बुधवार, 17 जून 2009

सरकार कहिन, झुग्गी बोले तो न!

अगले पांच सालों में भारत झुग्गी मुक्त होगा । आप में से कितने लोग सोच रहे होंगे की मैं झूठ बोल रहा हूं। लेकिन नही, यह सौ आने सच बात है। यूपीए सरकार राजीव आवास योजना के तहत अगले पांच सालों में यह कारनामा कर दिखाएगी। अभी एलान ही हुआ है समय आते आते क्या होगा यह कोई नही जानता। बस इतना मालूम है कि भारत में गरीबी हटाओं योजनाओं का रिकार्ड खराब रहा है। अब आइये जरा जानते है कि स्लम मुक्त भारत क्या पांच साल में हो सकता है। सरकार के आंकडों के मुताबिक 2007 में मकानों की कमी को लेकर जो अघ्यन किया गया है उसके हिसाब से हमें 24.71 मिलीयन कह जरूरत है। जहां तक स्लम में रहने वालों का सवाल है उनकी तादाद पिछले तीन दशकों में तेजी से बड़ी है। 1981 में भारत में स्लम में रहने वालों की आबादी 2 करोड़ 60 लाख थी। जो 1991 में 4 करोड़ 62 लाख हो गई। 2001 तक आते आते इसकी संख्या 6 करोड़ 18 लाख पहंंच गई। अगर बात सिर्फ चार महानगरों की ही करें तो मुंबई की स्लम आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 64,75,440 थी। यानि मंबई की आबादी का 54.1 फीसदी। यह देश की आर्थिक राजधानी का हाल है। जहांं लोग अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए आते है।उमगर नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर है। हिन्दुस्तान का दिल कहीं जाने वाली दिल्ली में स्लम आबादी 18.7 फीसदी है जबकि चिन्न्ई में इसकी संख्या 18.9 प्रतिशत और कोलकाता में 32.5 प्रतिशत है। इसके अलावा देश के विभिन्न शहरों में हाल और भी बुरे है। शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पानी, साफ सफाई की यहां कोई बात नही करता। 2005 में सरकार ने जवाहर लाल नेहरू अरबन रून्यूवल मिशन के सहारे देश के 63 शहरों को मूलभूत सेवाऐं देने की शुरूआत की। जानकारों की माने मे ंतो कुछ मायने में इस योजना के नतीजे अच्छे रहे है। मगर हालात अब भी संतोषजनक नही है। राजीव आवास योजना को इसी कार्यक्रम के तहत योजना के तहत शुरू किया जायेगा। यह योजना इंदिरा आवास योजना की तरह ही होगी जो भारत निर्माण के तहत ग्रामीण इलाकों में लोगो को मकान की सुविधा प्रदान कर रही है। स्लम बस्तियों के बडने की बडी वजह पलायनवाद है। आज भी लोग बडी तादार में रोजी रोटी के लिए सडकों का रूख कर रहे है। माना यह भी जा रहा है कि जेएनएनयूआरम के इस बार आवंटन अच्छा होन वाला है। मगर हवा में तीर मारने से कोई फायदा नही।ऐसा नही है कि यह पहली बार हो रहा है। इससे पहले भी गरीबों को छत मुहैया कराने के लिए तमाम उपाय किये गए। आइये एक नजर डालते है।

1990 में इंदिरा आवास योजना।

1991 में इडब्लूएस हाउसिंग स्कीम ।

1996 में नेशनल स्लम विकास कार्यक्रम।

1998 में 2 मिलीयन आवास कार्यक्रम।

2000 में प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना।

2001 वािल्मकी अंबेडकर आवास योजना।

2005 जवाहरलाल नेहरू अरबन रूनवल मिशन।

यानि घर बनाने के लिए आधा दर्जन केन्द्रीय योजनाऐं। मगर अब भी बडी आबादी खुले आकाश के नीचे जीने के लिए मजबूर है। अब सवाल यह कि पांच सालों में स्लम मुक्त भारत पर कैसे विश्वास कर लें। 2005 से लेकर 2009 के बीच 50000 करोड़ सिर्फ जेएनएनयूआरम को ही आंवंटित किये गए। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार इस समस्या को रोकने के लिए कदम उठाये। साथ ही सरकार को उपरोक्त कार्यक्रमों से सीख लेकर राजीव आवास योजना की रूपरेखा तय करनी चाहिए।

