2003 में एनडीए शासनकाल में गुजरात दंगों के बाद 'राजधर्म' नहीं निभा पाने के कारण वाजपेयी मोदी से इस्तीफा मांगने के पक्ष में थे। लेकिन उस वक्त उनके सबसे बड़े समर्थक लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे कहा था- ऐसा मत कीजिए, बवाल हो जाएगा।
दस साल बाद 2013 में वही लालकृष्ण आडवाणी अब बीजेपी और आरएसएस से मिन्नत कर रहे थे कि वे अभी मोदी को पीएम कैंडिडेट नहीं बनवाएं। उन्हें जवाब मिला कि अब और देरी की, तो बवाल हो जाएगा।
सवाल उठता है कि आखिर इन दस बरसों में ऐसा क्या हुआ कि पूरा चक्र पलट गया और और बीजेपी के भीष्म पितामह अपने शिष्य से ही नाराज हो गए। आडवाणी की मोदी से नाराजगी के ये पांच अहम कारण हो सकते हैं:
[ जारी है ]
1. गुजरात कनेक्शन
लालकृष्ण आडवाणी इस बात से आहत रहे कि हाल में गुजरात में बीजेपी की मजबूती का सारा क्रेडिट सिर्फ नरेंद्र मोदी को दिया गया, जबकि वहां उन्होंने पार्टी को जड़ से सींचा था। दरअसल आडवाणी मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले 1991 से ही गुजरात से लोकसभा सीट जीतते रहे हैं। गुजरात में पहली बार आडवाणी ने मोदी को प्रोजेक्ट किया था। ऐसे में उन्हें इस बात पर मोदी से दु:ख रहा कि मोदी ने बाद में इस बात को स्वीकार नहीं किया और सारा क्रेडिट खुद लेते रहे।
2. आडवाणी-सुषमा-मोदी
आडवाणी हाल के वर्षों में सुषमा स्वराज को अधिक तरजीह देते रहे। आडवाणी ने कई मौकों पर सुषमा को अपना उत्तराधिकारी भी संकेतों में बताया। उनके पक्ष में एक गुट भी था। लेकिन मोदी न सिर्फ सुषमा से आगे बढ़ते गए, बल्कि आडवाणी के गुट में सेंध लगाते रहे। यह आडवाणी को नागवार गुजरा।
3. रथयात्रा, गुजरात और बिहार
2011 में आडवाणी ने पूरे देश में करप्शन के खिलाफ यात्रा निकाली थी। उस वक्त आई खबरों के मुताबिक, मोदी इस आयोजन के खिलाफ थे। साथ ही, इसके बिहार से शुरू करने के फैसले पर भी विवाद हुआ कि यह गुजरात से शुरू होना चाहिए था। इन विवादों के बीच आडवाणी की यह यात्रा सफल नहीं रही।
4. पीएम न बनने का दुख
लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की हसरत कभी छिपी नहीं रही। उन्होंने इस बात से कभी इनकार नहीं किया कि वह 2014 के चुनाव में अपनी दावेदारी को वापस ले रहे हैं। इसके अलावा जेडीयू और दूसरे सहयोगी दल भी उनके पक्ष में रहे। इन सबके बीच उनको नजरअंदाज कर मोदी ने जिस तेजी से इस पद के लिए लॉबी की, आडवाणी की उनसे नाराजगी बढ़ती गई।
5. नहीं मिली एहसान की कीमत
लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी को जरूरत के वक्त लाइफलाइन दी। लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि जब उन्हें मोदी के समर्थन के जरूरत पड़ी, तो वह चुप रहे। जिन्ना प्रकरण में जब आडवाणी पूरे अलग-थलग पड़े तब भी मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोले। वहीं मोदी को जब आरएसएस की नजदीकी और आडवाणी के साथ में कोई एक विकल्प चुनने का मौका आया, तो उन्होंने आरएसएस का साथ चुना।
आडवाणीः उत्थान और पतन
1986: पहली बार आडवाणी बीजेपी के अध्यक्ष बने। लगभग इसी वक्त देश में कुशासन और भ्रष्टाचार के चलते सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के प्रति जन असंतोष बढ़ता नजर आ रहा था। मौके को भांपकर आडवाणी ने देश में एक नई आक्रामक सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत की।
1989: कट्टर हिंदुत्व का अजेंडा आगे बढ़ाते हुए आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी ने अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन खड़ा किया। पार्टी ने बाबरी मस्जिद की विवादास्पद जगह पर राम मंदिर के निर्माण की मांग उठाकर सियासत को सुलगा दिया। इसी सिलसिले में आडवाणी ने देशभर में अपनी बहुचर्चित रथयात्रा शुरू की, लेकिन बिहार में लालू यादव सरकार द्वारा उन्हें बीच में ही गिरफ्तार कर लिए जाने से यात्रा अधूरी रह गई।
1991: आडवाणी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का फायदा बीजेपी को उत्तर भारत में हुआ और आम चुनाव में बीजेपी कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी।
1992: आडवाणी की रथ यात्रा के दो बरस बाद कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी। कई दूसरे लोगों के साथ आडवाणी मुख्य अभियुक्तों में शामिल किए गए।
1996: पहली बार बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार बनने के बाद आडवाणी देश के गृह मंत्री बनाए गए, लेकिन प्रधानमंत्री वाजपेयी की यह सरकार महज 13 दिन चल पाई।
1998-99: दोबारा एनडीए की सरकार बनने पर आडवाणी को फिर से गृह मंत्री बनाया गया और बाद में उन्हें उपप्रधानमंत्री का पद दिया गया। बीजेपी में यह अटल-आडवाणी का दौर था। हालांकि गृह मंत्री के तौर पर आडवाणी का कार्यकाल मुश्किल भरा रहा और उन्हें बाहरी आतंकी हमलों के साथ-साथ ढेरों आंतरिक उपद्रव से भी जूझना पड़ा। एनडीए ने 1999 से 2004 तक अपना कार्यकाल पूर्ण किया।
