आज मेरे एक मित्र अनुराग का संदेश मिला। लोकसभा टीवी ने अपने 10 साल पूरे कर लिए हैं। इससे पहले मैं कुछ भी लिखूं मैं दो शख्सियतों का साधुवाद करना चाहूंगा। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और भाष्कर घोष। लोकसभा टीवी की कल्पना सोमनाथ चटर्जी ने की तो उसे धरातल में उतारा भाष्कर घोष ने । सही मायने में ये दोनों शख़्सियत ही इसके असली शिल्पकार हैं। अब बात अपने सफरनामे की। कैसे भूल सकता हूं 28 मार्च 2006 का वो दिन जब मैंने इस संस्थान में कदम रखा। सबकुछ नया था। नए लोग, नई सोच। मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे । क्या करना होगा, कैसे करना होगा । वहां मैं नया था... अकेला था... ना मेरा कोई मित्र न कोई शुभचिंतक... मेरे साथ सिर्फ मेरा आत्मविश्वास था। मुझे मालूम था कि सामने चुनौतियों का पहाड़ है लेकिन मैं ये भी जानता था कि अवसर की गंगा यही से निकलेगी। प्रशिक्षण के दौरान लोकसभा की कार्यवाही कैसे चलती है ये जानने का मौका मिला। 24 जुलाई 2006 को लोकसभा में 24 घंटे के प्रसारण की शुरूआत हुई। जो सदन की कार्यवाही लोगों को बोझिल लगती थी उसमें मानो हमारा आनंद छुपा था। सुबह प्रश्नकाल, उसके बाद शून्यकाल , ज्वलंत विषय पर बहस... समेत विधेयकों पर चर्चा से बहुत कुछ सीखने को मिलता था। कई सांसद ऐसे थे जिसे सुनने के लिए पैर मानो अपने आप ठिठक जाते थे। महंगाई में सुषमा स्वराज का भाषण भूले नही भूलता। वो जब भी बोलने के लिए उठतीं सत्ता पक्ष के चक्रव्यूह को तहस नहस कर देतीं। ऐसा लगता कि उनके तर्क ही सम्पूर्ण हैं लेकिन जैसे ही तत्कालिन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी जवाब देने उठते तो चर्चा की तस्वीर फिर बदल जाती। प्रणब दा अपने सधे हुए जुबानी तीर से सुषमा के हर वार को नाकाम करने की कोशिश करते। यही खूबसूरती है सदन में होने वाली चर्चा की। जो आज भी मेरे लिए जानकारी का सबसे बड़ा स्रोत है। इसका फायदा शाम को होने वाले कार्यकम लोकमंच में मिलता था। विषय की तैयारी मैं शुरू से ही करता था। मगर जानकारी कैसे और कहां से जुटाई जाती है ये सिखाया लोकसभा टीवी ने। आज भी मैं जिन विषयों पर धाराप्रवाह होकर बोल पाता हूं उसका श्रेय भी इस संस्थान को जाता है। यहां जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वो है लोकसभा टीवी की निष्पक्षता। यहां जितने कठिन सवाल मैंने लोकसभी टीवी में किए होंगे उतने निजी चैनल में लोग नहीं पूछ सकते। ये था निष्पक्षता का मानदंड। 2008 का एक वाकया आपसे साझा करता हूं। लोकमंच का कार्यक्रम चल रहा था। पैनल में सुषमा स्वराज, बासुदेव आचार्य , मोहन सिंह जैसे लोग शिरकत कह रहे थे। दर्शकों में से सवाल आया। आप जैसे नेताओं को चौराहे पर खड़ा कर गोली मार देनी चाहिए? इस सवाल ने मुझे हिला दिया। मैं कुछ बोलता उससे पहले सुषमा स्वराज ने जवाब दिया कि क्या ये जनता से सरोकार वाले मुद्दे उठाने की सज़ा है। हम आपकी आवाज़ ही संसद मे उठाते हैं। कहने का तात्पर्य है उनकी परिपक्वता ने उस मुश्किल पल को सामान्य सा बना दिया। एक दूसरा वाकया भी बेहद रोचक है। 2009 में लोकमंच कार्यक्रम में तेल की बढ़ी कीमतों पर चर्चा चल रही थी। अचानक सीपीआईएम के सांसद ने मुझसे पूछ लिया कि एक बैरल में कितने लीटर तेल होता है। मैने पलट के जवाब दिया 160 लीटर के आसपास। कहने का तात्पर्य है लोकसभा टीवी में तैयारी का ये स्तर था। संसदीय समिति की रिपोर्ट कितने लोग पढ़ते हैं मैं नही जानता मगर हमारे लिए वो रिपोर्ट जानकारी का भंडार थी। आज जो कुछ भी हूं उसमें इस संस्थान का बहुत बड़ा योगदान है। मैं अपने सभी सहयोगियों को धन्यवाद देता हूं। मैं नाम भी लिखना चाहता था मगर किसी का नाम गलती से छूट जाता तो जाने अनजाने में बड़ी गलती हो जाती और उससे उस शख्स को पीड़ा पहुंचती। मेरे कामयाब सफर में तमाम साथियों का अहम योगदान है। लिहाजा मैंने नाम नहीं लेना ही बेहतर समझा। मैं इस संस्थान को नमन करता हूं जिसने मुझे जीवन में एक नई दिशा दिखाई। साथ ही शुभकामनाएं ये भी हैं कि ये नित नए आयाम स्थापित करता रहे। साथ ही परमात्मा की ऐसी कृपा रही कि आज जिस संस्थान न्यूज नेशन के साथ हूं उसने पत्रकारिता के जगत में एक आदर्श मानदंड स्थापित किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह दिन दूर नही जब यह संस्थान पत्रकारिता के मूल सिद्धान्त पर हमेशा खरा उतरेगा।
यह सिद्घान्त है
लोकतंत्र हिर्तारथाय, विवेकालोकवर्धनी
उदबोधनाय लोकस्य , लोकसत्ता प्रतिष्ठता
यह सिद्घान्त है
लोकतंत्र हिर्तारथाय, विवेकालोकवर्धनी
उदबोधनाय लोकस्य , लोकसत्ता प्रतिष्ठता
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