सोमवार, 27 सितंबर 2010

एशियाड से राष्ट्रमण्डल तक

एशियाड से राष्ट्रमण्डल तक के 28 साल के इस सफरनामे में भारत या कहें दिल्ली काफी बदल चुकी है। देश की राजधानी अब 19वें राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है। इन खेलों की मेजबानी 2003 में मिली जब एनडीए सरकार केन्द्र में थी। 2004 में केन्द्र में यूपीए सरकार काबिज हुई जो अपनी दूसरी पारी खेल रही है। 3 से 14 तारीख के बीच होने वाले इन खेलों में भारत खासकर हम सभी को अपने खिलाड़ियों से खासा उम्मीद है। 71 देश के 7000 से ज्यादा खिलाडी इसमें भाग लेंगे जिसमें 17 खेल स्पर्धाऐं होनी है। पर्यटन के लिहाज से 20 लाख से ज्यादा पर्यटकों के आने की संभावनाऐं हैं। इन खेलों के लिए 3 नए स्टेडियम तैयार किये गए है बाकियों में सुधार किया गया है। समय से काम नही किए जाने और कथित भष्टाचार के चलते खेलो की तैयारियां पर कई सवाल उठे। जबकि एशियाड मेजबानी भारत को 1977 में मिली मगर उस समय प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह ने इन खेलों के आयोजन के लिए मना कर दिया। मगर बाद में इन्दिरा गांधी के वापस सत्ता में लौटने के महज 16 महिनों में खेल से जुडे़ सारे निर्माण कार्य कराये गए। कुल 18 स्टेडियमों में 8 नए थे और बाकी में सुधार किया गया था। 33 देशों ने इस आयोजन में भाग लिया था। 4500 से ज्यादा एथलिटों ने इसमें भाग लिया। अगर अब तक के 18 राष्ट्रमण्डल की बात की जाए तो यह सबसे महंगा आयोजन होना जा रहा है। हालांकि दिल्ली सरकार ने ढांचागत विकास में भी अच्छा खासा खर्च किया है।
राष्ट्रमण्डल खेल का खर्च
भारत            71000 करोड़ रूपये
मेलबर्न           5200 करोड़ रूपये
मेंचेस्टर          2400 करोड़ रूपये
2014 में ग्लास्गो में होन वाले राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन का बजट भी 2400 करोड़ के आसपास ही रखा गया है। भारत में इस खेल के महंगे होने के पीछे काम  के शुरूआत में होने वाली देरी और भ्रष्टाचार है। बहरहाल इस समय हर भारतवासी इस खेल के सफल आयोजन की कामना कर रहा है। मगर खेल खत्म होने के बाद सरकार की असली अग्नि परीक्षा होगी। अगर सरकार कथित भ्रष्टाचार में लिप्त लोंगो को जेल में नही डालेगी तो यह हम सब के मुंह पर तमाचा होगा।