शनिवार, 13 जून 2009

हम इतने भ्रष्ट क्यों हैं।

भ्रष्टाचार आज हमारे दैनिक जीवन का एक बडा हिस्सा बन गया है। इसी बीमारी ने हमारे देश के 62 साल के विकास के सफरनामें में बडी रूकावाट पैदा की। नीति निर्माता जानते है। सरकार जानती है यहां तक की भ्रष्टाचार को पानी पी पी के कोसने वाले हम भी कम भ्रष्ट नही है। हम अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचने के लिए दूसरों के भ्रष्ट और अपने को गंगा नहाया समझते है। सही मायने में यही इस समस्या का मुख्य कारण है। वो कहते है ना, बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलया कोई, जो मन देखा आपनों, मुझसे बुरा न कोई। हमें कोई हक नही है दूसरों को भ्रष्ट कहने का। राजीव गॉंधी ने यह बात 1985 में कही थी कि गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिए केन्द्र से भेजा एक रूपये में सिर्फ 15 पैसा ही जरूरत मंदों तक तक पहुंच पाता पाता है। अब उनके लाल राहुल भी यही राग अलाप रहे है। कई सर्वेक्षण भारत में भ्रष्टाचार की हालात बता रहे है। कैग तो हर बार भ्रष्टाचार का काला चिटठा लाती है। मगर होता क्या है कितने लोगों केा सजा मिल पाती है। आज सीबीआई छापे मार के लोगो की अकूत संपत्ती का पता कर रही है। मगर क्या वो इसके लिए जिम्मेदार लोगों को अंजाम तक पहुंंचा पायेगी। आज कोई कहता है कानून बनाने वाले नेता भ्रष्ट है कोई कहता है न्याय देने वाला न्यायालय भ्रष्ट है कोई कहता है कि सुरक्षा देने वाली पुलिस भ्रष्ट है । सही कहा एक न्यायाधीश ने कि, इस देश को भगवान ही बचा सकता है। मगर क्या सिर्फ रोने से इस बीमारी का हल निकल जायेगा। हमने जो भ्रष्टाचार को मौन स्वीकारोक्ती दे रखी है उससे हमें बहार आना होगा। सुविधा शुल्क लेने देने वालो की दुकानदारी को ताला लगाना होगा। विदेश में जमा काले धन केा वापस लाना होगा। साथ ही देश में छिपे काले धन को भी निकालकर गरीबों के विकास के लिए खर्चना होगा। चलिए ये तो छोटा खेल है। बडे खेल यानि तू भी खुश मैं भी खुश का खेल जो नेता और अफसर खेलते है। उसके लिए सरकार को कठोर होना होगा। एक ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इच्छा से यह सब नही होगा। सरकारी नीतियों के लिए जवाबदेही तय करनी होगी। हर सरकारी योजना में चाहे वो नरेगा हो, मीड डे मिल हो, सार्वजनिक वितरण प्रणाली हो यह कोई और सब पर गिद्ध दृष्टि रखनी होगी। नेताओं, अफसरों और ठेकेदारो की सरकारी माल को लूटने से रोकना होगा। इनके जमीर को जगाना होगा। आज हर क्षेत्र में सुधार होने है। मगर इनमें बदलाव के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव साफ दिखाई देता है। चुनाव सुधार, प्रशासनिक सुधार, पुलिस सुधार सबके सब ठंडे बस्ते में पडे है। कितनी शर्म की बात है कि आजादी केे 62 साल बाद 77 फीसदी जनता के एक दिन में खर्च करने की क्षमता 20 रूपये हैं। सरकार को समझना होगा कि भ्रष्टाचार भी एक तरह का आर्थिक आतंकवाद है, जिसके खिलाफ भी जीरो टांलरेंस की नीति अपनानी होगी। इससे जुडे मामलों की सुनावाई जल्द से जल्द निपटाने के लिए अलग से कोर्ट बनाने होंगे। सूचना के अधिकार, ई गर्वनेंस, सीटीजन चार्टर और सोशल आंडिट जैसे पारदशीZ क्रियाक्लापों के प्रति जनता को जागरूक करना होगा। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी का विस्तार करना होगा। सरकारी नीतियों से जुडी जानकारियों को जन जन की तक ले जाना होगा। सिर्फ जुबानी खर्च करने से कुछ नही होगा। हमें हर हाल में बदलाव लाना होगा। मैं चाहूंं तो निजा में कुहून बदल डांलू, फ्रफकत, यह बात मेरे बस में नही। उठो आगे बडों नौजवानों यह लडाई हम सब की है, दो चार दस की नही।

बुधवार, 10 जून 2009

पहला सुख निरोगी काया

इससे आशय है की सेहत सही तो सब कुछ सही। मगर सेहर के मामले में हमारी हालात पतली है। हर दिन नई बीमारियॉ हमारे सामने आ रही है। अब इस नई मसीबत स्वाइन फलू को ही देख लिजिए। दुनिया के साथ साथ भारत की परेशानी भी बड गई है। स्वास्थ्य मंत्री नॉट फिकर का मंत्र दे रहे है। अब इस इंसान को कौन समझाये । कैसे विश्वास करे सरकार की चिकनी चुपडी बातों पर वो भी तब जब उसे पता लगता है कि विश्व जनसंख्या में हमारी भागीदारी भले ही 16.5 हो मगर बिमारी के मामले में 20 फीसदी है। 2005 में सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के सहारे गांव की सेहत सुधारने के लिए कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम ने कुछ आशाऐं भी जगाई। मगर नतीजे खुश होने वाले नही है। आज स्वास्थ्य क्षेत्र की 76 फीसदी कमान नीजि हाथों में है। बाकी 22 फीसदी सरकार के नियंत्रण में है। नीजि अस्पतालों की तो पूछो मत। मरीज को बकरा समझते है। सही मायने में ये अस्पताल होटल बन गए है। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का इनको अहसास नही। लिहाजा सरकार को चाहिए की इनकी मुनाफाखोरी की बीमारी का इलाज करेे। हमारे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर सरकारों ने गंभीरता नही दिखाई। आज भी हम स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का महज 1.06 प्रतिशत खर्च कर रहे है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी हिस्सा सेहत पर खर्च करना चाहिए। 2004 में यूपीए सरकार ने इसपर जीडीपी का 2 से 3 फीसदी खर्च करने की बात कही थी। मगर लगता है यह सफर अभी लंबा है। स्वास्थ्य क्षेत्र के आंकडों पर अगर गौर किया जाए तो डर लगने लगता है। देश के 4711 उप केन्द्र राम भरेसे है। न एएनएम है, न ही स्वास्थ्य कर्मचारी। 68.6 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डाक्टर के है। योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 10 लाख नर्स, 6 लाख डाक्टर और 2 लाख दन्तचिकित्सकों का टोटा है। भारत में सालान 36000 डाक्टर निकलते है। लगभग 60 हजार डाक्टर विदेशों में अपनी सेवा दे रहे है। हमारे गरीब भाई सरकारी अस्पतालों में घंटों इंतजार करते है। ऐसे में कुछ नीतियों में सख्त बदलाव की जरूरत है। देश के 1188 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में बिजली नही है। 1647 बिना पानी के है। आज डाक्टरों के एक साल के लिए गॉव में भेजनेकी बात कही जा रही है। मगर उससे पहले सरकार को वहांं बुनियादी सुविधाऐं मुहैया करानी होंगी। इसकेअलावा 56 प्रतिशत बच्चों का समय से टीकाकरण नही हेा पाता। देश के 40 फीसदी बच्चो का वजन कम है। कुपोषण को दूर करने में हमारी नाकामयाबी झलक रही है। यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 3साल से कम उम्र के 42.8 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिरफत में है। मध्यप्रदेश का रिकार्ड कुपोषण के मामले में बेहद खराब है। आधी आबादी केे पास अब भी शौचालय की सुविधा नही है। बावजूद इसके हम लम्बे समय से सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चला रहे है। 55 फीसदी जनसंख्या आज भी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर है। विकसीत सरकारो ने एक नायाब तरीका अपनाया। इन सरकारों ने पानी को साफ बनाने और पर्यायवरण की शुद्धता बानने के लिख सरकारी खर्च बडा दिया है। भारत में भी आज दूशित पानी और हवा ने लोगो की सेहत खराब कर रखी है। और यह बडता जा रहा है। स्वस्थ्य रहने के लिए साफ पानी हवा और दैनिक जीवन में व्यायाम की जरूरत है। जिससे आज हम कोसो दूर है। बडी बात आज हम सभी को अपने स्तर पर भी कुछ न कुछ रचनात्मक भूमिका निभानी होगी।

