मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

आखिर कब तक?

पटना में हुए बम धमाकों ने एक बार फिर हमारे सुरक्षा तंत्र की पोल खोल दी है। आज हर कोई सवाल पूछ रहा है कि आतंकवाद जो पूरी दुनिया के लिए एक नासूर बन चुका है उससे लड़ने के लिए हम कितने प्रतिबद्ध हैं। हर बार जब हमला होता है। घटना की निंदा कर दी जाती है। मुआवजे का ऐलान होता है। सरकार का बयान आता है कि गुनेहगारों को कानून की जद में लाया जाएगा। आखिर देश  इन आश्वासनों पर कब तक भरोसा करे। कब तक आतंकवादी हमारे निर्दोष नागरिकों को अपना निशाना बनाऐंगे। आज देश  की आवाम भय में जी रही है। बस, ट्रेन, मंदिर मस्जिद, अस्पताल, बस स्टैंड, पार्क, कोर्ट यहां तक की देश की संसद तक में आंतकी घुस जाते है। सरकार बताए आखिर इस देश के लोग कहां सुरक्षित हैं। 26/11 के बाद इस देश की आवाम को सुरक्षा तंत्र को लेकर सब्जबाग दिखाए गए वो क्या सब झूठे थे। बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या इस तरह के हमलों से निपटने के लिए हमारी तैयार है। क्या हमारे खुफिया तंत्र में वह चैकन्ना पन है जो हमलों से पहले ही हमलावरों को धर दबोचे। क्या हमारी पुलिसिया तंत्र मजबूत है। आखिर क्यों बीते 15 सालों में 21 बार आतंकवादी देश की राजधानी को आसानी से निशाना बना लेते हैं। कैसे बीते 8 सालों में देश की आर्थिक राजधानी 11 बार आतंकियों के नापाक मंसूबों का शिकार हो जाती है। मुंबई हमलों के बाद गृहमंत्रियों ने सुरक्षा तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए क्या कुछ नही कहा। इसमें राष्ट्रीय  आतंकवाद प्रतिरोध केन्द्र,( एनसीटीसी)  बहु अभिकरण केन्द्र,(एमएसी)  राष्ट्रीय  अभिसूचना संजाल,(नैटग्रिड)  राष्ट्रीय जांच एजेंसी, विदेशियों के पंजीकरण तथा तलाश, राष्ट्रीय  सुरक्षा दस्ता, सामुद्रिक सुरक्षा सलाहाकार, समुद्री नौकाओं का पंजीकरण, मछुवारों के लिए पंजीकरण, संयुक्त आपरेशन केन्द्र की स्थापना, सागर प्रहरी बल, तटीय दस्तों का आधुनिकीकरण, आतंक निरोधी दस्ते और गुप्तचर व्यवस्था में सुधार जैसे अहम बदलावों की घोषणा की गई। इनमें से कुछ में काम हुआ और कुछ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रहे है। इसका उदाहरण दिल्ली हाइकोर्ट परिसर से ही मिल जाएगा। तीन साल पहले सीसीटीवी लगाने की योजना बनाई गई मगर मसला फाइलों से आगे नही बड़ पाया। यहां तक की 25 मई को हुए धमाके से भी हम नही सीखे। यह है आतंकवाद से लड़ने का हमारा रवैया। और हमारी सरकारें हर हमले के बाद आतंकवाद को परास्त करने का दंभ भरती हैं। सच्चाई यह है की कुछ महिने की शांति व्यवस्था हमारे सुरक्षा तंत्र को निश्चिंत कर देती है। आज हमें बिना देरी किये यह सच्चाई कबूल कर लेनी चाहिए कि आतंकवादी हमारी सुरक्षा एजेंसियों की चैकस नजरों से ज्यादा शातिर हैं। इसलिए वह हर बार कामयाब हो रहे हैं। हमारे देश में आइबी सबसे बड़ी गुप्तचर संस्था है। लेकिन इस संस्था में 9443 पद रिक्त पड़ें हैं। जरूरत तो थी कि मानव संसाधन बढ़ाने की मगर यहां पहले के ही रिक्त पद नही भरे गए हैं। आज देष में 1327 आइपीएस अफसरों की कमी है। पुलिस में निचले स्तर के हालात और ज्यादा खराब हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक प्रत्येक 1 लाख की आबादी में न्यूनतम 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, मगर हमारे देश में यह संख्या 160 के आसपास है। यह राष्ट्रीय औसत है। राज्यवार आंकड़े  तो और भी चैंकाने वाले हैं। प्रति लाख आबदी के हिसाब से बिहार में यह आंकड़ा 75 है, उत्तरप्रदेश में 115, आंध्रप्रदेश में 125, ओडिसा में 135, छत्तीसगढ़ में 205, और झारखंड में 205। इसकी सबसे बड़ी वजह है की देष में तकरीबन 560000 पुलिसकर्मियों के पद रिक्त पड़े है। पुलिस सुधार को लेकर बने राष्ट्रीय  पुलिस आयोग की सिफारिशों पर राज्य सरकारें नाक भौं सिुकोड़ने लगती है। यही कारण है की हमारे देश का 1861 का कानून आज सुधारों की बाट जोह रहा है। सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक माडल पुलिस एक्ट 2006 राज्य सरकारों के भेजा जा चुका है मगर ज्यादातर सिफारिशों को लागू करने में राज्यों की दिलचस्पी नही। यह भी तब जब सितंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने तक राज्यों को पुलिस सुधार को लेकर निर्देश दे चुका है। केन्द्र सरकार कानून व्यवस्था को राज्यों सरकारों के अधिन बताकर अपना पल्ला झाड़ लेती है मगर इस माॅडल पुलिस एक्ट को वह दिल्ली में तक लागू नही करा पायी है। क्या इसी रवैये के सहारे हम आतंकवाद को हर कीमत पर परास्त करने की बात करते हैं। सवाल यह भी है कि जब राजधानी में सुरक्षा का यह हाल है तो बाकि राज्यों में क्या स्थिति होगी। आज समय की मांग है कि राज्यों को बिना देरी किए पुलिस आधुनिकीकरण पर तेजी से काम करना चाहिए। न सिर्फ हमारे पुलिसकर्मी आधुनिक हत्यारों से लैस हो बल्कि उनके प्रशिक्षण की ओर खास ध्यान देना होगा। साथ ही आतंकी वारदातों से निपटने के लिए राज्यों को विशेष दस्तों की स्थापना करनी चाहिए जो केन्द्र सरकार की एनएसजी की तर्ज पर हो। इसके अलावा थानों के स्तर में एलआइयू जैसे यूनिट को ज्यादा जिम्मेदार बनाने की जरूरत है। दूसरा मसला आता है कि आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे में हम कितना खर्च करते हंै। यह आंकड़ा जीडीपी यानि सकल घरेलू उत्पाद का 1 फीसदी है। जबकि रक्षा क्षेत्र में हम जीडीपी का 2.5 फीसदी खर्च करते हैं। लिहाजा इसका खास ख्याल रखा जाए की धन की कमी राष्ट्रीय  सुरक्षा के र्मोचे पर आड़े न आए। आज देश को जरूरत है एक कठोर कानून की। जो उन असमाजिक तत्वों के मन में भय पैदा करे जो विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करते हैं। क्योंकि आतंक के इस नए चेहरे में घरेलू समर्थन को नकारा नही जा सकता। साथ ही ऐसे मामलों को  एक तय समयसीमा के तहत निपटाने की व्यवस्था कायम की जाए। भारत को एक नरम राष्ट्र की छवि से बाहर निकलकर कठोर बनना होगा। आखिर क्या वजह है कि अमेरिका ने 9/11 जैसे हमलों को दुबारा नही होने दिया। पहला वहां के सुरक्षा तंत्र में वह सारी विशेेषताऐं हैं जो किसी भी हमले से निपटने के लिए तैयार हैं। दूसरा वहां आतंकवादियों के लेकर राजनीति नही होती है और न ही आतंकी जेलों में सालों तक रोटी तोड़ते है। वो तो घर में घुसकर अपने दुश्मन को मारने का माद्दा रखते हंै और ओसामा को मारकर उन्होंने यह साबित भी कर दिया। आज हमें अमेरिका के सुरक्षा तंत्र की बारीकियों से सीखने की जरूरत है। यह बात सही है कि हमारी भौगोलिक परिस्थितियां अलग है। मगर हमें नागरिक सुरक्षा को हर कीमत पर सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। जरा सोचिए जिस देश में आतंकवादियों को फांसी की सजा से बचाने पर राजनीति होती है। आतंकवादियों को फांसी देने में सालों लग जाते है। जहां की न्याय व्यवस्था में कई छेद हो वहां का सुरक्षा तंत्र क्या भय पैदा कर पायेगा। आज जमीन आसमान और समंदर तीनों जगह हमें पैनी निगाह रखनी होगी  और इसके लिए जरूरत है ठोस राजनीति प्रतिबद्धता की जो अकसर नदारद सी दिखती है।
कर रहा साजिश अंधेरा, सीढ़ियों में बैठकर
रोषनी के चेहरे पर क्यों कोई हरकत नहीं

