मीड- डे मील योजना का देश भर में क्या हाल है। मीडिया के जरिये आज सबके सामने है। इस योजना को इस साल 2012-13 में 13250 करोड़ का आवंटन किया गया है। सरकार आंकड़ों के मुताबिक 12 करोड़ बच्चे प्रतिदिन इससे लाभान्वित होते है। 2002 में शुरू हुआ सर्वशिक्षा अभियान की कामयाबी के पीछे मीड डे मील योजना का अहम योगदान हैं। न सिर्फ बच्चे स्कूल से जुड़े बल्कि स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की तादाद में भारी कमी आई। यह योजना भारत की महत्वकांक्षी योजनाओं में से एक है। जिस देश की 48 फीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है, उस देश के लिए ऐसी योजनाऐं किसी वरदान से कम नही। हर बार केन्द्र सरकार सालाना आवंटन बढ़ाकर अपनी पीठ थपथपाती है। मगर बात योजना के बेहतर क्रियान्वयन की आती है तो जिम्मेदारी राज्य सरकार के जिम्मे कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है। मानो बजट और गाइडलाइन बनाकर वह आंख मंूद कर बैठ जाती है। जरा सोचिए जो सरकार करदाताओं के पैसे की बर्बादी रोक नही सकती उसे बने रहने का क्या हक है। हाल ही में बिहार के छपरा में 23 बच्चों की मौत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। क्या दोष था उन बच्चों का? बस यही कि उन्होने किसी गरीब के घर में जन्म लिया। मीड डे मील योजना में अनिमियिताओं का मामले पहले भी दर्जनों बार सामने आए है। मगर सरकार हर बार जांच और कार्यवाही का भरोसा दिलाकर बैठ जाती। अगर किसी घटना में सख्ती से पेश आया गया होता तो इस योजना की खामियों को दूर किया जा कसता था। एमडीएम योजना केन्द्र और राज्य की संयुक्त जिम्मेदारी के तहत चलाई जाती है। केन्द्र सरकार का अंशदान 75 फीसदी और राज्यों का योगदान 25 फीसदी है। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए यह 90ः10 है। केन्द्र सरकार द्धारा दिए गए बजट का 1.8 फीसदी निगरानी व्यवस्था पर खर्च होना चाहिए। मगर निगरानी के नाम पर कुछ नही होता। अकेेले केन्द्र सरकार ने 41 संस्थान मीड डे मील योजना के लिए नियुक्त किए है। इनमें दो संस्थानों जामिया मिलिया इस्लामिया और एएन सिन्हा इंस्टीटयूट आफ सोशल स्टडीज ने अपने अध्यन में यह पाया कि बिहार में बच्चों को दोपहर का भोजन देने की व्यवस्था बेहद दयनीय है। केन्द्र सरकार ने कार्यवाही के लिए यह रिपोर्ट राज्यों को भेज दी। राज्य ने क्या किया कोई नही जानता। इसके अलाव योजना आयोग और सीएजी ने इस योजना में तमाम खामियां गिनाई। मगर सुधार के नाम पर केवल लीपापोती हुई। योजना आयोग ने साफ किया की योजना के दिशानिर्देशों के मुताबिक न तो जनता की भागीदारी है, न स्वास्थ्य महकमे का जुड़ाव, यहां तक की निगरानी तंत्र लापता है। हां कागजों में भोजन से लेकर निगरानी के मानकों के लेकर लम्बी चैड़ी बातों का जिक्र जरूर है। मसलन 1 से पांच तक के कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को 100 ग्राम चावल या आटा, 20 ग्राम दाल, 50 ग्राम हरी सब्जी और 5 ग्राम फैट दिया जाएगा। कक्षा 6 से 8 के बच्चों को 150 ग्राम चावल, 30 ग्राम दाल, 75 ग्राम सब्जी और 7.5 ग्राम दाल दिया जाना है। कहा जाता है इससे बच्चों को 200 ग्राम प्रोटीन मिलेगा, 700 ग्राम कैलोरी मिलेगी। साथ ही समय समय पर आयरन, फौलिक ऐसिड और विटामिन ए की गोलियां भी देने का प्रावधान है। एमडीएम के दिशानिर्देशों के तहत एक मजबूत निगरानी व्यवस्था बनाया जाना जरूरी है। जिसमें राज्य सरकार के अधिकारी, फूड और न्यूट्रीशन बोर्ड, न्यूट्रीशन एक्सपर्ट निगरानी संस्थान और विद्यालय प्रबंधन समिति शमिल होंगे। पूरे देश में आपको यह व्यवस्था सिर्फ कागजों में मिलेगी। इसके अलावा बच्चों को पका भोजन परोसने से पहले तीन लोगों की समिति जिसमें संबधित स्कूल का शिक्षक भी शामिल होता है को इसकी जांच करना आवश्यक है। ज्यादातर जगहो में इस प्रक्रिया को नही अपनाया जाता। यह लापारवाही तब है जब शिशु मृत्यु दर और कुपोषण को लेकर हम पूरे विश्व में बदनाम हैं। इससे केन्द्र और राज्य सरकारों की गंभीरता पता चलती है। यकिन मानिए यह हाल केवल मीड डे मील योजना का नही, लगभग देश भर में चलाई जा रही सभी योजनाओं का है। केन्द्र सरकार द्धारा संचालित सार्वजनिक वितरण प्रणाली और एकीकृत बाल विकास योजना का भी कमोबेश यही हाल है। इन योजनाओं में भी मीड डे मील की तरह भ्रष्टाचार चरम पर है। इसमें आज भी कमी नही आई है। यानि बिहार की छपरा जैसे घटना आगे नही होगी ऐसा मानने वाले जल्द ही गलत साबित हो जाऐंगे। क्योंकि सरकारी निकम्मेपन की इंताह बार बार ऐसे दिलदहलाने वाले हादसों को दोहराएगी। वह इसलिए क्योंकि सरकारी स्कूल में नेताओं और बाबूओं के बच्चे नही पड़ते। दरअसल पूरा सिस्टम इतना सड़ चुका है की सुधार की आस दूर दूर तक नजर नही आती। सच्चाई यह है कि आज शिक्षक स्कूलों में पढ़ाने के सिवाय बाकि सब काम कर रहा है। मीड डे मील की व्यवस्था, जनगणना, चुनावी डयूटी, राशन उठाने की जिम्मेदारी और खाने की गुणवत्ता सब में शिक्षकों को जोड़ा गया है। अब सवाल उठता है की क्या इन समस्याओं का कोई समाधान है? या बिना जवाबदेही के जनता की कमाई का गाढ़ा पैसा पानी की तरह बाहाया जाता रहेगा। आज जरूरत है कि सभी सामाजिक योजना में सोशल आडिट अनिवार्य किया जाए। निगरानी व्यवस्था को दुरूस्त किया जाए। हर स्तर पर जवाबदेही तय की जाऐं। जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। भारत योजनाओं को बनाने में नंबर 1 ह,ै मगर बात लागू कराने की हो तो सबसे फिसडडी देश है। मीड डे मील विश्व का भूखमरी के मददेनजर सबसे बड़ा कार्यक्रम है। क्या अभिभावकों को प्रशिक्षण देकर तैयार किया जा सकता? इससे खाने की गुणवत्ता पर नजर रखी जा सकेगी। निगरानी व्यवस्था के खर्च का जिम्मा सरकार ले। अब समय आ गया है की देश में आउटले बनाम आउटकम की ईमानदार बहस हो। जिम्मेदारी, जवाबदेही के साथ जैसे कार्यो को लागू करना होगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आजतक किसी जनप्रतिनिधि ने मीड डे मील नही चखा होगा। अगर चखा होता तो देश भर से इतनी खराब रिपोर्टे नही आती। किसी भी योजना का क्रियान्वयन हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है। जिसका समाधान हम आज तक नही खोज पाऐं है। क्योंकि हम सभी समस्याओं का समाधान कानूनों में खोजते हैं। कार्यवाही के नाम पर जांच समिति गठित करने से लेकर सस्पेंशन तक के थके हुए उपाय करते हैं। एक उदाहरण से इसे आसानी से समझा जा सकता है। सरकार ने इस साल सर्व शिक्षा अभियान को 27258 करोड़ का आवंटन किया है। एमडीएम के बजट को मिलाकर यह होता है 41508 करोड़। इसमें राज्यों का हिस्सा शामिल नही है। इन दोनों योजना से आप बच्चों को स्कूल से जोड़ने और कुपोषण को रोकने का काम करना चाहते थे। इतने सालों के बाद नतीजों के नाम पर क्या है सामने। प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब है। कुपोषण की स्थिति में सुधार नही है और एमडीएम खाकर बच्चे मर रहे है, बीमार हो रहे है। सवाल उठता है की हजारों करोड़ खर्च करने के बाद हमें मिला क्या? किस भारत निमार्ण की हम बात कर रहे है? आज देश की आजीविका सुरक्षा, उर्जा सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा आन्तरिक सुरक्षा और पर्यायवरण सुरक्षा की क्या स्थिति है? किसी भी देश के सर्वसमावेशी विकास के लिए यह जरूरी है। मगर इन पांचों मानदंडों में भारत बहुत पीछे है। सरकारें भले ही आल इज वेल का नारा देते रहें मगर जमीनी हालात बिलकुल जुदा है। अगर समय रहते इनमें सुधार नही हुआ तो आने वाले समय में हालात और खराब होंगे।
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