मंगलवार, 3 जून 2008

मौत का मुआवजा

फिर धमाके हुए। मौत का मंजर पसरा। अपनों कों ढूढती ऑखों के आंंंसू सूख गये। धडपकड़ तेज हुई। मुआवजे का ऐलान हुआ। सरकार का रटा रटाया बयान आया। फिर चल पडी। जिन्दगी अपनी रफतार से। ऐसा ही होता है न, बमधमाकेां के बाद? शायद अपने देश को इसकी आदत सी पड गई है। दहशतगर्द अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने में कामयाब रहते है।े। हम शांतिव्यवस्था बनाये रखने का पैगाम देते रहते है। आखिर कबतक चलेगा यह सब ? क्या इसका कोई अंत है?। अगर है तो कहॉ ?ं अगर नही तो क्यों नही ? क्या लोकतंत्र में लोगेां की जान आफत में है? सवाल पूछना हर कोई चाहता है। मगर क्या करें जवाब देने वाले नदारद है। “ुाक्र है संसद का सत्र रही चल रहा है। वरना सांसदों की विरह वेदना अपने चरम पर होती। सरकार पर गुस्सा फूटता। पोटा लाने की वकालत हेाती। अफजल को फॉसी दो के नारे लगते। नतीजतन एक दिन के लिए सदन स्थगित हो जाता। अगले दिन सब समान्य जैसे मानों कुछ हुआ नही था।
एक ऐसा नाटक है जो हर बार होता है। और हम मूकदशZक की भॉति उसे देखते रहते है। कहानी यही नही थमती । जान की कीमतेंा का आंकलन हेाता। यानि मिलता मौत का मुआवजा।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे।