2004: बीजेपी समेत एनडीए अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहा था। आडवाणी ने पार्टी की ओर से आक्रामक प्रचार अभियान चलाया और यहां तक दावा किया कि कांग्रेस को सौ सीटें भी नहीं आएंगी, लेकिन हुआ इसका उल्टा। बीजेपी की हार हुई और उसे एक बार फिर विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा। हार के बाद बीजेपी के 'पुरोधा' अटल बिहारी वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इसी के साथ आडवाणी के हाथों में बीजेपी की कमान आ गई। आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। उन्हें पार्टी के अंदर से ही कई बगावत का सामना करना पड़ा। उनके दो करीबी- उमा भारती और मदन लाल खुराना और लंबे वक्त से प्रतिद्वंद्वी रहे मुरली मनोहर जोशी ने खुलकर उनके खिलाफ बयान दिए।
2005: आडवाणी उस वक्त बीजेपी के कई टॉप नेताओं के निशाने पर आए गए, जब उन्होंने अपनी चर्चित पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जिन्ना को 'सेक्युलर' नेता बताया। आरएसएस को भी यह नागवार गुजरा। दबाव इतना बढ़ा कि आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष का पद छोडऩा पड़ा। हालांकि कुछ दिनों बाद उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया। दिसंबर में मुंबई में बीजेपी के रजत जयंती समारोह में आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने कहा कि आडवाणी और वाजपेयी को अब नए नेताओं के हक में रास्ता छोड़ देना चाहिए। इससे आडवाणी के आरएसएस से रिश्तों में और खटास आ गई।
2007: बीजेपी संसदीय बोर्ड ने औपचारिक तौर पर ऐलान किया कि अगले आम चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।
2009: आम चुनाव बीजेपी ने आडवाणी के नेतृत्व में ही लड़ा और आडवाणी को 'पीएम इन वेटिंग' कहा गया, लेकिन एक बार फिर बाजी कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए ने ही मारी। आडवाणी ने सुषमा स्वराज के हक में लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद छोड़ दिया।
2013: नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज होकर आडवाणी ने 10 जून को पार्टी के सभी अहम पदों से इस्तीफा दे दिया। आडवाणी ने कहा कि बीजेपी अब वैसी आदर्शवादी पार्टी नहीं रही, जिसकी बुनियाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने तैयार की थी। पार्टी ने हालांकि उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया और आडवाणी ने भी पार्टी की बात मानकर अपना फैसला वापस ले लिया। इस महीने बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को औपचारिक तौर पर अपने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। नाराज आडवाणी संसदीय बोर्ड की मीटिंग में नहीं पहुंचे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर अपनी 'व्यथा' व्यक्त की।
मोदी मैजिक : टी स्टॉल से पीएम कैंडिडेट तक
1950: गुजरात के मेहसाणा जिले में जन्मे नरेंद्र मोदी अपने छह भाई-बहनों में तीसरे नंबर पर थे। मोदी ने अपने जीवन की शुरुआत अपने भाई के साथ रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान चलाने से की।
मोदी के राजनीतिक करियर की शुरुआत आरएसएस के प्रचारक के तौर पर हुई। नागपुर में शुरुआती प्रशिक्षण के बाद मोदी को संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की गुजरात यूनिट की कमान सौंपी गई।
1987: नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी जॉइन कर लिया। एक प्रभावशाली संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने वह रणनीति बनाने में सबसे अहम भूमिका निभाई जो गुजरात में बीजेपी की जीत में निर्णायक साबित हुईं। इस वक्त तक गुजरात बीजेपी में शंकर सिंघ वाघेला और केशुभाई पटेल स्थापित नेताओं में शुमार थे।
2001: केशुभाई पटेल की जगह नरेंद्र मोदी को गुजरात का सीएम नियुक्त कर दिया गया, क्योंकि केशुभाई सरकार का प्रशासन नाकाम साबित हो रहा था। उस वक्त कई नेता मोदी की काबिलियत और नेतृत्व को लेकर बहुत ज्यादा आश्वस्त नजर नहीं आए थे।
2002: यह ऐसा साल था जिसने भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम के राजनेता के व्यक्तित्व को परिभाषित करने का कार्य किया। फरवरी 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के भीषण साम्प्रदायिक दंगों में मुस्लिम समुदाय के हजारों लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई। मोदी सरकार पर आरोप लगा कि उनका प्रशासन मूकदर्शक बना रहा और दंगों की आग पर काबू पाने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए। यहां तक कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी मोदी को 'राजधर्म' का पालन करने की नसीहत दी। पीएम वाजपेयी ने मोदी को बर्खास्त करने का भी मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ही वह व्यक्ति थे, जिनके वीटो से मोदी बच गए।
बढ़ते विरोध के बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन उसके बाद हुए असेंबली चुनाव में मोदी ने स्पष्ट बहुमत के साथ जीत दर्ज की। मोदी ने न केवल सीएम के रूप में अपना टर्म पूरा किया बल्कि उसके बाद लगातार दो असेंबली चुनावों में भी बहुमत हासिल कर जीत की हैट ट्रिक लगा दी। मोदी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि और जीत हासिल करने की क्षमता का ही असर था कि बीजेपी में उनका कद बढ़ता ही चला गया। यही नहीं अपने राजनीतिक विरोधियों को भी मोदी ने बारी-बारी से हाशिए पर पहुंचाने में कामयाबी पाई।