बम फटेंगे! लोग मरेंगे! नेताओं का क्या जाता है भाई!

पटना में हुए सिलसिलेवार धमाके खूफियां एजेंसियों की नाकामी और राज्य पुलिस की लचर व्यवस्था का परिणाम है। आतंकवाद से निपटने के लिए प्रतिबद्धता का जो घोर अभाव हमारे देश में है उसको देखते हुए अगर आने वाले दिनों में  भी आतंकी अपने नापाक मंसूबों को अंजाम दे पाते है तो हैरानी नही। क्योंकि नेताओं को राजनीति करने से फुरसत कहां है।देश की आइबी का काम सरकारों की लिए चुनावी सर्वे करना है विरोधियों को साधने के लिए साधन तलाशना है। यही काम राज्यों में एलआइयू करती है। नेता लड़ेगे लड़ते रहेंगे? निर्दोष मरते रहेंगे? सरकारें एलर्ट मिला या नही इसपर राजनीति करेंगे? राज्य एनसीटीसी बनने नहीं देंगे? मुंबई में आतंकी हमलों के बाद जब चिदंबरम ने गृहमंत्रालय संभाला था तो बदलाव की कोशिशें जरूरी होती दिखाई दी। पुलिस आधुनिकरण पर देश चर्चा करने लगा। मगर आज हम उसी दोराहे पर खड़े है। ब्लास्ट होने पर बिना वक्त गवाऐं, निंदा करो। टीवी में दिखो। ब्लास्ट की इंटेंसिटी बताओं। अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ो। नेताओं का क्या जाता है। इनके घर का चिराग थोड़ी न बुझा। हे ईश्वर, इन सबसे आखिर कब बाज़ आऐंगे हमारे नेता?।

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

कैसे मिटेगा आतंक !