रविवार, 12 सितंबर 2010

मनरेगा लाइव

बरांबकी उन 200 जिलों में से एक था जिसे साल 2006 में महात्मा गांधी नरेगा के तहत चुना गया। यहां योजना को लागू हुए चार साल से ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान यहां कई कार्य कराये गए है। योजना का जमीन में हाल जानने के लिए सबसे पहले हम पहुंचे नन्दकला गांव में। इस गांव की कुल आबादी 1241 है। जिसमें 15 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं। गांव पहुंचते ही हमारी मुलाकात यहां के प्रधान सूर्यप्रकाश सिंह वर्मा से हुई। प्रधान जी से जब हमने मनरेगा के तहत कराये गए निर्माण कार्यो से जुड़ा सवाल पूछा तो बिना रूके पिछले चार सालों में करोये गए सभी कामों को बयां कर दिया । कराये गए कामों की फेहरिस्त भी बड़ी लम्बी मसलन 4 तालाब, ढाई किलोमीटर सम्पर्क मार्ग, 2200 मीटर खड़ंजे का निर्माण, वृक्षारोपण और दलितों के खेत का समतलीकरण। प्रधान जी नरेगा की सान में एक के बाद एक कसीदे पढ़ते चले गए। मगर जैसे ही बात 60 और 40 के अनुपात की आई तो झठ से बोल दिया कि इसमें बदलाव की जरूरत है। यहां 60 और 40 के अनुपात से मतलब यह है कि येाजना के तहत कुल बजट का 40 फीसदी हिस्सा मजदूरी पर और बाकी सामग्री में खर्च करने का प्रावधान है। इसी गांव में हमारी बात हुई रेश्मावती, बालजती और ममता देवी से। वो इसी गांव में रहती है। खुश है कि इस योजना के कारण काम की तलाश में अब दर दर नही भटकना पड़ता है। आवेदन करने पर गांव में ही काम मिला जाता है। मगर जब हमने उनसे पूछा की क्या मजदूरी समय पर मिलती है। तो वह बिफर उठती हैं। ऐसा की कुछ कहना था इस गांव के ही रहने वाले सन्दीप का। उनकी मानें तो काम तो आसानी से मिला जाता है मगर मजदूरी पाने के लिए बैंकों के बार बार चक्कर लगाने पड़ते है। मजदूरी भुगतान में हो रही देरी का जिक्र जब हमने प्रधानजी से किया तो उन्होनें बिना देरी किये सारा ठीकरा बैंक के सर फोड़ दिया। योजना की हकीकत जानने के लिए हमारा अगला पड़ाव था टाण्डा ग्राम पंचायत। यहां हमें मालूम चला कि पास में ही मनरेगा के तहत खड़ंजे का निर्माण किया जा रहा है। पूछते पाछते आखिरकार हम उस जगह पर पहुंच गए। रमा कान्त मौर्य पिछले 24 सालों से इस गांव के प्रधान है। प्रधान जी ने कागजी काम पक्का कर रखा था। बकायदा वह यह भी कहते है कि पारदर्शिता के लिए हर ग्राम प्रधान केा इसी तरह अपनी फाइल तैयार करती चाहिए। सबूत के तौर पर हर काम की कई फोटों । अपने ग्रामसभा में कराये का सारे कामों की उन्होने एक एक कर सारी फोटो हमें दिखाई। योजना के तहत उन्होने गांव में सीवर लाइन भी डलवाई है। महात्मा गांधी नरेगा में  सबसे  ज्यादा तालाबों का निर्माण कराया गया है। जब हमने जानना चाहा की इतने सारे तालाब खुदवाने के पीछे क्या वहज है। जो सारे प्रधानों के जवाब अलग अलग थे। अब सवाल था कि मजदूरी भुगतान में देरी की क्या वजह है। इसका पता लगाने के लिए हमारी टीम पहुंची मोहम्दपुर खाला शाखा में। मालूम चला का मर्ज बडा़ गहरा है। कहानी एक अनार सौ बीमार वाली है। 53 गांवों का यह इकलौता बैंक अपनी कहानी खुद बयां कर रहा था। बैंक में काम करने वाले कर्मचारियों गिनती के चार। वुद्धास्था पेंशन योजना, स्कालरशिप के तहत मिलने वाली राशि, किसान क्रेडिट कार्ड और रोजाना के लेने देन से बैंक में पहले की बहुत काम था। ऊपर से मनरेगा येाजना के बाद हालात और खराब हो गए हैं। मनरेगा के तहत नए निर्माण कार्य के लिए योजना तैयार करने का जिम्मा पंचायत का होता है। इसके बाद ब्लॉक से इस काम की मंजूरी लेनी पड़ती है। इस दौरान योजना की लागत का आंकलन किया जाता है। इसके लिए बकायदा तकनीकी सहायक की जरूरत होती है। मगर ब्लाक स्तर पर तकनीकि सहायकों की भारी कमी है। यही कारण है कि कार्य की शुारूआत से मजदूरी मिलने तक भारी देरी हो रही है। अकेले बाराबंकी के फतेहपुर ब्लॉक के तहत 86 गांव आते है। बीते अप्रैल तक यहां केवल दो जेई और दो तकनीकी सहायक थे। लिहाजा कानून के मुताबिक न 15 दिन में रोजगार मिला पा रहा है और न ही समय से मजदूरी। मगर आज यहां हालात सुधरे है। अकेले फतेहपुर ब्लॉक में 17 तकनीकी सहायकों की नई नियुक्ति की गई है। एक दिलचस्प बात और जानने को मिली कि मनरेगा के तहत मिलने वाले पैसों से ज्यादातर लोगों ने मोबाइल खरीदे है। एक परिवार से मिलने पर मालूम चला की गरीबी के बावजूद घर में तीन मोबाइल है। महात्मा गांधी नरेगा देश की पहली ऐसी योजना है जिसमें सोशल आडिट का प्रावधान है। जिला स्तर पर योजना की पारदर्शिता की देखरेख के लिए स्थानीय सांसदों के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया है। साल में राज्य और जिला स्तर में कितनी बैठकें होनी चाहिए इसके लिए केन्द्र ने बकायदा निर्देश जारी किए गए है। एक बात तय है अगर सांसद इस योजना के क्रियान्वयन में रूची ले तो येाजना में हो रहे भष्टाचार पर काफी हद तक रोक लगाई जा सकती हैं।