पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। अभी और कितना इंतजार करना पड़ेगा किसी को मालूम नही। बहरहाल प्रधानमंत्री ने भी लोकपाल के तहत आने की अपनी मंशा साफ कर दी है। देश को पीएम, सीएम और डीएम चलाते हैं। इसलिए इनके स्तर से ही जवाबदेही और पारदर्शिता की शुरूआत होनी चाहिए। सवाल यह उठता है कि अगर लोकपाल विधयेक कानून की शक्ल ले भी लेता है तो क्या सबकुछ ठीक हो जाएगा। आज तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। ये मौजूद जरूर है मगर मौजूदगी का अहसास ना के बराबर है। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया क्या हुआ। नौबत इस्तीफा देने तक की आ गई। क्योंकि जहां मुखिया ही भ्रष्ट हो तो जांच क्या खाक होगी। आज देष में भ्रष्टचार से लड़ने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी एक सिफारिशी संस्थान है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां कितनी न्याय कर पाती होगीं। हाल ही में मुख्य सतर्कता आयुक्त पी जे थामस की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने इस संस्थान की विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया। मेरा मानना है कि अगर इन्हें ही स्वतंत्र तरीके से काम करने दिया जाए तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टचार पर अंकुष लगाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकपाल की दषा भी कहीं ऐसी ही न हो जाए। इसलिए जरूरी है कि न सिर्फ इस संस्थान को पूरी स्वतंत्रता दी जाए बल्कि इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से भी दूर रखा जाए। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेन्स की बात कहने वाले नेता इसे मूर्त रूप दे पायेंगे। अगर हां तो हालात में सुधार आयेगा और अगर नही तो हमें प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट 1988 की जगह प्रमोषन आफ करप्षन एक्ट 2011 में बना देना चाहिए। ताकी सबको जेब गरम करने का मौका मिले। अगर हालात नही बलने तो रोजनगार का अधिकार सूचना का अधिकार शिक्षा का अधिकार और भोजन के अधिकार पर इतराने वाली यूपीए सरकार से जनता कहीं यह न कहे कि राइट टू करप्षन एक्ट भी लाओ। ताकि खेल सबके सामने हो।
एक आरटीआई को लाकर सरकार पछता रही है और उसमें संशोधन करने जा रही है. तो लोकपाल क्योंकर लाएगी?
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