पटना में हुए सिलसिलेवार धमाकों ने एक बार फिर साफ कर दिया कि पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों से ज्यादा तेज़ चाल आतंकियों की है। पटना जहां एक दिन पहले राष्ट्रपति आए। पटना जहां 6 महिने पहले से ही तय था कि नरेन्द्र मोदी की हुंकार रैली होनी है। उसके बावजूद सुरक्षा मानकों को गंभीरता से लिया गया। 6 निर्दोष मारे गए, 80 से ज्यादा घायल हुए। नेताओं  ने निंदा कर दी। मुख्यमंत्री ने मुआवज़ा दे दिया। गृहमंत्री ने एनआईए और एसपीजी की टीम भेज दी। बस सबने अपने कर्मो की इतिश्री कर ली। 1 अरब 25 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में इतनी कमजोर आंतरिक सुरक्षा के लिए कौन जिम्मेदार है। अमेरिका में आतंकवाद पर राजनीति नही होती। 9/11 के बाद उन्होने दुनिया को दिखाया की आतंक से कैसे निपटा जा  सकता है। पाकिस्तान के घर में घुसकर अपने नम्बर एक दुश्मन लादेन को मार गिराया। हम 1989 के बाद जम्मू कश्मीर में आतंकवाद से जूझ रहें हैं। हम 1993 से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से जूझ रहें हैं। वह हमारे ही लोगों को हमारे ही खिलाफ एक औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहें है। हम नपुंसकों की तरह निंदा करने में व्यस्त है। अगर मरना ही है। एक बाद मरो। हर रोज मरना क्यों। क्या हम इतने शक्तिशाली नही की पाकिस्तान की आतंक की फैक्ट्री को निस्तोनाबूत कर दें। क्या हम इतने कमजोर हैं कि एक हाफिज सईद को पकड़ने के लिए अमेरिका से हाथ जोड़ते है। भारत पहला ऐसा देश है जो आतंकवाद का शिकार है और आतंकी देश यानि पाकिस्तान को सूबूत देता है कि आप हमारे यहां आतंकवाद फैलाते हो। क्या हमारे एनएसजी के कमांडों में इतनी शक्ति नही कि जब चाहें उसे उसी की माद से उठा ला सकते हैं। अब हाथ जोड़ना निंदा करना बंद करो। अब वक्त जवाब देने का है। उनकी हस्ती मिटादो जो भारत को आंख दिखाते हैं।
मित्रों इतिहास गवाह है
क्षमा क्षोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्तहीन, विषहरित विनीत सरल हो।
आप सभी मित्रों से आशा है कि आप भी अपनी सोच को सार्वजनिक करें।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

महंगाई क्यों बढ़ती है!

 महंगाई बढ़ने का कारण जमाखोरी है। राज्य सरकारें इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। केन्द्र सरकार का तंत्र महंगाई रोकने में फेल हो चुका है। केन्द्र और राज्यों ने मिलकर चंद मुनाफाखोरों के लिए आखें मूंद ली है। कितने लोगों को जमाखोरी के चलते जेल भेजा गया। अगर कोई मंत्री और सचिव महंगाई रोकने में नाकामयाब है तो उसके बने रहने का क्या मतलब। भारत की संसद 13 बाद 2004 से महंगाई पर चर्चा कर चुकी है। मित्रों इस देश में महंगाई रोकने के लिए एक भारी भरकम तंत्र काम करता है जिसमें 24 आवश्यक वस्तुओं के दामों पर प्रतिदिन और सप्ताह वार नजर रखी जाती है। इसमें शामिल हैं उपभोक्ता मंत्रालय, कृषि मंत्रालय वित्त मंत्रालय सचिवों का समूह मंत्रियों का समूह, कैबीनेट कमिटि आन प्राइसेसे और राज्य सरकारें। इन सबसे ज्यादा आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के प्रावधान। अगर महंगाई नही रोक पा रही सरकारें तो उन्हें पद छोड़ देना चाहिए। आज आम आदमी की महंगाई ने कमड़ तोड़ दी है। नेता रैलियों में लच्छेदार भाषण दे रहें है मगर इस समस्या का समाधन कोई निकालना नही चाहता। क्योंकि जमाखोरी और चुनावी चंदे का रिश्ता सीधा है।  इसलिए प्रधानमंत्री जी और सभी राज्यों के मुख्यमंत्री जी अगर आप लोगों के आवश्यक वस्तुओं के आसमान छूते दामों को पर लगाम नही लगा पा रहे हो तो आपसे कैसी अपेक्षा। 

