शनिवार, 24 अप्रैल 2010

आईपीएलवाणी

खेल का मैदान या पैसा कमाने का बाजार। मतलब इण्डियन प्रीमियर लीग। जैस जैसे इस खेल में व्याप्त भश्ट्राचार की परत दर परत खुल रही है। एक बहुत बड़े घोटाले की बू आ रही है। राजनेता से उधोगपति सभी इस धंधे में लिप्त है। विदेश राज्य मन्त्री शशि थरूर पहले ही अपने पद से हाथ धो चुके है। अब मुददा संसद के भीतर गूंजा तो सरकार हरकत में आ गई है। जांच एजेंसियां खरगोश चाल में आ गई है। मामले की तह में जाकर दूध का दूध और पानी का पानी करने की बात सरकार कर रही है। मगर लगता नही की जिस तरह के हाईप्रोफाइल लोगो के नाम इस खेल में आ रहे है उसे देख कर लगता नही की सच सामने आ पायेगा। संसद में बीजेपी सहित हर राजनीतिक दल ने इस प्रकरण की जांच कराने के लिए जेपीसी यानी संसद की संयुक्त समिति के गठन करने की मांग की है। ऐसा लगता नही की सरकार इस मांग को असानी से मान लेगी। क्योंकि अपने हाथ से ऐसे नाजुक मौके में रिमोर्ट कंट्रोल का चला जाना कितना नुकसान दे सकता है, सरकार इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है। रही बात आईपीएल की तो इसमें दो राय नही कि यहां सिर्फ और सिर्फ पैसे का बोलबाला है। मतलब मोटी कमाई करने का शार्टकट तरीका। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस खेल में काले धन की पैठ बडे पैमाने पर है। दुख इस बात के लेकर है की तीन साल से चले आ रहे इस खेल मे इतना सबकुछ चलता रही मगर हमारी जांच एजेसिंयों के कानों में जूं तक नही रेंगी। क्या इसकी भी जांच होगी। सरकार को इसकी भनक क्यों नही लगी। क्या उपर से लेकर नीचे तक चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहानी दोहराई जा रही है। दूसरी तरफ यह खेल न सिर्फ किक्रेट की आत्मा को मार रहा है बल्कि दूसरे खेल के लिए भी खतरा बनता जा रहा है। एक तरफ आईपीएल में अरबों के वारे न्यारे हो रहे है वही दूसरी तरफ राश्ट्रीय खेल के लिए संसाधन जुटाने के लाले पड रहे है। बहरहाल जांच के दायरे में, पैसा कहां से आया, किसने लगाया, किसकी कितनी भागीदारी है, कहीं काले धन का इस्तेमाल तो नही किया गया है। टैक्स कितना चुकाया और कितना चुराया गया। सेवा कर मामले में क्या स्थिति है। क्या मनोरंजन कर का भुगतान किया गया है। कुल मिलाकर सरकार के राजस्व में कितने का चूना लगा। टैक्स बचाने के गोरखधंधे की पीछे की सच्चाई जैसे अहम सवाल का जवाब मिलना बाकी है। लिहाजा सरकार को ईमानदारी से जांच पूरी कर सच सामने लाना चाहिए।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