रविवार, 7 जून 2009

खबरदार ! ये जनता की अदालत है।


जनादेश 2009 ने कई राजनीतिक पंडितों को दातों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर कर दिया। किसी को ऐसे जनादेश की आशा नही थी। खुद कांग्रेसी दिग्गज हैरान थे। पहले मालूम होता तो शायद राहुल बाबा भी टीडीपी और नीतिश कुमार का मन नही टटोलते। न ही विरप्पा मोईली से मीडीया प्रभारी का जिम्मा छिना जाता। मगर नतीजों ने सब कुछ साफ कर दिया। आखिर यह संकेत किस ओर था। किसके लिए था। किसके खिलाफ था। भारत की आवाम आखिर क्या चाह रही है। क्यों उसने एक ऐसे दल पर भरोसा किया जिसके कार्यकाल में मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ। महंगाई आसमान छूने लगी। आर्थिक मंदी के प्रभाव के चलते रोजगार पर लात पड़ रही थी। चलिए समझते है कि भारत की जनता का इसके पीछे का संदेश क्या है। भारत की जनता गठबंधन राजनीति के बेमेल जोडो से तंग आ गई है। वह तंग आ गई है कि सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल वह सब कुछ कर रहे है जो जनता जनार्दन को नागवार गुजर रहा है। यह यह गठबंधन से निराश जनता को दो दलीय व्यवस्था की राजनीति की तरफ बडने के लिए दिया गया जनादेश है। शायद इसिलिए टीडीपी, टीआरएस और एलजेपी से शुरूआत उन्होनें कर दी है। छोटे दलों के लिए यह संकेत भी है और चेतावनी भी। समय से नही सुधरे तो सिर्फ नाम रह जायेगा। साथ ही यह चुनाव सकारात्मक और नकारात्मक प्रचार के बीच एक लक्ष्मण रेखा भी खींचता है। बीजेपी का प्रचार इसका जीता जागता प्रमाण है। सबसे बडी बात है कि भारत की आवाम ईमानदारी को आज भी सलाम ठोकती है। इसिलिए तो बीजेपी के लाख कहने पर भी कि यह प्रधानमंत्री बहुत कमजोर है। फैसले 10 जनपथ से होते है। जनता ने भाव नही दिया। यहॉं पर एक बड़ा फर्क है। मेरा मानना है कि यह सच भी है तो कांग्रेस की सबसे बडी ताकत भी यही है। अनुशासन का सबसे बडा कारण भी यही है। इसी वजह से यह पार्टी अब तक न सिर्फ खडी है बल्कि लोगो ने इसे विश्वास पात्र भी माना है। इसमें कोई दो राय नही कि सच्चे मायने में इसका श्रेय सोनियॉं गांधी को ही जाता है और कई हद तक ईमानदार और विनम्र प्रधानमंत्री के साथ ही राहुल गांधी की युवाओं पर भरोसा करने की रणनीति पर भी। चुनाव के दौरान बीजेपी में इसका अभाव दिखाई दिया। नतीजा 2004 के 138 सीटों से गिरकर 116 पर आ गए। तीसरे मोर्चे और चौथे र्मोचे की भी जनता ने हवा निकाल दी। साथ ही यह पैगाम भी दे दिया कि अगर सुविधा के हिसाब से पाला बदलने की बाजीगरी आप लोगो ने दोबारा दिखाई तो हम माहिर लोगो आपको सबक सिखा देंगे। एक सीख कांग्रेस के लिए भी। हमने आप पर विश्वास किया है आप हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरिये। क्योंकि पॉंच साल बाद आपके तकदीर का फैसला हमें ही करना है। सही मायने में इस चुनाव ने राजनीतिक दलों को न सिर्फ आत्ममंथन का मौका दिया है बल्कि  ईमानदारी से अपनी गलतीयों को जानने और सुधारने का मौका भी। 