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

मकसद से भटकता मीडिया

हिन्दी मीडिया में काम करने से कभी कभी बड़ी पीड़ा महसूस होती है। जब में महसूस करता हूं कि चुटकुलेबाजी की खबरों को दिखाने में मीडिया कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी दिखाता है। मुझे सुनने में आया है की हिन्दी पटटी का दर्शक यही देखना चाहता है। एंकर इनमें चर्चा करने में खुश रहते है। क्योंकि इसमें पढ़ना नही पड़ता। घंटा लफ्फाजी में कब बीत जाता है पता ही नही चलता। क्या देश की अर्थव्यवस्था पर चर्चा की हिन्दी का दर्शक पसंद नही करता? क्या केवल आसाराम और शोभन सरकार की भारतीय दर्शकों की पसंद है? क्या टीआरपी इन नान इश्यू से ही मिलती है? हैरत की बात तो यह है कि  किसी संपादक ने यह कहने की  हिम्मत नही जुटाई की इस खबर को वह एक सामान्य खबर की तरह पेश करेगा, सनसनी की तरह नही? हिन्दी मीडिया में आज अच्छी और उददेश्य परख चर्चाओं का अभाव है। मैं जानता हूं कि मैं भी वही कर रहा हूं? सच तो यह है कि अखबारों की खबरें ही मीडिया की रिसर्च है। जिस देश में बड़ी आबादी हिन्दी बोलती और समझती है वहां हिन्दी चैनल आसाराम और शोभन सरकार के सपने को राष्टीय मिशन बनाकर दिखा रहें हैं। महंगाई लोगों को खा रही है। आज चक किसी चैनल ने यही रहस्योघाटन नही कियाकी इसके पीछ़े वजह क्या है? कैसे सरकार का कुप्रबंधन अर्थव्यवस्था को जीर्णशीर्ण स्थिति पर पहुंचा रहा है? भ्रष्टाचार जो एक शिष्टाचार बन गया है उसपर किसी ने कोई खुलासा नही किया? जलवायु परिवर्तन भविष्य की बड़ी चुनौति है इसपर किसी
का ध्यान नही। कितने एंकरों ने सीएजी की रिपोर्ट को दुआ भी होगा? आए दिन एक नई बीमाारी लोगों का काल का गाल बना नही है, किसी को कोई मतलब नही? यहां सिर्फ चुटकुलेबाजी में टीआरपी दिखाई देती है। जिसकी प्रक्रिया की पूरी तरह फ्राड है। आज हालत यह है कि गाहे बगाहे ही सही यह लोकतंत्र का चैथा स्तंभ भी बाजारीकरण के प्रभाव में इस कदर डूब गया है कि अपने उददेश्यों से भटक गया है। मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई करते समय पढ़ा था
लोकतंत्र हितार्थथाय, विवेकालोकवर्धनी
उदभोधनाय लोकस्य, लोकसत्ता प्रतिष्ठिता।
यह मिशन और विज़न मुझे कहीं दिखाई नही देता। आज बदलाव की जरूरत विधायिक कार्यपालिका न्यायपालिका और सबसे ज्यादा मीडिया में है। मीडिया में इसलिए भी क्योंकि लोगों की अपेक्षा आज इस स्तंभ से कुछ ज्यादा ही हैं।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