भोजन का अधिकार

सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक जल्द लाने जा रही है। यह इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है की पहली बार बीपीएल परिवारों को भोजन का अधिकार दिया जा रहा है। सरकार गरीबी रेखा से जीवन यापन करने वाले परिवारों को प्रति माह 25 किलो चावल या गेहूं देगी। यह अनाज 3 रूपये प्रति किलों के हिसाब से दिया जायेगा। जरा सोचिए  जिस देश का वैिश्वक सूचकांक में स्थान 88 देशों में 66वा हो वहां इस कानून के लागू होने का क्या मतलब है, इसका अन्दाजा आप लगा सकते है। यह बात दीगर है कि कौन गरीब है के आंकड़ों में उलझी सरकार के लिए यह कह पाना मुिश्कल हो रहा है की सही मायने में गरीब कौन है। वो जिसे सुरेश तेन्दुलकर का अर्थशास्त्र गरीब मानता है या वो जिसे एनसी सक्सेना साहब का मनोविज्ञान गरीब मानता है या फिर वो जिसके बारे में अर्जुन सेना गुप्ता कहते है कि 77 फीसदी की हैसियत तो 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की है ही नही। बहरहाल मसले और भी है जो इस विधेयक से जुडे है। इस बात की भी प्रबल संभावनाऐं कि सरकार 25 किलों खाद्यान्न की सीमा बढाकर 35 किलो कर सकती है। संभावना इस बात की भी है कि सरकार तेन्दुलकर के गरीबी के आंकडों को गले लगा सकती है। क्योंकि इस रिपोर्ट को अपनाने से सरकार की सेहत मे ज्यादा असर नही पडेगा। वर्तमान में सरकार पीडीएस के माध्यम से 6 करोड 52 लाख परीवारों का पेट भरती  है। मतलब 36 करोड़ की आबादी को बीपीएल और अन्तोदय अन्न योजना के तहत सस्ता राशन मुहैया कराती है। अब अगर 1 करोड़ बड़ भी जाए तो सरकार की सेहत पर कोई खास असर नही पडने वाला। अब चुनौति गरीबों तक राशन पहुंचाने की होगी। इसलिए सरकार यह भी सुनिश्चित करना चाहती है कि जरूरत मन्दों तक इसका फायदा जरूर पहुंचे। सरकार यह भी सुनििश्चत करना चाहती है कि कौन सा ऐसा तन्त्र विकसित किया जाए ताकि इसका हाल भी लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसा न हो। लिहाज माथापच्ची इसी बात पर है कि कैसे इसे लागू किया जायेगा।  यह इस इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि इससे पहले यूपीए सरकार तीन ऐतिहासिक कानून सूचना का कानूून, रोजगार का कानून और शिक्षा का कानून लागू कर चुकी है। यानि अब परीक्षा भोजन के अधिकार कानून को लेकर है जो यूपीए के चुनावी वादों का अहम हिस्सा था। यह तो हो गई पेट भरने की बात। मगर पेट भर राशन आएगा कहां से। यानि दूसरा सवाल खाद्यान्न सुरक्षा का। मौजूदा दौर में देश विदेशों में इस बात के लिए मन्थन चल रहा है कि खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर कैसे बना जाये। कैसे खाद्यान्न की उत्पादकता बडाई जाए। हमारे देश में गेहूं चावल की उत्पादकता में सुधार जरूर हुआ है मगर यह नाकाफी है। दूसरे देशों के मुकाबले हमारी उत्पादकता  काफी कम है। जहां तक सवाल पंजाब और हरियाणा का है जिन्हें भारत की खाद्य सुरक्षा का स्तम्भ माना जाता है वहां अनाज की उत्पादकता दूसरे देशों के उत्पादन के आसपास है। इसका एक बडा कारण वहॉं सिंचाई की पर्याप्ता व्यवस्था भी है। मगर यूपी और बिहार के मामले में यह तस्वीर बिलकुल उलट जाती है। उत्पादकता के मामले में यह राज्य काफी पीछे है। यूपी में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता है 21 क्वींटल के आसपास जबकि बिहार इससे भी नीचे है। उत्पादकता कम होने के कई कारण भी है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 3000 किलो ग्राम के आसपास है जबकि चीन में यही उत्पादन 6074 जापान 5850 और अमेरिका में 7448 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है। इससे स्पश्ट होता है कि अभी खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से हमें एक लंबी मंज़िल तय करनी है। इसका उपाय भी भारत के मेहनती किसान के पास है। पहली बार यूपीए सरकार ने यह अच्छा काम किया कि ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे कि हर कीमत पर किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले। आज हम पैडी का भाव दे रहे है 1000 प्रति क्वींटल साथ ही 50 रूपये बोनस के तौर पर। वही गेहूं के लिए हम दे रहे है 1080 रूपये प्रति क्वींटल। वर्तमान में महज 24 वस्तुओं ही न्यूनतम समर्थन मल्य के दायरे में आती है। मतलब केवल 24 वस्तुओं का ही सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है। कृिश मन्त्रालय से सम्बंधित स्थाई समिति ने सरकार को ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं को न्यूनतम समर्थन मल्य के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समय सरकार कई महत्वकांक्षी कार्यक्रम चला रही है, है। जिनमें प्रमुख है राश्ट्रीय कृशि विकास योजना, राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन और राश्ट्रीय बागवानी मिशन । राश्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत 11वीं पंचवशीZय योजना के अन्त तक चावल का उत्पादन 1 करोड़ टन, गेहूं का उत्पादन 80 लाख टन और दालों का उत्पादन 20 लाख टन करने का लक्ष्य रखा गया है। मगर अब तक के आंकडों के देखकर लगता नही की सरकार इस लक्ष्य को पूरा कर पायेगी। इसका सबसे बडा कारण है कि बीते साढे तीन सालों में जीतना आवंटन इस योजना के लिए हुआ था उसका 50 फीसदी से ज्यादा कभी खर्च नही हो पाया। दूसरी तरफ रखरखाव क अभाव में सालाना तकरीबन 60 हजार करोड़ का अनाज बेकार हो जाता है। यह बात सही है कि इस बार बजट में भण्डारण के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता लाने के लिए कई घोशणाऐं की गई है। हमारे देश में चावल की कई किस्में मौजूद है मगर किसान को इसकी जानकारी नही। हर जिले में कृिश विज्ञान केन्द्र खुले हुए है दुर्भाग्य यह है कि इनकी पहुंच किसानों के खेत तक नही हो पा रही है। आज हमारे पास चावल की कई किस्में मौजूद है। जरूरत है तो इसे किसानों तक पहुंंचाने की। किसान को जागरूक बनाने की। देश मे प्रथम हरित क्रान्ति के पुरोधा डां स्वामिनाथन के मुताबिक मौजूदा संसाधन के आधार पर भी हम अपनी उत्पदकता 50 फीसदी तक बड़ा सकते है। 

