रविवार, 31 मई 2009

किस्सा किसान का

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी से उम्मीदें आम जनमानस की ही तरह किसान को भी है। वो किसान जिसे भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ की हडडी माना जाता है। वो किसान जो धरती का सीना चीर कर खून पसीना एक कर अनाज तो पैदा करता चाहता है। मगर उसकी खुद की राज आधे पेट गुजरती है। आज किसान क्या चाहता है कि इतनी मेहनत के बावजूद उसका और उसके परिवार का पेट भर जाये। उसे कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या जैसे कायर कदम न उठाने पडे। बस इसी उम्मीद पर उसने वोट दिया है। यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल में किसानों की सुध ली। सबसे अच्छी बात की न्यूनतम समर्थन मूल्य में जबरदस्त बढोत्तरी की। गेहंं का समर्थन मूल्य 1080 और साधारण धान का 960 रूपये कर दिया गया है। इसके अलावा ग्यारवीं पंचवशीय योजना 4 फीसदी विकास दर पाने के लिए सरकार कई योजनाऐं चला रही है। मसलन 25000 हजार करोड़ की लागत से राश्टरीय कृशि विकास योजना। 4880 करोड़ की लागत से राश्टीय खाघ सुरक्षा मिशन। जिसके तहत 10 मिलीयन टन गेहंूं , 8 मिलीयन टन चावल और 2 मिलीयन टन दालों के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा राश्टीय हौल्टीकल्चर मिशन जैसे कार्यक्रम भी सामने आये है। मगर फिर भी 40 फीसदी किसान किसानी से तौबा करना चाहते है। बशतेZ उनके पास विकल्प हो। यह सरकार के साथ साथ आइसीएआर और कृशि विज्ञान केन्द्रों के मंंह पर एक तमाचा है। जिनके नाम तो बहुत बडे है मगर जब दशZन की बारी आती है तो वह बौने साबित होतें है। खेती छोड़ने का सबसे बडा कारण है कि किसान को खेती अब फायदे का सौदा नही लगती। यही कारण है कि 1997 से लेकर अब तक पौने दो लाख किसान मौत को गले लगा चुके है। इनमें से ज्यादातर कर्ज के बोझ के तले दबे थे। हालांकि यूपीए सरकार की किसानों की कर्ज माफी से फायदा भी हुआ। मगर कितनों को। और जिन्हें नही उनका क्या होगा। एक बडी किसान आबादी आज भी जमींनदार से कर्ज लेती है। साथ ही बीज उवर्रक और सिंचाई की व्यवस्था करना भी जरूरी है। आज भी 60 फीसदी खेती इंद्रदेवता के भरोसे है। किसानों को ऋण लेने में मुिश्कल आती है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद किसान को 7 फीसदी की दर पर कर्ज नही मिल पा रहा है। जबकि राश्टीय किसान आयोग की सिफारिश है कि किसान को को 4 फीसदी की ब्याज दर से कर्ज मुहैया कराया जाए। सुविधा तो फसल बीमा योजना और किसान क्रेडिट कार्ड की भी है मगर इसका दायरा बहुत सीमित है। आज देश को दूसरे हरित क्रांति की जरूरत है। मगर नीतिनिर्माताओं को पहले हरित क्रांति के आयामों को ध्यान में रखकर नई नीति बनानी होगी। हम अपनी खाघ सुरक्षा को लेकर पूरी तरह किसानों पर निर्भर है। इसलिए उनके लिए समय रहते कदम उठाने होंगे। ‘