सपना मीडिया और सरकार

भारतीय मीडिया खासकर हिन्दी मीडिया ने सोने की खबर को जिस तरह से लयिा है वह हैरान कर देने वाला है।
बाबा शोभन सरकार ने 1000 टन सोने का सपना देखा। सरकार ने इसपर विश्वास कर लिया। बकायदा एएसआई को बुलाकार खुदाई भी शुरू कर दी है। मगर खुदाई के लिए खुरपी का इस्तेमाल किया जाएगा ताकि जो अवशेष मिलें वह तहस नहस न हो जाऐं। मगर केन्द्र और राज्य की सरकार की मंशा पर कई सवाल उठ रहें
हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मानें तो वह तो चाहते हैं कि यूपी के हर जिले से सोना
निकले। इसके लिए वह बकायदा शुभकामनाऐं भी दे रहें हैं। इससे मालूम चलता है की सोने की मौजूदगी को लेकर वह उनको खुद विश्वास नही। वहीं उनके सांसद नरेश अग्रवाल सोने में राज्य सरकार की हिस्सेदारी की वकालत कर रहें है। एएसआई को केन्द्र सरकार ने धीरे धीरे खजाने को खोदने का आदेश दिए हैं। यह किला राजा राव राम बक्श का है जिन्हें 1857 में अग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। सपना यहां रहने वाले बाबा शोभन सरकार ने देखा है। उनके चेलों की मानें तो यह सपना सच होगा। बतौर शोभन सरकार भारत की गिरती अर्थव्यवस्था को इससे गति मिलेगी। मगर इस पूरे प्रकरण ने कई सवाल खड़े हैं। पहला क्या शोभन सरकार प्रसिद्धि पाने के लिए तो यह सब नहीं कर रहें हैं। ठीक वैसे की जैसे कई साल पहले कंुजीलाल ने अपने मौत की भविष्यवाणी की थी। दूसरा एक बाबा को सपने को केन्द्र और राज्य सरकार क्यों इतनी गंभीरता से ले रही है जबकि सरकार अंधविश्वास को रोकने के लिए जागरूकता की बात करती है।तीसरा अगर सरकार इस सपने को लेकर इतनी संजीदा है तो खुदाई 1 दिन में क्यों नहीं? दरअसल उत्तप्रदेश और केन्द्र सरकार की इसमें मिलिभगत दिखाई देती है। आज यानि 18 अक्टूबर को वीएचपी की संकल्प यात्रा है और राज्य सरकार ने इस यात्रा को गैरकानूनी घोषित किया हुआ है। दूसरा कल यानि 19 अक्टूबर को कानपुर में नरेन्द्र मोदी की रैली है। केन्द्र और यूपी सरकार को बैठे बठाये इस रैली से बनने वाले माहौल को कम करने का मौका मिल गया।
तीसरा केन्द्र में कोयला आवंटन मामले को लेकर पूर्व कोयला सचिव के प्रधानमंत्री को घसीटने के बाद कांग्रेस
की मुश्किल और बढ़ गई है। ऐसे में मीडिया का ध्यान बांटने के लिए सोच समझकर यह मिलिभगत है।
इन सबके के बीच मान लो किसी के सपने में आ जाए की देश में शीर्ष बड़े नेताओं के पैसे स्विस बैंक में है
तो क्या सरकार इसकी जांच करवाएगी। ऐसा लगता है की हिन्दी मीडिया की दुखती रग भी सरकारें पहचानने लगी है। प्राकृतिक आपदा में बहुगुणा 24 करोड़ मीडिया में उडा देते हैं। आखिर क्यों? बाबा की बात पर सरकार इतनी गंभीर क्यों?

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

प्रोसेसिंग क्षेत्र का सच?

राहुल गांधी जी उत्तप्रदेश को प्रोसेसिंग का हब बनाने चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने अमेठी यानि अपने संसदीय क्षेत्र को चुना। वैसे भी विधानसभा चुनाव में अमेठी में कांग्रेसी विधायकों का बुरा हाल हुआ। अब राहुल और सोनिया गांधी को चुनावी चिंता सताने लगी है। मगर इसे आप जो भी मानें राजनीति में असल मुददे हमेशा भटक जाते हैं? हमें क्या यह जानने का अधिकार नही कि देश में प्रोससिंग का क्या स्थिति है। भारत जैसा विशाल देश इस क्षेत्र में कहां टिकता है? क्यों इतने सालों के बाद भी आज तक हम पीछे हैं। आइये समझते हैं कि क्या है प्रोसेंसिंग क्षेत्र के हालात और वाकई यह किसान के जीवन में कैसे खुशहाली ला सकता है। कैसे यह रोजगार को बढ़ावा देगा और महिलाओं के लिए खासकर फायदेमंद हो सकता है। मगर एक प्रोसेंसिंग प्लांट अमेठी में लग गया और देश इस क्षेत्र में तरक्की कर लेगा यह सोचना बेमानी होगा। इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति जो है मगर बाकियों की तरह क्रियान्वयन के लिए जूझ रही है। भारत विश्व में प्रमुख खाद्य उत्पादक देश है। दूध दालों और चाय का विश्व में सबसे ज्यादा उत्पादन भारत में होता है।
जबकि फलों और सब्जियों के मामले में हमारा स्थान दूसरा है। मगर दुनिया के खाद्य बाजार में हमारी हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी कम है। हमारे देश में खाद्य प्रसंस्करण का स्तर 6 फीसदी से नीचे है। वही विकसित दशों में यह स्तर 60 से 80 फीसदी तक है। यहां तक की एशियाई और लातिन अमेरिकी दशों में यह 30 प्रतिशत से ज्यादा है। हालांकि सरकार अब इस उघोग की दशा और दिषा सुधारने में जुट गई है। इसी को ध्यान में रखकर 2005 में विजन 2015 नामक एक दस्तावेज तैयार किया गया है। इसके तहत जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थो के प्रसंस्करण का स्तर 6 से 20 फीसदी करने और मूल्य संवर्धन को 20 से 35 फीसदी तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। जानकार मानते है कि अगर ऐसा करने में हम सफल होते है तो विश्व
खाद्य बाजार में भारत की हिस्सेदारी 2 से बढकर तीन प्रतिशत हो जायेगी। बहरहाल 11 वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाये हैं। इनमें मेगा फूड पार्क, शीत नियंत्रण श्रंखला, मूल्य संवर्धन तथा बूचड़खानों के आुधनिकीकरण जैसे कदम अहम है। मगर एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में 50 हजार करोड़ की फल और सब्जियां सालाना बर्बाद हो जाती है। बहरहाल खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की ध्यान में रखकर मंत्रालय ने एक विज़न 2015 नामक दस्तावेज तैयार किया है। इस दस्तावेज के तहत 2015 तक इस क्षेत्र में 1 लाख करोड़ के निवेष की बात कही कई है। इसमें 45 हजार करोड़ रूपये निजि क्षेत्र से आने की बात कही है। साथ ही 50 हजार करोड़ का निवेष 2012 के अंत तक आयेगा। इस क्षेत्र में रोजगार की भी अभूतपूर्व संभावनाऐं हैं। जानकारों के मुताबिक अगर इस क्षेत्र में 1 करोड़ का निवेश होता है तो 18 लोंगों को प्रत्यक्ष रोजगार और 36 लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा । बहरहाल सरकार सरकार सामान्य क्षेत्र के लिए 50 लाख तक के उद्योग के लिए 25 फीसदी सब्सिडी और दुर्लभ क्षेत्रों के लिए 33 फीसदी सब्सिडी दे रही है। जानकार कि मानें तो इससे किसान की आय में भी बढोत्तरी होगी। मगर इसके लिए काम करने वाला चाहिए। चुनावों से पहले सपने हर कोई दिखाता है। फिर पांच साल बात आता है।यह भी लोकतंत्र की खूबसूरती है। शायद इसिलिए लोहिया ने कहा होगा, जिंदा कौमें 5 साल तक इंतजार नही करतीं?

