रविवार, 2 मई 2010

चुनाव सुधार

चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर धरातल में इसे लेकर राजनीतिक दलों ने कभी कोई गम्भीरता नही दिखाई। यही वजह है कि चुनाव सुधार आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक सीमित रह गये है। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते है। मगर नतीजा वही ढॉक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है मगर राजनीतिक दलों के नाक भैं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। नतीजा यह होता है कि कानून तोडने वालों की लम्बी फौज देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने में लग जाती है जो दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र पर एक बदनुमा दाग है। सच पूछिए तो चुनाव सुधार को लेकर भी समितियों का खबू खेल हुआ। तारकुण्डे से लेकर दिनेश गोस्वामी समिति तक, एनएन वोहरा से लेकर इन्द्रजीत गुप्ता समिति तक, सिफारिशों की एक लंबी फेहरिस्त सरकार के पास है मगर इस पर कुछ खास अभी तक नही हो पाया है। इस बीच चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेण्डा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर  सरकार और उसका तन्त्र कुण्डली मारकर बैठा है। वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने जनप्रतिनिधीयों  के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो हमें दिया वरना नेता लोग कभी नही चाहते मसलन उनकी िशक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्तियों के बारे में जानकारियां सार्वजनिक हो। नेताओं की जमात कभी नही चाहेगी की उनकी कमजोर नब्ज़ जनता के हाथ लगे। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौट दिया। इसमें मतदाता को `इनमें से काई नही` का अधिकार देने का भी प्रावधान है। वही लोकसभा में निजि विधेयक `अनिवार्य मतदान कानून 2009` में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिन्ता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नज़र आ रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला इसे अव्यवहारिक करार दे चुके है। बहरहाल सरकार को राजनीति में बड़ते अपराधीकरण को रोकने जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच दूरी पाटने, राजनीति में एक स्वस्थ्य माहौल बनाने, आयाराम गयाराम की परंपरा को रोकने चुनावों में धनबल और बाहुबल को रोकने जैसे बडे कदम उठाने पड़ेंगे। जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होने वाला। जरूरत इस बात की सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आमसहमति बनाये और इसे लागू करे।

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