तेलांगाना का आंदोलन अब निर्णायक दौर में पहुंच चुका है। आज नही तो कल कांगे्रस को अलग तेलांगाना राज्य के गठन का रास्ता साफ करना ही होगा क्योंकि पृथक राज्य बनाने को लेकर तेलांगाना की लड़ाई अब पिछड़ेपन से निकलकर आत्मसम्मान का लड़ाई बन गई है। इस आत्मसम्मान को बनाए रखने के लिए कांग्रेस को बिना देरी किए तेलांगाना राज्य बनाने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। वरना वहां हालात और विस्फोटक होते चले जाऐंगे। वैसे कांग्रेस के लिए भी मुश्किल कम नही है। 9 दिसम्बर 2009 को गृहमंत्री पी चिदंबरम का राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने से जुड़ा बयान लोगों के दिल में ऐसा उतरा जिसने एक पृथक राज्य बनने के अलावा सभी विकल्पों को धराशायी कर दिया। इसलिए अब व्यापक विचार विमार्श की बातें करना बेमानी है। वर्तमान राजनीतिक हालात आमसहमति और व्यापक विचार विमर्श से आगे बढ़ चुके हैं। दरअसल 2004 के अपने पहले कार्यकाल में कांग्रेस ने अलग तेलांगाना राज्य का समर्थन किया था। बाद में अलग तेलांगाना मुददे पर टीआरएस सरकार में शामिल हो गई। इधर राज्य में वाइएस राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह मुददा विकास की आंधी में गौण हो गया। यह बात सही है की उसके लिए राजशोखर रेड्डी येन केन प्रकारेण हर तरह की कोशिशें की। मगर उनके निधन के बाद राज्य में कांग्रेस के मानो बुरे दिन शुरू हो गए। आज कांग्रेस के लिए हालात मानो आगे कुआ पीछे खाई जैसे हैं। दक्षिण में उसका सबसे बड़ा सामराज्य दरकने के कगार में है। मगर उसके पशोपेश का कोई अन्त नही दिखाई दे रहा है। उसके लिए सबसे बड़ी चुनौति रायलसीमा और सीमांध्र को बचाने की है क्योंकि यहां के नेता अलग तेलांगाना के पक्ष में नही हैं। ऊपर से हैदराबाद का पेंच अलग फंसा हुआ है। तेलांगना बनाने की मांग पर विचार के लिए बनाई गाई जस्टिस श्रीकृष्ण समिति ने जो 6 सुझाव केन्द्र सरकार को सौंपे उसमें से चार सुझावों को वो खुद अव्यवाहरिक करार दे चुकें है। सिर्फ पांचवा सुझाव जिसमें उसने तेलांगाना और सीमांध्र में राज्यों को बांटने और हैदराबाद को तेलांगाना की राजधानी बनाने की बात कही है और छठा सुझाव एकजुट राज्य में तेलांगाना का सामाजिक आर्थिक विकास करने के लिए तेलांगाना क्षेत्रीय परिषद के गठन का सुझाव दिया है। बहरहाल इन दोनों पर ही आमराय बनना मुष्किल दिखाई देता है। एक सुझाव यह भी आया है की हैदराबाद को चंडीगड़ की तर्ज पर दोनो प्रदेशों की संयुक्त राजधानी बनाया जाए बाद में विशाखापटनम को विकसित कर सीमांध्र की राजधानी बनाया जा सकता है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर वह कौन सी वजह है जिसने कांग्रेस के हाथ पांव बांध रखें हैं। आंध्र प्रदेश के कुल 42 संसदीय क्षेत्रों में से 17 संसदीय क्षेत्र तेलांगाना से आते हैं। विधानसभा की कुल सीटों में 150 विधायक इस क्षेत्र से आते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है की राजनीतिक लिहाज से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। फिलहाल यहां से कांग्रेस के 12 सांसद और 50 विधायक जीतकर आऐं हैं। 2004 और 2009 में दिल्ली की सत्ता तक कांग्रेस को पहुंचाने में आंध्र प्रेदश का बहुत बड़ा हाथ रहा। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के 34 सांसद इस राज्य से जीतकर आऐं हैं। वैसे देखा जाए तो आंध्रप्रदेष परंपरागत तौर पर भी कांग्रेस का गढ़ रहा है। यहां तक की 1977 में अपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ फैले माहौल के बावजूद कांग्रेस के 41 सांसद आंध्र प्रदेश से चुनकर आए। बहरहाल अब स्थिति आर पार की दिखाई पड़ती है। मगर सवाल यह उठता है कि आज जनमानस हर मर्ज का इलाज पृथक राज्यों में क्यों देख रहे हैं। आखिर यह आवाज क्यों उठ रही है। यह आर्थिक पिछड़ापन का आक्रोश है या राजनीतिक सामाजिक महत्वकांक्षाओं का उभार। सवाल यह भी है की नए राज्यों की मांगें विकास की वास्तविक मंशा से प्रेरित है या राजनीतिक महत्वकांक्षाओं से। छोटे राज्यों को बनाने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि यहां प्रशासन करना आसान होता है। यह बात सच भी है और नही भी। अगर प्रशासनिक दृष्टि के आधार पर नए राज्यों का निर्माण होने लगे तो नए राज्यों की बाड़ आ जाएगी। वैसे भी पृथक राज्यों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। इनमें तेलांगाना, गोरखालैंड, विदर्भ, बुंदेलखंड, भोजपुर, सौराष्ट, कौशलांचल, मिथिलांचल, पूर्वाचल, हरित प्रदेश ब्रज प्रदेश और अवध प्रदेश की मांगें शामिल हैं। खुद उत्तप्रदेश की मुख्यमंत्री राज्य को बांटने की बात पर अपनी सहमति जता चुकी है। यह बात दीगर है कि उन्होने केन्द्र सरकार को पत्र लिखने के अलावा कुछ नही किया। उनकी गंभीरता इस बात से झलकती अगर वह विधानसभा में पृथक राज्यों का प्रस्ताव पारित कराकर केन्द्र को भेजती। हाल ही में गोरखालैंड मामले में एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिससे गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन का मार्ग प्रशस्त हुआ। मगर दूसरे राज्य जरूरी नही इस तरह के फार्मूले पर हामी भर देंगे। समय की नजाकत तो यह कहती है की दूसरे राज्य पर्नगठन आयोग की स्थापना कर इन सब मांगों पर विचार किया जाना चाहिए। साथ ही नए राज्यो के गठन के लिए कुछ निश्चित मापदंड सामने आने चाहिए। वरना आए दिन इस तरह का विरोध प्रदर्शन देखने को मिलेंगे। अब सवाल यह उठता है कि अगर छोटे राज्य विकास की गारंटी हैं तो 2000 में अस्तित्व में आए उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ क्या एक कुषल माॅडल प्रदेश साबित हो पाए हैं। मसलन उत्तराखंड आज 9.3 फीसदी, झारखंड 8.45 फीसदी और छत्तीसगढ़ 7.35 फीसदी के तेजी से विकास कर रहा है। मगर झारखंड के मामले मे तो यह गलत साबित हुआ है। राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के चलते इस राज्य का विकास कम विनाश ज्यादा हुआ। नेताओं अफसरों और खनन माफियाओं की पौ बारह हुई मगर आम जनमानस को बुनियादी सुविधाओं तक नही मिल पाई। छत्तीसढ़ में रमन सिंह ने जरूर कुछ आस जगाई मगर नक्सलवाद वहां आज भी गंभीर चुनौति बनी हुई हैं। उत्तराखंड बाकी के मुकाबले बेहतर रहा मगर भ्रष्टाचार ने यहां भी तेजी से अपने पैर पसार लिए। लिहाजा दूसरे राज्य पुर्नगठन आयोग की इन बातों पर भी विचार करना होगा। बड़े राज्यों के लिए यह चुनौति है की असमान विकास पृथक राज्य का कारण बनता है इसलिए समान और सर्वसमावेशी विकास की अवधारणा से काम करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। साथ ही जनमानस को उन लोगों से भी सावधान रहने की जरूरत है जो निजि राजनीतिक महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इस तहत के आदोलनों की आग में घी डालने का काम करते हैं। सबसे बड़ी बात जिम्मेदार नेताओं को ऐसे संवेदनशील मामले में सोच समझ कर बयान देने चाहिए। क्योंकि इतिहास गवाह है
बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताये।
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