तीसरे मोर्चे का राग

देश में तीसरे मोर्चे का राग नेताओं ने फिर अलापना शुरू कर दिया है। बीजेपी पहले ही इसे बरोजगार नेताओं का जमावड़ा बता चुकी है और इतिहास भारत में तीसरे मोर्चे की किसी भी संभावना को खारिज करता है। तो फिर राजनेता तीसरेमोर्चे का ख्याली पुलाव क्यों बनाने में समय गंवाते हैं। क्या मायावती अपने जीते जी मुलायम को मुख्यमंत्री बनने देंगी? क्या वामदल ममता को मुख्यमंत्री बनाएगें ? क्या डीएमके और एआइडीएमके कभी साथ साथ आ सकते हैं? नीतीश की संभावना को लालू बिगाड़ने में कोई कोर कसर बाकीं नही छोड़ेगे। अब रही बात नवीन पटनायक की या चंद्रबाबू नायडू की तो इन्हें बाहर से समर्थन कौन देगा। हां प्रधानमंत्री गैर यूपीए और गैर एनडीए का बन सकता है मगर इन्हें या बीजेपी बाहर से समर्थन करे या कांग्रेस। मगर बाहर से समर्थन करने में इन दोनों दलों का रिकार्ड बेहद खराब है। गठबंधन की राजनीति के माइबाप यह दोनों ही दल है। मगर दोनों दिशाहीन और अरोप प्रत्यारोप की राजनीति करने के अलावा कुछ नही जानते। ऐसे में बार बार तीसरे मोर्चे का राग अलापना जनता की आंखों में धूल फांकने से ज्यादा कुछ नही। यह तय है कि आने वाले चुनाव में भी खिचड़ी सरकार बनेगी। कोई यह कहते कि मेरे आने से सबकुछ बदल जाएगा तो हम एक कपोर कल्पना में जी रहें है। मैं फिर कहता हूं समाज का निर्माण हम करते है। इसलिए गांधी जी के उस बयान की यहां महत्वता बढ़ जाती है। विश्व में बदलाव के चिन्तन का रास्ता आप से होकर गुजरता है। यानि समस्याऐं हमने पैदा की हैं इसे ठीक करने का बीड़ा भी हमें ही उठाना होगा। पहला दूसरा तीसरा या चैथ मोर्चा कुछ नही कर सकता। यह देश सुधारों की बयार का राह देख रहा है मगर उसका रास्ता चुनाव सुधार से होकर निकलता है। इन सुधारों को नेताओं को अमलीजामा पहनाना है मगर अपनी
दुकानदारी को खुद भला ताला कौन लगाएगा। ऐसे में एक मात्र रास्ता जनता की शक्ति है। यह शक्तिपूंज जब तक उठ खड़ा नही होगा, कुछ नही होने वाला। यकिन मानिए आप चिल्ला- चिल्ला कर थक जाऐंगे मगर इनकी यानि संसद के कानों में जूं तक नही रेंगने वाली।

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

घोटाले ही घोटाले

पिछले कुछ सालों में हुए देश के घोटालों पर एक नजर आदर्श घोटाला - बोफोर्स घोटाला - कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स घोटाला - देवास-एंट्रिक्‍स घोटाला - रोजगार गारंटी योजना घोटाला - चारा घोटाला - गाजियाबाद भविष्‍य निधि घोटाला - शेयर घोटाला (हर्षद मेहता स्टॉक मार्केट स्कॅम) ई- आईपीएल घोटाला (इप्ल् स्कॅम) ज- प्राथमिक शिक्षक भर्ती घोटाला (जूनियर बेसिक ट्रेंड टीचर्स' रेक्रूटमेंट स्कॅम) क- केतन मेहता प्रतिभूति घोटाला (केतन पारेख स्टॉक मार्केट स्कॅम) ल- एलआईसी आवास घोटाला (लीक हाउसिंग स्कॅम) म- मधु कोड़ा घोटाला (मधु कोड़ा स्कॅम) न- नॉन-बॅंकिंग फाइनान्षियल कंपनीज़ स्कॅम ओ- ओरिएंटल बैंक घोटाला (ओरिएंटल बैंक स्कॅम) प- पंजाब सरकार के शिक्षा विभाग में घोटाला (पंजाब स्टेट काउन्सिल ऑफ एजुकेशन,

