मंगलवार, 28 मई 2013

कैग

बीते कुछ सालों में कैग सूर्खिया में रहा। उसकी रिपोर्ट पर सड़क से लेकर संसद तक हंगामा मचा। सरकारी धन के दुरूपयोग से पर्दा उठा। नितियों को लागू करने से होन वाले अनुमानित नुकसान ने देश को हिला कर रख दिया। 2 जी और कोलगेट पर आई रिपोर्ट ने तो सरकार की चूलें हिला दी। नतीजा अनजान सीएजी का नाम हर जुंबा पर सुनाई देने लगा।

कैग का काम
दरअसल कैग जैसी संवैधानिक संस्थाओं काम काम जनता के पैसों की निगरानी करता है। मसलन
क्या जनता का धन सही जगह खर्च हो रहा है?
क्या सही व्यक्ति तक इसका लाभ पहुचं रहा है?
क्या अपनाई गई नीतियों जनहित में है?

क्या इन नीतियों को से सरकार को राजस्व का नुकसान हुआ है। इन सभी मामलों की कैग बारीकी से जांच करता है। रिपोर्ट संसद में पेश की जाती
 है। लोकलेखा समिति इस पर दिमाग लड़ाती है। या कहें की कैग की रिपोर्ट का पीएसी आडिट करती है। अब पीएसी की रिपोर्ट संसद में पेश
की जाती है। इसके बाद सरकार को इस पर कार्यवाही करनी पड़ती है?

बुधवार, 22 मई 2013

9 साल का हासिल ?


