आखिरकार इंतजार खत्म हुआ और सरकार ने बहुप्रतिक्षित लोकपाल विधेयक को संसद के पटल पर पेश कर दिया। यह 10 वां मौका होगा जब लोकपाल से जुड़ा विधेयक संसद में पेश किया गया। आखिरकार भारी दबाव के चलते सरकार ने इस पर बहस के लिए 27 से लेकर 29 दिसंबर का तारीख मुकर्रर की है। इसके लिए संसद का सत्र तीन दिन के लिए आगे बढ़ाया गया है। मगर संसद के मूड को देखकर लगता नही की लोकपाल की डगर इतनी आसान होगी। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पाटी समेत सभी राजनीतिक दलों ने सरकार के बिल के मसौदे पर कमियां निकालना शुरू कर दिया है। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो इसे असंवैधानिक तक करार दे दिया। बीजेपी को सबसे ज्यादा नाराजगी अल्पसंख्यकों के आरक्षण को लेकर थी। दरअसल इस विधेयक में कहा गया है कि लोकपाल का एक 9 सदस्यीय पैनल होगा जिसमें आठ सदस्य और एक अध्यक्ष मतलब लोकपाल होगा। इस पैनल में 50 फीसदी लोग अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जाति, महिलाओं और अल्पसंख्यकों से होंगे। पहले बिल में अल्पसंख्यक शब्द नही था मगर लालू, मुलायम और बीएसपी के विरोध में सरकार ने इसमें अल्पसंख्यक शब्द बाद में जोड़ा। दूसरी सबसे बड़ी अड़चन धारा 253 थी। बीजेपी ने इस धारा की पुरजोर खिलाफत की। इस धारा के तहत ही लोकपाल कानून बनाना प्रस्तावित है। मतलब केन्द्र की ही तर्ज पर राज्य भी लाकायुक्त बनाने के लिए बाघ्य होंगे। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसे संघीय ढांचे के खिलाफ बताया। बीजेपी के लिए मुश्किल यह भी है की हाल ही में उत्तराखंड और बिहार ने लोकायुक्त कानून पारति किया है। मतलब यह कानून इस रूप में पारित होाग तो इन राज्यों को नए सिरे से लोकायुक्त का गठन करना होगा। इसलिए ज्यादातर राजनीतिक दलों का यह कहना है कि यह कानून एक माडल एक्ट की तरह हो जिसे मानने या ना मानने के लिए राज्य सरकारें बाध्य न हो। विधेयक के मसौदे पर कुछ राजनीतिक दलों ने सरकार को सीधे कठघरे में खड़ा कर दिया। मसलन सरकार पर यह आरोप लगा की अन्ना के अनशन से डरकर सरकार जल्दबाजी में ऐसा विधेयक लेकर आई है जिसमें कई गंभीर खामियां हैं। वैसे देखा जाए तो सरकार की मुसीबत कम होने का नाम नही ले रही है। अन्ना हजारे ने लोकपल विधेयक को जनता के साथ धोखा करार दिया है। उनका मानना है कि यह विधेयक 27 अगस्त के उस प्रस्ताव के विपरीत है जिसे संसद ने सर्वसम्मित से स्थाई समिति को भेजा था। गौरतलब है इसमें सीटीजन चार्टर, लोअर ब्यूरोके्रसी और एक ही कानून से लेकापाल और लोकायुक्त बनाने पर सहमति थी। मगर सरकार ने एक को छोड़कर बाकी मांगे नही मानीं। अब अन्ना ने एक बार फिर सरकार के खिलाफ ताल ठोक दी है। 27 को जब सदन लोकपाल पर चर्चा कर रहा होगा अन्ना मुंबई में सरकार को अपनी ताकत का अहसास कराऐंगे। उन्होने अपने कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। तीन दिन के अनशन के बाद वह तीन दिन जेल भरो आंदोलन करेंगे। साथ ही अन्ना हजारे पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में प्रचार करेंगे। कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यह चुनाव ही है। क्योंकि पांच राज्यों में से पंजाब और उत्तराखंड की सत्ता में काबिज होने की उसे पूरी उम्मीद है। राहत की बात यह है कि सोनिया गांधी ने सरकार द्धारा पेष विधेयक का ख्ुालकार समर्थन किया है। बहरहाल अगर संसद की बात करें तो गुरूवार का माहौल देखकर लगता नही कि राजनीतिक दलों में इस कानून को पारित कराने की कोई खास