बुधवार, 20 जुलाई 2011

कलियुग की महाभारत

कौन कौरव, पांडव कौन, टूटा सवाल है।
क्योंकि दोनो ओर शकुनी का कूट जाल है।
धर्मराज ने छोड़ी नही, जुए की लत
हर पंचायत में पांचाली अपमानित है
आज बिना श्रीकृष्ण के महाभारत होना है
कोई राजा बने, रंक को तो रोना है,
रंक को तो रोना है

किसान और खेती की सुध कौन लेगा

किसान देश की आत्मा है। वह राजनीति करने का विषय नही है। क्योंकि उसकी समृद्धि देश के विकास का मूलाधार है। मूल प्रश्न यह है कि जहां 60 फीसदी आबादी खेती पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर है। जो किसान 1 अरब से ज्यादा की आबादी और 50 करोड़ पशुधन के भूख का इंतजाम करते हैं, उनके प्रति राजनीति कितनी संवेदनशील है। आज वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ी हुई है। हमारा देश खाद्य सुरक्षा कानून पारित करने की ओर अग्रसर है। मगर किसान और खेत किस दौर से गुजर रहे है इस पर गंभीरता कहां है। अगर गंभीरता होती तो दो फसली जमीन का अधिग्रहण नही होता। अहम सवाल यह है कि हम भविष्य से छिपे खतरे से अनजान है या जानते हुए भी उसके प्रति सजक नही। वह भी तब जब एनएसएसओ के सर्वेक्षण के मुताबिक 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोड़ना चाहते हैं। 1981 से 2001 के बीच 84 लाख किसान खेती छोड़ चुके हंै। आखिर यह परिस्थिति क्यों पैदा हुई। आखिर क्यों 1997 से लेकर 2007 तक 2 लाख से ज्यादा किसानों को मौत को गले लगाना पड़ा और यह सिलसिला अब भी बरकरार है। क्या इसके लिए हमारी नीति निधार्रक जिम्मेदार नही हैं। भारत में विष्व की 4 फीसदी जल उपल्ब्धता है, 2.3 फीसदी जमीन है मगर जनसंख्या के मामले में हमारी हिस्सेादारी 16 फीसदी के आसपास है। यानि हमारे पास सीमित मात्रा में संसाधान उपलब्ध हैं और इसी पर हमारी खाद्य सुरक्षा निर्भर है। आज जिस तरह सार्वजनिक उददेष्यों के नाम पर जमीन का अधिग्रहण हो रहा है वह हमारे भविष्य पर ग्रहण लगा रहा है। क्योंकि हमारे देष में करोड़ों उपाय करने का बावजूद कृषि का रकबा पिछले तीन दशकों में घटा है। 1980-81 में 185 मिलीयन हेक्टेयर खेती योग्य भूमि आज घटकर 183 हेक्टेयर मीलियन हेक्टेयर हो गई है। भूजल का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। देश में 60 फीसदी सिंचाई और 80 फीसदी पीने के लिए हम भूजल का उपयोग करते है। पंजाब के दक्षिण पश्चिम प्रांत में जहां भूजल स्तर 80 फुट था अब वह 30 फुट तक नीचे आ गया है। इतना ही नही उवर्रकों के अंधाुधंध प्रयोग से पानी में आसेर्निक की मात्रा के बढ़ने से न सिर्फ जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित हुई है बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। भारत सरकार प्रथम हरित क्रांति का विस्तार पूर्वी क्षेत्रों मसलन बिहार, छत्तीसगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश, ओडीसा और पष्चिम बंगाल में बात कर रही है। मगर इन क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ाने के लिए महज 400 करोड़ के आवंटन से कुछ नही होगा। हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता विकसित देशों के मुकाबले में काफी कम है। मसलन भारत में गेहॅंू की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 1127 किलोग्राम है जबकि अमेरिका में 2825 और  चीन 4455 किलोग्राम है। जबकि चावल के प्रति हेक्टयर उत्पादकता भारत में 3124 किलोग्राम जबकि अमेरिका और चीन में यह 7694 और 6265 किलोग्राम है। इससे जाहिर होता है कि उत्पादकता बढ़ाने की संभावनाऐं बड़े पैमाने में हमारे यहां मौजूद हैं। उवर्रकों के इस्तेमाल में भी हम बहुत पीछे है। भारत में प्रति हेक्टेयर