गुरुवार, 28 जून 2012

कालाधन


आखिरकार काले धन पर सरकार लम्बे इंतजार के बाद श्वेत पत्र लेकर आई। इस श्वेत पत्र में कहा गया है कि स्वीस बैंक एसोशियेशन के मुताबिक विदेशी बैकों में 1500 बिलियन से 1900 बिलियन यूएस डालर के बीच काला धन हो सकता है। ग्लोबल  फाइनेंशनल इंटी्रगिटी के मुताबिक 1948 से लेकर 2008 तक 213 डालर यूएस बिलियन विदेशी बैकों में जमा कराए गए  जिसकी कीमत आज 462 बिलियन यूएस डालर के आसपास है। वहीं बीजेपी टास्क फोर्स के मुताबिक यह धन 500 से 1400 बिलियन यूएस डालर के बीच है। बहरहाल सरकार ने कितना पैसा विदेशी बैकों में जमा है इसको जानने के लिए नेशलन इंस्टिीटीटयूट और पब्लिक फाइनेंस पालिसी,  नेशलन इंस्टीटयूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट और नेशनल काउंसिल फार अप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च को यह जिम्मा सौंपा है। सरकार ने इस  श्वेत पत्र में काले धन को देश में लाने के लिए उठाए गए कदमों का जिक्र भी किया है। मसलन सरकार पांच सूत्रीय एजेंडा के साथ आगे  चल रही है। सवाल यह है की जानकारी कैसे प्राप्त की जा सकती है। एक और सवाल में यहां उठाना चाहता हंू कि एक दौर में 
हाइलेवल टैक्सेशन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था। 1991 के बाद हम इसमें सुधार करते गए मगर आंकड़े यह कहते है 1991 के बाद काल धन ज्यादा पैदा हुआ। बहरहाल डबल टैक्सेसन अवईडेंस एग्रीमेंट के सहारे सरकार जानकारी जुटाने में लगी है। साथ ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी इन मुददों को उठाया गया है। इसमें अक्टूबर 2008 लंदन समिट में जी- 20 में इस मुददे को उठाया गया। साथ ही स्वीजरलैंड क साथ हमारा एग्रमेंट है। अक्टूबर 2011 में यह रैटीफाई हुआ। सरकार के मुताबिक यह जानकारी 1 अपै्रल 2011 से  प्राप्त होगी। इस श्वेत पत्र में कालाधन कैसे बनता है इसका भी जिक्र है। डरटी मनी जो दवाओं  और मादक पदार्थ की तस्करी से पैदा हुए है  उसपर रोक लगाने के लिए नार्काेटिक एण्ड सादकोटेपिक सब्सटेंस बिल लोकसभा में पेश हो चुका है। जहां तक नाम जो हमें प्राप्त हुए  है उनको सार्वजनिक करने को लेकर सरकार ने तर्क दिया है कि जो नाम हमारे पास उपलब्ध है उनको सार्वजनक करने पर आगे हमें  हमें किसी भी तरह की जानकारी नही मिल पाएगी। बहरहाल सरकार ने 66000 करोड रूपये का पता लगाया है। सरकार ने इनकम टैक्स डिर्पाटमेंट के तहत एक क्रीमिनल विंग बनाया है जो देश में कालेधन के प्रवाह को लेकर नजर रखेगा। इस समय देश में  लड़ाई कर चोर और कर कानून के बीच की है। हमारे पास करचोरो को पकड़ने के लिए पर्याप्त कानून का अभाव है या उसे लागू वाली एजेंसियों में दमखम का अभाव। बात चाहे कुछ भी हो मगर कालधन इस देश की अर्थव्यवस्था को खोखला कर रहा है। ऐसा लगता है की देश में कालेधन की एक समानान्तर सत्ता चल रही है। काले धन के मामले में हमें दो सवालों का जवाब तलाशना हैं? कैसे कालेधन को वापस लाया जाए?  और कैसे कालेधन के प्रसार पर रोक लगाई जाए? जवाब एक ही है कालेधन को देश में लाकर इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर सारा पैसा विकास कार्यो में लगाया जाए।

