पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने कार्यकाल की आखिरी प्रेस वार्ता में एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होनें कहा भारत कई मायनों में अलग हैं। क्योंकि यहां सांसद अपना वेतन खुद तय करते है। न्यायपालिका में जज ही जज की नियुक्ति करता है। और यहां की संसद विश्व की अकेली ऐसी संसद है जो अपना चैनल चलाती है। संयुक्त समिति ने सिफारिश की है कि सांसद के वेतन मासिक 16 हजार से बड़ाकर 80 हजार एक रूपया कर दिया जाए। यह इसलिए ताकि सासन्द को केन्द्र सरकार के सचिव से 1 रूपये बड़कर मिल सके। यानि पूरी 5000 फीसदी की बढ़ोत्तरी। मगर कैबिनेट में मौजूद कई मन्त्रीयों के यह सिफारिश गले नही उतरी जिसके बाद इसे 50 हजार मासिक करने को हरि झण्डी दे दी गई। बस यही बात सांसदों को नागवार गुजरी और संसद में हंगामा शुरू हो गया। सांसद संसद की संयुक्त समिति की सिफारिश को लागू करने पर अड़े है। वही सरकार इस पसोपेश में है कि महंगाई और प्राकृतिक आपदा के इस माहौल में इस तरह का कदम जनता में एक गलत सन्देश भेजेगा। मगर अब लगता नही की सांसद सरकार की सुनेंगे। आखिरकार महंगाई डायन ने उनको भी तो परेशान कर रखा है। सांसदों को वेतन बढोत्तरी के साथ साथ कार्यालय खर्च 20 से 40हजार कर दिया गया है। संसदीय भत्ते को भी दुगुना कर दिया गया है यानि पहले के 20 से 40 हजार। सांसद बिना ब्याज के निजि गाड़ी खरीदने के लिए 4 लाख तक का लोन ले सकेंगे जिसकी राशि पहले 1 लाख थी। पेंशन राशि भी 8 से बड़ाकर 20 हजार कर दी है। सदन चलने के दौरान सांसदों को 2 हजार रूपये मिलेंगे। पहले यह राशि 1 हजार थी। इसके अलावा सासन्द महोदय की पित्न ट्रेन की प्रथम श्रेणी और हवाई सफर में एक्जक्यूटिव श्रेणी में सफर कर सकती हैं। इन सब बातों केा अमल में में लाने के लिए सरकार को सांसदों के वेतन और भत्ते सम्बन्धी संसदीय कानून 1954 में संशोधन करना पड़ेगा। इसके अलावा सांसदों को टेलीफोन, अवास, सस्ता भोजन और क्लब सदस्यता जैसी सुविधाऐं भी प्राप्त है। इस पूरी कवायद से सरकार के खजाने में तकरीबन 142 करोड़ का सालाना बोझ पडे़गा। वेतन बढोत्तरी की जरूरत पर बल देते हुए एक सांसद मजाक में कहते है कि जितना मासिक वेतन मिलता है उससे ज्यादा तो संसदीय क्षेत्र के लोगों की चाय पानी में खर्च हो जाता है। इन सब के बीच वामदलों का कहना है कि सांसदों को खुद के वेतन बढ़ोत्तरी पर इस तरह का रूख अिख्तयार नही करना चाहिए। इसके लिए एक वेतन आयोग की तर्ज पर आयोग बने जो इन सब मुददों पर विचार करे। सवाल उठता है कि वह कौन से कारण है जिसके मददेनज़र बढोत्तर जरूरी हो गई है। पहला, सांसदों के वेतन को आखिरी बार 2006 में बड़ाया गया था। इस बीच 6ठें वेतन आयोग की सिफारिश लागू हुई। दूसरा हिन्दुस्तान के सांसदों को दुनिया में सबसे कम वेतन दिया जाता है। जबकि अमेरिका का एक सांसद सालाना 174000 डालर अपने घर ले जाता है। तीसरा वर्तमान में राष्ट्रपति का वेतन 150000, उपराष्ट्रपति 125000, राज्यपाल 110000, सुप्रीम कोर्ट के जजों को 90000, हाइकोर्ट के जजों को 80000, कैबिनेट सचिव को 90000 और केन्द्र सरकार के सचिव को 80000 रूपये वेतन मिलता है। इस लिहाज से सांसदों का वेतन कुछ भी नही। चौथा सांसदों के भत्ते कई राज्यों के विधायकों से भी कम है। पांचवा कम वेतन के चलते भ्रष्टाचार को बड़ावा मिलता है। मसलन सवाल पूछने के एवज में पैसे लेने के मामला पहले ही इस देश के सामने आ चुका है। इन सब पहलुओं पर अगर विचार करें तो सांसदों की वेतन बढोत्तरी की मॉंग जायज लगती है।
