उर्जा खपत के हिसाब से भारत दुनिया का पांचवा देश है। दुनिया की कुल खपत का 3.4 फीसदी भारत करता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि भारत जापान और रूस को पीछे छोड़कर 2030 तक तीसरे स्थान पर काबिज हो जायेगा। मगर बिजली उत्पादन में देश की स्थिति में सुधार कुछ खास नही हुआ। हालात यह है कि घंटों तक बिना बिजली के लोगों को जीना पड़ रहा है। सरकार मांग के मुताबिक उत्पादन नही कर पा रही है। जमीन अधिग्रहण, पर्यायवरण मत्रालय से हरी झंडी, कानून व्यवस्था जैसी मुश्किलें आम हैं। यही कारण है की पिछले कई पंचवर्षिय योजनाओं के तहत निष्चित किए गए लक्ष्य पूरे नही हो पाए। मसलन 10वीं पंचवर्षिय योजना में 41 हजार मेगावाट का लक्ष्य रखा गया था मगर 21 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य पूरा हो पाया। इसी तरह 11वीं पंचवर्षिय योजना में 78700 मेगावाट का लक्ष्य रखा गया था जिसे बाद में संशोधित कर 62 हजार मेगावाट कर दिया गया। कहा जा रहा है की साल के अन्त तक हम 50 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य प्राप्त कर लेंगे। इस लक्ष्य की प्राप्ति में केन्द्र और राज्य सरकार के उपक्रमों के अलावा निजि भागीदारी भी शामिल है। बहरहाल 12 वीं पंचवर्षिय योजना में सरकार 1 लाख मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखने जा रही है। सवाल उठता है की ऐसे हालात आज क्यों पैदा हुए हैं। दरअसल बिजली उत्पादन के लिए जरूरी प्लांट और मषीनरी बनाने की एकमात्र सरकारी उपक्रम भेल है। जिसकी उत्पादन क्षमता जरूरत के हिसाब से काफी कम है। इसलिए हमें चीन जैसे मुल्क से बड़े पैमाने पर आयात करना पड़ता है। हालांकि भेल की क्षमता में सुधार आया है। सरकार अब मशीनरी के घरेलू उत्पादन पर जोर दे रही है ताकि इस क्षेत्र में हम आत्म निर्भर बन सकें। इसके लिए कई संयुक्त उपक्रम खोले जा रहे है। एक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए उर्जा एक बड़ी जरूरत है। यही कारण ही कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद ने देष की तेजी से बढ़ती विकास दर में सबसे बड़ा रोड़ा उर्जा की कमी को बताया था। भारत आने वालें सालों में अपनी विकास दर 10 फीसदी से उपर रखना चाहता है। मगर इसके लिए जरूरी है कि बिजली उत्पादन में तेजी लाई जाए। मौजूदा समय में देश में सबसे ज्यादा बिजली कोयले से पैदा होती है। ताप उर्जा का कुल उत्पादन में हिस्सा 75 फीसदी है। मगर कोयला उत्पादन में हो रही गिरावट ने कई मुश्किलें पैदा कर दी हैं। खासकर की पर्यायवरण मंत्रालय द्धारा गो और नो गो ऐरिया की मसला उठाये जाने के बाद कोयला उत्पादन में गिरावाट आई है। साथ ही हमारे देश में कोयले की गुणवत्ता औसत दर्जे की है। आज जहां उर्जा क्षेत्र की विकास दर 10 प्रतिशत की तेजी से बढ़ रही है वहीं कोयले का उत्पादन 5 से 6 फीसदी की दर से बढ़़ रहा है। इस संकट से निजात नही मिली तो हमें आने वाले समय में कोयले के लिए निर्यात पर निर्भर रहना पड़ेगा। इसके लिए जरूरी है की कोयला मंत्रालय उत्पादन बढाने के सभी उपाय के साथ कोयले की चोरी पर रोक लगाए। एक अनुमान के मुताबिक कोयले के चोरी का सालाना कारोबार 1800 करोड़ का है। बिजली उत्पादन में दूसरा सबसे बड़ा योगदान जलविद्युत परियोजना का है। वर्तमान में कुल खपत का 21 फीसदी उर्जा का स्रोत जलविद्युत है। यंू तो भारत