देवालय बनाम शौचालय का सच

आजकल बहस देवालय बनाम शौचालय पर चल रही है। कोई कहता है आस्था को ठेस पहुंची कोई कहता है किसी धर्म का अपमान है। मगर आजादी के इतने सालो के बाद भी 50 फीसदी से ज्यादा आबादी खुले में शौच जाने को मजबूर है। सरकारों ने कार्यक्रम का नाम तो बदल दिया मसलन 1986 राष्टीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम, 2002 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान और 2012 में इसे नाम दिया निर्मल भारत अभियान। मगर भारत को निर्मल करने में न जाने कितने साल और लग जाऐंगे। आजादी के 67 सालों के बाद अगर हम केवल 37.2 फीसदी घरों तक शौचालय पहुंचा पाऐं है तो इतनी विशाल आबादी तक पहुंचने में एक लंबा वक्त लगेगा। एक देश जो अपने को विकसित राष्ट बनाने की ओर अग्रसर है। अपनी विकास दर पर इतराता है। राज्यों के मुख्यमंत्री विकास का ढंगा पीटते है अगर वहां शौचालय तक का प्रबंध नही है तो उनके विकास के दावों को पोल अपने आप खुल जाती है। मसलन गुजरात में यह कवरेज  केवल 34.24 फीसदी है, बिहार में 18.61, झारखंड में 8.33 फीसदी, मध्यप्रदेश 13.58 फीसदी, महाराष्ट 44.20 फीसदी, ओडिशा 15.32 फीसदी, राजस्थान 20.13 फीसदी तमीलनाडू 26.73 फीसदी, उत्तरप्रदेश 22.87 फीसदी पश्चिम बंगाल 48.70 फीसदी और छत्तीसगढ़ 14.85 फीसदी घरों में शौचालय का प्रबंध है। इनमें से ज्यादातर राज्यों के मुख्यमंत्री अपने राज्यों के विकास का तारीफ करते नही अघाते।  जिन राज्यों ने अच्छा काम किया है उसमें सिक्किम सहित उत्तरपूर्व के ज्यादातर राज्य के साथ साथ गोवा और पंजाब शामिल हैं । दिल्ली और चंडीगढ़ में भी यह समस्या का समाधान काफी हर तक निकाला जा चुका है। आज सच्चाई यह है कि विश्व में खुले में शौच करने वाले लोगों में 60 फीसदी भारतीय हैं। इस सबसे पूरे विश्व मे भारत की गंदी तस्वीर उभरती है। यह अब सिद्ध हो चुका है कि गंदे शौचालयों के कारण स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान होता है। भारत में हर साल 5 साल से छोटे 4-5 लाख बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं और इसका प्रमुख कारण है गंदगी के कारण फैलने वाला हैजा तथा अन्य संक्रामक रोग। नये साक्ष्य सामने आये हैं कि साफ-सफाई न होने के कारण भारतीय बच्चों की लम्बाई कम होती जा रही है और उनकी आर्थिक उत्पादकता में कमी आ रही है। चिकित्सा अनुसंधानों से साफ हो गया है कि कुपोषण, जिसे प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय शर्म कहा है, का सीधा संबंध साफ-सफाई की खराब व्यवस्था और गंदे वातावरण से है। खुले में मल त्याग महिलाओं का अपमान है और उनके स्वाभिमान पर खुली चोट है। इससे पता चलता है कि साफ-सफाई केवल स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा ही नहीं है, बल्कि यह जीवन, जीविकोपार्जन और इन सबसे ऊपर मानवीय गरिमा को भी प्रभावित करता है।

