भारत के 46 फीसदी बच्चे आज भी कुपोषण का शिकार है। यह कहना है स्टेट ऑफ एशिया पेसिफिक चिलड्रन 2008 का। रिपोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि अगर भारत में हालात तेजी से नही सुधरे तो मिलेनियम डेवलेपमेंट गोल को प्राप्त करने की भारत की वैश्विक प्रतिबद्धता धरी की धरी रह जायेगी। रिपोर्ट में कई पहलुओं की ओर इशारा किया गया है। ऐसी ही मिलते जुलते आंकडे राश्टीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से निकलकर आये है। मध्यप्रदेश कुपोषित बच्चों के मामले में सबसे अव्वल है। जरा सोचिए जिस उम्र में मानसिक विकास होना शुरू होता है उस उम्र में कुपोषण न सिर्फ बच्चों के सम्पूर्ण विकास में बाधक बनता है, बल्कि जीवन भर एक ज़िन्दा लाश की तरह जीने के लिए उन्हें मजबूर कर देता है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर की धूम देश में ही नही बल्कि विदेशों में भी है। वैिश्वक आर्थिक तंगी के दौरान चीन के बाद भारत ही वही देश है जिसकी विकास दर विपरीत परिस्थितियों में भी 7 फीसदी के आसपास रही। मगर इस विकास दर में इतराने से कुछ नही होगा। कुपोषण के पीछे कई कारण मौजूद है। जैसे गरीबी, खाद्य असुरक्षा, शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं का टोटा जिस कारण समय से ईलाज का न मिल पाना, साफ पीने के पानी की कमी, स्वच्छता का अभाव और कम उम्र में मां बन जाना जैसे अनेक कारण है। केन्द्र सरकार क पास इन कारणों के निवारणों के लिए योजनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। मसलन मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, मीड डे मील, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान, राजीव गांधी शुद्ध पेयजल मिशन जैसी योजनाऐं प्रमुख है। बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कानून है। इसके अलावा एकीकृत बाल विकास योजना को इसी मकसद से शुरू की गई थी। इस योजना के तहत दिसम्बर 2009 तक 13 लाख 56 हजार आंगनवाडी स्थापित करने की केन्द्र से मंजूरी मिल गई है। जिसमें 11.4 लाख आंगवाडियों ने काम करना शुरू कर दिया है। इस लिहाज से देश का 79 फीसदी हिस्सा इन आंगनवाडी के सहारे कवर किया जा चुका है। आंगनवाडी सर्वे रजिस्टर के मुताबिक 2006 से 2009 तक बच्चों और महिलाओं की एक बडी आबादी तक इस योजना ने अपनी पहुंच बनायी है। मसलन
2006-07 5818539
2007-08 69644097
2008-09 72196568
2009-10 80000000 तकरीबन
बावजूद इसके बहुत बडा बदलाव आता नही दिखाई दे रहा है। इसी बात को ध्यान में रखकर योजना आयोग ने 27 दिसम्बर 2007 को डाक्टर सैय्यदा हामिद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसको कुपोषण मुक्त भारत कैसे बने, इसकी सिफारिश करने को कहा गया है। बहरहाल यह समिति की दो बैठकें ही हो पाई है। फरवरी 2008 और अगस्त 2008। रिपोर्ट कब आएगी इसपर तस्वीर अभी साफ नही। जबकि इस तरह के मामलों में समय सीमा अवश्य निर्धारित की जानी चाहिए। 1997 में भारतीय प्रशासनिक स्टाफ विद्यालय द्धारा एक रिपोर्ट तैयार की गई। रिपोर्ट में कुपोषण मुक्त भारत के लिए एक राष्टीय रणनीति पर विचार करने की बात कही गई थी। इसी रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र था कि कुपोषण के चलते राष्ट्रीय उत्पादकता सालाना आधार पर तो गिरता ही है साथ सकल घरेलू उत्पाद में इसका असर 3 से 9 फीसदी तक पडता है। आज सोचने वाली बात यह है कि इतनी बडी योजनाओं के बावजूद हालात में सुधार क्यों नही। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि यह योजनाऐं अपने लक्ष्य से भटक जाती है या भ्रष्टाचार के चुंगल में फंसकर दम तोड़ देती है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि 1993 में राष्ट्रीय पोषण नीति, 1995 कुपोषण से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना तथा राष्ट्रीय पोषण मिशन स्थापित किया गया था। इतने बडे पैमाने मे काम के बावजूद अगर हालात नही सुधर रहे है तो सोचना होगा। सोचना हेागा की कागजों से बाहर निकलकर ये योजनाऐं क्या वाकई जमीन पर अपना रंग दिखा रही है अगर नही तो जवाब ढूंढना हेागा। सच्चाई यह है कि सेंसक्स, विकास दर और आर्थिक तरक्की का तब तक कोई मतलब नही जब तक भारत इस रोग से मुक्त नही हो जाता।
मैं आपके इस सोच में आपके साथ हूँ /
जवाब देंहटाएं