भारत निर्माण की कहानी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में विकास की एक ऐसी इबारत लिखना चाहते है। जहॉं अमीर और गरीब के बीच का फासला कम हो सके। इसलिए उन्होनें अपनी नई पारी में इसका ऐलान भी कर दिया है। जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन के सहारे वो शहर का निर्माण कर रहे है तो भारत निर्माण के माध्यम से गॉंव की तस्वीर और तकदीर बदलने के प्रयास जारी है। मगर एक बात है जो इस तस्वीर को धुंधला कर रही है, वह है इसके तहत तय किये लक्ष्यों का पूरा न होना। यह खुद सरकार को भी मालूम है। भारत निर्माण का जन्म 2005 में हुआ। इसके तहत गॉंवों को 4 सालों में बिजली पानी सड़क सिंचाई टेलीफोन और घर मुहैया कराने के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। इसमे 6 योजनाऐं शामिल है जो गॉव के मूलभूत ढॉंचे को मजबूत करने का काम करेंगी। इनमें से ज्यादातर काम पूरे नही हो पाये। इसके लिए सरकार ने 174000 करोड़ का आवंटन किया मगर काम के धीमेपन ने न सिर्फ सरकार को निराश किया बल्कि आम जनमानस तक को कई सुविधाओं से महरूम होना पडा। अब सरकार अपने नये कार्यकाल में कुछ नए लक्ष्य निर्धारित करने की बात कर रही है। मसलन इंदिरा आवास के तहत 2005 से 2009 के बीच 60 लाख मकान बनाये जाने थे जिन्हें समय से पूरा कर लिया गया। इससे उत्साहित सरकार अब अगले पॉंच सालों में 1 करोड़ 20 लाख मकान बनाने जा रही है। मगर बिजली पानी सडक और सिंचाई के काम का पिछला रिकार्ड बेहद खराब रहा है। बस टेलीफोन गॉवों तक तेजी से पहंचाने में सरकार सफल रही है। बिजली जिसे 125000 गॉवों में जगमगाना था वो 66000 गॉंवों तक ही जा पाई। सडकों का दायरा 350000 किलोमीटर फैलाने का था उसका काम 36 फीसदी ही हो पाया। ऐसा ही हाल सिंचाई और पानी का रहा। सिंचाई का तय लक्ष्य 10 मिलीयन हेक्टेयर का था। हो पाया आधा। पीने के पानी की कहानी भी कमोबेश यही रही। अब सरकार इसको लेकर पेरशान है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसको लेकर अपनी नाखुशी जाहिर कर चुके है। अब सवाल यह उठता है कि सिर्फ लक्ष्य निर्धारित करने से काम नही बनेगा। सभी काम अपनी तय समयसीमा से पूरे सके इसके लिए कुछ जरूरी उपाय करने होगें। मसलन योजनाओं को पूरा करने का जिम्मा राज्य सरकार की मशीनरी का है। अगर वो इसे नही कर पाते तो उनके खिलाफ कारवाई होनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर सरकार आर्थिक दंड भी लगा सकती है। अगर इसके लिए संविधान संशोधन की जरूरत पडे तो उससे भी पीछे नही हटना चाहिए। शायद लोगों के प्रति सरकारों की जवाबदेही तभी बन पायेगी। तब न तो केन्द्र सरकार  क्रियान्वयन सही से न कर पाने का ठीकरा राज्य सरकारों के मथ्थे मड़ पायेगी। न ही राज्य सरकार बहानेबाजी कर आसानी से बच पायेगें। एक दूसरे को नीचा दिखाना समस्या का समाधान नही है। केन्द्र सरकार को राज्यों के साथ मिल बैठकर इसका कोई न कोई उपाय निकालना होगा। सिर्फ ज्यादा पैसे देने से काम नही बनेगा। जवाबदेही और पारदर्शिता तय की जानी चाहिए। 

