डूबते को तिनके का सहारा...तो क्या कांग्रेस के लिए वो तिनका बस राहुल हैं...अटकलों का बाज़ार गर्म है कि सोनिया गांधी जल्द ही राहुल को कांग्रेस की विरासत सौंपने वाली हैं...तो क्या यही वो सर्जरी है जिसकी मांग दिग्विजय सिंह कर रहे थे...कांग्रेस के अंदर क्या मंथन चल रहा है ये तो कांग्रेस जाने लेकिन फिलहाल राहुल को अध्यक्ष बनाने को लेकर सुगबुगाहट तेज हो गई है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस संगठन में व्यापक फेरबदल करने की तैयारी में है। क्या राहुल की टीम में संतुलन देखने को मिलेगा? या युवा और अनुभव का संयुक्त संगम होगा? मगर असली सवाल यह नही कि कौन होगा, कौन नही। सवाल यह है कि कांग्रेस इतनी कमजोर क्यों हो गई। क्यों जनमानस का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। सबसे बड़ा सवाल है कांग्रेस के सामने चुनौतियां क्या हैं?
राहुल कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौति हैं!
हार दर हार की ज़िम्मेदारी लेकर राहुल ने दिलेरी चाहे कितनी भी दिखाई हो लेकिन रणनीति के तौर राहुल अब तक एक कमजोर सेनापति साबित हुए हैं बावजूद इसके उनको कमान क्यों। क्या कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग कुछ भी नहीं....इसका जवाब इतिहास में छिपा है. कांग्रेस को केवल गांधी परिवार ही एकजुट रख सकती है। वरना कांग्रेस टुकड़ों में बंट जाएगी। हर नेता अपने नाम से एक कांग्रेस बना लेगा। लेकिन गांधी परिबार क्विकफिक्स का काम करता है। इसलिए पार्टी नेताओं को एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौति है।
हार का सिलसिला कब थमेगा!
कांग्रेस के हार का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लोकसभा से शुरू हुआ यह सिलसिला असम और केरल तक आ पहुंचा है। नतीजा कभी देश भर में छाई रहने वाली पार्टी अपने अस्तित्व को बचाये रखने की कोशिश में जुटी है। एक एक कर वो अपने सारे राज्य बीजेपी के हाथों गंवाती जा रही है। कहने के लिए आज उसके पास कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल और पूर्वोत्रर के 2 राज्य बजे हैं। मगर सच्चाई यह है कि कांग्रेस मुल्क के कई बड़े भूभाग से गायब हो चुकी है।
कांग्रेस को मोदी चाहिए!
राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनका मुकाबला मोदी से है। मोदी के सामने वो बौने लगते हैं. मोदी न सिर्फ वाकपटु है बल्कि उनकी छवि एक ईमानदार और सख्त नेता की है। वो भीड़ को अपने अंदाज़ से आकर्षित करना जानते हैं। कोई माने या ना माने मोदी आज ब्रैंड बन चुके हैं। जो कार्यकर्ताओं में जोश का संचार करना जानते हैं। जनता से सीधे जुड़ने का उनका अंदाज दूसरे नेताओं से जुदा है। इसलिए राहुल को मोदी को उन्ही की शैली में जवाब देने का अंदाज़ सीखना होगा।
कार्यकर्ता टूट चुका है!
हार बड़े बड़े को तोड़ देती है। खासकर वो सैनिक जिनका युद्ध में जय बोलने का बड़ा महत्व होता है कांग्रेस में वो हताश और निराश है।
कोई उम्मीद की किरण भी उसे दूर दूर तक नजर नही आ रही है। राज्यों की हार से वो कमजोर हुआ है। उसमें उत्साह का संचार करना जरूरी है। मगर सवाल ये कि करेगा कौन?
