मंगलवार, 18 नवंबर 2014

स्वच्छ भारत, सुखी भारत

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत तो  कर दी है। मगर 2019 तक हम इस लक्ष्य को पूरा कर पाऐंगे इसको लेकर आशंका प्रबल हो  रही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस अभियान में जिस तरह लोगों को जोड़ा उसे बदलाव की दिशा में देखा तो जा रहा है मगर समय कम है और काम ज्यादा। अभी हाल ही में मुझे प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी जाने का मौका मिला। प्रधानमंत्री क्योटो
की तर्ज पर काशी को बनाना चाहते हैं मगर वहां के हालात देखकर मेरी चिन्ता स्वाभाविक थी। खासकर गंगा किनारे बने घाटों को देखकर एक साफ सुथरे भारत को देखने की मेरी कल्पना को मानो कपोल साबित हो रही हो। मगर हालात में जो बदलाव आया है उससे यह विश्वास भी जगा है कि कहीं से तो शुरूआत करनी होगी। वह शुरूआत हो चुकी है। जिम्मेदारी जवाबदेही इस बार सरकार या नगरपालिका की नही, बल्कि हमारी है। वैसे भी साफ सुथरा रहना किसकों पसन्द नही। गंदगी से निजात हर कोई पाना चाहता है। मगर भारत में स्वच्छता ज्यादातर आवाम के लिए दूर की कौड़ी है। कारण भी साफ है, जागरूकता और सुविधाओं का आभाव। इसी के चलते पांच में से 1 बच्चा अपनी जान गवा रह है। 10 में से 5 बडी जान लेवा बीमारी आस पास की गंदगी की देन है।  उल्टी दस्त, पीलिया, मलेरिया डेंगू और पेट में कीड़े की बीमारी रोजाना हजारों मासूमों की आखों को हमेशा के लिए बन्द कर देती है। अकेले डायरिया हजारें बच्चों को मौंत की नींद सुला रहा है। इनमें से एक तिहाई अभागों को इलाज़ तक नही मिल पाता। यह उस देश की कहानी है जो अपनी आर्थिक तरक्की में इतराता नही थकता। जहां विकास दर , सेंसेक्स और  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को विकास का शिल्पी माना जाता है। जहां देश की आधी आबादी को समान अधिकार देने की गाहे बगाहे आवाज़ सुनाई देती है। जहां  55 फीसदी महिलाऐं खुले में शौच जाने को मजबूर है। वहां साफ सफाई की महत्वता को केवल सरकार की योजना के भरोसे नही छोड़ा जा सकता। 1986 में सरकार ने केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता अभियान के सहारे इस बदनुमा दाग को धोने की शुरूआत  जरूर की। मगर हमेशा की ही तरह योजना भी अधूरे में ही दम तोडती दिखाई दी। तब जाकर 1999 में सरकार ने सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का नारा छेडा। अभियान के तहत सरकार शौचालय बनाने के लिए सरकार सब्सिडी दे रही है। इसके बाद 2013 में इसे निर्मल भारत नाम दे दिया गया। मगर लक्ष्य के मुताबिक नतीजे नही मिल रहें। पहली सरकार ने 2012 का लक्ष्य रखा मगर पूरा नही कर पाई। अब मंजिल 2019 में पानी है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहलेके मुकाबले इस बार विश्वास और अपेक्षा ज्यादा है। सही मायने में  सवा सौ करोड़ भारतीय की परीक्षा है कि उन्हें अपने देश के प्रधानमंत्री के वचन को सुफल बनाना है।

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