जमीन पर 117.07 किलोग्राम उवर्रकेां का इस्तेमाल होता है जबकि चीन में यह मात्रा 289.10, इजिप्ट में 555.10 और बंग्लादेष में 197.6 किलोग्राम है। भारत में खेती की उर्वरा शक्ति लगातार घट रही है। वैज्ञानिक इसकी वजह उवर्रकों के असंतुलित इस्तेमाल को मानते हंै। एनपीके का आदर्श अनुपात 4ः2ः1 है, मगर भारत में यह 6ः2ः1 के अनुपात में इस्तेमाल होता हैं। भारत के उवर्रकों के इस्तेमाल की तस्वीर बताने के लिए यह आंकड़ा पर्याप्त है। इसके मुताबिक भारत में 2001 से 2008 तक उत्पादन 8.37 फीसदी बढ़ा, उत्पादकता 6.92 बढ़ी, मगर उवर्रकों में मिलने वाली सब्सिडी का बिल 214 फीसदी बढ़ गया। इतना ही नही इस क्षेत्र में 2002 के बाद कोई निवेश नहीं हुआ। नाइट्रोजन के क्षेत्र में 1999 से कोई निवेश नही तो फौस्फेट के क्षेत्र में 2002 कोई नया निवेश नही हुआ है। बहरहाल ग्यारवीं योजना में कृषि विकास दर का लक्ष्य 4 फीसदी रखा गया था। जिसे अब 12 योजना में भी जारी रखने की बात कही गयी है। अर्थषाथ्स्त्रयों की अगर मानें तो 10 फीसदी विकास दर पाने का सपना तब तक पूरा नही हो सकता जब तक कृषि में 4 फीसदी की सालाना विकास दर को हासिल नही किया जाता। इसके अलावा किसान को कृषि ऋण आसान शर्तो पर मिले। मौजूदा साल में केन्द्र सरकार ने 475000 करोड़ कृषि ऋण का लक्ष्य रखा है। इसमें उन किसानों को ब्याज में 3 फीसदी सब्सिडी मिलेगी जो समय से अपने ऋण को चुकता कर देगा। यह ऋण 3 लाख तक की राशि के लिए होगा। गौर करने लायक यह है कि कृषि में लगने वाली लागत लगातार बड़ रही है। बीज, डीजल, उवर्रक के दाम बढ़ने से किसान की मुश्किलें बड़ गई है लिहाजा 3 लाख के ऋण सीमा को 5 लाख किया जाना चाहिए। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए की किसान को ऋण लेने में परेषानी का सामना न करना पड़े। गौरतलब है कि कृषि सुधार के लिए बनाया गया राष्टीय किसान आयोग ने भी किसानों को 4 फीसदी ब्याज पर कर्ज देने की सिफारिश की है। किसानों ने बड़े पैमाने में साहूकारों से कर्ज ले रखा है जो भारी रकम गरीब किसानों से वसूलते है। भारत सरकार ने इस पर एक समिति का गठन किया था मगर उसका क्या हुआ किसी को नही मालूम है जबकि किसान की आत्महत्या की बड़ी वजह साहूकारों से लिया गया कर्ज है। कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौति बदलती तकनीक का किसानों तक न पहुंचना है बावजूद इसके जब हर जिले में कृषि विज्ञान केन्द्र मौजूद है। इन केन्द्रों ने अपनी स्थापना के बाद इन विज्ञान केन्द्रों ने क्या नए अनुसंधान किए है, इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। क्योंकि जरूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक द्धारा किये गए अनुसंधान का फायदा किसान तक पहॅंुचे। साथ ही कृषि अनुसंधान के लिए ज्यादा धन खर्च किये जाने की जरूरत है। वर्तमान में हम महज .70 फीसदी इस कार्य में खर्च कर रहे है जबकि संसद की स्थाई समिति ने इसे जीडीपी के 3 फीसदी तक करने का सुझाव दिया है। कृषि मंत्रालय के अग्रिम अनुमान के मुताबिक इस बार रिकार्ड तोड़ उत्पादन होगा मगर भंडारण की हमारे देश में क्या व्यवस्था है यह बात किसी से छिपी नही है। केन्द्र और राज्य सभी इसके लिए दोषी है। विडम्बना देखिए हमारे देश में बड़ी आबादी दो वक्त की रोटी के प्रबंध में मारी- मारी फिरती है और किसान की मेहनत से उगाया गया खाद्यान्न खुले आसामान के नीचे सड़ता है। आज भंडारण के क्षेत्र में कुछ बड़ी पहल किये जाने की जरूरत है। बहरहाल किसी भी देश में लिए उसकी खाद्यान्न सुरक्षा सर्वोच्च होती चाहिए। यह सिर्फ कागजों और बयानों में ही नही बल्कि इसकी झलक जमीन पर भी दिखनी चाहिए।