गुजरात में मोदी का 'विकास मॉडल' देश ही नहीं, दुनियाभर में चर्चा का विषय बन गया। कॉरपोरेट जगत और इंडस्ट्री द्वारा मोदी सरकार का गुणगान, गुजरात में लाखों करोड़ रुपये का निवेश होने और प्रशासन को कुशल मैनेजर की तरह चलाने की मोदी की काबिलियत का बीजेपी ने जमकर बखान किया, वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष ने मोदी के 'साम्प्रदायिक' चेहरे के लिए उन पर तीखे हमले किए।
2013: जुलाई में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन नियुक्त किया, जिसके साथ ही उनका अगले चुनाव के लिए पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का रास्ता साफ हो गया।
वरिष्ठ पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी के कड़े विरोध को दरकिनार करते हुए 13 सितंबर 2013 को बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को आखिरकार 2014 के आम चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री पद का कैंडिडेट घोषित कर दिया। इसी के साथ यह पार्टी में मोदी के उदय और आडवाणी के राजनीतिक अवसान की उद्घोषणा बन गई।
कैसे पूरा होगा मोदी का मिशन 272
नरेंद्र मोदी अब निकलेंगे मिशन 272 प्लस के सफर पर। अगले आम चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए 272 का जादुई आंकड़ा पाने के लिए कुछ अहम राज्यों पर अधिक जोर लगाना होगा। अगर उन्हें सत्ता के शीर्ष तक पहुंचना है, तो उन राज्यों में खुद या अपने गठबंधन सहयोगियों की बदौलत 272 का फासला तय करना होगा। मोदी को देश के शीर्ष पद पर पहुंचने के लिए इन राज्यों में बीजेपी का प्रदर्शन निर्णायक साबित होगा।
उत्तर प्रदेश
लोकसभा सीटें- 80
बीजेपी की मौजूदा सीटें - 10
अगले आम चुनाव में मोदी ने सबसे अधिक उम्मीद और दांव उत्तर प्रदेश पर ही लगाया है। अगर 272 के जादुई आंकड़े को छूना है तो वहां 80 सीटों में बड़ा हिस्सा लेना होगा। अपने सबसे करीबी अमित शाह को वहां भेजकर मोदी ने संकेत दे दिए हैं कि उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन के लिए वह कितने गंभीर हैं। मोदी को वहां नए सिरे से वोटों के धुव्रीकरण से फायदे की उम्मीद होगी। लेकिन मोदी को अपने खिलाफ वोटों के धु्रवीकरण का घाटा भी हो सकता है।
बिहार
लोकसभा सीटें- 40
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 12
बिहार में 2009 के आम चुनाव बीजेपी ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर लड़े थे और एनडीए गठबंधन को 31 सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार मोदी को 2009 के ठीक उलट सबसे अधिक विरोध नीतीश कुमार से ही झेलना होगा। बिहार में मोदी को सियासत का साथी शायद ही मिले। इसके अलावा लालू प्रसाद के नेतृत्व में आरजेडी भी मोदी की राह में रोड़ा होंगे। कांग्रेस नीतीश या लालू के साथ मिलकर मोदी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है। ऐसे में मोदी को बिहार में पार्टी को बढ़त दिलाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है
पश्चिम बंगाल
लोकसभा सीटें- 42
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 1
पश्चिम बंगाल में राजनीति अब तक तृणमूल और लेफ्ट के इर्द-गिर्द घूमती रही है। वहां बीजेपी एक शक्ति के रूप में उभर कर अब तक सामने नहीं आ पाई है। मोदी को वहां दो पारंपरिक ताकतों के बीच अपने लिए मिशन 272 में कुछ सीटें लेना बहुत बड़ी चुनौती होगी।
तमिलनाडु
कुल सीटें- 39
मौजूदा सीट- 0
नरेंद्र मोदी तमिलनाडु में भले बीजेपी को अपने बूते अधिक सीटें नहीं दिलवा सकें लेकिन जयललिता की एआईडीएमके के साथ गठबंधन कर वह बीजेपी को थोड़ी-बहुत बढ़त जरूर दिलवा सकते हैं।
गुजरात
कुल सीटें- 26
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 15
नरेन्द्र मोदी अपने गृह राज्य में जरूर बीजेपी को क्लीन स्वीप दिलाने की कोशिश करेंगे। पिछले चुनाव में उन्हें कांग्रेसी ने कड़ी चुनौती दी थी और लगभग आधी सीटें मिली थीं।
कर्नाटक
कुल सीटें- 28
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 19
पिछले चुनाव में बीजेपी ने कर्नाटक में बेहतरीन प्रदर्शन किया था। लेकिन तब से पार्टी का वहां तेजी से पतन ही हुआ है। ऐसे में मोदी को 2009 का जादू वापस लाना मौजूदा समीकरण में कतई आसान नहीं है। हालांकि मोदी समर्थक येदियुरप्पा बीजेपी के करीब आकर वापसी करने में मोदी की मदद कर सकते हैं।
राजस्थान
कुल सीटें- 25
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 4
पिछले चुनाव में बीजेपी का राजस्थान में बेहद खराब प्रदर्शन रहा था। वहां महज 4 सीट पार्टी को मिली थी। इस बार वसुंधरा राजे के साथ मिलकर राजस्थान में कांग्रेस के दुर्ग को भेदने निकलेंगे। लेकिन आम चुनाव से पहले होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम का असर होगा।
महाराष्ट्र
कुल सीटें- 48
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 9