इस समस्या के समाधान के लिए सरकार सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चला रही है। इसके तहत घरों, स्कूलों आदि में शौचालयों का निर्माण कराया जाता है साथ ही गावों में मल व्ययन एवं कचरा प्रबंधन भी किया जाता है इस कार्यक्रम को आंशिक सफलता ही मिली है। अब भी भारत में अस्वच्छता, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में, गंभीर चुनौती बनी हुई है। भारत की कुल ढाई लाख ग्राम पंचायतों में से महज 28,000 ही निर्मल ग्राम बन पाई है। निर्मल ग्राम से आशय ऐसे गांव से है जहां खुले में शौच पूरी तरह से बंद हो गया है। 2011 की जनगणना के अनुसार, केवल 32.7 फीसदी घरों में ही शौचालयों की सुविधा उपलब्ध है। अगर हमें इस दिशा में सफलता हासिल करनी है तो अधिक तेजी से अधिक काम करना होगा। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, निर्मल भारत अभियान (एनबीए) शुरू किया गया है। स्वच्छता की दिशा में एनबीए एक नया अध्याय है जो 2022 तक भारत में खुले में शौच पर पूरी तरह रोक लगाने में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान में मददगार साबित होगा। इस दिशा में कुछ राज्यों ने तेजी से प्रगति की है। सिक्किम भारत का सबसे पहला खुले में शौच मुक्त प्रदेश बन गया है और नवम्बर, 2012 तक केरल भी इस लक्ष्य को हासिल कर लेने की बात कही गई थी।  संभवतः 2014 तक हिमाचल प्रदेश भी यह चमत्कार कर दिखाएगा। हरियाणा में करीब 25 फीसदी तथा महाराष्ट्र में एक तिहाई ग्राम पंचायतें निर्मल ग्राम पंचायतों का दर्जा हासिल कर चुकी हैं। निर्मल ग्राम अभियान में नया क्या है? सर्वप्रथम इस साल साफ-सफाई के लिए, बजट प्रावधान करीब दो गुना कर दिया गया है। इस साल इस मद के लिए 3500 करोड़ रु. का प्रावधान रखा गया है। 12वीं योजना (2012-17) में इसे चार गुना करने का प्रस्ताव है। नए वित्तीय प्रावधानों से इस चुनौती से निपटने के लिए नए संकल्प का संकेत मिलता है। अच्छी किस्म के शौचालयों के निर्माण को प्रोत्साहन देने के लिए घरेलू शौचालयों के निर्माण में अनुदान की राशि 3200 रु. से बढ़ाकर 10,000 रु. कर दी गई है। इसमें 4500 रु. तक की वह अतिरिक्त राशि भी शामिल है जो मनरेगा के तहत प्रदान की जाती है। दूसरे, निर्मल भारत अभियान से पुरानी नीति की खामी दूर कर दी गई है जिसमें किसी पंचायत में कुछ चुनिंदा घरों को ही अनुदान दिया जाता था। निर्मल भारत अभियान में पूरी पंचायत को ही स्वच्छता की राह पर मोड़ दिया गया है। यानी चुनी हुई पंचायत में समस्त घरों में शौचालय सुनिश्चित किए जाएंगे और इनकी निगरानी का काम पंचायतों को सौंप दिया जाएगा। 


निर्मल भारत अभियान की चौथी खूबी यह है कि इसमें प्रोत्साहन आधारित उपायों पर जोर दिया गया है, जो पंचायतें निर्मल ग्राम पंचायत का दर्जा हासिल कर लेती हैं, उन्हें ग्राम पुरस्कार के रूप में नकद राशि दी जाती है। अभियान की सफलता में इस पहलू की अहम भूमिका रही है। जो पंचायतें कम से कम 6 माह तक निर्मल ग्राम पंचायत का दर्जा बनाए रखती हैं, उन्हें पुरस्कार की दूसरी किस्त का भुगतान किया जाता है। यह प्रावधान भी रखा गया है कि लक्ष्य में चूकने वाली पंचायतों से पुरस्कार वापस ले लिया जाएगा। एनबीए में पांचवी नवीनता यह है कि इसमें जल, शौच, स्वच्छता की एकीकृत योजना बनी गई है। बेहतर परिणामों के लिए इन तीनों को आपस में जोड़ना बेहद जरूरी था। निर्मल ग्राम के रूप में चिन्हित पंचायतों को राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के तहत जलापूर्ति में वरीयता दी जाएगी। इसके अतिरिक्त, जिन पंचायतों में तमाम लोगों के लिए जल की उपलब्धता है उन्हें निर्मल ग्राम के रूप में चुनने में वरीयता मिलेगी। एनबीए में सतत निगरानी और मूल्यांकन की व्यवस्था भी सुनिश्चित की गई है। इसके आधार पर जमीनी हालात की सही सूचना हासिल की जा सकती है। हर दूसरे वर्ष स्वतंत्र मूल्यांकन अनिवार्य बनाया गया है। राष्ट्रीय स्तर के निगरानीकर्ताओं द्वारा वास्तविक मूल्यांकन और इसके परिणामों को ऑनलाइन जारी करने का भी प्रस्ताव है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम जीत की घोषणा कर रहे हैं। सफलता के लिए बहुत सी परम्पराओं और कुरीतियों को तोड़ना होगा। विभिन्न समुदायों की भागीदारी बढ़ानी होगी और सरकार को हर स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे। महात्मा गांधी ने कहा था, जन सुविधाएं स्वतंत्रता से भी महत्वपूर्ण हैं। यह महात्मा गांधी के स्वप्न को साकार करने का समय है। तभी हम खुले में शौच करने की शर्मिंदगी से मुक्त होकर भारत को सही अर्थ में स्वतंत्रता की ओर ले जाएंगे। इसका यह मतलब नहीं है कि हम जीत की घोषणा कर रहे हैं। सफलता के लिए बहुत सी परम्पराओं और कुरीतियों को तोड़ना होगा। विभिन्न समुदायों की भागीदारी बढ़ानी होगी और सरकार को हर स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे। महात्मा गांधी ने कहा था, जन सुविधाएं स्वतंत्रता से भी महत्वपूर्ण हैं। यह महात्मा गांधी के स्वप्न को साकार करने का समय है। तभी हम खुले में शौच करने की शर्मिंदगी से मुक्त होकर भारत को सही अर्थ में स्वतंत्रता की ओर ले जाएंगे।