शिक्षा का अधिकार

1 अप्रेल से लागू हुए इस कानून से इस देश को बडी उम्मीदें है। दुनिया में अपने ही तरह का यह एक अनोखा कानून है जो 6 से 14 साल के उम्र के बच्चे का शिक्षा का अधिकार देता है। क्या माना जाए जो बच्चे सर्व शिक्षा अभियान के दौरान विद्यालयों का मुंह ही नही देख पाए क्या वह अब स्कूल में दाखिला पा जायेगें। कानून जरूर अपने आप में नायाब है। मगर बिना जमीन में उतरे नायाबी की भी कोई कद्र नही। शिक्षा का कानून का बेहतर क्रियान्यवयन केन्द्र और राज्य सरकारों का संयुक्त जिम्मेदारी है। लिहाजा दोनों मिलकर इस खर्च का बोझ 55:45 के अनुपात में बाटेंगी। वही पूर्वात्तर के 8 राज्यों के मामले में यह अनुपात 90:10 का होगा। मौजूदा समय में तकरीबन 84 लाख बच्चे स्कूल से बहार है। जिसमें से अकेले पिश्चम बंगाल से 22 लाख बच्चे है। इस समया शिश्य और शिक्षक अनुपात में भारी अन्तर है।  सरकार 1:42 से इस अनुपात को 30:1 करना चाहती है। कई राज्य मसलन यूपी, बिहार और झारखण्ड में हालात और भी खराब है। बहरहाल 12 लाख और शिक्षकों की आवश्यता का अनुमान लगाया गया है।सरकारी आंकडों के मुताबिक अगले पांच सालों में शिक्षा के अधिकार को लागू करने के लिए 34000 करोड़ की सालाना आवश्यता पड़ेगी। सर्व शिक्षा अभियान को 2010-11 के लिए 15100 करोड़ का आवंटन किया है। यानि सरकार को 19100 करोड़ का इन्तजाम करना है। बुनियादी ढांचे को मजबूत करना है। अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति करनी है। कानून के मुताबिक निजि स्कूलों  को भी अपनी 25 प्रतिशत सीट गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी होगी। मगर उनके रूख से लगता नही कि वह इसके लिए आसानी से तैयार हो जाऐंगे। अगर देखा जाए प्राथमिक शिक्षा पर सही ध्यान एनडीए की सरकार ने दिया। सर्व शिक्षा अभियान में देश के कोने में स्कूल बने । 11वीं पंचवशीZय योजना के लिए 71000 करोड़ का आवंटन किया है। जबकि 10वीं पंचवशीZय योजना के दौरान यह राशि 17000 करोड़ थी। इस कानून की बहुत हद तक इसपर निर्भर करेगी कि राज्य सरकारें अपनी भूमिका कितनी संजीदगी से निभाती है।

मन्त्री जी हाज़िर हो !

लोकसभा में उर्वरक एवं रसायन मन्त्री एम के अझागिरी की अनुपस्थिति ने सरकार को मुिश्कल में डाल दिया है। लोकसभा में यह तीसरी बार है जब मन्त्री महोदय नही दिखाई दिये। सवाल भी लोगों से सीधे सरोकार रखता हुआ। सवाल था कि जिन दवाइयों पर अधिक पैसा वसूल किया जा रहा है,उसको रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है। जीवन रक्षक दवाईयों के बड़ते दामों को नीचे लाने के लिए सरकार क्या किसी नीति पर विचार कर रही है। गैरहाजिरी का यह पहला मौका नही था। इससे पहले भी ध्यानाकशZण प्रस्ताव के दौरान भी मन्त्री जी सदन से नदारद दिखे। मसला था रसायन उर्वरकों की राज्यों में कमी और उनका सही समय पर किसानों तक नही पहुंचना, बावजूद इसके कि सरकार उर्वरकों खासकर यूरिया, डीएपी और एमओपी पर भारी सिब्सडी देती है। मगर जवाब के दौरान मन्त्री मोहदय सदन में मौजूद नही थे। बस क्या था विपक्षी पार्टियों ने हंगामा काट दिया। उनके जूनियर मन्त्री श्रीकान्त जैना को जवाब नही देने दिया। सवाल उठा की गुमुशुदा होने के पीछे कारण क्या है। यहां आपको यह बताते चले की एमके अझागिरी करूणनीधि के पुत्र है। करूणानीधि डीएमके के सर्वेसर्वा है। धृतराश्ट्र के नाम से मशहूर है और केन्द्र में गठबंधन सरकार का हिस्सा है। इस पार्टी की एक ही मूल मन्त्र है, जिसकी सत्ता उसके हम। आखिरी सांस तक कोशिश करो। सरकार की नाक में दम कर दो। गठबंधन की मजबूरियों का फायदा उठाओ। कुछ भी करो। मगर मलाईदार मन्त्रालयों को हाथ स मत जाने दो। यूपीए सरकार की दूसरी पारी के मन्त्रालय गठन में कांग्रेस को इन्ही दुश्वारियों से दो चार होना पड़ा। इतना ही नही 2जी स्पेकट्रम के आवंटन को लेकर भी संचार और सूचना प्रौघोगिकी मन्त्री ए राजा जो डीएमके कोटे के कैबिनेट मन्त्री पर भश्ट्राचार के गम्भीर आरोप लगे। मगर गठबंधन की राजनीति की मजबूरियां उनकी ढाल बनी हुई है। तमीलनाडू में इन दिनों `करूणानीधि के बाद कौन ` का बवाल मचा है। अझागिरी और स्टालिन के बीच जोरों से मैच चल रहा है। क्या यह एक कारण है कि इस मैच को खेलने में वो इतने मश्गूल है कि सदन के बाअंसर झेलने की उनमें हिम्मत नही। लाख टके का सवाल यह है मन्त्री जी सदन से कन्नी क्यों काट रहे है। भाशा की दिक्कत है। मन्त्रालय की एबीसीडी के बारे नही मालूम। सच तो यह भी है कि कैबीनेट की मीटींग में तक मन्त्री जी नही पहुंचते। मगर सबने अपने होट सी रखे है। कुछ भी हो मन्त्री जी का नदारद होना नेता प्रतिपक्ष के इतना नागवार गुजरा की उन्होने दो टूक कह दिया कि मन्त्री जी गुमशुदा है और उनकी यह सदन तलाश कर रहा है। जरा सोचिए गठबंधन में सरकार चलाना कितना मुिश्कल है। मगर सरकार को सपश्ट करना चाहिए। ऐसे लोगों को क्यों मन्त्री बनाया जाता है जिन्हें मन्त्रालय तक की समझ नही है। अगर सदन में जवाब देने की हिम्मत नही तो मन्त्री बनाये रखने से फायदा क्या। अगर कांग्रेस पार्टी इस पर विचार नही करती तो कही आने वाली पीढी से सामान्य ज्ञान प्रश्न पत्र में अगर यह पूछा जाए कि ऐसे किसी एक मन्त्री का नाम बताइये जो न तो कभी सदन में हाजिर हुए और न ही उन्होनें कभी कोई कैबिनेट की बैठक में भाग लिया।




मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

आदिवासी भारत

भारत की विशाल आबादी का एक हिस्सा जो बरसों से विकास की जगमगाहट का नजदीकी से अहसास करने के लिए झटपटा रहा है। सच्चाई इतनी कड़वी है कि पीने से मानों जायका बिगड़ जाये। ज़िम्मेदार कौन। न बाबा ना! ऐसा सवाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में मत पूछिए, वरना नेताओं को तू तू मैं मैं करने का एक और मौका मिल जायेगा। भारत में अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.5 करोड़ के आसपास है। संविधान में इनके समााजिक, राजनीतिक और आर्थिक हितों को लेकर प्रावधान है। मगर यह हिस्सा विकास से आज भी कोसों दूर है। मानव विकास सूचकांक यानि िशक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं के मामले में आज भी इनकी हालत पतली है। इतना ही नही ओद्यौगिकीकरण और खनन के नाम पर इनहें कई बार अपना घरबार छोडना पडा। हद तो तब हो गई जब कुछ बेपैन्दी कारणों के चलते जंगलों से इन्हें दूर रखने की साजिश की गई। एक बुनियादी सवाल यहां उठता है कि एक व्यक्ति, परिवार और समाज को उसकी आजीविका यानि जल, जंगल और जमीन से दूर करते है तो आप उनके मन में व्यवस्था के खिलाफ खुद ज़हर भर रहे है। इसके लिए जिम्मेदार आप है। ऐसे में उसके पास रास्ता क्या। असहाय स्थिति में वह भोला भाला समाज, बन्दूक उठाने को मजबूर हो जाता है। अब जरा इनके िशक्षा स्वास्थ्य और बाकी मानकों पर एक नज़र डाल ली जाए। िशक्षा में हमारी साक्षरता दर जहां 64.84 प्रतिशत है वही आदिवासी समाज में यह दर 47.10 प्रतिशत है। महिलाओं के मामले में यहां हालात और ज्यादा बुरे है। आदिवासी महिलाओें की साक्षरता दर 34.76 प्रतिशत है जबकि देश में महिला साक्षरता दर 64.84 प्रतिशत है। सर्विशक्षा अभियान और मीड़ डे मील जैसी योजनाओं का भी यहां बहुत बड़ा असर नही पड़ा। जर्जर भवन, पानी बिजली की तंगी मास्टरों का स्कूल न आना यहां की पहचान है। स्वास्थ्य के मामले में भी हालत खराब है। जहां िशशु मृत्यु दर देश में 57 प्रति हजार है वही इन क्षेत्रों में 66.4 प्रति हजार है। कम वजन के बच्चे यहां 35.8 प्रतिशत है जबकि राश्ट्रीय औसत 18.47 प्रतिशत है। बावजूद इसके की 70 के दशक से हम एकीकृत बाल विकास योजना चला रहे है। आज राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का ज्यादा से ज्यादा फायदा इस क्षेत्र में कैसे पहुंचे इसके लिए विचार करना जरूरी है। आदिवासी समाज में 44.7 प्रतिशत लोग किसान है तथा 36.9 प्रतिशत लोग कृशक मजदूर है यानि 81 फीसदी से ज्यादा लोग खेती मतलब जमीन से जुडे है। इससे यह अनुमान लगाना असान है कि जल, जंगल और जमीन के प्रति इनका अगाध प्रेम क्यों है। अगर इनकी आजीविका पर ही हमला हो जायेगा तो जवाब में नक्सलवाद जैसी समस्याऐं कम नही होंगी बल्कि उनमें तेजी आयेगी। आज जरूरत है कि आदिवासी समुदाय तक कल्याणकारी योजनाओं की पहुंच बनाई जाए। नरेगा जैसे कार्यक्रमों को यहां बेहतर इन इलाकों में िशक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी कर आगे बड़ना होगा। आज जनजातिय मन्त्रालय जिसे 1999 में बनाया गया था, राश्ट्रीय आदिवासी नीति पर विचार कर रहा है। ऐसा में एक मौका है की सालों से वंचित इस समुदाय को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए इमानदार प्रयास किये जाए।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