महाराष्ट्र की राजनीति में मोदी का जादू चलेगा? जानकारों के अनुसार वहां हर तरह के चुनाव में अब तक स्थानीय नेता अहम निर्णायक फैक्टर बनते रहे हैं। बड़ा सवाल है कि क्या मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी उसमें अपनी जगह बना पाएगी।
ओडिशा
कुल सीटें- 21
बीजेपी की मौजूदा सीट- 0
ओडिशा में बीजेपी पिछले चुनाव में खाता तक नहीं खोल नहीं पाई थी। आगामी चुनाव तक भी पार्टी ने अपना खास जनाधार नहीं पाया है। हालांकि कैडर वहां मौजूद है। वहीं कांग्रेस वहां सक्रिय है। ऐसे में कैडर में जान फूंकना और नवीन पटनायक और कांग्रेस के बीच अपनी पार्टी के लिए 272 में कुछ हिस्सा यहां लेना मोदी के लिए बड़ा टास्क होगा।
मध्य प्रदेश
कुल सीटें- 29
बीजेपी की सीटें- 16
मध्य प्रदेश में बीजेपी के पास शिवराज सिंह चौहान के रूप में बड़े कद का नेता पहले से ही मौजूद है। ऐसे में मोदी को चौहान के राजनीतिक अस्तित्व और अभिमान को चुनौती दिए बिना वहां संतुलन बनाकर आगे बढऩे की चुनौती होगी। पिछली बार वहां पार्टी का मिश्रित प्रदर्शन रहा था।
कुल सीटें -378
इनमें बीजेपी की मौजूदा सीटें-83
(इनमें उन राज्यों को लिया गया है जहां से लोकसभा की कम से कम 20 सीटें है)
मोदी की सफलता के मंत्र
नरेंद्र मोदी आगामी लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी के पीएम उम्मीदवार बन गए हैं। एक समय था जब गोधरा कांड के बाद मोदी का राजनीतिक कॅरियर दांव पर लग गया था, लेकिन तब लाल कृष्ण आडवाणी का उन्हें सहारा मिला। उसके बाद मोदी ने अपनी सोच, कार्य शैली और राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया। ये बदलाव कि स तरह के रहे, आकलन कर रहे हैं जोसफ बर्नाड :
बिजली-पानी पहली जरूरतः मोदी अपने इंटरव्यू में एक घटना बार-बार सुनाते हैं। मुख्यमंत्री के रूप में लोगों से जुडऩे के लिए उन्होंने जन दरबार का आयोजन शुरू किया। उन्हें लगा कि लोग मकान, नौकरी या अन्य समस्याओं को उनके सामने रखेंगे। मगर अधिकतर लोगों की मांग थी कि उन्हें पीने के लिए पानी और रात में आराम से सोने के लिए बिजली चाहिए। बकौल मोदी, यह मांग उनकी सोच में बदलाव का कारण बनी। भारतीय लोग की चाहत, अमेरिकी और ब्रिटिश लोगों से अलग है। वे उनकी तरह नहीं चाहते कि बच्चे के जन्म लेते ही सारी जिम्मेदारी सरकार पर डाल दी जाए। भारतीय मेहनत करना चाहते हैं। उन्हेें तो बस सरकार का सपोर्ट चाहिए बुनियादी सुविधाएं पाने के लिए। मोदी ने तुरंत राज्य के लोगों को पानी और बिजली मुहैया कराने के लिए काम शुरू किया।i
अनिवासी गुजराती का विश्वासः मोदी, चीन के विकास में चीनी अनिवासियों के योगदान से काफी प्रभावित हैं। उन्होंने राज्य के विकास के लिए गुजरात के उद्योगपतियों का विश्वास हासिल किया। गुजराती उद्यमी चाहे, वे विदेश में हों या फिर किसी अन्य राज्य में, मोदी ने उनसे संपर्क साधा। उसका सुखद परिणाम सामने आया। गुजरात की विकास गाथा का आगाज शुरू हुआ।
भारतीय कॉर्पोरेट का साथः गुजराती उद्यमियों का सहयोग पाने के बाद मोदी ने इसका विस्तार किया। उन्होंने देेश के कॉरपोरेट जगत का विश्वास और सहयोग पाने का प्रयास किया। इनवेस्टर मीट कराया। गुजरात में निवेश बढ़ाने पर पूरा जोर दिया। गुजरात में कारोबार की शुरुआत करने या फिर मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट लगाने के लिए उन्होंने उदार नीति अपनाई। टाटा को जब पश्चिम बंगाल में नैनो कार निर्माण के लिए सिंगुर प्लांट में विवाद का सामना करना पड़ा तो उन्हें मोदी का ही सहारा मिला। आईसीआईसीआई बैंक के चेयरमैन के. वी. कामत का कहना है कि मोदी का गुजरात विकास मॉडल तर्कसंगत है। मोदी ने राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में जो अंतर रखा है, उससे गुजरात और कॉरपोरेट जगत को फायदा हुआ है।
रिस्क लेने की क्षमताः नरेंद्र मोदी ने जल्द आर्थिक फैसले लेने के साथ रिस्क का सामने करने की जो क्षमता दिखाई, वह देश के साथ विश्व के कॉरपोरेट जगत को पसंद आई। मोदी ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के साथ रिटेल, रीयल्टी और अन्य सेक्टरों में प्रोजेक्टों को पारित करने के लिए त्वरित फैसले लिए। मोदी ने कॉरपोरेट के लिए रेड कारपेट भी बिछाया, जिसको लेकर मोदी को कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ा। मगर मोदी ने इसकी परवाह नहीं की। डीएसई के पूर्व प्रेजिडेंट बी.बी. साहनी के अनुसार, मोदी ने इस बात को जान लिया था कि अब आर्थिक विकास के बूते ही वह राज्य और देश में अपना नाम रोशन कर सकते हैं।
एंग्री यंग लीडरः सलीम-जावेद ने जिस तरह से अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग लीडर के तौर पर फिल्मों में पेश किया, उसी तरह से मोदी ने खुद को एंग्री यंग लीडर के तौर पर देश के राजनीतिक मंच पर पेश किया और स्थापित किया। उन्होंने बोलने की आक्रामक शैली विकसित की। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, बढ़ती महंगाई, बढ़ते अपराध के साथ राजनीतिक उदासी पर मोदी के तल्ख तेवरों को खूब पसंद किया गया। राजनीतिक विश्लेषक एस. वेंकटेश का कहना है कि मोदी इस बात को समझ चुके थे कि देश का युवा भ्रष्टाचार और महंगाई से परेशान है। अपने तल्ख अंदाज में मोदी ने युवाओं की भावनाओं को व्यक्त किया।