मौका जश्न का है। उपलब्धियों के बखान का है। जनता के सामने रिपोर्ट पेश करने का है। दरअसल संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन ने सत्ता में अपने 9 साल पूरे कर लिए है। प्रधानमंत्री ने प्राथमिकताऐं न सिर्फ गिनाई उसमें सफलता पाने की दमखम भी रखा। खाली मिले ग्लास को भरने का दावा किया। 9 सालों में विकास वह भी सर्वसमावेशी हुआ, अर्थव्यवस्था में सुधार आया, गरीब घटी, महंगाई काबू में आई। विदेशी दोस्तों के साथ रिश्ते आगे बढ़े यानी हर क्षेत्र में सरकार ने चैका मारा। हमार अच्छा काम विपक्षी दलों को रास नही आया इसलिए सरकार के खिलाफ गलत प्रचास प्रसार कर रहे है। सोनियां गांधी ने भाषण दिया तो 9 सालों में शुरू हुई योजनाओं का डंगा पीटा बल्कि बीजेपी को भी लगे हाथ खरी खोटी सुना दी। प्रधानमंत्री के पीछे खड़े होने की बात कही और बचाव की मुद्रा में न रहने की पार्टी को नसीहत दी।  22 मई 2004 को सत्ता में आया यूपीए ने अपने पहले पांच साल में कई ऐतिहासिक काम किए। सबसे पहले 2005 में सूचना का अधिकार काूनन के जरिये पारदर्शिता को एक नया अघ्याय लिखा।  2006 में महात्मा गांधी नरेगा कानून अमल में आया। इसमें काम मांगने में 100 दिन का रोजगार देने का प्रावधान था। साथ ही 15 दिन में मजदूरी देने का प्रावधान किया गया। समय से पैसा न मिलने पर मुआवजा देने की बात भी कही गई। अकुशल कामगारों के लिए गांवों में यह कानून एक वरदान बन गया। अब रोजगार के बाद नजर दौड़ाई गई स्वास्थ्य क्षेत्र की ओर। मातृ मृत्यृ दर और शिशू मृत्यु दर में कमी लाने के लिए राष्टीय गा्रमीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत की गई। इसमें सब सेन्टर, प्राइमरी हेल्थ सेन्टर, कम्यूनिटी हेल्थ सेन्टर और जिला अस्पताल में मानव संसाधन के साथ साथ उपचार के लिए जरूरी साजो समान का आपूर्ति होने लगी। 108 जैसी इर्मेजेंसी सुविधाओं ने लोगों को बड़ी सहुलियत प्रदान की। इसके लिए अलावा सरकार ने भारत निर्माण के तहत चलाई जा नही योजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाया। इसमें इंदिरा आवाज योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना  सिंचाई योजना के साथ साथ गांवों में दूरसंचार के विकास आदि योजनाऐं शामिल थी। न सिर्फ गांवों में बल्कि शहरों में भी जवाहरलाल नेहरू अरबन रेन्यूवल मिशन की शुरूआत की गई। ताकि शहरों के बुनियादी ढांचे को मजबूत किया जाए। 2008 के बजट में सरकार के किसानों के 71000 करोड़ का ऋण माफी योजना की घोषणा की। इस ऐलान ने सरकार को चुनावी लाभ तो दिया मगर हाल में आई सीएजी की रिपोर्ट ने इसमें हुई भारी अनिमियताओं का ख्ुालासा किया। बाद इतने तक ही समिति नही रही असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए एक सामाजिक योजना प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना की शुरूआत की गई। इसमें प्रति परिवार 30 हजार रूपये के बीमा का प्रावधान है। साथ ही आदिवासियों को उनके अधिकार दिलाने के लिए फारेस्ट राइट एक्ट लाया गया। इसके बाद 26 दिसंबर को मुंबई में आतंकी हमला हुआ जिसने देश को हिला कर रख दिया। आनन फानन में बदलाव किए गए। कानून में बदलाव किया गया। 4 एनएसजी हब स्थापित किए गए। एनआइए का गठन हुआ। इस बीच तेल के बढ़ते दाम और महंगाई ने आम आदमी को परेशान कर रखा था। इन सबके बावजूद  2009 के आम चुनाव में जनादेश यूपीए के पक्ष में गया। उत्तराखंड और दिल्ली में तो उसने बीजेपी का सूपड़ा साफ कर दिया। आंध्र प्रदेश में न सिर्फ उसने वापसी बल्कि दिल्ली का रास्त कांग्रेस के लिए आसान कर दिया। सबसे अच्छी खबर उत्तरप्रदेश से आई जहां पार्टी के 21 सांसद चुन कर आए। 2004 में 145 सीट जीतने वाली यूपीए ने पांच सालों में यहा आंकड़ा 206 तक पहुंचा दिया। लौहपुरूष को चुनाव में चेहरा बनाने वाली बीजेपी के काला धन का मुददा भी जनता को नही खींच पाया। बीजेपी 2009 का चुनाव बुरी तरह हार गई। कांग्रेस के लिए जीत बड़ी थी। प्रधानमंत्री ने लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं में खरा उतरने का वादा किया। 