नक्सली रणनीति पर पुनर्विचार हो।

क्या सरकार दन्तेवाड़ा से सबक लेकर नई रणनीति पर विचार करेगी। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि दन्तेवाडा जैसे घटनाक्रम की पनरावृत्ति न हो। मगर लगता है सरकार पूर्व आईपीएस अधिकारी ई एन राम मोहन की रिपोर्ट आने के बाद ही अगली रणनीति पर विचार करेगी। एक साधारण सिद्धान्त है कि युद्ध से पहले दुश्मन की क्षमता का सही आंकलन होना अनिवार्य है। उनके पास कितने लोगों की संख्या है, हथियारों की संख्या कितनी है। खफिया तन्त्र की स्थिति क्या है। इन सभी मामलों में यह अभियान पूरी तरह फेल रहा। दूसरी तरफ युद्ध लडने वालों का उत्साह। सोचिए उन हालातो के बारे में जहां सिर छिपाने के लिए छत नही है। भोजन की सही व्यवस्था नही है। पीने के साफ पानी का कोई इन्तजाम नही । बिजली की तो खैर छोडिए। खुले में शौच जाना उनकी मजबूरी है। इन सबमें सबसे बडी चुनौति भोगौलिक स्थिति की सही जानकारी में न होना। इन हालातों में लडाई बहुत मुिश्कल हो जाती है। इन हालातों में आप किसी से क्या अपेक्षा करेंगे। क्या इन हालातों में आप कोई युद्ध जीत सकते है। वही नक्सली इलाके के चप्पे चप्पे से वाकिफ है और आसानी से सुरक्षा बलों को अपने जाल में फंसा लेते है और देखते ही देखते 76 जवानों को अपनी जान गवानी पडती है। साढे तीन घंटे तक उनकी सहायता के लिए कोई नही पहुंचता। नक्सली इन सबका फायदा उठाकर सुरक्षा बलों के हथियार भी छीन ले जाते है। इस पूरे अभियान में राज्य पुलिस बल की भूमिका अहम है। मोर्चा उन्हें सम्भालना है जबकि अद्धसैनिक बल उन्हें सहायता करेंगे। मगर राज्य पुलिस की हालत भी खस्ता है। सीएजी की मानें तो अकेले छत्तीसगढ पुलिस के पास 20 फीसदी हथियारों की कमी है। जनसंख्या पुलिस अनुपात में भारी अन्तर है। पुलिस आधुनिकीकरण मामले में राज्यों का रवैया भी हिलाहवाली भरा रहा है। बिहार सरकार ने अभी तक सालाना योजना ही तैयार नही की है। पिश्चम बंगाल ने ऐसे-ऐसे साजोसमान की फेहरिस्त तैयार की है जो योजना में मूल रूप से अलग है। उधर सरकार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नागरिक प्रशासन बहाली के साथ साथ विकास का कार्य कराने के लिए प्रतिबद्ध है। 8 राज्यों के प्रभावित 33 जिलों में में इन योजनाओ की प्रगति रिपोर्ट अपे्रल 2009 से जनवरी 2010 तक की सरकार ने जारी की है। नक्सल प्रभावित राज्यों में विकास कार्यक्रमों की स्थिति। जिन 33 जिलों की हम बात कर रहे है। उनमें झारखण्ड 10, छत्तीसगढ़ 7, उडीसा 5, बिहार 6, महाराश्ट्र 2, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के 1-1 जिले शामिल है। केन्द्र की कल्याणकारी योजनओं में खर्च प्रतिशत में इस साल सुधार देखने को मिला है। खासकर मनरेगा जैसी योजनाओं में।नरेगा -72.76 फीसदी, प्रधानमन्त्री ग्राम सडक योजना - 41.04 फीसदी, राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन -57.44 फीसदी, वनाधिकार कानून 2006 -37.06 फीसदी। पिछले साल के मुकाबले यहां सुधर देखने को मिला है। केन्द्र सरकार को राज्यों के साथ मिलकर दुबारा इस रणनीति पर विचार करना होगा। दूसरी तरफ राज्यों सरकारों को भी गम्भीरता के साथ इस अभियान से जुडना होगा। साथ ही विकास के कामों को तेजी से आगे बड़ाया जाय।

रविवार, 11 अप्रैल 2010

नक्सलवाद का नर्क

नक्सलवाद या कहें माओवाद सही मायने में व्यवस्था के खिलाफ एक जंग का ऐलान था। 1967 में कानू सान्याल और चारू माजूमदार के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आन्दोलन एक बडा परिवर्तन था। आन्दोलन शुरू करने के पीछे की विचारधारा इतनी प्रबल थी कि कई लोग जो उस समय आईएएस और पीसीएस जैसी परीक्षाओं की तैयारी कर रह थे वह भी इस आन्दोलन के साथ जुडे। और नक्सलाबारी से शुरू हुआ यह आन्दोलन धीरे धीरे बड़ता चला गया। मगर तब किसी ने यह नही सोचा था कि एक नये परिवर्तन के आगाज के लिए शुरू हुई यह विचारधारा इस कदर हिंसक गतिविधयों में तब्दील हो जायेगी की देश के प्रधानमन्त्री को बार बार सार्वजनिक मंच से कहना पडेगा कि नक्सलवाद इस देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बडा खतरा है। यह सही है कि यह सामाजिक और आर्थिक असुन्तलन के चलते उपजी समस्या है मगर वर्तमान में इसका रूप इतना कुरूप है जिसे खत्म करने की नितान्त आवश्यकता है।भारत जैसा देश जो अहिंस परमों धर्मो के सूत्र मे बंधा है वहां हिंसा को जायज ठहराना किसी भी लिहाज से न्यायोचित नही। मगर जब हिंसा बेकाबू हो जाए और निर्दोश लोग उसकी बलि चडने लगे तो उसका एक ही जवाब है प्रतिहिंसा। यहां बात राजधर्म की भी आती है कि राजा उन्हे दण्डित न करे जो दन्ड के पात्र हो तो इस तरह की गतिविधयां पर विराम लगाना आसान नही। मनृस्मृति में कहा गया है कि जस प्रकार घोडे को लगाम से तथा हाथी को कटार से नियन्त्रण में किया जाता है ठीक उसी तरह असामाजिक तत्वों को कानून का भय होना चाहिए। तुलसी रामायण में स्पश्ट लिखा है कि
विनय न मानत जलधि जर:, गए तीन दिन बीत
बोले राम सकोप तब:, भय बिनू होय न प्रीत।