दस साल बाद 2013 में वही लालकृष्ण आडवाणी अब बीजेपी और आरएसएस से मिन्नत कर रहे थे कि वे अभी मोदी को पीएम कैंडिडेट नहीं बनवाएं। उन्हें जवाब मिला कि अब और देरी की, तो बवाल हो जाएगा।
सवाल उठता है कि आखिर इन दस बरसों में ऐसा क्या हुआ कि पूरा चक्र पलट गया और और बीजेपी के भीष्म पितामह अपने शिष्य से ही नाराज हो गए। आडवाणी की मोदी से नाराजगी के ये पांच अहम कारण हो सकते हैं:
[ जारी है ]
1. गुजरात कनेक्शन
लालकृष्ण आडवाणी इस बात से आहत रहे कि हाल में गुजरात में बीजेपी की मजबूती का सारा क्रेडिट सिर्फ नरेंद्र मोदी को दिया गया, जबकि वहां उन्होंने पार्टी को जड़ से सींचा था। दरअसल आडवाणी मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले 1991 से ही गुजरात से लोकसभा सीट जीतते रहे हैं। गुजरात में पहली बार आडवाणी ने मोदी को प्रोजेक्ट किया था। ऐसे में उन्हें इस बात पर मोदी से दु:ख रहा कि मोदी ने बाद में इस बात को स्वीकार नहीं किया और सारा क्रेडिट खुद लेते रहे।
2. आडवाणी-सुषमा-मोदी
आडवाणी हाल के वर्षों में सुषमा स्वराज को अधिक तरजीह देते रहे। आडवाणी ने कई मौकों पर सुषमा को अपना उत्तराधिकारी भी संकेतों में बताया। उनके पक्ष में एक गुट भी था। लेकिन मोदी न सिर्फ सुषमा से आगे बढ़ते गए, बल्कि आडवाणी के गुट में सेंध लगाते रहे। यह आडवाणी को नागवार गुजरा।
3. रथयात्रा, गुजरात और बिहार
2011 में आडवाणी ने पूरे देश में करप्शन के खिलाफ यात्रा निकाली थी। उस वक्त आई खबरों के मुताबिक, मोदी इस आयोजन के खिलाफ थे। साथ ही, इसके बिहार से शुरू करने के फैसले पर भी विवाद हुआ कि यह गुजरात से शुरू होना चाहिए था। इन विवादों के बीच आडवाणी की यह यात्रा सफल नहीं रही।
4. पीएम न बनने का दुख
लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने की हसरत कभी छिपी नहीं रही। उन्होंने इस बात से कभी इनकार नहीं किया कि वह 2014 के चुनाव में अपनी दावेदारी को वापस ले रहे हैं। इसके अलावा जेडीयू और दूसरे सहयोगी दल भी उनके पक्ष में रहे। इन सबके बीच उनको नजरअंदाज कर मोदी ने जिस तेजी से इस पद के लिए लॉबी की, आडवाणी की उनसे नाराजगी बढ़ती गई।
5. नहीं मिली एहसान की कीमत
लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी को जरूरत के वक्त लाइफलाइन दी। लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि जब उन्हें मोदी के समर्थन के जरूरत पड़ी, तो वह चुप रहे। जिन्ना प्रकरण में जब आडवाणी पूरे अलग-थलग पड़े तब भी मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोले। वहीं मोदी को जब आरएसएस की नजदीकी और आडवाणी के साथ में कोई एक विकल्प चुनने का मौका आया, तो उन्होंने आरएसएस का साथ चुना।
आडवाणीः उत्थान और पतन
1986: पहली बार आडवाणी बीजेपी के अध्यक्ष बने। लगभग इसी वक्त देश में कुशासन और भ्रष्टाचार के चलते सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के प्रति जन असंतोष बढ़ता नजर आ रहा था। मौके को भांपकर आडवाणी ने देश में एक नई आक्रामक सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत की।
1989: कट्टर हिंदुत्व का अजेंडा आगे बढ़ाते हुए आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी ने अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन खड़ा किया। पार्टी ने बाबरी मस्जिद की विवादास्पद जगह पर राम मंदिर के निर्माण की मांग उठाकर सियासत को सुलगा दिया। इसी सिलसिले में आडवाणी ने देशभर में अपनी बहुचर्चित रथयात्रा शुरू की, लेकिन बिहार में लालू यादव सरकार द्वारा उन्हें बीच में ही गिरफ्तार कर लिए जाने से यात्रा अधूरी रह गई।
1991: आडवाणी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का फायदा बीजेपी को उत्तर भारत में हुआ और आम चुनाव में बीजेपी कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी।
1992: आडवाणी की रथ यात्रा के दो बरस बाद कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी। कई दूसरे लोगों के साथ आडवाणी मुख्य अभियुक्तों में शामिल किए गए।
1996: पहली बार बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार बनने के बाद आडवाणी देश के गृह मंत्री बनाए गए, लेकिन प्रधानमंत्री वाजपेयी की यह सरकार महज 13 दिन चल पाई।
1998-99: दोबारा एनडीए की सरकार बनने पर आडवाणी को फिर से गृह मंत्री बनाया गया और बाद में उन्हें उपप्रधानमंत्री का पद दिया गया। बीजेपी में यह अटल-आडवाणी का दौर था। हालांकि गृह मंत्री के तौर पर आडवाणी का कार्यकाल मुश्किल भरा रहा और उन्हें बाहरी आतंकी हमलों के साथ-साथ ढेरों आंतरिक उपद्रव से भी जूझना पड़ा। एनडीए ने 1999 से 2004 तक अपना कार्यकाल पूर्ण किया।