में जलविद्युत उर्जा की असीम संभावनाऐं मौजूद हैं मगर कुशल नीति के अभाव में हम इसका समुचित इस्तेमाल नही कर पा रहे हैं। भारत में इसकी कुल क्षमता 1.5 लाख मेगावाट है मगर अभी तक हम इसका 25 फीसदी ही उपयोग कर पायें हैं। अकेले अरूणांचल प्रदेश की क्षमता 80 हजार मेगावाट के आसपास है। तीसरा स्रोत परमाणु उर्जा है। भारत और अमेरिका के बीच परमाणु करार के बाद भविष्य में यह उर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है। यह न सिर्फ मांग और आपूर्ति में अन्तर को कम करेगा बल्कि इससे निकलने वाली उर्जा साफ सुथरी है जिससे हम ग्रीन गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण कर सकेंगे। आने वाले समय में इस क्षेत्र से ज्यादा से ज्यादा बिजली उत्पादन किया जाएगा। वर्तमान में यह 4 फीसदी है जबकि 2020 तक हमने 20 हजार मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य रखा है। आगे 2050 तक हमारा लक्ष्य कुल खपत का 25 फीसदी इस क्षेत्र से लाने का है। इसके लिए कई देशों से परमाणु करार किए जा चुके हैं। वर्तमान में देष में 19 परमाणु पावर प्लांट काम कर रहे है जिनकी उत्पादन क्षमता 4560 मेगावाट है। भारत सरकार ने वैकल्पिक उर्जा स्रोतों पर भी ध्यान देना शुरू किया है। इसमें सबसे उपर जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय उर्जा मिशन है। इस मिशन की शुरूआत नवंबर 2009 में हुई। इसे तीन चरणों में विभाजित किया गया है। मार्च 2013 तक 4337 करोड़ के बजट से 11000 मेगावट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए 2022 तक 20 हजार मेगावाट का लक्ष्य रखा गया है। पवन उर्जा में भारत का पांचवा स्थान है। देश में इसकी कुल क्षमता 48500 मेगावाट की है जिसमें अप्रेल 2010 तक 11807 मेगावाट इन्सटाल्ड कर ली गई थी। 2022 तक हम इस क्षेत्र से 40 हजार मेगावाट उत्पादन करना चाहते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले 8 सालों में उर्जा के क्षेत्र में 12.5 लाख करोड़ की आवश्यकता होगी। सरकार इसके लिए सार्वजनिक निजि भागीदारी पर जोर दे रही है। यही बात 12वीं पंचवर्षिया योजना के मसौदे में भी कही गई है। वर्तमान में बिजली का मांग और आपूर्ति के बीच 10 फीसदी का अंतर है जो पीक आवर मसलन 5 बजे से रात 11 बजे 12.7 फीसदी तक रहता है। सुधार की दिशा की ओर कदम बढ़ाते हुए भारत सरकार ने 2003 में बिजली कानून बनाया। कानून में 2012 तक हर गांव में बिजली पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की शुरूआत इसे उद्देश्य से की गई है। इसके तहत राज्य सरकारों को डीपीआर बनाकर केन्द्र सरकार को जमा करनी होती है। केन्द्र सरकार उक्त डीपीआर को इस शर्त में षामिल करता है जब राज्य सरकार लगातार 6 से 7 घंटे की बिजली प्रादन करने की हामी भरे। साथ ही योजना के तहत गरीब परिवारों को मुफत बिजली कनेक्शन दिए जा रहें हंै। मगर 2012 तक हर गांव को रोशन करना कठिन लक्ष्य है। वहीं जिन गांवों में बिजली के कनेक्शन दिए गए हैं वहां लोगों की बिजली न आने की शिकायत आम है। । उर्जा क्षेत्र में सबसे ज्यादा नुकसान बिजली के वितरण से होता है। 2003 में यह आंकड़ा 36 फीसदी था जो आज 29 फीसदी तक आ गया है। अगर इस नुकसान को हम नीचे ले आऐं तो मांग और आपूर्ति के बड़े अंतर को पाटने में मदद मिलेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें