गुरुवार, 25 मार्च 2010

सार्वजनिक वितरण प्रणाली

लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली । 36 करोड़ आबादी यानि 6 करोड़ 52 लाख परिवारों की भूख मिटाने की आस।। भारत सरकार देती है इसके लिए भारी भरकम सिब्सडी। मगर जरूरत मन्दों तक पहुंंचने के बजाय यह योजना भ्रश्टाचार के दलदल में फंसकर दम तोड चुकी है। रिपोटोZ की लम्बी फेहरिस्त इस बात की चीक चीक कर गवाई दे रही है कि इस योजना ने गरीब का पेट तो नही भरा, मगर एक तबके के वारे न्यारे जरूर कर दिये। क्या नेता, क्या अफसर, क्या ठेकेदार और क्या मिल मालिक, सबसे इस योजना का दुधारू गाय की तरह समझा है। अब सवाल यह उठता है कि भारत सरकार की महत्वकांक्षी योजना भोजन के अधिकार का क्या होगा। क्या मौजूदा तन्त्र के सहारे ही उसे आगे बडाया जायेगा या फिर इस व्यवस्था की सर्जरी के लिए भारत सरकार तैयार है। यह योजना केन्द्र और राज्य सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी के तहत चलाई जा रही है। आवश्यक वस्तु अधिनियम और कालाबाजारी रोकने से जुडे कानून मानों किताबों तक सीमित है। आंकडो पर अगर गौर करें तो योजना के तहत चावल एपील कार्ड धारकों को 8रूपये 30 पैसे प्रति किलों, बीपीएल को 5 रूपये 65 पैसे प्रति किलों और अति गरीब यानी एएवाई को 3 रूपये प्रति किलो दिये जाते है। इसकी क्रम में गेंहू 6 रूपये 10 पैेस प्रति किलों ,4 रूपये 15 पैेसे प्रति किलो और 2 रूपये प्रति किलों दिये जाते है। साथ ही सरकार सस्ती चीनी और मिटटी का तेल भी मुहैया कराती है। खास बात इन दामों में 1 जुलाई 2002 से कोई बढोत्तरी नही की गई। मगर इस बीच गेहूं और चावल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तेजी से बडा जिसने सीधे सरकार के खजाने पर असर डाला। यानी सरकार का सिब्सडी बिल साल दर साल बडने लगा। 2007-08 में यह 25424.89 करेाड था, 2008-09 में 32400 करोड और 2009- 10 में 5248772 करोड तक पहुंच गया। इन सबके बीच व्यवस्था में सुधार तो नही हुआ मगर भ्रश्टाचार के साथ साथ खाघान्नों की दूसरे देशों में बेचे जाने की खबरे आम हो गईZ। अब सभी को इन्तजार इस बात का है भोजन के अधिकार को अमल में लोन से पहने क्या सरकार इस तन्त्र में आमूल चूल परिवर्तन करेगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बदलाव होना चाहिए। योजना अपने मकसद से भटक चुकी है और कई राज्यों में दम तोड चुकी है। राजस्थान बिहार झारखण्ड गुजरात कर्नाटक और उतराखण्ड जैसे राज्यों का दौरा करने के बाद देश में पीडीएस की क्या स्थिति है इसकी पोल वाडवा समिति ने खोल कर रख दी है। समिति ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी अपनी रिपोर्ट में साफ कहा है कि पूरी प्रणाली भ्रश्टाचार के दलदल में धंस चुकी है। समय से राशन का न मिलना, पर्याप्त मात्रा में न मिलना, निर्धारित दामों पर न मिलना और गुणवत्ता का अभाव जैसी शिकायते आम है। फेयर प्राइस ‘ाौप के लाइसेन्स पाने के लिए घूस देना नई बात नही है। सस्ता गल्ला विके्रता, टांसपोर्टर और भ्रश्ट अफसरों की चौकडी योजना का फायदा पाने वालों में सबसे उपर है। सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि जरूरमन्दों के पास तो राशन कार्ड नही है, मगर करोडों की तदाद में बोगस राशन कार्ड इस व्यवस्था में जरूर मौजूद है। वाडवा समिति इससे पहले देश की राजधानी दिल्ली में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पोस्टमार्डम कर चुकी है। समिति ने जोर देकर कहा है कि मौजूदा तन्त्र में बडे बदलाव की जरूरत है। समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि मौजूदा तन्त्र से एपीएल धारकों का बहार करके बोगस राशन कार्ड समाप्त किये जाए। लोगों को चिन्हित करने का तरीका पारदशीZ हो और साथ की इस प्रणाली को कम्प्यूटरीकृत किया जाए। आगे समिति कहती है की जिला स्तर पर निगरानी तन्त्र को मजबूत करने के अलावा एक हेल्पलाइन ‘ाुरू की जाए। अब सवाल यह है की सरकार इन सिफरिशों का क्या करती है।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

किसानवाणी

भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतन्त्र है। किसान इस देश की अर्थव्यवस्था का एक मजबूत आधार है। मगर किसान की दुर्दशा आज किसी से छिपी नही है। 1991-2001 तक 84 लाख किसान खेती छोड चुके है। एनएसएसओ के सर्वे के 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर खेती को छोड़ना चाहते है। 81 फीसदी किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के अर्थशास्त्र को नही समझते। वो नही जानते की सरकारी खरीद केन्द्र में अगर वो जाते है तो उन्हें अपने उत्पाद का कितना मूल्य मिल पायेगा। उपर से महज 24 उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे के तहत आते है। कुछ और उत्पाद को इसके दायरे में लाने की कई सिफारिशें सरकारी फाइलों में धूल फांक नही है। यानि सीधी बात इनकी सुध लेने वाला कोई नही है। सरकार का जोर कृिश ऋण का लक्ष्य हर साल बडाने पर रहता है। मगर अहम सवाल इस देश में 82 फीसदी किसान 1 हेक्टेयर से कम जमीन के मालिक है। सरकार फसल लोन 3 लाख तक का 7 फीसदी के ब्याज़ दर पर दे रही है, मगर कृिश सम्बन्धि स्थायी समिति की अपनी एक सिफारिश में इस राशि को बड़ाकर 5 लाख करने की बात कही गई है। साथ ही ब्याज़ दर को घटाकर 4 फीसदी पर लाया जाए जिसकी सिफारिश राश्ट्रीय किसान आयोग ने की थी। देश में उत्पादन के लिहाज से भी हम दूसरे देशों के मुकाबले पीछे है। स्वामीनाथन साहब कहते है की मौजूदा संसाधनो का उचित इस्तेमाल किया जाए तो उत्पादन 50 फीसदी तक बडाया जा सकता है। इस देश में किसान बडे पैमाने पर आत्महत्या कर रहा है। लाखों किसान हालातों के सामने मजबूर होकर अपनी जिन्दगी स्वाहा कर चुके है। सरकार ने 71 हजार की कर्ज माफी की घोशणा कर इस दाग को धोने की कोशिश की। मगर राधाकृश्णा समिति ने इसकी भी पोल खोल दी। यह सच है है कि तकरीबन 4 करोड़ किसानों को इसका लाभ पहुंचा। मगर उनका क्या, जिन्होने साहूकारों से 30 फीसदी पर कर्ज उठा रखा है। इसका एक उदाहरण यहां पर जरूरी है। सरकार ने विदर्भ क्षेत्र के लिए एक स्पेशल पैकेज की घोशणा की। इसमें 6 जिलों को ‘ाामिल किया गया। यवतमाल, अमरावती, अकोला, वाशिम, बुल्धाना और वर्धा जिले को यह राशि ध्यान में रखकर दी गई। मगर वसन्त राव नायक ‘ोठी स्वालंभन मिशन के मुताबिक उन 6 जिलों में 17 लाख 64 हजार किसानों में से महज 4 लाख 48 हजार किसानों ने बैकों से कर्ज ले रखा था। यानि 75 फीसदी किसानों ने साहूकारों और व्यापारियों से कर्ज ले रखा था। तो उनको कैसी कर्ज माफी की राहत। इसके अलावा जुलाई 2006 में चार राज्यों के जिन 31 जिलों को ध्यान में रखकर पैकेज दिया गया उसका भी कोई बडा फायदा किसानों तक नही पहुंचा। हालांकि सरकार ने पूरे देश में साहूकारों के कर्ज के बोझ तले दबे किसानो की हालात का आंकलन के लिए एक टस्क फोर्स गठित किया है। फिलहाल इस रिपोर्ट का सबको इन्तजार है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

इन्दिरा आवास योजना

बजट 2010 -11 में इस योजना को 10 हजार करोड़ का आवंटन किया है। पिछले साल के मुकाबले यह राशि 1200 करोड़ ज्यादा है। इस योजना में केन्द्र और राज्य सरकार की हिस्सेदारी 75:25 की है। सरकार ने अगले पांच साल में जो 1 करोड़ 20 लाख पक्के मकान बनाने का लक्ष्य रखा है उसको ध्यान में रखकर यह राशि बड़ाई गई है। साथ ही प्रति मकान बनाने की बड़ती लागत को देखते हुए सरकार ने इस बजट में प्लेन एरिया के लिए राशि 45000 रूपये और ग्रामीण इलाकों के लिए 48500 कर दी है। पहले यह 35000 और 38500 थी। हांलाकि ग्रामीण मन्त्रालय से जुडी स्थाई समिति ने इस राशि को बड़ाकर 50000 प्लेन ऐरिया के लिए और 60000 ग्रामीण इलाके के लिए करने की सिफारिश की थी। इन्दिरा आवास योजना केन्द्र सरकार की एक महत्वपूर्ण योजना है जो भारत निर्माण का एक अहम हिस्सा है। 1985 -86 से ‘ाुरू हुई इस योजना का उददेश्य 2016 -17 तक ग्रामीण भारत में रहने वाले प्रत्येक गरीब परिवार को पक्का घर मुहैया कराना है। मगर सरकारी आंकडों पर ही अगर गौर करें तो सरकार ही यह मंशा समय से पूरी होती नही दिखाई देती। दरअसल सरकार को इसके लिए बडे पैमाने पर खर्च बड़़ाना पड़ेगा। साल 2009 के मुताबिक सरकार को मौजूदा गरीबी के आंकडे के हिसाब से 2 करोड़ 81 लाख घर बनाने पड़ेगें। 2009-10 में 40 लाख 52 हज़ार मकान मकान बनाने का अनुमान है। यानि फिर बचते है 2 करोड़ 40 लाख मकान। इस लिहाज से सालाना आधार पर सरकार को अगले 6 सालों में 48 लाख मकान गरीबों के लिए बनानें पडेंगे। इतना ही नही इसके लिए केन्द्र सरकार को प्रति वशZ 12701 करोड़ का आवंटन करना पड़ेगा। गौरतलब बात यह है कि यह अनुमान तब का है जब सरकार प्रति मकान के लिए प्लेन एरिया में 35000 और ग्रामीण इलाकों में 38500 दे रही थी। यानि प्रति मकान बनाने की लागत में बदलाव के बाद यह राशि और बड़ जायेगी। अब एक दूसरा पहलू। इन्दिरा आवास ग्रामीण बीपीएल परिवारों को मिलता है यानि इसके लिए पात्रता है बीपीएल की श्रेणी के तहम नामांकित होना। मगर इस समय हालात यह है कि गरीबी के आंकडे में सरकार उलझा कर रह गई है। अगर सरकार 42 फीसदी को भी गरीब मानती है तो घर मुहैया कराने का सपना और कठिन हो जायेगा। मतलब भारत निर्माण का सफर अभी लंबा है। लिहाजा सरकार को बिना देरी किये किसी तरह की समय सीमा तय करने पहले दुबारा आंकलन करना चाहिए।

रविवार, 7 मार्च 2010

आधी आबादी और आरक्षण


महिला आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। तेरह साल से इसके लागू होने का इन्तजार कर रही महिलाओं ने सपने संजोने शुरू कर दिए हैं। अहम सवाल क्या इस बार देश की आधी आबादी का सपना सच हो पायेगा। पिछले एक दशक से ज्यादा चले इस अन्तहीन अघ्याय का सुखद समापन हो पायेगाा। वैसे तो इस अध्याय ने कई मोड देख। सडक से लेकर संसद तक खूब प्रदर्शन हुए। वाद विवाद का एक लम्बा सफर। राजनीतिक दलों का महिला प्रेम दशाZने के एक लम्बा दौर। और न जाने क्या क्रूा । मगर आधी आबादी को आरक्षण के मामले पर पंचायत और ‘ाहरी निकाय तक ही सीमित रहना पड़ा। 15वीं लोकसभा के चुनाव में उतरने से ठीक पहले केन्द्र सरकार ने इस विधेयक को भारी हंगामे के बावजूद आनन फानन में राज्य सभा में पेेश कर दिया। उसके बाद विधि मन्त्रालय से सम्बंधित स्थायी समिति के पास इस विधेयक को विचार करने के लिए भेजा गया मगर सीमिति ने दो टूक ‘ाब्दों में  इसे बिना देरी किये पारित करने की सिफारिश कर दी। अच्छी बात यह है कि इस बार कांग्रेस और बीजेपी ने इस ओर एक कदम आगे बड़ाते हुए व्हीप जारी कर दिया है। यानि 8 मार्च अन्तराश्टीय महिला दिवस का दिन भारत के इतिहास में एक अहम दिन होने जा रहा है। 
ळमेशा की ही तरह विरोधी पक्ष भी तनतना रहा है। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) को बिल के मौजूदा स्वरूप पर कडा एतराज है। इनके मुताबिक इसका फायदा केवल एक खास वर्ग को ही मिल पायेगा। इसीलिए वे मांग कर रहे हैं कि महिलाओं के लिए आरक्षित कोटे के भीतर पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय की महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान हो। इसके पीछे उनका तर्क सामाजिक न्याय की मूल अवधारणाओ को जीवित रखना है। इनके निरन्तर विरोध ने लोगों को फिर आशंकित कर दिया है। मगर एक ही पार्टी के दो दिग्गजों यानि नीतिश कुमार और ‘ारद यादव की अलग अलग बोली भी यह बता रही है कि विरोध का स्वर होगा जरूर मगर उसकी तीव्रता पहले से कही ज्यादा कम होगी। यानि इस बार पनघट की डगर कठिन नही है।
असल में पिछले 13 सालों में चार सरकारों के समक्ष आमसहमति बनाने का राजनैतिक प्रयास होता रहा है।  महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले  देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में 12 सितम्बर 1996 को संसद में रखा गया था। उसके बाद राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन की सरकार के दौरान भी इसे पास कराने के तीन प्रयास 1999, 2002 और 2003 में किये गये मगर नतीजा सिफर रहा। इन सबके बीच दो प्रमुख राजनीतिक दल खुद को एक दूसरों की तुलना में अधिक महिला-हितैषी दिखाने की कोशिश में जुटे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने संगठन में 33 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा कर मास्टर स्ट्रोक खेला तो कांग्रेस ने राज्यसभा में विधेयक पेश कर अपने `महिला प्रेम` का उदाहरण दे दिया। मगर इस बार लगता है कि सरकार के पास महिला आरक्षण विधेयक पारित करने के लिए अलावा कोई चारा नही बचा है।
आजादी के 62 साल के बाद दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज 8 प्रतिशत है जो एक बड़ा प्रश्न खड़ा करता है। यानि 15वीं लोकसभा चुनाव तक लोकसभा में  महिला सदस्यों की संख्या कभी भी 60 को पार नही कर सकी। पहली लोकसभा में जहां केवल 22 महिलाएं निर्वाचित हुई, वही बारहवीं लोकसभा में इनकी संख्या 43 तक पहंच गई। आज उनकी तादाद 59 है। इनमें से कई महिला सांसद ऐसी रही जिन्होंने पांच चुनाव लगातार जीते। इससे साफ जाहिर होता है कि महिलाओं को राजनीति में कमतर आंका नही जा सकता। महिला आरक्षण के मुÌे की अहमियत ज्यादातर राजनैतिक दल समझते हैं लेकिन उस पर अमल करने का राजनैतिक जोखिम उठाना सबके बस की बात नहीं है। 
पुरुष सांसदों के मन में एक चिन्ता यह भी है कि कही उन्हें अपनी सीट से हाथ न धोना पड जाए। अगर यह विधेयक पास होता है तो रोटेशन के आधार पर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करनी होंगी। इसे सिर्फ 15 साल के लिए लागू किया जायेगा और इस अवधि के दौरान सभी सीटें कभी न कभी एक बार महिलाओं के लिए आरक्षित करनी हेांगी। कुछ लोगों के अनुसार इसका एक नुकसान यह भी है कि अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति जनप्रतिनिधियों में गम्भीरता न के बराबर रह जायेंगी। क्योंकि सीट आरक्षित होने का डर हमेशा बना रहेगा।  ऐसे में अपने संसदीय क्षेत्र के कल्याण से ज्यादा उन्हें अपने कल्याण की चिन्ता सताने लगेगी। दूसरी तरफ एक चिन्ता यह भी है जिन सांसदों या विधायकों की सीट रिजर्व हो जायेगी वह अपनी पत्नी को मैदान में उतार देंगे। यानि घर की सीट घर पर ही रहेगी।  
वैसे राजनैतिक इच्छा शक्ति होती तो शायद मामला इतना आगे बढ़ता ही नहीं। अगर पहले ही राजनीतिक दल चुनाव आयोग की इस सुझाव को मान लेते कि रांजनीतिक पार्टियां खुद यह सुनिश्चित करें कि वह टिकट वितरण के समय 33 फीसदी टिकट महिलाओं को दें तो समस्या का समाधान हो जाता। मगर यहां तो कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है। आज समाज में महिलाओं से जुड़ी कई ज्वलन्त समस्याएं मौजूद हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के 2006 के आंकडे डराने वाले हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत में अकेले बलात्कार की घटनाओें में 1971 के मुकाबले आज 678 प्रतिशत की बढोत्तरी देखने को मिली है। लिंग अनुपात के गड़बड़ाने की दीघZकालीन समस्या और महिलाओं के शोषण की घटनाएं आम है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी महिलाएं खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। 87 फीसदी गर्भवती महिलाऐं में खून की कमी है। महिला साक्षरता का प्रतिशत भी मात्र 54 फीसदी  है।
विभिé क्षेत्रों में महिलाओं के दर्जे में सुधार तो हो रहा है। इसकी एक बानगी साल 2010 है। राश्टपति से लेकर लोकसभा अघ्यक्ष, यूपीए अघ्यक्षा से लेकर नेता प्रतिपक्ष, सबपर महिलाऐं आसीन है। उपर से राजनैतिक सुधारों की रोशनी में निकाय और पंचायत चुनावों में 14 लाख से ज्यादा महिला प्रतिनिधियों का चुना जाना एक बड़े बदलाव की और संकेत करता है। इसमें भी कोई दो राय नही कि देर सबेर यह बदलाव जन-जीवन के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करेगा। ऐसे में महिला आरक्षण बिल का महत्व और बढ़ जाता है। अगर वह अमल में आया तो महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। ऐसे में सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों को चाहिए की इस बार इस विधेयक को हर कीमत पर पारित कराकर समाज में महिलाओं के पक्ष में एक सकारात्मक सन्देश भेजे। 