शनिवार, 6 जून 2009

नारी का सम्मान करो।


कहते है कि अगर एक बेटी को शिक्षा दे दी जाए तो पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है। शायद टीम मनमोहन इस बात को जानते हो। इसिलिए राश्टपति के भाशण में महिलाओं के लिए कुछ नया करने की सरकार ने चाह दिखाई है। हर महिला को शिक्षा देने के उददेश्य से सरकार राश्टीय साक्षरता मिशन को राशटीय महिला साक्षरता मिशन बनाने जा रही है। इससे यह तय हो पायेगा कि महिलाओं जिनका 2001 की जनगणना में साक्षरता प्रतिशत 54 था उसमें अब बदलाव तेजी से आयेगा। इसके अलावा चौदह साल से मजाक बना चुका महिला आरक्षण विधेयक एक बार फिर चर्चा में है। यह सरकार के 100 दिन के एजेंडे के 25 सूत्रीय कार्यक्रम में सबसे उपर है। जो महिला आरक्षण विधेयक एक मजाक बनकर रह गया था। उसके पास होने की उम्मीद इस बार ज्यादा है। इस बार सरकार के पास ना नूकूर की भी गुजायश नही दिखाई देती। सरकार के पास संसद के दोनों सदनों में इसे पास कराने के लिए जरूरी सर्मथन संसद के दोनों सदनो में प्राप्त है। साथ ही जरूरत के हिसाब से इसे 14 राज्यों का समर्थन भी आसानी से मिल जायेगा। हालांकि कुछ फेरबदल इसमें सरकार कर सकती है। फिलहाल यह विधेयक राज्यसभा में है। चूंकि यह संविधान संशोधन है इसलिए इसे पास कराने के लिए सरकार का सदन के दोनो सदनों लोकसभा और राज्यसभा में दो तिहाई समर्थन की जरूरत है। दूसरा बडा काम पंचायत में महिलाओं का आरक्षण 33 फीसदी से बड़ाकर 50 फीसदी करना है। यह भी संविधान संशोधन विधेयक होगा। इससे पहले सरकार ने संविधान के 73 व 74 वें संविधान संशोधन के जरिये यह ताकत महिलाओं को दी थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गॉधी का यह सपना था कि लोकतंत्र में महिलाओं को भी बराबरी की भागीदारी मिले। अब लगता है कि उनके अधूरे ख्वाब को सोनिया गॉधी और राहुल गॉधी अपने अथक प्रयास से पूरा करने की कोशिश कर रहे है। इसके अलावा मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए विशेश प्रयास किए जा रहे है। राश्टीय ग्रागीण स्वास्थ्य मिशन के तहत जननी सुरक्षा योजना और 6 लाख आशाओं की नियुक्ति से सरकार तय किये लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश में है। महिलाओं पर अत्याचार रोकने के लिए घरेलू हिंसा निवारण कानून बनाया गया है। मगर नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे डराने वाले है। सरकार को चाहिए की इस पर हर कीमत पर लगाम लगाई जाए। समाज में महिलाओं को लेकर आज अपनी मानसीकता बदलने की सख्त जरूरत है। और इसके लिए हम सब को मिलकर पहल करनी होगी। सोचो न समझो लाचार है औरत, जरूरत पडे तो तलवार है औरत। मॉं है, बहन है, पत्नी है,हर जिम्मेदारी के लिए तैयार है औरत।

शुक्रवार, 5 जून 2009

नापाक पाक और दो मुहॉं अमेरिका

लाहौर हाइकोर्ट से जमात उद दावा के चीफ हाफिज मुहम्मद सईद के रिहाई का आदेश भारतीय कूटनीतिकारों के लिए एक बढा झटका है। उससे बडा झटका अमेरिका ने दिया है जो आतंकवाद को अपना सबसे बडा शत्रु मानता है। इस मामने में बोलने को तैयार नही। उलटा एक एडवाजरी जारी कर अपने नागरिकों को पाकिस्तान और भारत में सोच समझ कर जाने की चेतावनी दे दी। अमेरिका का दोहरा रवैया एक बार फिर सबके सामने आ गया। हांलाकि भारत सरकार ने इस बयान पर अपनी नाखुशि जाहिर कर दी। आखिर अमेरिका का इसके पीछे क्या आशय हो सकता है। अमेरिका आतंकवाद को अपनी तरह से परिभाशित करता आया है। अलकायदा और तालीबान उसके लिए बडा खतरा है। इन्ही को मिटाने की चाहत वो रखे हुए है। इसके लिए उसे पाकिस्तान की जरूरत है। पैसे के दम पर इसमें वो सफल भी हो रहा है। आज भारत की आतंकवाद के प्रति नीति जीरो टौलरैंस की है। कूटनीतिक प्रयासों के साथ साथ उसे सुरक्षा के व्यापक इंतजाम करने चाहिए। जमीन आसमान और समंदर में सख्त पहरा हो। खुफिया तंत्र इतान मजबूत हो कि किसी भी साजिश का भंडाफोड समय रहते हो सके। उधर पाक ने कश्मीर राग अलाप कर अपनी सोच उभार दी है। इसलिए भारत की विदेश नीति की चुनौतियां कम नही है। मगर यह झटका एक सीख भी देता है। अपने भरोसे आगे बडो।।झटका इसलिए भी क्योंकि पहली बार नानुकूर करने वाले पाकिस्तान को भारत ने मजबूर कर दिया यह मानने के लिए कसाब उनके देश का नागरिक है। 26 ग्यारह हमले को अंजाम पाकिस्तान की जमीन से दिया गया। जमात उद दावा पर प्रतिबंध लगाने से लेकर उसके चीफ हाफिज मुहम्मद सईद की गिरफतारी को भारत एक बडी कामयाबी के तौर पर देख रहा था। हाल ही में अमेरिका कांग्रेस की रिपोर्ट में यह भी खलासा हुआ कि पाक के 60 परमाणु मिसाइलों का मुंह भारत की ओर है। इतना ही नही इस रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान गुपचुप तरीके से परमाणु प्रसार में लगा है। वो पाकिस्तान जिसे अपनी माली हालत सुधारने के लिए समय समय पर अमरीका का मुहं देखना पडता है। कहानी यही खत्म नही होती लश्करे तैयब्बा से जुडा आजम चीमा और जैश ए मुहम्मद का चीफ मौलान मसूर अजहर पर पाबंदी लगाने के लिए ब्रिटेन और चीन ने और सबूत की मॉग की है। भारत ने इस मामले की अपील संयुक्त राश्ट्र में की थी। यह उस पाकिस्तान की कहानी है जिसके प्रधानमंत्री से लेकर राश्ट्रपति और आर्मी चीफ आतंकियों को निस्तोनाबूद करने की कसम खा रहे है। और इस अभियान में उनका सबसे बडा साथी अमेरिका है। इन सारे घटनाक्रमों के बाद पाकिस्तान की कथनी और करनी में एक बार फिर अंतर दिखाई देने लगा है। अब देखना यह होगा कि पाकिस्तान और अमेरिकी रवैये का जवाब भारत किस तरह से देता है।

तारीख पर तारीख


भारत में न्यायपालिका में लंबित पडे मामले आज बडी चिंता का विशय है। सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय का
सिद्धान्त आज दूर की कौडी नजर आ रहा है। न्याय पाने में लोगों को सालों इन्तजार करना पडता है। भारत में लिम्बत पडे मुकदमें के आंकडे भी दंग करने वाले है। निचली अदालतें में 3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित है। जबकि उच्च न्यायालयों में इसकी संख्या 30 लाख से उपर है। उच्चतम न्यायालयों में हजारों की तदाद में मामले न्याय की राह बटोर रहे है। अब सवाल उठता की की यह समस्या आज इतनी विकराल क्यों बन गई। दरअसल आजादी के बाद सियासतदानों ने इस मसले केा गंभीरता से लिया ही नही। इसके पिछे कई पहलू है। मसलन न्यायालयों में जजों के रिक्त पदों की संख्या को समय से क्यों नही भरा जाता । क्यों बडती जनसंख्या के आधार पर जजों की पद नही बड़ाये जाते। ढॉंचागत सुविधाओं की कमी पर क्यों ध्यान नही दिया गया। मगर इन सब के बीच वह सब हुआ जिसने न्यायालयों में मुकदमों की संख्या बडाई। संसद और राज्य विधानसभाओं ने कई नए कानून बनाए। मगर न्यायपालिका पर इसका क्या इसर पडेगा इसकी सुध किसी ने नही ली। न ही इसके अध्यन के लिए कोई कमिटि बैठी। लॉ कमिशन ने अपनी सिफारिशों में जजों की संख्या बडाने के साथ मूलभूत सुविधाओं उपलब्ध कराने पर खास जोर दिया। ऐसा ही कुछ सिफारिश विधि मंत्रालय की स्थाई समिति ने कहा। जजेस इन्क्वारी बिल भी लटका पडा है। मगर सरकार इस बार न्यायिक सुधार के प्रति संजीदा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदशीZता लाने की बात कह चुके है। इवनिंग कोर्ट का मॉडल गुजरात में सफल रहा। अब इसे बाकी राज्यों में लागू करना बाकी है। फास्ट ट्रैक कोर्ट और मोबाइल कोर्ट जैसे विकल्प भी सामने है। इस हॉ इस दौरान इतन जरूर हुआ की न्यायपालिका में व्याप्त भ्रश्ट्राचार में नकेल लगाने की कोशिश शुरू हो गई है।
कुछ सिफारिशें सरकार के पास मौजूद है। जिसमें प्रमुख है ।
सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या 25 से बढाकर 30 करना।
लॉ कमिशन की सिफारिश 10 लाख की आबादी पर हो 50 न्यायाधीश।
मुख्य न्यायाधीश ने की भ्रश्ट्रचार से जुडे मामले को निपटाने के लिए विशेश अदालत खोलने का उपाय।
मुकदमें को निपटाने की समय सीमा तय हो।
अमेरिका मे प्रति 10 लाख जनसंख्या में 110 जज है। पश्चिमी दशों में यह अनुपात 135 से 150 है।
आज बात दरवाजे में ही न्याय देने ही कही जा रही है। अब बिना इंतजार के इन सिफरिशों को सरकार जमीन पर लागू करे।
गहरा जाता है अंधेरा, हर राज निगल जाती एक सुनहरा सवेरा।
फिर भी सृजन पर मुझे विश्वास है, एक नई सुबह की मुझे तलाश है।

बुधवार, 3 जून 2009

नापाक पाक


लाहौर हाइकोर्ट से जमात उद दावा के चीफ हाफिज मुहम्मद सईद के रिहाई का आदेश भारतीय कूटनीतिकारों के लिए एक बढा झटका है। झटका इसलिए भी क्योंकि पहली बार नानुकूर करने वाले पाकिस्तान को भारत ने मजबूर कर दिया यह मानने के लिए कसाब उनके देश का नागरिक है। 26 ग्यारह हमले को अंजाम पाकिस्तान की जमीन से दिया गया। जमात उद दावा पर प्रतिबंध लगाने से लेकर उसके चीफ हाफिज मुहम्मद सईद की गिरफतारी को भारत एक बडी कामयाबी के तौर पर देख रहा था। हाल ही में अमेरिका कांग्रेस की रिपोर्ट में यह भी खलासा हुआ कि पाक के 60 परमाणु मिसाइलों का मुंह भारत की ओर है। इतना ही नही इस रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान गुपचुप तरीके से परमाणु प्रसार में लगा है। वो पाकिस्तान जिसे अपनी माली हालत सुधारने के लिए समय समय पर अमरीका का मुहं देखना पडता है। कहानी यही खत्म नही होती लश्करे तैयब्बा से जुडा आजम चीमा और जैश ए मुहम्मद का चीफ मौलान मसूर अजहर पर पाबंदी लगाने के लिए ब्रिटेन और चीन ने और सबूत की मॉग की है। भारत ने इस मामले की अपील संयुक्त राश्ट्र में की थी। यह उस पाकिस्तान की कहानी है जिसके प्रधानमंत्री से लेकर राश्ट्रपति और आर्मी चीफ आतंकियों को निस्तोनाबूद करने की कसम खा रहे है। और इस अभियान में उनका सबसे बडा साथी अमेरिका है। इन सारे घटनाक्रमों के बाद पाकिस्तान की कथनी और करनी में एक बार फिर अंतर दिखाई देने लगा है। अब देखना यह होगा कि पाकिस्तान के इस रवैये को देखते हुए भारत का अगला कदम क्या होगा।