राहुल उस भूमिका में दूर दूर तक नजर नही आते। राज्यों के स्तर में युवा नेता और बुजुर्ग नेताओं की बनती नही। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह औऱ सिंधया। राजस्थान में सचिन पायलट। वैसे में यह कहावत मशहूर है कि कांग्रेस की पहली लड़ाई हमेशा कांग्रेस के साथ होती है।
गठबंधन वक्त की मांग है!
कांग्रेस एक दौर में गठबंधन को लेकर असमंजस में रहती थी। लेकिम शिमला सम्मेलन के बाद कांग्रेस ने रणनीति बदली और इस सच्चाई को समझा। नतीजा 2004 में सरकार बनाई। 2009 की जीत से उत्साहित कांग्रेस ने फिर एकला चलो का नारा दिया मगर कामयाबी नही मिली। और आज हालात कांग्रेस के खिलाफ है। यहां तक की गठबंधन की स्थिति में उसे छोटे दलों की दया पर निर्भर रहना पड़ रहा है। मगर जब हवा का रूख विपरीत हो तो उसके सामने अपनी ताकत का ढोल पीटना नासमझी ही कही जाएगी। इसलिए जहां जरूरी हो समझदारी से गठबंधन का रिश्ता निभाया जाए। इसका फायदा काग्रेस को बिहार और बंगाल में मिल चुका है।
आगे की डगर ज्यादा कठिन है!
2017 में देश को सबसे बड़े सूबे में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस की हालत यहां भी खराब है। लोकसभा में केवल गांधी परिवार ही अपनी सीट बचा पाया। ऐसे में यहां भी झटका लगना तय है। रही बात पंजाब की तो वहां वापसी के आसार पर आम आदमी पार्टी पानी फेर सकती है। उत्तराखंड और हिमाचल की जनता हर पांच साल में सत्ता बदल देती है। इसलिए उम्मीद यहां भी धूमिल हैं।
गुजरात से शुरू करें विजय अभियान!
कांग्रेस अगर गुजरात में वापसी कर ले तो एक ही झटके में मोदी के ब्रांड वैल्यू की हवा निकल देगी... बीजेपी राज्य में फैले असंतोष को भली भांति जानती है इसलिए निज़ाम बदलने की तैयारी में जुट गई है। ऊपर से पटेलों में उपजा असंतोष गुजरात के चुनावों की तस्वीर बदल सकता है। बशर्तें कांग्रेंस अपने घर को दुरूस्त करे। गुजरात में विकल्प बनने की हिम्मत दिखाए। अगर यहां भी वह हालात अपने पक्ष में नही कर पाई तो कांग्रेस मुक्त भारत का बीजेपी का सपना पूरा होते देर नही लगेगी।
राहुल कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौति हैं!
हार दर हार की ज़िम्मेदारी लेकर राहुल ने दिलेरी चाहे कितनी भी दिखाई हो लेकिन रणनीति के तौर राहुल अब तक एक कमजोर सेनापति साबित हुए हैं बावजूद इसके उनको कमान क्यों। क्या कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग कुछ भी नहीं....इसका जवाब इतिहास में छिपा है. कांग्रेस को केवल गांधी परिवार ही एकजुट रख सकती है। वरना कांग्रेस टुकड़ों में बंट जाएगी। हर नेता अपने नाम से एक कांग्रेस बना लेगा। लेकिन गांधी परिबार क्विकफिक्स का काम करता है। इसलिए पार्टी नेताओं को एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौति है।
हार का सिलसिला कब थमेगा!
कांग्रेस के हार का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लोकसभा से शुरू हुआ यह सिलसिला असम और केरल तक आ पहुंचा है। नतीजा कभी देश भर में छाई रहने वाली पार्टी अपने अस्तित्व को बचाये रखने की कोशिश में जुटी है। एक एक कर वो अपने सारे राज्य बीजेपी के हाथों गंवाती जा रही है। कहने के लिए आज उसके पास कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल और पूर्वोत्रर के 2 राज्य बजे हैं। मगर सच्चाई यह है कि कांग्रेस मुल्क के कई बड़े भूभाग से गायब हो चुकी है।
कांग्रेस को मोदी चाहिए!
राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनका मुकाबला मोदी से है। मोदी के सामने वो बौने लगते हैं. मोदी न सिर्फ वाकपटु है बल्कि उनकी छवि एक ईमानदार और सख्त नेता की है। वो भीड़ को अपने अंदाज़ से आकर्षित करना जानते हैं। कोई माने या ना माने मोदी आज ब्रैंड बन चुके हैं। जो कार्यकर्ताओं में जोश का संचार करना जानते हैं। जनता से सीधे जुड़ने का उनका अंदाज दूसरे नेताओं से जुदा है। इसलिए राहुल को मोदी को उन्ही की शैली में जवाब देने का अंदाज़ सीखना होगा।
कार्यकर्ता टूट चुका है!
हार बड़े बड़े को तोड़ देती है। खासकर वो सैनिक जिनका युद्ध में जय बोलने का बड़ा महत्व होता है कांग्रेस में वो हताश और निराश है।
कोई उम्मीद की किरण भी उसे दूर दूर तक नजर नही आ रही है। राज्यों की हार से वो कमजोर हुआ है। उसमें उत्साह का संचार करना जरूरी है। मगर सवाल ये कि करेगा कौन?
राहुल उस भूमिका में दूर दूर तक नजर नही आते। राज्यों के स्तर में युवा नेता और बुजुर्ग नेताओं की बनती नही। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह औऱ सिंधया। राजस्थान में सचिन पायलट। वैसे में यह कहावत मशहूर है कि कांग्रेस की पहली लड़ाई हमेशा कांग्रेस के साथ होती है।
गठबंधन वक्त की मांग है!
कांग्रेस एक दौर में गठबंधन को लेकर असमंजस में रहती थी। लेकिम शिमला सम्मेलन के बाद कांग्रेस ने रणनीति बदली और इस सच्चाई को समझा। नतीजा 2004 में सरकार बनाई। 2009 की जीत से उत्साहित कांग्रेस ने फिर एकला चलो का नारा दिया मगर कामयाबी नही मिली। और आज हालात कांग्रेस के खिलाफ है। यहां तक की गठबंधन की स्थिति में उसे छोटे दलों की दया पर निर्भर रहना पड़ रहा है। मगर जब हवा का रूख विपरीत हो तो उसके सामने अपनी ताकत का ढोल पीटना नासमझी ही कही जाएगी। इसलिए जहां जरूरी हो समझदारी से गठबंधन का रिश्ता निभाया जाए। इसका फायदा काग्रेस को बिहार और बंगाल में मिल चुका है।
आगे की डगर ज्यादा कठिन है!
2017 में देश को सबसे बड़े सूबे में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस की हालत यहां भी खराब है। लोकसभा में केवल गांधी परिवार ही अपनी सीट बचा पाया। ऐसे में यहां भी झटका लगना तय है। रही बात पंजाब की तो वहां वापसी के आसार पर आम आदमी पार्टी पानी फेर सकती है। उत्तराखंड और हिमाचल की जनता हर पांच साल में सत्ता बदल देती है। इसलिए उम्मीद यहां भी धूमिल हैं।
गुजरात से शुरू करें विजय अभियान!
कांग्रेस अगर गुजरात में वापसी कर ले तो एक ही झटके में मोदी के ब्रांड वैल्यू की हवा निकल देगी... बीजेपी राज्य में फैले असंतोष को भली भांति जानती है इसलिए निज़ाम बदलने की तैयारी में जुट गई है। ऊपर से पटेलों में उपजा असंतोष गुजरात के चुनावों की तस्वीर बदल सकता है। बशर्तें कांग्रेंस अपने घर को दुरूस्त करे। गुजरात में विकल्प बनने की हिम्मत दिखाए। अगर यहां भी वह हालात अपने पक्ष में नही कर पाई तो कांग्रेस मुक्त भारत का बीजेपी का सपना पूरा होते देर नही लगेगी।
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