मगर इसका दूसरा पहलु भी समझना जरूरी है। हमारी लोकसभा धनकुबेरों से भरी है। वही इनके राज्यों में गरीबों की भी संख्या कम नही। जहां 543 सांसदों में से 14वीं लोकसभा में 154 सांसद करोड़पति थे आज 15वीं लोकसभा में उनकी तादाद 315 है। अकेले कांग्रेस पार्टी में 137, बीजेपी में 58, सपा में 14 और बसपा में 13 सांसद करोड़पति है। करोड़पतियों की तादाद 58 है। एक नज़र राज्यवार धनकुबेरों पर और राज्यों की गरीबी पर जहां का ये सांसद प्रतिनिधित्व करते हैं। गौर करने की बात है गरीबी मापने का पैमाना गांव में 356 और शहरों में 538 रूपये प्रति व्यक्ति खर्च करने की क्षमता पर आधारित है।
राज्य करोड़पति सांसद गरीब जनता ( करोड़ों में )
उत्तरप्रदेश 52 32.5
आंध्रप्रदेश 37 28
कर्नाटक 51 25
बिहार 25 41.4
तमिलनाडू 17 22.5
मध्यप्रदेश 15 38.3
गुजरात 12 16.8
तीसरा और सबसे अहम पहलू यह है कि संसद में आए दिन होने वाले हंगामें से जनता परेशान हो चुकी है। गौर करने लायक बात यह है कि सदन को चलाने का एक दिन का खर्च 7.65 करोड़ रूपये है। मगर इस ओर किसी का ध्यान नही। मानसून सत्र में ही ज्यादातर समय हंगामें की भेंट चड़ चुका है। प्रश्नकाल आए दिन नही चल पाता। जबकि लोकसभा अध्यक्ष लगातार सदन को सुचारू रूप से चलाने की अपील करती रहती है। 1952-1961 के बीच लोकसभा 124 दिन चलती थी जिसका अंकड़ा 1992-2001 में 81 हो गया। सबसे ज्यादा खराब हालात तो 2008 में हुए जब लोकसभा महज 46 दिन चली। जबकि ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में आज भी सदन 140 से 150 दिन चलता है। आज देश की जनता देश की इस सबसे बडी पंचायत के प्रतिनिधियों से यह आशा करती है कि सदन का कामकाज सुचारू रूप से चले। सांसद संसदीय कार्यवाही को लेकर गम्भीर हो। कानून बिना चर्चा के पारित न हो पाये। प्रश्नकाल को हर कीमत पर चलने दिया जाए। पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में सालाना संसद और विधानसभाओ को 100 दिन चलाने का जो सहमति बनी है, उस पर अमल किया जाए।
पंडित जी, इनके आगे जितना भी रो लो ... भैस के आगे बीन बजने जैसा ही
जवाब देंहटाएंइनके आगे जितना भी रोवो - भेंस के आगे बीन बजने जैसा है.
जवाब देंहटाएंमैंने भी बीन बजायी है.........
सांसदों का वेतन भत्ता बढ़ाने पर अब आम सहमति बन चुकी है. पर बढे वेतनों के बाद क्या अब सांसदगन ज्यादा ज़िम्मेदारी का परिचय देंगे? क्या भ्रष्ट सांसदों की संख्या कम होगी? क्या सदन की कार्यवाही हंगामे की भेट न चढ़ कर सुचारू रूप से चलेगी? क्या अपने हित की बात पर साथ आये सांसद आम आदमी से जुडी बात पर भी आम सहमती बनाने का कष्ट करेंगे? आशान्वित रहने में क्या जाता है? आखिर उम्मीद पर तो हमारा सारा देश चल रहा है!
जवाब देंहटाएं