मंगलवार, 2 जून 2009

बंदे में है दम

उतराखंड में कपकोट सीट जीताकर भगत सिंह कोश्यारी ने अपना लोहा आखिरकार मनवा लिया। अब बारी केन्द्रीय नेतृत्व की है कि वो इस मामले को कितनी गंभीरता से लेते है। इस बार बीजेपी चूकी तो फिर संभल नही पायेगी। दरअसल विधायकों का एक बडा कुनबा मुख्यमंत्री खंडूरी को नही पसंद करता। इसकी शिकायत लेकर वो दिल्ली भी आ चुके है। मगर दिल्ली के नेताओं ने इसे तरजीह नही दी । नतीजा 1984 के बाद कांग्रेसियों ने प्रदेश की पॉचों सीट पर अपना कब्जा जमा लिया। प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत तो हारे ही खंडूरी भी अपनी सीट नही जितवा पाये। इससे यह जाहिर होता है की खंडूरी की कार्यशौली से जनता कितनी खुश है। उधर कांग्रेसीयो के खुश होने के लिए कुछ ज्यादा नही है। बीजेपी के कामकाज से नाराज लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया। मगर कांग्रेसी ठहरे जीत में सब कुछ भूल जाते है। कपकोट में कांग्रेस का तीसरे पायदान में जाना क्या दिखाता है। क्या सही व्यक्ति को टिकट नही दिया गया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए। जरूरी यह है कि इस हार की समीक्षा जरूरी है। बेजेपी में फेरबदल के संकेत मिल रहे है मगर क्या कांग्रेस में बदलाव की जरूरत नही है। आज उतराखण्ड में कांग्रेस को एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत हैं। समय रहते कांग्रेस को यह बदलाव कर देने चाहिए। वरना अगला फैसला बीजेपी के पक्ष में जाते देर नही लगेगी। कांग्रेस के पास उत्तराखंण्ड में इंदिरा हरदेश सरीखी मजबूत नेता है। मगर कांग्रेसी खुद अन्दर खाने विधानसभा में उनकी जड़ काट चुके है। मगर फैसला केन्द्रीय नेतृत्व को लेना है। अब वो दौर भी नही रहा जब नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता के नाम पर वोट मिल जाए। अब जनता ने वोट काम के आधार पर देना शुरू कर दिया है। पीडब्लूडी विभाग संभालते हुए इंदिरा हिरदेश सडकें बनाने में यह कारनामा दिखा चुकी है। अब सिर्फ इंतजार है कि बीजेपी कोश्यारी को लाती है या नही। इधर कांग्रेसियों को भी बदलाव की जरूरत है। मगर कब करेंगे।

सोमवार, 1 जून 2009

फटाफट क्रिकेट




इंग्लैंड के दूसरे टी 20 वल्र्ड कप पर क्या भारत का कब्जा़ होगा। भारतीय टीम को देखकर हर किसी की जीतने की आस है। मगर भाई दबाव में बिखरने की आदत से इन्हें छुटकारा कौन दिलाऐगा। धोनी कह रहे है कि आईपीएल ने यह खूबी सिखा दी है। मगर ऐसा लगता नही है। भारतीय टीम में आज चोटी के बल्लेबाज है। जो लय पर होते है तो मैदान में रनों की छडी लग जाती है। विरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर की सलामी जोडी की चर्चा आज हर क्रिकेट प्रेमी की जुबान पर है। मगर आईपीएल में इनका प्रदर्शन निराश करने वाला था। युवराज भी एक दो मैचों में ही अच्छा कर पाये। धोनी ने जरूर कुछ हाथ दिखाये लेकिन उनके खेल के हिसाब से यह कुछ भी नही। मगर सुरेश रैना, रोहित शर्मा और यूसूफ पठान पर हर किसी की नजर है। बिते दिनों इन्होने बॉल और बैट दोनो से कमाल दिखाया। गेंदबाजी में भी फिक्र की बात नही है। आरपी सिंह आग अगल रहे है। जहीर खान ईशांत शर्मा और इरफान की तिकडी भी कमाल दिखा सकती है। बाकी का बचा खुचा काम भज्जी और प्रज्ञान ओझा के हवाले। हालॉकि इनमें सब एक साथ नही खेल सकते। मगर खिलाडियों की खूबी को भॉंपते हुए धोनी को बेहतर खिलाडियों को मैच में उतारना होगा। भारत को जीत के लिए जी तोड मेहनत करनी हेागी। धोनी अच्छी कप्तानी कर रहे है। साथ ही उन्हें बाकी खिलाडियों का भी सहयोगा प्राप्त है। ऐसे में टीम इंडिया को चाहिए की हर खिलाडी अपना 100 फीसदी दे। भारतीय क्रिकेटप्रेमी आज जीत के लिए भूखे है। बस जरूरत है तो बस यह कि धोनी हर टीम और खिलाडियों की ताकत और कमजोरी को ध्यान में रखकर मैदान में ऐस चक्रव्यूह बनाये जिससे पार माना मुश्किल हो। टी 20 की ज्यादाजर टीमें जबरदस्त है जो कभी भी खेल का रूख पलट सकती है। ऐसे में जो टीम मैच दर मैच अच्छा खेलेगी वह जीत की हकदार होगी।