2004: बीजेपी समेत एनडीए अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहा था। आडवाणी ने पार्टी की ओर से आक्रामक प्रचार अभियान चलाया और यहां तक दावा किया कि कांग्रेस को सौ सीटें भी नहीं आएंगी, लेकिन हुआ इसका उल्टा। बीजेपी की हार हुई और उसे एक बार फिर विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा। हार के बाद बीजेपी के 'पुरोधा' अटल बिहारी वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इसी के साथ आडवाणी के हाथों में बीजेपी की कमान आ गई। आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। उन्हें पार्टी के अंदर से ही कई बगावत का सामना करना पड़ा। उनके दो करीबी- उमा भारती और मदन लाल खुराना और लंबे वक्त से प्रतिद्वंद्वी रहे मुरली मनोहर जोशी ने खुलकर उनके खिलाफ बयान दिए।
2005: आडवाणी उस वक्त बीजेपी के कई टॉप नेताओं के निशाने पर आए गए, जब उन्होंने अपनी चर्चित पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जिन्ना को 'सेक्युलर' नेता बताया। आरएसएस को भी यह नागवार गुजरा। दबाव इतना बढ़ा कि आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष का पद छोडऩा पड़ा। हालांकि कुछ दिनों बाद उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया। दिसंबर में मुंबई में बीजेपी के रजत जयंती समारोह में आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने कहा कि आडवाणी और वाजपेयी को अब नए नेताओं के हक में रास्ता छोड़ देना चाहिए। इससे आडवाणी के आरएसएस से रिश्तों में और खटास आ गई।
2007: बीजेपी संसदीय बोर्ड ने औपचारिक तौर पर ऐलान किया कि अगले आम चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।
2009: आम चुनाव बीजेपी ने आडवाणी के नेतृत्व में ही लड़ा और आडवाणी को 'पीएम इन वेटिंग' कहा गया, लेकिन एक बार फिर बाजी कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए ने ही मारी। आडवाणी ने सुषमा स्वराज के हक में लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद छोड़ दिया।
2013: नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज होकर आडवाणी ने 10 जून को पार्टी के सभी अहम पदों से इस्तीफा दे दिया। आडवाणी ने कहा कि बीजेपी अब वैसी आदर्शवादी पार्टी नहीं रही, जिसकी बुनियाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने तैयार की थी। पार्टी ने हालांकि उनका इस्तीफा अस्वीकार कर दिया और आडवाणी ने भी पार्टी की बात मानकर अपना फैसला वापस ले लिया। इस महीने बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को औपचारिक तौर पर अपने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। नाराज आडवाणी संसदीय बोर्ड की मीटिंग में नहीं पहुंचे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर अपनी 'व्यथा' व्यक्त की।
मोदी मैजिक : टी स्टॉल से पीएम कैंडिडेट तक
1950: गुजरात के मेहसाणा जिले में जन्मे नरेंद्र मोदी अपने छह भाई-बहनों में तीसरे नंबर पर थे। मोदी ने अपने जीवन की शुरुआत अपने भाई के साथ रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान चलाने से की।
मोदी के राजनीतिक करियर की शुरुआत आरएसएस के प्रचारक के तौर पर हुई। नागपुर में शुरुआती प्रशिक्षण के बाद मोदी को संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की गुजरात यूनिट की कमान सौंपी गई।
1987: नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी जॉइन कर लिया। एक प्रभावशाली संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने वह रणनीति बनाने में सबसे अहम भूमिका निभाई जो गुजरात में बीजेपी की जीत में निर्णायक साबित हुईं। इस वक्त तक गुजरात बीजेपी में शंकर सिंघ वाघेला और केशुभाई पटेल स्थापित नेताओं में शुमार थे।
2001: केशुभाई पटेल की जगह नरेंद्र मोदी को गुजरात का सीएम नियुक्त कर दिया गया, क्योंकि केशुभाई सरकार का प्रशासन नाकाम साबित हो रहा था। उस वक्त कई नेता मोदी की काबिलियत और नेतृत्व को लेकर बहुत ज्यादा आश्वस्त नजर नहीं आए थे।
2002: यह ऐसा साल था जिसने भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम के राजनेता के व्यक्तित्व को परिभाषित करने का कार्य किया। फरवरी 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के भीषण साम्प्रदायिक दंगों में मुस्लिम समुदाय के हजारों लोगों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई। मोदी सरकार पर आरोप लगा कि उनका प्रशासन मूकदर्शक बना रहा और दंगों की आग पर काबू पाने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए। यहां तक कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी मोदी को 'राजधर्म' का पालन करने की नसीहत दी। पीएम वाजपेयी ने मोदी को बर्खास्त करने का भी मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ही वह व्यक्ति थे, जिनके वीटो से मोदी बच गए।
बढ़ते विरोध के बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन उसके बाद हुए असेंबली चुनाव में मोदी ने स्पष्ट बहुमत के साथ जीत दर्ज की। मोदी ने न केवल सीएम के रूप में अपना टर्म पूरा किया बल्कि उसके बाद लगातार दो असेंबली चुनावों में भी बहुमत हासिल कर जीत की हैट ट्रिक लगा दी। मोदी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि और जीत हासिल करने की क्षमता का ही असर था कि बीजेपी में उनका कद बढ़ता ही चला गया। यही नहीं अपने राजनीतिक विरोधियों को भी मोदी ने बारी-बारी से हाशिए पर पहुंचाने में कामयाबी पाई।
