सोमवार, 6 दिसंबर 2010
राजनीति पर कौन हावी है
जाति या विकास। आज कौन राजनीति की दिशा और दशा तय कर रहा है। क्या विकास का फैक्टर आज की राजनीति का सबसे बडा मुददा है। क्या जाति और धर्म से ज्यादा लोग सुशासन को तव्वजो लगे है। यह मेरी जाति का, यह मेरी बिरादरी का, मेरे मज़हब का जैसी बातो से आज लोग तंग आ चुके है। क्या विकास की राजनीति ने मण्डल और कमण्डल की राजनीति को बौना साबित कर दिया है। जरा सोचिए जो बिहार दशकों से जातियों की बेड़ियों में जकड़ा था, उस बिहार का जनादेश क्या कहता है। जरा सोचिए, क्यों यूपीए सरकार को दोबारा जनता ने केन्द्र की गददी सौंपी। क्यों नरेन्द्र मोदी, नीतिश कुमार, शीला दिक्षित, रमन सिंह, राजशेखर रेडडी जो आज नही रहे, नवीन पटनायक और शिवराज सिंह चौहान को जनता ने दोबरा सरकार बनाने की बागडौर सौंपी। यह कुछ ऐसे यक्ष प्रश्न जिनका जवाब राजनीति के धुरंधर तलाशने में जुटे हुए हैं। जवाब इसका भी तलाशा जाने लगा है कि उन दलों का क्या होगा जिनका राजनीतिक भविश्य जाति और धर्म के नाम पर टिका है। बदलाव दिख रहा है मगर क्या यह जारी रहेगा। क्या मतदाता इस सिलसिले को बरकरार रखेंगे। बहराहाल कहानी कुछ भी हो जानकर इसे लोकतन्त्र के लिए एक शुभ संकेत मान रहे हैं।
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