मिशन इकोनॉमी



बाजार में रौनक लौटने लगी है। क्या यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जादू है। आर्थिक मंदी के प्रभाव से मुरझाये बाजार में अचानक तेजी आ गई है।
निवेशक अब बाजार में अपना पैसा झोंक रहे है। 2008 -09 की 6.7 फीसदी
विकास दर ने भी आशा बंधाई है। हालांकि जानकार पहले इस तेजी के बने रहने पर संकोच जताते रहे। लेकिन अब वो इसकी तेजी के प्रति आश्वस्त है। सरकार के लिए आर्थिक क्षेत्र में कई चुनौतियॉं मुंह बायें खडी है। अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने के साथ साथ रोजगार पैदा करने और मॉंग बढ़ाने के लिए नीतियॉं तय करती होंगी। जिन क्षेत्रों में हालात खराब है उनके लिए कुछ कदम उठाने होंगे। सरकार को यह भी तय करना चाहिए की जो दो बेलाआउट उसने दिसम्बर और जनवरी में दिये। करों में जो राहत दी गई उसका असली फायदा क्या आम आदमी तक पहुंचा है। रिजर्व बैंक ने जिस तेनी से मौद्रिक उपाये किये क्या उतनी ही तेजी से बैंकों ने इसका फायदा आम आदमी को पहुंंचाया है। वित्त मंत्रालय की कमान संभालने के बाद प्रणव मुखर्जी ने इसके संकेत भी दिये। बैंको ने एनपीए का खौफ दिखाकर लोन देने में कंजूसी बरती। लोन देने के बजाय उन्होने अपना धन रिजर्व बैंक के पास रखना ही बेहतर समझा। बडे बडे उघोगों ने मंदी के नाम पर लोगो की रोजी रोटी से खिलवाड किया। ऐसा नही था कि हालात इतने खराब हो चुके थे। ज्यादा मुनाफा कमाने की हमारे उघोग जगत की प्रवति पर कौन बोले। उन्हें राहत की डोज तो बडे पैमाने पर चाहिए। मगर जनता के फायदे के लिए अपने मुनाफे का हिस्सा देना उन्हें गवारा नही। मनमोहन सरकार के सामने करने को बहुत कुछ है। विनिवेश की रूकी हुई गाडी को अब वो सरपट भगा सकते है। इससे राजकोशीय घाटे को कम करने के लिए संसाधन सरकार जुटा पायेगी। बुनियादी ढॉंचे में निवेश बढाना प्राथमिकता में होगा। इसके अलाव प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए भी दरवाजे खोलने होंगे। बीमा बैकिंग और खुदरा बाजार में इसकी जरूरत है। साथ ही सरकार को नरेगा जैसी योजनाओं को बढावा देने के लिए कुछ और कदम उठाने होगें। नरेगा योजना की तारीफ में नया नाम आईएलओ का जुडा है। इसके बाद इसी मॉडयूल को शहर में लागू करने में सरकार को आसानी होगी। खाघ सुरक्षा कानून जितनी जल्दी अमल में लाया जायेगा उतना बेहतर है। शिक्षा स्वास्थ्य और कृशि को बड़ावा देने के लिए कुछ और कदम की आवश्यकता होगी। भूमण्डलीकरण का यह दौर चुनौतियों से भरा है। ऐसा जरूरी नही की सबकुछ आपके हिसाब से चले। खतरा तो उठाना ही पडेगा। टीम मनमोहन को पास खुलकर खेलने का मौका है। सवाल यह है कि समग्र विकास की अपनी कथनी को क्या वो करनी में बदल पायेगें।

15वीं लोकसभा से उम्मीद





15 वीं लोकसभा का पहला दिन कई मायनों में याद रखा जायेगा। पहली बार कोई महिला वह भी दलित लोकसभा में अध्यक्ष पद पर आसीन होंगी। महिला आरक्षण पर घिरी सरकार के लिए यह कदम किसी सिक्सर से कम नही। जानकारों की माने यह कदम न सिर्फ महिला सशक्तिकरण को बढावा देगा बल्कि कांग्रेस ने दलित समुदाय को यह संकेत भी दिया है कि कांग्रेस से अच्छा विकल्प उनके पास नही है। कुल मिलाकर दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के लिए यह एक अच्छी शुरूआत है। इस बार सत्ता पक्ष के साथ साथ विपक्ष में भी कई महारथी है जो मुददों पर सरकार के सामने कम मुश्किल नही खडी करेंगे। बीजेपी में लालकृश्ण आडवाणी जहॉ 14वीं लोकसभा में सरकार के खिलाफ अकेले हल्ला बोलते थे। वहीं अब उनके साथ जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, सुशमा स्वराज, राजनाथ सिंह और मुरलीमनोहर जोशी जैसे नेता खडे होगें। कांग्रेस के लिए सबसे बडी राहत इस बात की है कि उनकी स्थिति आंकडों के लिहाज से मजबूत है। पिछली बार की तरह नही कि बाहर से समर्थन दे रहे वामदल गाहे बगाहे सरकार को नीचा दिखाने से पीछे नही हटते थे। पिछली बार सदन का ज्यादातर समय शोरगुल में बीत गया। यहॉं तक की बजट और कई महत्वपूर्ण विधेयक बिना बहस के पारित हो गये। आशा करतें है कि इस बार यह नही होगा। इस बार सदन में युवाओं की भी एक लम्बी फौज मौजूद है। दिलचस्प देखना यह होगा कि यह इस कार्यशैली में कितनी जल्दी अपने को ढालते है। इनमें से ज्यादातर युवा वाकपटु है। श ायद कह रहें हो हम साथ साथ है। भारत की जनता को भी इस लोकसभा से बहुत उम्मीदें है। जनता चाहती है उनकी हर वोट के बदले जनप्रतिनीधि ईमानदारी के साथ काम करें और उनके कल्याण के लिए नीतिया और कानून बनाये।