जरूरी है पुलिस सुधार




हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की ओर से यह बयान आना कि पुलिस में बडे पैमाने पर भ्रश्ट है मामले की गंभीरता को बयॉं करता है। गाहे बगाहे यह सच्चाई सामने आती रहती है। फर्क इतना है कि इसे स्वीकार करना सबके बूते की बात नही। पुलिसिया व्यवस्था भ्रश्टाचार के आकंठ में डूबी हुई है। यह किसी से छिपा नही है। मगर इस समस्या के निदान के लिए आज तक कुछ ठोस नही हुआ। हॉं समय समय पर समितियों की लम्बी चौड़ी सिफारिशें जरूर आती रही। पुलिस सुधारों को लेकर राज्य सरकारों का रवैया भी संतोशजनक नही रहा। वही समय के साथ साथ अपराध बड़ते रहे। हालात इतने बिगड गए है कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम के नारायणन को खुद कहना कि आतंकवादियों की पैठ जमीन आसमान और समंदर तक बड़ गई है। 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने देश को हिलाकर रख दिया। आज जरूरी है कि इस मामले के हर पहलू पर गौर किया जाए। सबसे पहले सुरक्षाकर्मियों को मिलने वाल सुविधाओं पर ध्यान देना होगा। अगर सुरक्षा करने वाले पुलिसकर्मियों की बेहतर देखरेख नही की गई तो हालात में सुधार आना नामुमकिन है। पुलिस कर्मियों की संख्या बड़ानी होंगी। काम का दबाव में कमी लाने के साथ साथ उन्हें बेहतर सुविधाओं मुहैया करानी चाहिए। इस पर आज बात करने को कोई तैयार नही है। पुलिस सुधार को लेकर अकसर जुबानी बातें होती रहती है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पुलिस व्यवस्था में सुधार की वकालत कर चुके है। दरअसल हमारे देश में पुलिस कानून 1861 का है जिसे बदलने की चर्चा हमेशा होती रहती है। कही हिरासत में हुई मौत तो कही फर्जी मडभेड। कही जनता पर बबZरता तो कही राजनीति और पुलिस के अवैध गठजोडों ने पुलिस की छवि को धक्का पहुंंचाया है। यही कारण की अपराधियों को खुद सजा देने की प्रवृति भी बड़ने लगी है। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह अच्छे संकेत नही। इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी मामले के प्रति गंभीरता का आभाव और मुिश्कलें बड़ाने वाला है। आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच सॉंप नेवले का संग्राम आम बात है। आज आम आदमी अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है। आतंकियों की पहुंंच छोटे छोटे शहरों तक बड़ गई है। देश के तेरह राज्य आंशिक व पूरी तरह से नक्सली हिंसा की चपेट में है। पूर्वोतर में असम में उल्फा का संघशZ बरकरार है। ऐसे में सुरक्षा का चिंता होना लाजिमी है। मगर निपटे कैसे इसपर बयानबाजी के अलावा और कुछ नही हेाता। देश का पुलिस कानून 147 साल पुराना है। ये वो समय था जब आजादी के परवानों को दबाने के लिए यह कानून बनाया गया। मगर आज ज्यादातर मामलों में इसका प्रभाव निश्क्रिय हो चुका है। तो ऐसे में इसका औचित्य क्या। ऐसा नही की इसको लेकर प्रयास नही हुए। प्रयास कई बार हुए मगर नतीजों पर सिर्फ विधवा अलाप ही किया जा सकता है। सवाल यह उठता है कि इतने गंभीर मसलों पर सरकारें अर्कमण्य क्यों रहती है। समाज में अपराध तेजी से पॉंव पसार रहा है मगर इससे निपटने की कवायद की रफतार धीमी है। संविधान की 7वीं अनुसूचि में पुलिस और कानून राज्यों का विशय है। सरकार का जवाब तो रटा रटाया है। पुलिस और कानून राज्य का विशय है इसलिए उनके हाथ बंधे है। यह बात सौ आने सच है। मगर उन्होने दिल्ली या अन्य संघ शासित प्रदेशों की पुलिस व्यवस्था में कौन सा ऐसा व्यापक बदलाव कर दिया जिससे वे राज्य सरकारों के सामने एक नजीर पेश कर सके। अपराध और अपराधियों के मामले में राजधानी दिल्ली खासा बदनाम है जबकि इसकी सीधी लगाम गृह मंत्रालय के हाथों में है। ऐसा नही कि पलिस सुधार को लेकर कुछ नही हुआ। सुधार के लिए बनाई गई समितियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। सबसे पहले 1977 में पुलिस सुधार आयोग बनाया बनाया गया। मगर इनकी सिफारिशों को लेकर कोई पहल नही दिखाई दी। इसके बाद 1998 में रिबेरो समिति, 2000 में पघनाभयया समिति, 2002 में मालीमथ समिति। इसके बाद गृहमंत्रालय ने 20 सितंबर 2005 में विधि विशेशज्ञ सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया । इस समिति ने 30 अक्टूबर 2006 को मॉडल पुलिस एक्ट 2006 का प्रारूप केन्द्र सरकार केा सौंपा। उधर सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर 2006 को प्रकाश सिंह बनाम केन्द्र सरकार मसले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। साथ ही इन सिफारिशों पर राज्य सरकारों को स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने राश्ट्रीय पुलिस आयोग की ज्यादातर सिफारिशों पर मुहर लगा दी। इन सिफारिशों में पुलिस मकहमे को राजनीतिक दखलअंदाजी से दूर रखने की बात कही। बड़े अधिकारियों का फिक्स कार्यकाल तय किया जाए साथ ही अपराधों की जॉंच और कानून को लागू करने वाली एजेंसियों को अलग अलग करने की बात कही गई। ज्यादातर राज्य सरकारों को यह बातें रास नही आई। हालॉंकि कुछ सरकारों ने जरूर इनपर अमल किया। पुलिस आधुनिकीकरण के बजट का भी सही इस्तेमाल देखने में नही आ रहा है। ज्यादातर सरकरों के पास पैसा तो है मगर उसे खर्च नही किया गया है। मौजूदा हालातों को देखते हुए राज्य सरकारों के भी मामले पर गंभीर होना पडेगा। हमारे यहॉ जनसंख्या पुलिस अनुपात भी तय मानदंड से बहुत ही नीचे है। राज्य सरकार रिक्त पडे पदों को भरने के जल्द ही कदम उठाये। हर स्तर पर जानकारी जुटाने वाले तंत्र को मजबूत बनाया जाए। साथ ही पुलिसकर्मीयों को बेहतर सुविधाऐं देने के लिए राज्य सरकारों को अपने बजट को भी बढाना चाहिए। तभी जाकर हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर सकते है।

