा की चुनावों में पैसों के बेताहाशा इस्तेमाल पर कैसे अंकुष लगे। आयाराम गयाराम की परंपरा को कैसे रोका जाए। पेड न्यूज के बड़ते चलन पर पर कैसे रोक लगे। एक व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो राजनीतिक दल उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं। क्या यह जनता के मत का अपमान नही है। एक व्यक्ति को एक ही जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विकल्प पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। हाल के दिनों में विधि
मंत्रालय ने चुनाव सुधार के कुछ छोटे मोटे सुधारों पर मुहर लगाई है। मगर जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आम सहमति बनाये और इसे लागू करे।
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