यहां अच्छी बात है कि सरकार प्रतिहिंसा के साथ उन कारणों के निवारण की ओर भी ध्यान देगी जिस वजह से परिस्थितियां उत्पन्न हुई है। मतलब नक्सल प्रभावित इलाकों में नागरिक प्रशासन बहाल करने के साथ साथ विकास की प्रक्रिया से वहां की आबादी को जोडना और उनमें सरकार और प्रशासन के लिए एक सकारात्मक नज़रियां बनाने के लिए माहौल तैयार करना नितान्त आवश्यक है।नक्सलवाद के जन्म के पीछे का कारण सामाजिक और आर्थिक भेदभाव है और यह सौ आने सही बात है। बिना सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के कारणो के चलते किसी विचाधारा के जनमानस का इतना व्यापक समर्थन नही मिल सकता। सोचिए जब आप किसी समुदाय को उसकी आत्मा यानि जल, जंगल और जमीन से अलग कर देंगें तो नतीजा क्या होगा। इस तरह के हालत ही पैदा होगा। मसलन अघौगिकीकरण के नाम पर आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर देना। उनके साथ किया गया कू्ररता पूर्वक व्यवहार उन्हे व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने को मजबूर कर देता है। मगर आज हालात बदले है। यूपीए सरकार सर्वसमावेशी विकास के मूलमन्त्र के साथ सत्ता में आई है। आदिवासी इलाको ंके लिए विशेश योजनाऐ चलाई जा रही है। 2004 से आदिवासी कल्याण के लिए एक अलग मन्त्रालय का गठन किया गया है। सरकार राश्टीय आदिवासी नीति पर जल्द सामने लाने वाली है। मतलब आज यह मुमकिन नही कि लम्बे समय तक आप किसी क्षेत्र या समुदाय को विकास की चकाचौंध से वंचित रख सकते है।यह बात सही है कि नक्सलियों के पास अत्याधुनिका हथियार कहां से आए यह बडा सवाल है। जिसमें गाहे बगाहे यह बात सामने आती है कि इनका सम्बन्ध कछ बडे आतंकी संगठनों के साथ हो सकता है। मगर प्रमाणिक तौर पर यह बात नही कही जा सकती। यह बात सही है कि नक्सलि कई सौर करोड रूपये का सलाना उगाई करते है जिसका इस्तेमाल वो अत्याधुनिक हथियार खरीदने के लिए करते है। यह भी सच है कि आतंकि संगठन हमेश इस फिराक में रहते है की इस तरह के असन्तोश का फायदा उठाया जाए ताकि उसी देश के लोगो का इस्तेमाल उस देश के खिलाफ हो। इस देश में नक्सली समस्या के लिए जिस तरह का वातावरण तैयार करने की जरूरत थी वह आज से पहले कभी नही थी। केन्द्र और राज्य के बीच की दूरियां। राजनीतिक दलों की अलग अलग राय। साथ ही राज्य पुलिस की निकम्मापन यह कहें पुलिस सुधार का अभाव सबकुछ मौजूद था। मगर वर्तमान गृहमन्त्री पी चिदंबरम ने इस समस्या के प्रति सबको आगाह किया और इससेा लडने कि लिए जरूरी माहौल तैयार किया। क्योंकि अभियान के मुताबिक राज्य पुलिस को केन्द्रीय पुलिस बल नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में नागरिक प्रशासन बहाली में मदद करेंगे। आन्तरिक सुरक्षा को चाकचौबंध करने के लिए सरकार को एक लम्बा रस्ता तय करना होगा। आज हमला जमीन आसमान और समन्दर कहीं से भी हो सकता है। ऐसे में मुल्क को अभेघ सुरक्षा कवज कैसे पहनाय जाए इस विचारणीय प्रश्न है। मेरे हिसाब से इसकी शुरूआत राज्यों से होनी चाहिए। आज इस देश को पुलिस सुधार की महती आवश्यकता है। राज्यों को पुलिस सुधार में तेजी से आगे बड़ना होगा। साथ ही पुलिस आधुनिकीकरण पर तेजी से काम करना होगा। खुफिया तन्त्र को चुस्त दुरस्त करना होगा। ताकि बडी घटनाओ को घटने से रोका जा सके। उससे भी बडी बात केन्द्र और राज्य के बीच बेहतर तालमेल। मजबूत कानून और न्यायिक प्रक्रिया में तेजी जैसे रास्तों में आमूलूचूल परिवर्तन करना होगा।