लोकतंत्र हिताथाZय, विवेकालोकवर्धनी,उदभोधनाय लोकस्य लोकसत्ता प्रतििष्ठता।हम सच्ची श्रद्धा और सर्मपण के साथ इस मूल मंत्र को अपना आदशZ मानकर समाजकल्याण के भगीरथ प्रयासों में सहभागीदार बन रहे है। यही हमार चिंतन है यही हमारा प्रयत्न है और यही हमारा स्वप्न है।
पिछले दिनों लोकसभा टेलीविज़न के बारे में अपने मित्रो द्धारा उठाई गई बातों को जानने का मौका मिला। मैं उन्हे व्यक्तिगत तौर पर तो नही जानता, पर बडी विनम्रता के साथ उनका धन्यवाद जरूर करना चाहूंंगा जिन्होंने इस चैनल की कार्यशैली व उसके कार्यक्रम के बारे में अपनी महत्वपूर्ण राय रखी। इससे भविष्य में सुधारात्मक कदम उठाने में हमें अवश्य मदद मिलेगी।आगे भी हम चाहेेंगे कि उनके सुझाव और समर्थन इस चैनल को मिलते रहे। मगर कुछ सवाल हमारे मन में भी कौंध रहे है। आखिर मानव स्वभाव है। पहला सवाल जिन किसी महानुभावों ने चैनल पर टिप्पणी की, उन्हे इस चैनल के बारे में कितना पता है या फिर उन्होने कितनी बार अपनी आखों को कष्ट देकर इसके कार्यक्रमों को देखा है ये उनसे बेहतर और कोई जान सकता है। इस चैनल के उदेदश्य और इसके उदय की जानकारी उनको है या नही। हमें नही मालूम। बस उन्हे इतना बताना चाहता हंेूं कि शुरूआती दौर से ही में इस चैनल के साथ जुडा हंू तथा इसके उदेदश्यों रचनात्मक सोच का में कायल हंूं। कुछ भी कहने से पहले यह जान लेना जरूरी होगा कि इस चैनल को लाने का उदेदश्य क्या था। यह किसके स्वप्न की सार्थकता का जीता जागता प्रमाण है। इस चैनल को लाने की सोच माननीय लोकसभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चैटजीZ की थी। जिनका संसदीय अनुभव और सामाजिक समर्पण किसे से छिपा नही है। जिनकी सोच ने एक क्रांति को जन्म दिया जिसका नाम है लोकसभा टेलीविजन । दरअसल उनकी सोच थी कि लोकतंत्र में लोगेा को विकास का सहभागिदार बनाया जाए। एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जाए जिसके माध्यम से जनता अपने जनप्रतिनिधी की कार्यशैली तथा जनकल्याण हेतु उसकी कोिशशों का जान पाये। उसे यह जानने का अधिकार हो कि जिस व्यक्ति पर उसने विश्वास जताया है वह कितना उनकी अपेक्षाओं में खरा उतर रहा है। इसके अलावा आम आवाम को संसदीय प्रणाली तथा प्रक्रियाओं की पूर्ण जानकारी हो सके। इस मिथ का अन्त हो की सरकार कुछ नही करती बल्कि इस सच्चाई का उदय हो कि सराकर की हर योजना के पिछे मकसद सिर्फ और सिर्फ समाज कल्याण है। इतनी प्रबल इच्छाऐं मगर पूरी कैसे हेा। यह सबसे बड़ा सवाल था। सवाल का जवाब मिला और उदय हुआ लोकसभा टीवी का। हम विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र के तौर पर जाने जाते हैैं। इससे ज्यादा गौरव की बात और क्या होगी कि वहॉं कि हर गतिविधीयेां पर जो उनके कल्याण से जुडी है वहॉं के नागरिकेां की नजर हेा।। इससे भी बडी खुशी की बात यह है कि यह विश्व का पहला ऐसा चैनल है जिसको चलाने का दारेामदार संसद का है। हॉ इतान जरूर है कि हम किसी भी विषय को व्यवसायिक चश्मे से नही देखते। हमारी कोिशश न तो सनसनी फेेेैलाने कि रहती है और न ही हम टीआरपी के गेम में मर्यादाओं और और लक्ष्मण रेखाओ का उल्लंघन कर रहे है। हम न तो लोगो की धार्मिक भावनाओं से खेल रहे है और न ही किसी की निजि जिन्दगी को खुले आम समाज के सामने नंगा कर रहे है। बल्कि हम गांधीजी के उस भाव केा आत्मसात कर निरंतर प्रयास कर रहे ह,ै जो चाहते थे विकास का मकसद तभी पूरा होगा जब इसका फायदा गॉंव में बैठे आखिरि व्यक्ति तक पहुंचगा। हम खबरिया चैनलों के कतार में शामिल नही बल्कि हम 24 घंटों मे कई रचनात्मक और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम प्रस्तुत करते है। मैं पूछना चाहूंगा अपने उन साथियों से जिन्हे इस चैनल व उसके कार्यक्रमों में अनेक खामियॉं नजर आती है। वह संसद जो देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था है, में हेाने वाली बहस को अपने अखबरों में जगह देते है। सच्चाई यह है कि हंगामा जरूर अखबारेां की सुिर्खया बनता है मगर बहस, सवाल जवाब तथा विभिन्न नियमों के तहत उठने वाले मुददे उनके अखबारों से अकसर नदारद रहते है। जबकि इसके ठीक विपरित हमारी कोिशश ज्यादा से ज्यादा मुददों, सवालों तथा सरकार द्धारा चलाई जा रही योजनाओं से जुडी जानकारी लोगों तक पहुंचाने की रहती है। अन्तर सिर्फ इतना है हमें देश के एक प्रिंस कि चिंता नही बल्कि हमें उन करेाडो प्रिंस की चिंता है जो हर रोज किसी न किसी कारणों से मौत के मुंह में समा रहेे है। हमारे देश में जागरूकता का अभाव विकास में हेाने वाली देरी का एक प्रमुख कारण है। और हम इमानदारी से इस और सकारात्मक रवैये के साथ काम कर रहे है। इसमें हमें समय समय पर लोगेा ंका प्रेम और स्नेह भी प्राप्त होता है। इसका जीता जागता प्रमाण है हमारा कार्यक्रम लोकमंच और पब्लिक फोरम है। जिसमें दशZक देश के कोने कोन से अपने राय और सवाल रखते है। महज 50 मीनट में 40 फोन कौल आना अपने अपने आप सब पे सब बयॉं कर देता है। इसके अलावा महिलाओं और विभिन्न क्षेत्रों से दर्जनों कार्यक्रम हम प्रसारित करते है।लोकसभा चैनल अभी अपने शैशव काल में है। ऐसे मै बहुत सारी कमियों को हम सहज स्वीकार करते है। मगर इन सब के सहारे पूरी चैनल पर प्रश्न चिन्ह लगाना किसी भी तरह से उचित नही। जहॉं तक सवाल कर्मचारियों के छोड़ने का है यह एक अवश्यसंभावी प्रक्रिया है जिससे कोई भी मुंह भी चुरा सकता। इसके सहारे यह कह देना की चैनल में सब कुछ ठीक नही चल रहा है, एक नादानी भरा तर्क है। जहॉं तक परिवर्तन का सवाल है तो यह तो संसार का नियम है फिर भला हम इस प्रक्रिया से कैसे मुंह मोड़ सकते है। समय के साथ साथ हमने कई सुधार किये है और आगे भी हमारे यह प्रयास जारी रहेंगे।

