सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया है। विधेयक के मुताबिक केन्द्र सरकार 63.5 फीसदी आबादी को सस्ते दरों में राशन मुहैया कराएगी। मसलन ग्रामीण भारत की 75 फीसदी आबादी जिसमें से 46 फीसदी को प्राथमिकता में रखा गया है। इसी तरह शहरों में 50 फीसदी आबादी जिसमें से 28 फीसदी आबादी को प्राथमिकता में रखा गया है। इन सबको सरकार सस्ता अनाज इस कानून के माध्यम से उपलब्ध कराएगी। मसलन प्रथमिकता के मापदंड में खरे उतरने वाले व्यक्ति को चावल, गेहूं और ज्वार दिया जाएगा। इसकी कीमत 3, 2 और 1 रूपये होगी। इससे सरकार को 61 मिलियन टन खाद्यान्न की आवष्यकता होगी जबकि इसका वित्तिय भार 1 लाख करोड़ से ज्यादा होगा। इसके साथ लम्बे समय से इंतजार हो रहे इस कानून के जल्द पारित होने की उम्मीद है। यह कानून इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण होगा की पहली बार उन परिवारों को भोजन का अधिकार दिया जा रहा है जो बमुश्किल दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते हैं। कानून के लागू होने के बाद भोजन पाना अब इनका कानूनी अधिकार बन जाएगा। जरा सोचिए जिस देश का वैश्विक सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान हो वहां इस कानून के लागू होने का क्या मतलब है, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। मगर सरकार के सामने कई चुनौतियां एक साथ मुंह बायें खड़ी है। उदाहरण के तौर पर कौन गरीब है। गरीबी मांपने का आदर्श पैमाना क्या होना चाहिए। गरीब कौन है वो जिसे सुरेश तेंदुलकर का अर्थशास्त्र गरीब मानता है या वो जिसे एनसी सक्सेना साहब का मनोविज्ञान गरीब मानता है या फिर वो जिसके बारे में अर्जुन सेना गुप्ता की रिपोर्ट कहती है कि 77 फीसदी की हैसियत प्रतिदिन 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। या वो जिसके लिए योजना आयोग गांव में 26 रूपये और षहरों में 32 रूपये का मानदंड रखता है। खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने की पहली चुनौति है गरीबों का सही और सटीक आंकलन। इस कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। आज देश के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों का पीडीएस के माध्यम से सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। हालांकि राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यही कारण है कि अकसर राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। मुष्किल फर्जी राशन कार्ड भी है जो करोड़ों की तादाद में इस सिस्टम का हिस्सा है। इसमें से करीब 1.80 करोड़ राषन कार्डो को राज्य सरकारें निरस्त भी कर चुकीं है। मगर अब भी इनकी तादाद बहुत ज्यादा है। एक तरफ जरूरत मेंदों के पास बीपीएल राशन कार्ड नही दूसरी तरफ मजबूत आर्थिक लोगों के पास बीपीएल कार्ड उनलब्ध है। लिहाजा यह बहुत जरूरी है की इन कमियों को दूर किया जाए। दूसरी चुनौति है की कानून की जरूरत के मुताबिक उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए। एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में हमारा उत्पादन 245 मिलियन टन के आसपास है जबकि 2020 तक 281 मिलियन टन की दरकार इस देश को होगी। इसके लिए जरूरी है की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाई जाए। हमारे देश में चावल की उत्पादकता में सुधार जरूर हुआ है मगर यह नाकाफी है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 3000 किलो ग्राम के आसपास है जबकि चीन में यही उत्पादन 6074 जापान 5850 और अमेरिका में 7448 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है। इससे जाहिर होता होता है कि अभी खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से हमें एक लंबी मंज़िल तय करनी है। इसका उपाय भी भारत के मेहनती किसान के पास है। बस जरूरत है उन्हें उपज का बेहतर मूल्य देन की। तीसरा खाद्यान्न के रखरखाव के लिए भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। भंडारण के अभाव में हजारों करोड़ का राशन हर साल खराब हो जाता है। बहरहाल सरकार ने निजि क्षेत्र को लाकर इसका समाधन ढूंढने की कोषिष की है मगर यहा नकाफी है। आज जरूरत है सरकार इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खर्च कर रखरखाव के संसाधन को मजबूत करे। चैथा वितरण प्रणाली को दुरूस्त करना। वर्तमान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। इसी कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कई झोल दिखाई दे रहें हैं। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का खाद्यान्न काले बाजार में बिक जाता है। इसका मतलब राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। कितनी शर्म की बात है कि 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है। मगर सरकारों के पास शिकायतें महज मुठठी भर दर्ज होती है। क्योंकि सारा खेल नेताओं और अफसरशाही की आड़ में होता है। इसलिए कोई भी मामला दर्ज नही हो पाता। सरकारों के नुमाइंदे चाहे वह खाद्य मंत्री हो या खाद्य सचिव दिल्ली के विज्ञान भवन में आकर वितरण प्रणाली में सुधार पर माथापच्ची करते हैं। जबकि इस खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी या कहें कमाऊपूत यही लोग हैं। खेल का सबसे बड़ा हिस्सा इन्ही की झोली में जाता है। कहने का मतलब है चोरों से चोरी कैसे रोकी जायी इस पर चर्चा की जाती है। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। जरा सोचिए जिस देश का 51 फीसदी आनाज कालेबाजार में बिक जाता है वहां मुठ्ठी भर शिकायतें भी दर्ज नही होती। क्या इस निकम्मेपन के सहारे हम वितरण व्यवस्था को सुधारने का दंभ भर रहे है। क्या इस वितरण प्रणाली के सहारे हम खाद्य सुरक्षा कानून को जमीन पर उतार पाऐंगे। जब मामले ही दर्ज नही होगें तो कार्यवाही कहां से होगी। इसमें कोई दो राय नही की खाद्य सुरक्षा कानून एक ऐतिहासिक कानून साबित होगा। मगर इसे लागू करने के लिए केन्द्र और राज्यों दोनों को कमर कसनी होगी। ताकि इस कानून के तहत जो प्रावधान किए जा रहे है वह हर कीमत पर जरूरतमंदों तक पहुंचे।
गुरुवार, 22 दिसंबर 2011
खाद्य सुरक्षा कानून 2011
सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया है। विधेयक के मुताबिक केन्द्र सरकार 63.5 फीसदी आबादी को सस्ते दरों में राशन मुहैया कराएगी। मसलन ग्रामीण भारत की 75 फीसदी आबादी जिसमें से 46 फीसदी को प्राथमिकता में रखा गया है। इसी तरह शहरों में 50 फीसदी आबादी जिसमें से 28 फीसदी आबादी को प्राथमिकता में रखा गया है। इन सबको सरकार सस्ता अनाज इस कानून के माध्यम से उपलब्ध कराएगी। मसलन प्रथमिकता के मापदंड में खरे उतरने वाले व्यक्ति को चावल, गेहूं और ज्वार दिया जाएगा। इसकी कीमत 3, 2 और 1 रूपये होगी। इससे सरकार को 61 मिलियन टन खाद्यान्न की आवष्यकता होगी जबकि इसका वित्तिय भार 1 लाख करोड़ से ज्यादा होगा। इसके साथ लम्बे समय से इंतजार हो रहे इस कानून के जल्द पारित होने की उम्मीद है। यह कानून इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण होगा की पहली बार उन परिवारों को भोजन का अधिकार दिया जा रहा है जो बमुश्किल दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते हैं। कानून के लागू होने के बाद भोजन पाना अब इनका कानूनी अधिकार बन जाएगा। जरा सोचिए जिस देश का वैश्विक सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान हो वहां इस कानून के लागू होने का क्या मतलब है, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। मगर सरकार के सामने कई चुनौतियां एक साथ मुंह बायें खड़ी है। उदाहरण के तौर पर कौन गरीब है। गरीबी मांपने का आदर्श पैमाना क्या होना चाहिए। गरीब कौन है वो जिसे सुरेश तेंदुलकर का अर्थशास्त्र गरीब मानता है या वो जिसे एनसी सक्सेना साहब का मनोविज्ञान गरीब मानता है या फिर वो जिसके बारे में अर्जुन सेना गुप्ता की रिपोर्ट कहती है कि 77 फीसदी की हैसियत प्रतिदिन 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। या वो जिसके लिए योजना आयोग गांव में 26 रूपये और षहरों में 32 रूपये का मानदंड रखता है। खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने की पहली चुनौति है गरीबों का सही और सटीक आंकलन। इस कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। आज देश के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों का पीडीएस के माध्यम से सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। हालांकि राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यही कारण है कि अकसर राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। मुष्किल फर्जी राशन कार्ड भी है जो करोड़ों की तादाद में इस सिस्टम का हिस्सा है। इसमें से करीब 1.80 करोड़ राषन कार्डो को राज्य सरकारें निरस्त भी कर चुकीं है। मगर अब भी इनकी तादाद बहुत ज्यादा है। एक तरफ जरूरत मेंदों के पास बीपीएल राशन कार्ड नही दूसरी तरफ मजबूत आर्थिक लोगों के पास बीपीएल कार्ड उनलब्ध है। लिहाजा यह बहुत जरूरी है की इन कमियों को दूर किया जाए। दूसरी चुनौति है की कानून की जरूरत के मुताबिक उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए। एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में हमारा उत्पादन 245 मिलियन टन के आसपास है जबकि 2020 तक 281 मिलियन टन की दरकार इस देश को होगी। इसके लिए जरूरी है की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाई जाए। हमारे देश में चावल की उत्पादकता में सुधार जरूर हुआ है मगर यह नाकाफी है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 3000 किलो ग्राम के आसपास है जबकि चीन में यही उत्पादन 6074 जापान 5850 और अमेरिका में 7448 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है। इससे जाहिर होता होता है कि अभी खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से हमें एक लंबी मंज़िल तय करनी है। इसका उपाय भी भारत के मेहनती किसान के पास है। बस जरूरत है उन्हें उपज का बेहतर मूल्य देन की। तीसरा खाद्यान्न के रखरखाव के लिए भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। भंडारण के अभाव में हजारों करोड़ का राशन हर साल खराब हो जाता है। बहरहाल सरकार ने निजि क्षेत्र को लाकर इसका समाधन ढूंढने की कोषिष की है मगर यहा नकाफी है। आज जरूरत है सरकार इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खर्च कर रखरखाव के संसाधन को मजबूत करे। चैथा वितरण प्रणाली को दुरूस्त करना। वर्तमान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। इसी कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कई झोल दिखाई दे रहें हैं। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का खाद्यान्न काले बाजार में बिक जाता है। इसका मतलब राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। कितनी शर्म की बात है कि 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है। मगर सरकारों के पास शिकायतें महज मुठठी भर दर्ज होती है। क्योंकि सारा खेल नेताओं और अफसरशाही की आड़ में होता है। इसलिए कोई भी मामला दर्ज नही हो पाता। सरकारों के नुमाइंदे चाहे वह खाद्य मंत्री हो या खाद्य सचिव दिल्ली के विज्ञान भवन में आकर वितरण प्रणाली में सुधार पर माथापच्ची करते हैं। जबकि इस खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी या कहें कमाऊपूत यही लोग हैं। खेल का सबसे बड़ा हिस्सा इन्ही की झोली में जाता है। कहने का मतलब है चोरों से चोरी कैसे रोकी जायी इस पर चर्चा की जाती है। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। जरा सोचिए जिस देश का 51 फीसदी आनाज कालेबाजार में बिक जाता है वहां मुठ्ठी भर शिकायतें भी दर्ज नही होती। क्या इस निकम्मेपन के सहारे हम वितरण व्यवस्था को सुधारने का दंभ भर रहे है। क्या इस वितरण प्रणाली के सहारे हम खाद्य सुरक्षा कानून को जमीन पर उतार पाऐंगे। जब मामले ही दर्ज नही होगें तो कार्यवाही कहां से होगी। इसमें कोई दो राय नही की खाद्य सुरक्षा कानून एक ऐतिहासिक कानून साबित होगा। मगर इसे लागू करने के लिए केन्द्र और राज्यों दोनों को कमर कसनी होगी। ताकि इस कानून के तहत जो प्रावधान किए जा रहे है वह हर कीमत पर जरूरतमंदों तक पहुंचे।
सच यही है कि वितरण प्रणाली पर माफिया का कब्जा है जो किसी भी तरह से गरीबों तक अनाज नहीं पहूंचने नहीं देगें। दरअसल सरकार यदि कुछ कर सकती है तो वह यह करे कि जो भी पुरानी व्यवस्था है उसे लागू करा दे।
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