मार गई महंगाई

ऐसा लगता है महंगाई अब कम हो जायेगी। क्योंकि इस बार सरकार ने एक नही दो नही तीन तीन कमेटियॉं गठित कर दी है। बस तो समझ लो महंगाई हो जायेगी छू मन्तर । ऐसा नही है इससे पहले कदम नही उठाये गए। इस देश का सबसे बड दुर्भाब्य यही है कि यहां हर बीमारी के समितियों के चश्में से देखा जाता है। इसका मतलब यह नही की मैं कमेटी कमेटी का खेल खेलने के सख्त खिलाफ हंू। मालूम है की राजनीति में मामले को लटकाये रखने का यह बेहतरीन टॉनिका है। मगर महंगाई रोकने के लिए क्या किसी समिति की वाकई जरूरत है। जब बीमारी और इलाज दोनो का पता है तो यह नौटंकी नही तो और क्या है। सबको मालूम है कि महंगाई बडने के पीछे की वजह क्या होती है। अगर मांग और आपूर्ति में अन्तर है तो पैदावार बडाओ। माल डंप करने वालों को जेल में डालों । सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुडे तन्त्र को चुस्त दुरूस्त करों। आवश्यक वस्तु अधिनियम के साथ साथ कालाबजारी के काम को रोकने से जुडे कानून का बेहतर क्रियान्यवन करो। बजाय इसके समितियों का खेल शुरू कर दिया है। किसान को समय से बीज, पानी ,ऋण वो भी सस्ती ब्याज.दर में और बेहतर समर्थन मूल्य दो। अनाज के रखरखाव को उचित व्यवस्था करो। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं उत्पादन के लिहाज से भारत का किसान इस मुल्क आत्मनिर्भर बना सकता है। यह महज अनुमान नही है, पहली हरित क्रान्ति में उसने इस बात को साबित किया है। बस उस पर विश्वास जताना होगा। कुप्रबंधन की काले दाग को छुपाने के लिए समितियों का खेल उस आबादी के साथ भददा मजाक है जो महंगाई की मार से त्रस्त है। सरकार ने अबतक नही माना कि महंगाई बडने की एक बडी वजह सरकारी कुप्रबंधन भी है। मगर लगता है सरकारों को गेन्द एक दूसरे के पाले में डालने में मजा आता है। महंगाई क्यो बडी। मानसून ने दगा दे दिया। गरीब की थाली का भार थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकडों से तोला जाता है। उसके बाद आंकडेबाजी का गन्दा खेल जिसे जनता का कोई लेना देना नही। इस देश की परिस्थितियों से सख्ती से निपटने की आदद नही है। हालात बिगडने के बाद में विधवा अलाप करने में यहां सरकारें माहिर है। मगर सवाल यह ऐस कबतक चलेगा। इस अध्याय का समापन्न कभी तो होना चाहिए।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

स्वास्थ्यवाणी

भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र का 80 फीसदी हिस्सा निजी हाथों में है। महज 20 फीसदी हिस्सा सरकार के जिम्मे है। इस 20 फीसदी में भी 80 फीसदी राज्य सरकार के नीचे आता है। यही कारण है कि बार बार कहा जाता है की स्वस्थ्य क्षेत्र में राज्यों को भी अपना बजट आवंटन बडाना होगा। केवल केन्द्र सरकार के आवंटन बडाने से कुछ नही होगा। दुनिया में आबादी में हमारी हिस्सेदारी 16 फीसदी के आसपास है, मगर बीमारी में हमारा योगदान 20 फीसदी से ज्यादा है।
स्वास्थ्य बजट
यूपीए सरकार जब 2004 में सर्वसमावेशी विकास के नारे का साथ सत्ता में आसीन हुई तो उसने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बात की घोशणा की कि स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर को बदलने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2 से 3 फीसदी इस क्षेत्र में दिया जायेगा। मगर अभी तक गाड़ी 1.06 फीसदी के आसपास है। वही विश्व स्वस्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों को जीडीपी का 5 फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करना चाहिए। केन्द्र सरकार की मानें तो वो इस दिशा में तेजी से आगे बड़ रही है। जरूरत है तो राज्यों के बेहतर समर्थन की। यहां यह भी बताते चलें की स्वास्थ्य क्षेत्र राज्यो ंका विशय है। 11 पंचविशZय योजना में 140135 करोड की राशि का निर्धारण किया गया है। 90558 करोड की राशि का प्रबंध किया है। जो 10वी पंचवशीZय योजना के मुकाबले 227 फीसदी ज्यादा है। इसमें से 90558 करोड़ की राशि केवल केन्द्र सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राश्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए है जिसमें अब तक 42000 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके है।
मानव संसाधन की कमी
स्वस्थ्य की सबसे ज्यादा खराब तस्वीर आपको ग्रामीण क्षेत्र में दिखेगी। भौतिक सुविधाओं को मुहैया कराने में सरकार कुछ हद तक जरूर सफल रही है, जिसमें प्रमुख है उपकेन्द, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और जिला अस्पताल । मगर डाक्टर और नसोZ की भारी टोटा सरकार के माथे में बल ला देता है। हमारे देश में डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1:1722 है। यानि 1722 आबादी पर 1 डाक्टर।।आदशZ स्थिति 1:500 की है। डब्लयूएचओं के मुताबिक डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1:250 होना चाहिए। मगर ग्रामीण भारत में यह अनुपात तो और ज्यादा बदतर स्थिति मे है। 34000 की आबादी में 1 डाक्टर है। मौजूदा स्थिति में भारत में 8 लाख डाक्टर और 20 लाख नसोZ की कमी है।
रूरल एमबीबीएस
सरकर अब इस कमी को पूरा करने के लिए ब्ौचुलर आफ रूरल हेल्थ केयर या रूरल एमबीबीएस कोर्स पर विचार कर रह है। साढे तीन साल का यह कोर्स होगा और 6 महिने की इंटरनशिप। इसके बाद तैयार हो जायेगा एक डाक्टर । यह डाक्र सिर्फ उपकेन्द्र और प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र में तैनात होगें। हालांकि कुछ विशेशज्ञों ने इस पर ऐतराज जताया है।
स्वाथ्य में उत्तर भारत दक्षिण के मुकाबले पीछे
स्वास्थ्य के लिहाज से एक बहुत बडा अन्तर उत्तर और दक्षिण भारत में भी है। मसलन देश में तकरीबन 300 मेण्डीकल कालेजों में से 190 सिर्फ पांच राज्यों में है। मसलन बिहार की आबादी 7 करोड़ के आसपास मगर मेडीकल कालेज 9। ऐसे ही हाल झारखण्ड का है। 3 करोड़ की आबादी में 3 मेडीकल और 1 नसिंZग कालेज। इस अन्तर को पाटने की भी सख्त दरकार है।
मिलीनियम डेवलपमेंट गोल का क्या होगा।
सरकार 2012 तक मातृ मृत्यु दर को यानि एमएमआर को प्रति लाख 100 तक लाना चाहती है। जो 2007 में 254 था। शिशु मृत्यु दर को 30 तक जो 2007 में 55 था। अस्पताल में प्रसव कराने आने वाली महिलाओं की तादाद बड़ रह है। जननी सुरक्षा योजना के तहत अब तक 2 करोड़ महिलाऐं अस्पतालों में बच्चों को जन्म दे चुकी है। टीकाकरण में भी अभी रास्ता थोडा कठिन है। 2012 तक 100 फीसदी का लक्ष्य जो फिलहाल 54 फीसदी है।
डाक्टरों का शहरी प्रेम
अगर आप सोचते है कि डाक्टरी आज भी सेवा करने का एक माध्यम है तो आप गलत है। यह एक विशद्ध व्यवसाय बन गया है। ज्यादा कमाई के चक्कर में को भी डाक्टर अब गांव की ओर नही जाना चाहता। यही कारण है कि डाक्टरों की ज्यादातर आबादी शहरो में सेवाऐं प्रदान कर रही। इण्डियन मेडीकल सोसइटी के सर्वे के मुताबिक 75 फीसदी डाक्टर शहरों में काम कर रहे है। 23 फीसदी अल्प शहरी इलाकों मे और 2 फीसदी ग्रामीण इलाकों में। ऐसे में अन्दाजा लगाया जा सकता है की ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य कहां टिकता है।
प्राचीन चिक्त्सा प्रणाली पर कोई ध्यान नही।
आपने रामायण मे संजीवनी बूटी का नाम तो सुना होगा। जिसे सूंघने के बाद लक्ष्मण लम्बी मूछाZ से जाके है। आज आयुZवेदिक, होमयोपैथिक , सिद्धा और यूनानी जैसी चिकित्सा प्रणाली की तरफ को खास रूख नही है। ऐसा नही कि यह चिकित्सा प्रणाली फायदेमन्द नही है। दरअसल सवाल यह है कि इसे फायदेमन्द बनाने के लिए हम कितने गम्भीर है।
निजि अस्पतालों पर कसी जाए नकेल
जब देश की 77 फीसदी आबादी की हैसियत एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। तो क्या वह इन बडे हांिस्पटलों मेंअपना या परिजनों का इलाज कर सकता है। निजि अस्पताल इलाज की एवज में मनमाने दाम मांग रहे है। गरीब कहां से लायेगा। इसलिए इन बहुमुखी सुविधाओं से लैस अस्पतालों के उपर एक प्राधिकरण हो जो इस पर नज़र रखे।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