दिलचस्पी दिखाई देती है।। बीजेपी राजनीतिक फायदे का आंकलन करते हुए अन्ना की ज्यादातर मांगों में सुर से सुर मिला रही है। कांग्रेस पशोपेश में है बस उसकी नजर राजनीतिक दलों के रूख पर टिकी है। गुरूवार को लोकसभा का नजारा बिलकुल अलग था। लालू प्रसाद, अनंत गीते और गुरूदास दास गुप्ता को अपने भाषणों में सबसे ज्यादा तालीयों सरकार की तरफ से मिली। यानि कांग्रेस अन्ना के खिलाफ खुद खड़ा नही दिखना चाहती मगर अन्ना पर हल्ला बोलने वालों पर उसकी नजरे निगेहबान है। राजनीति का खेल देखिए समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव जंतर मंतर पर अन्ना के समर्थन में पहुंचे मगर लोकसभा में मुलायम सिंह को लोकपाल के रूप में ऐसा दरोगा दिखाई दे रहा है जो नेताओं का जीना मुश्किल कर देगा। जंतरमंतर पर सीपीआई के नेता एबी बर्धन अन्ना के समर्थन पर पहुंचे मगर लोकसभा में उनकी पार्टी के सांसद गुरूदास दास गुप्ता यह कहते दिखे की सड़कों के प्रदर्षन संसद को अपने मनमाफिक कानून बनाने के लिए बाध्य नही कर सकते। गुरूवार को अगर देखा जाए तो लोकसभा का नजारा बिलकुल जुदा था। लोकपाल की चर्चा गायब थी हर ओर एक ही षोर था इसमें अल्पसंख्यकों के लिए जगह कहां हैं। मतलब साफ था राजनीतिक दलों के पास मौका था वोट बैंक के लिए बैटिंग करने का लिहाजा लालू ,मुलायम सब सरकार पर आग बबूला हो गए। बुनियादी सवाल यह है कि अन्ना हजारे की मांगों को क्या यह संसद नजरअंदाज कर देगी। क्या वकाई जनप्रतिनिधि एक मजबूत और सषक्त लोकपाल देश को देना चाहते हैं। जहां टीम अन्ना सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए सरकार पर लगातार दबाव बनाये हुए है मगर सरकार ने सीबीआई के निदेशक के चयन के अलावा सबकुछ पहले जैसा ही रखा। सीटीजन चार्टर के तौर पर एक अलग विधेयक पेश किया है। न्यायपालिका में मौजूद भ्रष्टाचार सरकार न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक से करेगी। इसके अलावा व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा और काले धन पर रोक जैसे कानूनों के सहारे सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात कर रही है। इससे पहले सरकार सरकारी खरीद में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नई खरीद नीति को अमलीजामा पहना चुकी है। सबसे दिलचस्प यह देखना होगा कि संसद में होने वाली चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों का क्या रूख रहता है। इतना जरूर है की देश को एक जबरदस्त बहस देखने के लिए अपने आपको तैयार रखना चाहिए। इसमें कोई दो राय नही की कानून बनाना संसद का काम है। और संसद की संप्रभुता सबसे उपर है मगर बुनियादी सवाल यह है की अगर अन्ना का अनशन नही होता तो क्या सरकार लोकपाल को लेकर इतनी गंभीर मुद्रा में कभी आती। आज सदन में सरकार के सामने आमसहमति के अभाव जरूर है। लिहाजा कानून को पारित कराने की चुनौति कांग्रेसी रणनीतिकारों के सामने बरकारार है। संसद को यह नही भूलना चाहिए कि लोकपाल विधेयक आज हर जनमानस की आवाज में रच बस चुका है। पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। बहरहाल अब जनता एक मजबूत और सशक्त लोकपाल के लिए और ज्यादा इंतजार करने की स्थिति में नही है।
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011
अन्ना अनशन और लोकपाल