रमेश भट्ट

रविवार, 11 मई 2008

हम हेांगे कामयाब

महिला आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया हैंं। फिर से इसके पास हाने की उम्मीेदो ंका सपना महिलाऐं संजोेने लगी है। आखिर हो भी क्यों न, बारह साल से तो वो सिर्फ इंतजार ही कर रही है। सडक से लेकर संसद तक इस दौरान खूब प्रदशZन हुए। शायद इसी दबाव में चलते सरकार ने बीती 6 तारीख को इस विधेयक को भारी हंगामें के बावजूद आनन फानन में राज्य सभा में पेेश कर दिया। फिलहाल मामला अब विधि मंत्रालय से संबंधित स्थाई समिति के समक्ष है। इन सब के बीच विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे है। आरजेडी सपा और जेेडीयू को बिल के मौजूदा स्वरूप से कडा ऐतराज है। उनकी माने तो इसका फायदा केवल एक खास वर्ग को ही मिल पायेगा। लिहाजा इस कोटे के ही भीतर पिछडी और मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान हो। इसके पीछे उनका तर्क सामाजिक न्याय की मूल अवधारणाओ को जीवित रखना है। पिछले 12 सालों में चार सरकारों के समक्ष आमसहमति बनाने का राजनीतिक डामा होता रहा। अब भी कुछ नया होता नही दिखाई दे रहा है। महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले देवगौडा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में 12 सितंबर 1996 में रखा गया। उसके बाद एनडीए सरकार के दौरान भी इसे पास कराने के तीन प्रयास भी 1999, 2002 और 2003 में किये गये मगर नतीजा सिफर रहा।अब यह मामला एक बार फिर सूिर्खयों में है। हर राजनीतिक दल अपनी ाव को मान लेते कि रांजनीतिक पार्टियॉं स्वयं यह सुनििश्चत करें कि वह टिकट वितरण के समय 33 फीसदी टिकट महिलाओं केा दे।तो समस्या का समाधान हो जाता। मगर यहॉं तेा कथनी और करनी में धरती आसमान का फर्क है। आज समाज से महिलाओं से जुडी कई ज्वलन्त समस्याऐं है। राष्टीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों 2006 के आंकडे डराने वाले है। आंकडो के मुताबिक अकेले बलात्कार की घटनाओें में 1971 के मुकाबले आज 678 प्रतिशत बो ंलाचार है औरत, जरूरत पडे तो तलवार है औरत। मॉं है बहन है पित्न ह,ै हर जिम्मेदारी के लिए तैयार है औरत।