महिला आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। तेरह साल से इसके लागू होने का इन्तजार कर रही महिलाओं ने सपने संजोने शुरू कर दिए हैं। अहम सवाल क्या इस बार देश की आधी आबादी का सपना सच हो पायेगा। पिछले एक दशक से ज्यादा चले इस अन्तहीन अघ्याय का सुखद समापन हो पायेगाा। वैसे तो इस अध्याय ने कई मोड देख। सडक से लेकर संसद तक खूब प्रदर्शन हुए। वाद विवाद का एक लम्बा सफर। राजनीतिक दलों का महिला प्रेम दशाZने के एक लम्बा दौर। और न जाने क्या क्रूा । मगर आधी आबादी को आरक्षण के मामले पर पंचायत और ‘ाहरी निकाय तक ही सीमित रहना पड़ा। 15वीं लोकसभा के चुनाव में उतरने से ठीक पहले केन्द्र सरकार ने इस विधेयक को भारी हंगामे के बावजूद आनन फानन में राज्य सभा में पेेश कर दिया। उसके बाद विधि मन्त्रालय से सम्बंधित स्थायी समिति के पास इस विधेयक को विचार करने के लिए भेजा गया मगर सीमिति ने दो टूक ‘ाब्दों में इसे बिना देरी किये पारित करने की सिफारिश कर दी। अच्छी बात यह है कि इस बार कांग्रेस और बीजेपी ने इस ओर एक कदम आगे बड़ाते हुए व्हीप जारी कर दिया है। यानि 8 मार्च अन्तराश्टीय महिला दिवस का दिन भारत के इतिहास में एक अहम दिन होने जा रहा है।
ळमेशा की ही तरह विरोधी पक्ष भी तनतना रहा है। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) को बिल के मौजूदा स्वरूप पर कडा एतराज है। इनके मुताबिक इसका फायदा केवल एक खास वर्ग को ही मिल पायेगा। इसीलिए वे मांग कर रहे हैं कि महिलाओं के लिए आरक्षित कोटे के भीतर पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान हो। इसके पीछे उनका तर्क सामाजिक न्याय की मूल अवधारणाओ को जीवित रखना है। इनके निरन्तर विरोध ने लोगों को फिर आशंकित कर दिया है। मगर एक ही पार्टी के दो दिग्गजों यानि नीतिश कुमार और ‘ारद यादव की अलग अलग बोली भी यह बता रही है कि विरोध का स्वर होगा जरूर मगर उसकी तीव्रता पहले से कही ज्यादा कम होगी। यानि इस बार पनघट की डगर कठिन नही है।
असल में पिछले 13 सालों में चार सरकारों के समक्ष आमसहमति बनाने का राजनैतिक प्रयास होता रहा है। महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में 12 सितम्बर 1996 को संसद में रखा गया था। उसके बाद राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन की सरकार के दौरान भी इसे पास कराने के तीन प्रयास 1999, 2002 और 2003 में किये गये मगर नतीजा सिफर रहा। इन सबके बीच दो प्रमुख राजनीतिक दल खुद को एक दूसरों की तुलना में अधिक महिला-हितैषी दिखाने की कोशिश में जुटे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने संगठन में 33 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा कर मास्टर स्ट्रोक खेला तो कांग्रेस ने राज्यसभा में विधेयक पेश कर अपने `महिला प्रेम` का उदाहरण दे दिया। मगर इस बार लगता है कि सरकार के पास महिला आरक्षण विधेयक पारित करने के लिए अलावा कोई चारा नही बचा है।
आजादी के 62 साल के बाद दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज 8 प्रतिशत है जो एक बड़ा प्रश्न खड़ा करता है। यानि 15वीं लोकसभा चुनाव तक लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या कभी भी 60 को पार नही कर सकी। पहली लोकसभा में जहां केवल 22 महिलाएं निर्वाचित हुई, वही बारहवीं लोकसभा में इनकी संख्या 43 तक पहंच गई। आज उनकी तादाद 59 है। इनमें से कई महिला सांसद ऐसी रही जिन्होंने पांच चुनाव लगातार जीते। इससे साफ जाहिर होता है कि महिलाओं को राजनीति में कमतर आंका नही जा सकता। महिला आरक्षण के मुÌे की अहमियत ज्यादातर राजनैतिक दल समझते हैं लेकिन उस पर अमल करने का राजनैतिक जोखिम उठाना सबके बस की बात नहीं है।
पुरुष सांसदों के मन में एक चिन्ता यह भी है कि कही उन्हें अपनी सीट से हाथ न धोना पड जाए। अगर यह विधेयक पास होता है तो रोटेशन के आधार पर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करनी होंगी। इसे सिर्फ 15 साल के लिए लागू किया जायेगा और इस अवधि के दौरान सभी सीटें कभी न कभी एक बार महिलाओं के लिए आरक्षित करनी हेांगी। कुछ लोगों के अनुसार इसका एक नुकसान यह भी है कि अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति जनप्रतिनिधियों में गम्भीरता न के बराबर रह जायेंगी। क्योंकि सीट आरक्षित होने का डर हमेशा बना रहेगा। ऐसे में अपने संसदीय क्षेत्र के कल्याण से ज्यादा उन्हें अपने कल्याण की चिन्ता सताने लगेगी। दूसरी तरफ एक चिन्ता यह भी है जिन सांसदों या विधायकों की सीट रिजर्व हो जायेगी वह अपनी पत्नी को मैदान में उतार देंगे। यानि घर की सीट घर पर ही रहेगी।
वैसे राजनैतिक इच्छा शक्ति होती तो शायद मामला इतना आगे बढ़ता ही नहीं। अगर पहले ही राजनीतिक दल चुनाव आयोग की इस सुझाव को मान लेते कि रांजनीतिक पार्टियां खुद यह सुनिश्चित करें कि वह टिकट वितरण के समय 33 फीसदी टिकट महिलाओं को दें तो समस्या का समाधान हो जाता। मगर यहां तो कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है। आज समाज में महिलाओं से जुड़ी कई ज्वलन्त समस्याएं मौजूद हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के 2006 के आंकडे डराने वाले हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत में अकेले बलात्कार की घटनाओें में 1971 के मुकाबले आज 678 प्रतिशत की बढोत्तरी देखने को मिली है। लिंग अनुपात के गड़बड़ाने की दीघZकालीन समस्या और महिलाओं के शोषण की घटनाएं आम है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी महिलाएं खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। 87 फीसदी गर्भवती महिलाऐं में खून की कमी है। महिला साक्षरता का प्रतिशत भी मात्र 54 फीसदी है।
विभिé क्षेत्रों में महिलाओं के दर्जे में सुधार तो हो रहा है। इसकी एक बानगी साल 2010 है। राश्टपति से लेकर लोकसभा अघ्यक्ष, यूपीए अघ्यक्षा से लेकर नेता प्रतिपक्ष, सबपर महिलाऐं आसीन है। उपर से राजनैतिक सुधारों की रोशनी में निकाय और पंचायत चुनावों में 14 लाख से ज्यादा महिला प्रतिनिधियों का चुना जाना एक बड़े बदलाव की और संकेत करता है। इसमें भी कोई दो राय नही कि देर सबेर यह बदलाव जन-जीवन के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करेगा। ऐसे में महिला आरक्षण बिल का महत्व और बढ़ जाता है। अगर वह अमल में आया तो महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। ऐसे में सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों को चाहिए की इस बार इस विधेयक को हर कीमत पर पारित कराकर समाज में महिलाओं के पक्ष में एक सकारात्मक सन्देश भेजे।
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