शनिवार, 30 मई 2009

जय हो जनता जनार्दन की।

15 वीं लोकसभा का जनादेश सामने है। आत्ममंथन शुरू हो चुका है। राजनीतिक दल अपने हार के कारणों की समीक्षा करने लगे है। हार का ठीकरा एक दूसरे के सर फोड़ने में कोई पीछे नही है। जेडीयू ने इसकी शुरूआत कर दी है। आखिर गुस्सा क्यों नही आए 10 साल तक विपक्ष में बैठकर सरकार को कोसते रहो। बुरा तो लगता है न भाई। दरअसल किसी को ऐसे जनादेश की उम्मीद नही थी। अब हर कोई इस बहस में शामिल है कि इस जनादेश के पीछे का संदेश क्या है। क्या जनता ने काम का इनाम कांग्रेस को दिया है। क्या कांग्रेस का यूपी बिहार में एकला चलों का नारा काम कर गया। या फिर ये बीजेपी की कमजोर नीतियों का परिणाम है। कारण चाहे जो भी हो कांग्रेसियों के पास जीत के कारण बहुत है। नरेगा से लेकर ऋण माफी या फिर भारत निर्माण जैसे कार्यक्रमों को वो जीत का कारण मान रहे है। कुछ का मानना है कि यह राहुल बाबा की मेहनत का नतीजा है। अगर यह सही है तो राहुल का जादू छत्तीसगढ और बिहार में क्यों नही चला। दरअसल कांग्रेसियों को तो चापलूसी के बहाने चाहिए। बस मिल जाए छोड़ने का नाम ही नही लेते। राहुल गॉधी इस बात को जानते है। मगर एक बात उनके पक्ष में जाती है। अकेले चुनाव लडने और युवाओं को लडाने। यहॉं राहुल बाबा की रणनीति काम कर गई। कुछ की मानें तो ईमानदार प्रधानमंत्री को कमजोर कहना बीजेपी को भारी पड गया। कांग्रेस के लिए यूपी खशियों की सौगात लेकर आया। यहॉ 2004 में 9 सीटों को जीतने वाली कांग्रेस आज 21 सीटों को जीतकर जय हो कह रही है। मुलायम माया की रणनीति धरी की धरी रह गई। दक्षिण में वाइएसआर कांग्रेस का असली सेनापति साबित हुए। जबकि तमिलनाडू में द्रमुख को न छोडने का फैसला भी सही साबित हुआ। नवीन पटनायक ने भी मिशन उडीसा को अपने नाम कर लिया। सवाल यह भी उठ रहा है कि महंगाई आतंकवाद और आर्थिक मंदी जैसे जोरदार मुददों के बावजूद जनता ने ऐसा जनादेश क्यों दिया। लोकजनशक्ति पार्टी, टीआरएस और पीएमके को जनता ने सबक सिखा दिया है। अब कतार में वो खडे है जो इनसे सबक नही लेगें। जय हो जनता जनार्दन की।