कंपनी विधेयक 2011


हमारे देश का कंपनी एक्ट 1956 का है। इसे आए हुए 55 साल बीत चुके हैं। इसमें अब तक 24 संशोधन हो चुके है। सरकार गहन विमर्श के बाद इसमें बदलाव करके नया कंपनी विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है।वर्तमान दौर में राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य में व्यापक  बदलाव देखने को मिले है, और आगे भी यह बदलाव जारी रहेंगे। इस लिहाज से कंपनी एक्ट में बदलाव जरूरी था। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1956 में कंपनियों की संख्या 30 हजार थी जो आज बढ़कर 30 लाख से उपर हो गई है।  नए बिल में सीएसआर और कारपोरेट गर्वेनेंस का खासतौर पर जिक्र किया गया है। अगर बिल की खास बातों पर अगर नजर मारेतो माइनोरिटी शेयरधारक को संरक्षण देना, बोर्ड में एक महिला डायरेक्टर का होना आवश्यक, और आडिटर का रोटेशन जैसी बातें इसमें अहम हैं।फिलाहाल कंपनी विधेयक 2011 को दुबारा स्थायी समिति के पास भेजा गया है। विधेयक के प्रारूप के मुताबिक कंपनियों के लिए अपने दस्तावेजों को इलोक्ट्रेनिक फार्म में रखना अनिवार्य किया जा रहा है। साथ ही सीएसआर को भी अनिवार्य बना दिया गया है। मतलब यह कंपनियां लाभ का 2 फीसदी हिस्सा सामाजिक कार्यो में लगाऐंगी। कहा यह भी जा रहा है की सत्यम से सबक लेकर भी सरकार बहुत कुछ बदलाव कर रही है मसलन आडिटर की स्वतंत्रता जरूरी बहुत जरूरी है। अभी पब्लिक सेक्टर कंपनियों के लिए अपने लाभ का 5 फीसदी सीएसआर के तौर पर देते थे। अब कहा जा रहा है की सीएसआर के मामले में कंपनियां खुद फैसला करें और अगर वह ऐसा नही कर पाते तो इसका कारण बताऐं। अभी तक भारतीय कंपनी का विलय विदेशी कंपनी के साथ नही हो सकता था। हां विदेशी कंपनियों का विलय भारतीय कंपनियों के साथ हो सकता है। मतलब कोरस का विलय टाटा स्टील में हो सकता है मगर टाटा स्टील का विलय कोरस में नही हो सकता। इसमें संशोधन किया गया है। साथ ही इस बिल में इन्साइडर टेड्रिंग को अपराध की श्रेणी में लाया गया है।