आखिरकार इंतजार खत्म हुआ और सरकार ने बहुप्रतिक्षित लोकपाल विधेयक को संसद के पटल पर पेश कर दिया। यह 10 वां मौका होगा जब लोकपाल से जुड़ा विधेयक संसद में पेश किया गया। आखिरकार भारी दबाव के चलते सरकार ने इस पर बहस के लिए 27 से लेकर 29 दिसंबर का तारीख मुकर्रर की है। इसके लिए संसद का सत्र तीन दिन के लिए आगे बढ़ाया गया है। मगर संसद के मूड को देखकर लगता नही की लोकपाल की डगर इतनी आसान होगी। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पाटी समेत सभी राजनीतिक दलों ने सरकार के बिल के मसौदे पर कमियां निकालना शुरू कर दिया है। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो इसे असंवैधानिक तक करार दे दिया। बीजेपी को सबसे ज्यादा नाराजगी अल्पसंख्यकों के आरक्षण को लेकर थी। दरअसल इस विधेयक में कहा गया है कि लोकपाल का एक 9 सदस्यीय पैनल होगा जिसमें आठ सदस्य और एक अध्यक्ष मतलब लोकपाल होगा। इस पैनल में 50 फीसदी लोग अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जाति, महिलाओं और अल्पसंख्यकों से होंगे। पहले बिल में अल्पसंख्यक शब्द नही था मगर लालू, मुलायम और बीएसपी के विरोध में सरकार ने इसमें अल्पसंख्यक शब्द बाद में जोड़ा। दूसरी सबसे बड़ी अड़चन धारा 253 थी। बीजेपी ने इस धारा की पुरजोर खिलाफत की। इस धारा के तहत ही लोकपाल कानून बनाना प्रस्तावित है। मतलब केन्द्र की ही तर्ज पर राज्य भी लाकायुक्त बनाने के लिए बाघ्य होंगे। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसे संघीय ढांचे के खिलाफ बताया। बीजेपी के लिए मुश्किल यह भी है की हाल ही में उत्तराखंड और बिहार ने लोकायुक्त कानून पारति किया है। मतलब यह कानून इस रूप में पारित होाग तो इन राज्यों को नए सिरे से लोकायुक्त का गठन करना होगा। इसलिए ज्यादातर राजनीतिक दलों का यह कहना है कि यह कानून एक माडल एक्ट की तरह हो जिसे मानने या ना मानने के लिए राज्य सरकारें बाध्य न हो। विधेयक के मसौदे पर कुछ राजनीतिक दलों ने सरकार को सीधे कठघरे में खड़ा कर दिया। मसलन सरकार पर यह आरोप लगा की अन्ना के अनशन से डरकर सरकार जल्दबाजी में ऐसा विधेयक लेकर आई है जिसमें कई गंभीर खामियां हैं। वैसे देखा जाए तो सरकार की मुसीबत कम होने का नाम नही ले रही है। अन्ना हजारे ने लोकपल विधेयक को जनता के साथ धोखा करार दिया है। उनका मानना है कि यह विधेयक 27 अगस्त के उस प्रस्ताव के विपरीत है जिसे संसद ने सर्वसम्मित से स्थाई समिति को भेजा था। गौरतलब है इसमें सीटीजन चार्टर, लोअर ब्यूरोके्रसी और एक ही कानून से लेकापाल और लोकायुक्त बनाने पर सहमति थी। मगर सरकार ने एक को छोड़कर बाकी मांगे नही मानीं। अब अन्ना ने एक बार फिर सरकार के खिलाफ ताल ठोक दी है। 27 को जब सदन लोकपाल पर चर्चा कर रहा होगा अन्ना मुंबई में सरकार को अपनी ताकत का अहसास कराऐंगे। उन्होने अपने कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। तीन दिन के अनशन के बाद वह तीन दिन जेल भरो आंदोलन करेंगे। साथ ही अन्ना हजारे पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में प्रचार करेंगे। कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यह चुनाव ही है। क्योंकि पांच राज्यों में से पंजाब और उत्तराखंड की सत्ता में काबिज होने की उसे पूरी उम्मीद है। राहत की बात यह है कि सोनिया गांधी ने सरकार द्धारा पेष विधेयक का ख्ुालकार समर्थन किया है। बहरहाल अगर संसद की बात करें तो गुरूवार का माहौल देखकर लगता नही कि राजनीतिक दलों में इस कानून को पारित कराने की कोई खास दिलचस्पी दिखाई देती है।। बीजेपी राजनीतिक फायदे का आंकलन करते हुए अन्ना की ज्यादातर मांगों में सुर से सुर मिला रही है। कांग्रेस पशोपेश में है बस उसकी नजर राजनीतिक दलों के रूख पर टिकी है। गुरूवार को लोकसभा का नजारा बिलकुल अलग था। लालू प्रसाद, अनंत गीते और गुरूदास दास गुप्ता को अपने भाषणों में सबसे ज्यादा तालीयों सरकार की तरफ से मिली। यानि कांग्रेस अन्ना के खिलाफ खुद खड़ा नही दिखना चाहती मगर अन्ना पर हल्ला बोलने वालों पर उसकी नजरे निगेहबान है। राजनीति का खेल देखिए समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव जंतर मंतर पर अन्ना के समर्थन में पहुंचे मगर लोकसभा में मुलायम सिंह को लोकपाल के रूप में ऐसा दरोगा दिखाई दे रहा है जो नेताओं का जीना मुश्किल कर देगा। जंतरमंतर पर सीपीआई के नेता एबी बर्धन अन्ना के समर्थन पर पहुंचे मगर लोकसभा में उनकी पार्टी के सांसद गुरूदास दास गुप्ता यह कहते दिखे की सड़कों के प्रदर्षन संसद को अपने मनमाफिक कानून बनाने के लिए बाध्य नही कर सकते। गुरूवार को अगर देखा जाए तो लोकसभा का नजारा बिलकुल जुदा था। लोकपाल की चर्चा गायब थी हर ओर एक ही षोर था इसमें अल्पसंख्यकों के लिए जगह कहां हैं। मतलब साफ था राजनीतिक दलों के पास मौका था वोट बैंक के लिए बैटिंग करने का लिहाजा लालू ,मुलायम सब सरकार पर आग बबूला हो गए। बुनियादी सवाल यह है कि अन्ना हजारे की मांगों को क्या यह संसद नजरअंदाज कर देगी। क्या वकाई जनप्रतिनिधि एक मजबूत और सषक्त लोकपाल देश को देना चाहते हैं। जहां टीम अन्ना सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए सरकार पर लगातार दबाव बनाये हुए है मगर सरकार ने सीबीआई के निदेशक के चयन के अलावा सबकुछ पहले जैसा ही रखा। सीटीजन चार्टर के तौर पर एक अलग विधेयक पेश किया है। न्यायपालिका में मौजूद भ्रष्टाचार सरकार न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक से करेगी। इसके अलावा व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा और काले धन पर रोक जैसे कानूनों के सहारे सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात कर रही है। इससे पहले सरकार सरकारी खरीद में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नई खरीद नीति को अमलीजामा पहना चुकी है। सबसे दिलचस्प यह देखना होगा कि संसद में होने वाली चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों का क्या रूख रहता है। इतना जरूर है की देश को एक जबरदस्त बहस देखने के लिए अपने आपको तैयार रखना चाहिए। इसमें कोई दो राय नही की कानून बनाना संसद का काम है। और संसद की संप्रभुता सबसे उपर है मगर बुनियादी सवाल यह है की अगर अन्ना का अनशन नही होता तो क्या सरकार लोकपाल को लेकर इतनी गंभीर मुद्रा में कभी आती। आज सदन में सरकार के सामने आमसहमति के अभाव जरूर है। लिहाजा कानून को पारित कराने की चुनौति कांग्रेसी रणनीतिकारों के सामने बरकारार है। संसद को यह नही भूलना चाहिए कि लोकपाल विधेयक आज हर जनमानस की आवाज में रच बस चुका है। पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। बहरहाल अब जनता एक मजबूत और सशक्त लोकपाल के लिए और ज्यादा इंतजार करने की स्थिति में नही है।
बहुत ज्ञानवर्धन. लोकसभा में लोकपाल का क्या हाल है..सब बखूबी बताया आपने.
जवाब देंहटाएंमगर मैं आपकी तरह तटस्थ नहीं रह सकती, अन्ना जो भी कर रहे हैं..कभु-कभु लगता है कि उनका भी रंग उतना श्वेत नहीं.
खैर, जानकारी के लिए शुक्रिया!
kuchh ho par neta aapne pair par kulhari nahi marege....iske liye to public ko hi aage aa kar congres ki sarkar ko bhagana he..
जवाब देंहटाएंthoda air visttar se likhte to hame aur seekhne ka mauka mailta
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