गुजरात में मोदी का 'विकास मॉडल' देश ही नहीं, दुनियाभर में चर्चा का विषय बन गया। कॉरपोरेट जगत और इंडस्ट्री द्वारा मोदी सरकार का गुणगान, गुजरात में लाखों करोड़ रुपये का निवेश होने और प्रशासन को कुशल मैनेजर की तरह चलाने की मोदी की काबिलियत का बीजेपी ने जमकर बखान किया, वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष ने मोदी के 'साम्प्रदायिक' चेहरे के लिए उन पर तीखे हमले किए।
2013: जुलाई में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन नियुक्त किया, जिसके साथ ही उनका अगले चुनाव के लिए पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का रास्ता साफ हो गया।
वरिष्ठ पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी के कड़े विरोध को दरकिनार करते हुए 13 सितंबर 2013 को बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को आखिरकार 2014 के आम चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री पद का कैंडिडेट घोषित कर दिया। इसी के साथ यह पार्टी में मोदी के उदय और आडवाणी के राजनीतिक अवसान की उद्घोषणा बन गई।
कैसे पूरा होगा मोदी का मिशन 272
नरेंद्र मोदी अब निकलेंगे मिशन 272 प्लस के सफर पर। अगले आम चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए 272 का जादुई आंकड़ा पाने के लिए कुछ अहम राज्यों पर अधिक जोर लगाना होगा। अगर उन्हें सत्ता के शीर्ष तक पहुंचना है, तो उन राज्यों में खुद या अपने गठबंधन सहयोगियों की बदौलत 272 का फासला तय करना होगा। मोदी को देश के शीर्ष पद पर पहुंचने के लिए इन राज्यों में बीजेपी का प्रदर्शन निर्णायक साबित होगा।
उत्तर प्रदेश
लोकसभा सीटें- 80
बीजेपी की मौजूदा सीटें - 10
अगले आम चुनाव में मोदी ने सबसे अधिक उम्मीद और दांव उत्तर प्रदेश पर ही लगाया है। अगर 272 के जादुई आंकड़े को छूना है तो वहां 80 सीटों में बड़ा हिस्सा लेना होगा। अपने सबसे करीबी अमित शाह को वहां भेजकर मोदी ने संकेत दे दिए हैं कि उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन के लिए वह कितने गंभीर हैं। मोदी को वहां नए सिरे से वोटों के धुव्रीकरण से फायदे की उम्मीद होगी। लेकिन मोदी को अपने खिलाफ वोटों के धु्रवीकरण का घाटा भी हो सकता है।
बिहार
लोकसभा सीटें- 40
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 12
बिहार में 2009 के आम चुनाव बीजेपी ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर लड़े थे और एनडीए गठबंधन को 31 सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार मोदी को 2009 के ठीक उलट सबसे अधिक विरोध नीतीश कुमार से ही झेलना होगा। बिहार में मोदी को सियासत का साथी शायद ही मिले। इसके अलावा लालू प्रसाद के नेतृत्व में आरजेडी भी मोदी की राह में रोड़ा होंगे। कांग्रेस नीतीश या लालू के साथ मिलकर मोदी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है। ऐसे में मोदी को बिहार में पार्टी को बढ़त दिलाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है
पश्चिम बंगाल
लोकसभा सीटें- 42
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 1
पश्चिम बंगाल में राजनीति अब तक तृणमूल और लेफ्ट के इर्द-गिर्द घूमती रही है। वहां बीजेपी एक शक्ति के रूप में उभर कर अब तक सामने नहीं आ पाई है। मोदी को वहां दो पारंपरिक ताकतों के बीच अपने लिए मिशन 272 में कुछ सीटें लेना बहुत बड़ी चुनौती होगी।
तमिलनाडु
कुल सीटें- 39
मौजूदा सीट- 0
नरेंद्र मोदी तमिलनाडु में भले बीजेपी को अपने बूते अधिक सीटें नहीं दिलवा सकें लेकिन जयललिता की एआईडीएमके के साथ गठबंधन कर वह बीजेपी को थोड़ी-बहुत बढ़त जरूर दिलवा सकते हैं।
गुजरात
कुल सीटें- 26
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 15
नरेन्द्र मोदी अपने गृह राज्य में जरूर बीजेपी को क्लीन स्वीप दिलाने की कोशिश करेंगे। पिछले चुनाव में उन्हें कांग्रेसी ने कड़ी चुनौती दी थी और लगभग आधी सीटें मिली थीं।
कर्नाटक
कुल सीटें- 28
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 19
पिछले चुनाव में बीजेपी ने कर्नाटक में बेहतरीन प्रदर्शन किया था। लेकिन तब से पार्टी का वहां तेजी से पतन ही हुआ है। ऐसे में मोदी को 2009 का जादू वापस लाना मौजूदा समीकरण में कतई आसान नहीं है। हालांकि मोदी समर्थक येदियुरप्पा बीजेपी के करीब आकर वापसी करने में मोदी की मदद कर सकते हैं।
राजस्थान
कुल सीटें- 25
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 4
पिछले चुनाव में बीजेपी का राजस्थान में बेहद खराब प्रदर्शन रहा था। वहां महज 4 सीट पार्टी को मिली थी। इस बार वसुंधरा राजे के साथ मिलकर राजस्थान में कांग्रेस के दुर्ग को भेदने निकलेंगे। लेकिन आम चुनाव से पहले होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम का असर होगा।
महाराष्ट्र
कुल सीटें- 48
बीजेपी की मौजूदा सीटें- 9
महाराष्ट्र की राजनीति में मोदी का जादू चलेगा? जानकारों के अनुसार वहां हर तरह के चुनाव में अब तक स्थानीय नेता अहम निर्णायक फैक्टर बनते रहे हैं। बड़ा सवाल है कि क्या मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी उसमें अपनी जगह बना पाएगी।