देख तमाशा कुर्सी का- भाग 1


जेडीयू का प्रणब मुखजी को समर्थन देना व्यक्तिगत है या पार्टी की सोझी समझी रणनीति का हिस्सा। कुछ लोग इसे बिहार में मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की मात्र कवायद के तौर पर देख रहे हैं साथ ही कुछ का कहना है की जेडीयू और बीजेपी की मित्रता अपने आखिरी पड़ाव में है। जहां तक मुस्लिम वोट बैंक का सवाल है 2010 के विधानसभा चुनावों में उन्हें अच्छा वोट मिला। जहां तक मुस्लिम वोटों का बिहार में सवाल है 1977 और 1989 में कांग्रेस के खिलाफ पड़ा। मतलब इसके 1989 तक कांग्रेस इनके वोटों की चैंपियन रही। 1989 के बाद 2005 तक लालू प्रसाद यादव को यह वोट पड़ा। इसके बाद नीतिश कुमार इसे कई मायने मेंअपने पक्ष में करने में सफल रहे। अब सवाल यह कि जेडीयू मोदी पर इतनी हमलावर क्यों। क्या नीतिश कुमार भी प्रधानमंत्री का ख्वाब पाले हुए है। जैसा ख्वाब ममता जयललितामुलायम और मायावती पाले हुए है। मगर यह कैसे मुमकिन होगा क्योंकि इन क्षत्रपों का दबदबा अपने राज्यों से बाहर नही है। वोट प्रतिशत के हिसाब से मायावती इस रेस में आगे है मगर यह मुमकिन दूर दूर तक नही दिखाई देता। कुछ लोग एनडीए का संगमा को समर्थन  को रणनीति का हिस्सा मानते है यह जानते हुए की प्रणव मुखर्जी की जीत तय है। क्या अगले चुनाव में जयललिता और पटनायक बीजेपी के साथ होंगे। यह मुमकिन है क्योंकि पहले यह दल साथ रहे चुके है।बीजेपी और बीजेडी 11 साल पुराना गठबंधन 2009 में टूटा। दोनो दल 1998 में साथ आए। इसके बाद 1998, 1999 और 2004 में चुनाव साथ मिलकर लड़ा। 2000 और 2004 में ज्यादातर सीटें जीती। मगर 2004 में कंधमाल घटनाक्रम और सीटों पर बात न बनती देख नवीन पटनायक ने बीजेपी से अलग होने का फैसला किया। जहांतक बात जयललिता की हैबीजेपी और जयललिता 1998 में साथ आए। 39 लोकसभा सीट में से एआडीएमके 18 सीटेंएमडीएमके 3 सीट राजीव इंदिरा कांग्रेस 1 सीट और बीजेपी को 3 सीटें मिली। इसे के साथ दक्षिण खासकर तमिलनाडू में बीजेपी का खाता खुला। मगर क्या बीजेपी उन 13 महिनों को याद नही करेगी की आखिर किस तरह जयललिता ने उसे गच्चा दिया था। इसके बाद डीएमके से उसका मेल हुआ।
 2004 में उसने आपसे नाता तोड़ा और यूपीए में शमिल हो गया।

गठबंधन का भविष्य


                                                   
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए और यूपीए दोनों मे फूट पड़ गई है। जहां दीदी ने दादा के समर्थन को लेकरकुछ भी साफ नही किया है,वहीं एनडीए के दो महत्वपूर्ण घटक दल जेडीयू और शिवसेना राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन करेंगे। इस चुनाव ने गठबंधन में बनते बिगड़ते समीकरणों को हवा देनी शुरू कर दी है।  जेडीयू भाजपा से नाराज है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उसे बर्दाश्त नही हैं। प्रधानमंत्री सुधारों को लेकर विश्व बिरादरी को भरोसा दे चुके है। आर्थिक सुधारों पर फैसला ने लेने के टीस मिटाना चाहते हैं। मगर तृणमूल सुप्रीमों के रहते क्या सरकार इन सुधारों को अंजाम दे पाएगी। 16वीं लोकसभा का नजारा गठबंधन के लिहाज से कैसा होगा।क्या सरकार को ममता का विकल्प मिल गया है? क्या मुलायम सिंह यूपीए-2 के खेवनहार होंगे ठीक उसीतरह जिस तरह उन्होंने 2008 में अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते के मुददे पर यूपीए की सरकारबचाई थी। सवाल मायावती और नीतिश कुमार को लेकर भी है मगर लगता नही की ये दल यूपीए की डूबती नैया का सहारा बनेंगे। इतना तय है कि ममता के रहते हुए सुधारों की राह में सरकार का चलना नामुमकिंन है। तीस्ता वाटर ट्रीटी से लेकर बीमा पेंशन बैकिंग रिटेल में एफडीआईल, लोकपाल और तेल के दाम बढ़ाने को लेकर वह हमेशा सरकार की किरकिरी करती रहीं है। एनसीटीसी के खिलाफ सरकारको झुकाना और बंगाल को स्पेशल पैकेज देने का दवाब वह आए दिन सरकार पर डालती रही हैं। कुछ सवाल और भी है खासकर वामदलों का प्रणव को समर्थन के पीछे आधार व्यक्तित्व है, बंगाली अस्मिता या ममता और कांग्रेस की दूरियों में उसे उसका फायदा नजर आ रहा है। उधर बीजेपी को संगमा का समर्थनक्या भविष्य की रणनीति का हिस्सा खासकार क्या वह 2014 से पहले अपने पुराने साथियों जयललिता औरनवीन पटनायक को दुबारा साधाना चाहती है।