मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

108 अपातकालीन सेवा(भाग एक)

भारत में सरकारी योजनाओं का रिकार्ड बदनाम रहा है। योजनाओं का क्रियान्यवयन हमेशा सवालों के घेरे में रहा है। मगर उतराखण्ड में 108 अपातकालिन सेवा का क्रियान्वयन बेहतरीन रहा है। मैनें खुद उतराखण्ड में जाकर इस योजना के प्रति लोगों के उत्साह को महसूस किया है। सबसे बड़ी बात की योजना में तकनीक का बेहतरीन इस्तेमाल है। कह सकते हैं कि यह एक अनोखा नीजि सावर्जनिक भागीदारी के तहत चलते वाल जबरदस्त कार्यक्रम है। इस पहले भाग में इस सेवा के बारे में जानते हैं। 108  अपातकालीन सेवा। दुर्घटना की स्थिति में आपका सुरक्षा कवच। पहाडी राज्य खासकर उत्तराखंड के लिए किसी वरदान से कम नही। योजना की उम्र महज तीन साल । मगर कारनामों की एक लम्बी फेहरिस्त। उपलब्धियो को देख 10 साल का समय भी बौना लगने लगता है। कई रिकार्ड तोड़ चुकी आज यह अंबुलेंस सेवा न सिर्फ कामयाब है, बल्कि राज्य के स्वास्थ्य क्षेत्र की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। खासकर पहाड़ी इलाकों में रह रहे लोग इस सेवा का भरपूर लाभ उठा रहे है। अब पेड़ से गिरकर किसी महिला की इलाज के अभाव में मौत नही होती। अब जंगली जानवर का शिकार बने घायल व्यक्ति को पलक झपकते ही प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध होती है। बदलाव बड़े पैमाने पर आया है। पहले बिना इलाज के कइ जाने चली जाती थी। कारण अस्पताल तक का सफर घंटों का होता था। सोचकर ही दिमाग थक जाता था। मगर आज हालात बदल चुके हैं। अब 108 को फोन लगायें, पलक झपकते ही सायरन बजाती यह एंबुलेंस सेवा आप तक पहुंच जायेगी। आज से लगभग तीन साल पहले 8 मार्च 2008 को जीवीके ईएमआरआई और उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग के के बीच इस सेवा को लेकर समझौता हुआ। उत्तराखंड में फिलहाल इस सेवा की 108 गाडियां हैं। यह सेवा निजि सार्वजनिक भागीदारी के तहत चलती है। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां समझौते का मकसद लाभ कमाना नही बल्कि दुर्गम स्थानों में प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाऐं मुहैया कराना है।