नेता कहिन जीतो हर कीमत पर

चुनाव चुनाव चुनाव। कितने अच्छे है यह चुनाव। नेताओं को जानो। उनके देश प्रेम्र को मानो। दोस्तों को खिलाफ होते देखो। अपनो को पराये होते देखो। जो कल तक एक दूसरे के खिलाफ आग उगलते देखे जाते थे, आज एक दूसरे की जय जयकार करते नही अघाते। न किसी को किसी से हमेशा के लिए प्रेम न नाराजगी। जैसी समय की मॉंग वैसा मुखौटा पहन लो। गठबंधन भी सुविधा के हिसाब से। विचारधारा की खाल उधेड दो, मगर हाथ में आई सोने देने वाली मुर्गी न जाने दो। जनता से अनाप सनाप वादे कर दो। पॉच साल के बाद रटा रटा बयान दे दो। जो कहा वही किया। इसके अलावा कुछ नही किया। प्लीज एक बार और वोट दे दो। जनता के भी क्या कहने। किसी से ज्यादा प्रेम नही। प्रसाद सबको मिलेगा की तर्ज पर वोट थोडा थोडा सबको। थोडा बहुत ख्याल जात बिरादरी का भी। नेता कहिन जीतो हर कीमत पर। सत्ता में हर कोई बैठना चाहता है। नही मिली तो सारी करी कराई मेहनत में पानी फिर जायेगा। राजनीति में कमाई भी ठीक ठाक है। पॉच साल में विकास के नाम पर जेब भरो। ये मिडीया भी अजीब जन्तु है। पॉच हजार वाले को कैमरे में कैद करती है। पॉच करोड वाले की इमानदारी पर किसी को शक नही होता। राजीनिति मे सौदेबाजी की भी अपार संभावनाऐं है। क्यों आपको नही मालूम की सरकार के पक्ष में वोट डालने में करोडों मिले थे। दुख तो इस बात का है कि ऐसा मौका बार बार क्यों नही आता। हम तो बहती गंगा में हाथ धो नही पाए। कास मैं भी सांसद होता। कुछ संभावनाऐं तो बनती। खूब बडी बडी बातें करता। वादे करता, घोटाले करता। विकास के नाम पर चिल्ला कर अपनी आवाज खराब कर देता। नतीजों से पहले जीत को लेकर अति उत्साहित होता। नतीजों के बाद कहता शायद झूठ बोलने में कुछ कमी रह गई थी।

बेमेल गठबंधन

उत्तर प्रदेश में माया मुलायम की लडाई। बीजेपी ने अजीत प्रेम में डूबकर जीतरस की रट लगाई। कांग्रेसी पहलवानों के भी क्या कहने। अमेठी रायबरेली के बाहर भी देखने लगे है। अब जरा जानते है कि पॉंच साल में क्या बदला है। पिछले चुनाव में अजीत मुलायम के जय हो के नारे लग रहे थे। जनता ने दोनों कोे मिलकर 38 सीटों का प्रसाद दिया। अकेले 35 मुलायम के पास। बीजेपी और कांग्रेस से भी दुखी नही, कहने को राश्ट्रीय पाट्री। मगर विश्वास संतोशम परम सुखम पर। तभी तो 10 और 9 पर ही ख्ुाश रहे। हाथी कीे धमक का अहसास 19 सीटों में हुआ। फर्क सिर्फ इतना है तब साइकिल का राज था अब हाथी दनदना रहा है। माया को विश्वास अपने सर्वजनों पर। प्रधानमंत्री बनने की चाहत लिए उनका नारा साफ है। सर्वजन शंख बजायेगा, हाथी दिल्ली जायेगा। मुलायम का एजेंड साफ है। यूपी को माया की माया से बचाओ दिल्ली में हमें करीब पाओं। मुलायम खुद इस उहापोह में है कि कल्याण उनका कितना कल्याण करेंगे। डर भी सता रहा है कि कही मस्लिम प्रेम में दरार न आ जाये। सूकून इस बात का है कि अपनों की सीट में जरूर के यानि कल्याण फैक्टर असर डालेगा। कांग्रेसी दिग्गजों का उत्साह भी जबरदस्त है। हांलाकि नतीजों से पहले यह हमेशा देखा गया है मगर उम्मीद का परसेंटेज इस बार ज्यादा है। तीन त्रिदेव का भी मिलन हुआ है। लालू पासवान और मुलायम । इतिहास देखें तो डर लगता है कि कब ये आपस में ही न भीड जाऐं। ख्ौर तीनों की हालत पतली है। अच्छी बात है। दुख के सब साथी।