दन्तेवाड़ा का दर्द

दन्तेवाड़ा का दर्द दहलादेने वाला था। देश में अब तक के सबसे बडे नक्सली हमले ने देश को स्तब्ध कर दिया। शायद आपरेशन ग्रीन हंट में ऐसा भी दिन देखने को मिलेगा यह किसी ने नही सोचा था। यह सच है कि युद्ध में मरना मरना कुछ भी नया नही है। मगर नक्सलियों ने जिस तरह से इस हमले को अंजाम दिया वह किसी बडी चूक की ओर इशारा करता है। खासकर इस तरह के गुरिल्ला युद्ध में खुफिया सूचनाओं का बडा महत्व होता है। मगर इतनी बडे पैमाने पर पहुंची क्षति ने सरकार को अपनी रणनीति पर दुबारा विचार करने के लिए विवश कर दिया है ताकि दण्डेवाड़ा जैसे दिलदहला देने वाले घटनाक्रमों की पुर्नरावृति को रोका जा सके। सरकार को इससे सबक लेना चाहिए। जिन्होनें अपनों को खोया है उनके दर्द की कल्पना नही की जा सकती। मगर उनकी बहादुरी को यह देश सलाम करता है। उन परिवारों को साथ भारत के लोगों की संवेदनाऐं है। घटनाक्रम के तीसरे दिन का अखबार देगा तो मन गमहीन हो गया। कई परिवारों की कहानी पढकर सच कहूं तो आखों में आंसू थे। कोई अपने भरे परिवार का अकेले कमाने वाला, कोई अपने पीछे अपने परिवार को छोड गया । किसी मां क आंसू थमने का नाम नही ले रहे है। पिता को मालूम है कि बुडापे का सहारा सदा के लिए चला गया, मगर दिल अब भी यह मानने को तैयार नही हो रहा है। ईश्वर उन परिवारों को इस दुख से निकलने की शक्ति प्रदान करें। साथ ही सरकार यह सुनिश्चित करें कि किसी भी कीमत में इन परिवारों को अपनी जीवनचर्या चलाने में किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पडे। इस देश में शहीदों के अपमान के अनगिनत मामले सुनने में आते है जिन्हें भविश्य में न दोहराया जाए। जिन्होंने देश के लिए अपने आपको कुबाZन कर दिया उन परिवारो के लिए इस देश के कर्तव्यबोध को जिन्दा रखने की जरूरत है। ताकि कोई सेनिक युद्ध से पहले इस उलझन में न रहे कि उसके बाद उसके परिवार का क्या होगा।