बुधवार, 3 मार्च 2010

अर्थशास्त्र बनाम राजनीति

          इन दिनों अर्थशास्त्र और राजनीति आमने सामने है। मसला है तेल के दामों का बड़ना। राजनीति इसे पचा नही पा रही है वही अर्थशास्त्र मुस्कुरा रहा है कि कमसे से कम इस बार उसे राजनीति का शिकार नही होना पडेगा। अहम सवाल क्या हमेशा अर्थशास्त्र को राजनीति के चाबुक से हांका जायेगा। यहां राजनीति भी बेशर्म है। बिना किसी ठोस प्रमाण के हमेशा अर्थशास्त्र को चुनौति देती फिरती है। कभी महंगाई का हव्वा बनाकर तो कभी आम आदमी का ढोल पीटकर । मगर अर्थशास्त्र इस बार फुल तैयारी के साथ मैदान पर है। सिफारिशों के एक लम्बी फेहरिस्त अपने साथ लेकर वो मैदान में आ डटा है। रंगराजन और कीरीट पारीख समिति उसका केस पहले ही मजबूत कर चुके है। बचा खुचा काम 13वें वित्त आयोग ने यह कहकर पूरा कर दिया कि सिब्सडी सुधार पर सरकार को हर हाल में आगे बड़ना होगा। यही कारण है अर्थशास्त्र इस बार अपने को किसी के पैरों तले नही रूदवाने देगा। तभी तो सरकार के बजट में बढते राजकोशीय दबाव का डर दिखालकर अपना खेल दिखा रहा है। दांव ऐसा चला है की पूरे विपक्ष को एकजुट होने का मौका दे दिया । यहां तक की सरकार सर्मथकों का भी मुंह बनवा दिया। मगर साथ ही इलाज की ओर भी इशारा कर दिया । अरे इलाज कैसा भाई। लालू भले ही ‘ारद यादव से हाथ मिलाले मगर नीतिश को आंख दिखाना थोड़े ही भूलेंगे। क्या माया मुलायम के बीच प्रेम के फूल खिल सकते है। इतना ही नही ममता दीदी की कमजोर नस भी उसके पास है । बिना हाथ के पिश्चम बंगाल में ममता दीदी का मुख्यमन्त्री बनने का सपना कैसे पूरा होगा। डीएमके की तो छोडिए, सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध हो रहा है। सीरीयसनैस नही है भाई। यानी ‘ातरंज की बिसात पर इस बार सारे दांव अर्थशास्त्र चलेगा। और राजनीति छाती पीटपीट कर देखती रह जायेगी। सबसे बडा सच बात निकली है, तो दूर तलक जायेगी।