ओडिशा
कुल सीटें- 21
बीजेपी की मौजूदा सीट- 0
ओडिशा में बीजेपी पिछले चुनाव में खाता तक नहीं खोल नहीं पाई थी। आगामी चुनाव तक भी पार्टी ने अपना खास जनाधार नहीं पाया है। हालांकि कैडर वहां मौजूद है। वहीं कांग्रेस वहां सक्रिय है। ऐसे में कैडर में जान फूंकना और नवीन पटनायक और कांग्रेस के बीच अपनी पार्टी के लिए 272 में कुछ हिस्सा यहां लेना मोदी के लिए बड़ा टास्क होगा।
मध्य प्रदेश
कुल सीटें- 29
बीजेपी की सीटें- 16
मध्य प्रदेश में बीजेपी के पास शिवराज सिंह चौहान के रूप में बड़े कद का नेता पहले से ही मौजूद है। ऐसे में मोदी को चौहान के राजनीतिक अस्तित्व और अभिमान को चुनौती दिए बिना वहां संतुलन बनाकर आगे बढऩे की चुनौती होगी। पिछली बार वहां पार्टी का मिश्रित प्रदर्शन रहा था।
कुल सीटें -378
इनमें बीजेपी की मौजूदा सीटें-83
(इनमें उन राज्यों को लिया गया है जहां से लोकसभा की कम से कम 20 सीटें है)
मोदी की सफलता के मंत्र
नरेंद्र मोदी आगामी लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी के पीएम उम्मीदवार बन गए हैं। एक समय था जब गोधरा कांड के बाद मोदी का राजनीतिक कॅरियर दांव पर लग गया था, लेकिन तब लाल कृष्ण आडवाणी का उन्हें सहारा मिला। उसके बाद मोदी ने अपनी सोच, कार्य शैली और राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया। ये बदलाव कि स तरह के रहे, आकलन कर रहे हैं जोसफ बर्नाड :
बिजली-पानी पहली जरूरतः मोदी अपने इंटरव्यू में एक घटना बार-बार सुनाते हैं। मुख्यमंत्री के रूप में लोगों से जुडऩे के लिए उन्होंने जन दरबार का आयोजन शुरू किया। उन्हें लगा कि लोग मकान, नौकरी या अन्य समस्याओं को उनके सामने रखेंगे। मगर अधिकतर लोगों की मांग थी कि उन्हें पीने के लिए पानी और रात में आराम से सोने के लिए बिजली चाहिए। बकौल मोदी, यह मांग उनकी सोच में बदलाव का कारण बनी। भारतीय लोग की चाहत, अमेरिकी और ब्रिटिश लोगों से अलग है। वे उनकी तरह नहीं चाहते कि बच्चे के जन्म लेते ही सारी जिम्मेदारी सरकार पर डाल दी जाए। भारतीय मेहनत करना चाहते हैं। उन्हेें तो बस सरकार का सपोर्ट चाहिए बुनियादी सुविधाएं पाने के लिए। मोदी ने तुरंत राज्य के लोगों को पानी और बिजली मुहैया कराने के लिए काम शुरू किया।i
अनिवासी गुजराती का विश्वासः मोदी, चीन के विकास में चीनी अनिवासियों के योगदान से काफी प्रभावित हैं। उन्होंने राज्य के विकास के लिए गुजरात के उद्योगपतियों का विश्वास हासिल किया। गुजराती उद्यमी चाहे, वे विदेश में हों या फिर किसी अन्य राज्य में, मोदी ने उनसे संपर्क साधा। उसका सुखद परिणाम सामने आया। गुजरात की विकास गाथा का आगाज शुरू हुआ।
भारतीय कॉर्पोरेट का साथः गुजराती उद्यमियों का सहयोग पाने के बाद मोदी ने इसका विस्तार किया। उन्होंने देेश के कॉरपोरेट जगत का विश्वास और सहयोग पाने का प्रयास किया। इनवेस्टर मीट कराया। गुजरात में निवेश बढ़ाने पर पूरा जोर दिया। गुजरात में कारोबार की शुरुआत करने या फिर मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट लगाने के लिए उन्होंने उदार नीति अपनाई। टाटा को जब पश्चिम बंगाल में नैनो कार निर्माण के लिए सिंगुर प्लांट में विवाद का सामना करना पड़ा तो उन्हें मोदी का ही सहारा मिला। आईसीआईसीआई बैंक के चेयरमैन के. वी. कामत का कहना है कि मोदी का गुजरात विकास मॉडल तर्कसंगत है। मोदी ने राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में जो अंतर रखा है, उससे गुजरात और कॉरपोरेट जगत को फायदा हुआ है।
रिस्क लेने की क्षमताः नरेंद्र मोदी ने जल्द आर्थिक फैसले लेने के साथ रिस्क का सामने करने की जो क्षमता दिखाई, वह देश के साथ विश्व के कॉरपोरेट जगत को पसंद आई। मोदी ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के साथ रिटेल, रीयल्टी और अन्य सेक्टरों में प्रोजेक्टों को पारित करने के लिए त्वरित फैसले लिए। मोदी ने कॉरपोरेट के लिए रेड कारपेट भी बिछाया, जिसको लेकर मोदी को कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ा। मगर मोदी ने इसकी परवाह नहीं की। डीएसई के पूर्व प्रेजिडेंट बी.बी. साहनी के अनुसार, मोदी ने इस बात को जान लिया था कि अब आर्थिक विकास के बूते ही वह राज्य और देश में अपना नाम रोशन कर सकते हैं।
एंग्री यंग लीडरः सलीम-जावेद ने जिस तरह से अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग लीडर के तौर पर फिल्मों में पेश किया, उसी तरह से मोदी ने खुद को एंग्री यंग लीडर के तौर पर देश के राजनीतिक मंच पर पेश किया और स्थापित किया। उन्होंने बोलने की आक्रामक शैली विकसित की। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, बढ़ती महंगाई, बढ़ते अपराध के साथ राजनीतिक उदासी पर मोदी के तल्ख तेवरों को खूब पसंद किया गया। राजनीतिक विश्लेषक एस. वेंकटेश का कहना है कि मोदी इस बात को समझ चुके थे कि देश का युवा भ्रष्टाचार और महंगाई से परेशान है। अपने तल्ख अंदाज में मोदी ने युवाओं की भावनाओं को व्यक्त किया।
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