100 दिन का एजेंडा सेट किया। मंत्रालयों को 3 महिने जनता के सामने रिपोर्ट पेश करने को कहा। मंत्रालयों ने भी जोर शोर से लक्ष्य निर्धारित किए। इसमें सबसे ज्यादा चर्चा में रहा सड़क और परिवहन मंत्री को प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य। ऐसी ही महत्वकांक्षी लक्ष्य बाकी मंत्रालयों ने भी रखे। जनमानस को लग रहा था कि अब विकास और तेजी से होगा। अमीरी गरीबी को खाई पटेगी। अब तक सरकार का  सामाजिक एजेंडा उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। मगर शायद किसी ने सोचा भी नही होगा कि यूपीए 1 में बोए गए बीज अब उसके लिए कांटे बनने जा रहे है। एक के बाद एक घोटाले ने सरकार को अनुत्तरित कर दिया। राष्टमंडल खेल, 2 जी स्पेक्ट्रम, कोलगेट, रेलगेट, मनरेगा और किसान ऋण माफी योजना ने सरकार की सारी साख मिटटी में मिला दी। सड़क से लेकर संसद तक सरकार को जवाब देना मुश्किल पड़ रहा था। एक घोटाले की तपिश कम नही होती कि दूसरा घोटला सरकार की मुश्किलें बड़ा देता। विपक्ष संसद नही चलने देता और सरकार बेदाग होने का दंभ भरती। देखते देखते यूपीए दो के चार साल पूरे हो गए। सीएजी सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट सरकार को असहज करती रही। सहयोगी साथ छोड़ते चले गए। और इन सब के बीच जनमानस अपने आप को ठगा महसूस करने लगी। लोकपाल को लेकर देश में जबरदस्त आंदोलन हुआ। अरविंद अन्ना और रामदेव सरकार के दुश्मन गए। जनता सड़कों पर थी और सरकार की छिछालिदर हो रही थी। अन्ना के आंदोलन ने सरकार और संसद दोनों को डरा दिया। आनन फानन में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टौलरेन्स की आवाजें आने लगी। सरकार ने रामदेव को न सिर्फ लाठी से डराया बल्कि अरविन्द और अन्ना के रास्ते भी जुदा हो गए। आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर सरकार कुछ खास नही कर पाई। नक्सली हमले और आतंकी घटनाओं से आन्तिरक सुरक्षा से जुड़ी खामियों को भी सामने रख दिया। कुल मिलाकर उपलब्धियां अगर हैं तो सरकार जानती है की घोटालों के शोर में वह नही सुनाई देंगी। सरकार के दक्षिण का मजबूत द्धार आंध्रप्रदेश भी हाथ ने निकलता जा रहा है। पृथक तेलांगाना राज्य का समाधान सरकार नही खोज पाई। कांग्रेस अपनी गल्तियों से यहां भी कमजोर दिखाई दे रही है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और सामाजिक एजेंडे को आगे लेकर चल रही यूपीए अध्यक्ष सोनियां गांधी के बीच संतुलन बिगड़ने  लगा। नतीजा सरकार और संगठन के सुर लगातर बदलते रहे। अब सरकार की मुश्किल मिशन 2014 है। मगर यहां अरमानों को पंख लगाने के लिए न मनरेगा है न किसान ऋण माफी योजना। और न ही 2004 के तरह कामन मिनिमम प्रोग्राम। सरकार भारत निर्माण का जोर शोर से प्रचार कर तो रही है मगर स्वयं उसे इस बात का अहसास भी है कि जो जनता शाइनिंग इंडिया को नकार सकती है वह भारत निर्माण को भी खारिज कर सकती है। अब सरकार की सारी उम्मीद अपनी महायोजना आपका पैसा आपके हाथ, के भरोसे है। सरकार के रणनीतिकार इसे पहले ही गेमचेंजर बता चुके है। आशा और उम्मीद से भरी यह महत्वकांक्षी योजना क्या नोट के बदले वोट में तब्दील हो पाएगी यह जनता तय करेगी। मगर माहौल सरकार के प्रतिकूल है। ऐसे में सरकार बोनस के तौर पर खाद्य सुरक्षा काूनन लाकर अपनी उड़ान को पंख लगाना चाहती है। भारत निर्माण का प्रचार प्रसार के लिए 180 करोड़ बहाए जा रहे है। जनता को समझाया जा रहा है। हमने आप को घर दिया है, काम दिया है। हमने देश का विकास किया। मगर घोटलों के तूफान में कुछ सुनाई नही दे रहा है।

रविवार, 12 मई 2013

पापी पेट का सवाल


सरकार अपना महत्वकांक्षी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है। इसके तहत गांव की 75 फीसदी आबादी होगी जबकि शहरों में यह आंकड़ा 50 फीसदी होगा। इसके तहत तीन रूपये किलो चावल, 2 रूपये किलो गेहूं और 1 रूपये किलो मोटा अनाज दिया जाएगा। एक अनुमान के मुताबिक इसका वित्तिय बोझ सरकार के खजाने में कम से कम 1 लाख करोड़ के आसपास का होगा। सरकार को इस कानून को लागू करने के लिए 6.5 मिट्रिक टन अनाज की जरूरत होगी।  इसमें कोई दो राय नही कि जिस देश का वैश्विक सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान है उस देष में यह कानून किसी वरदान से कम नही। मगर असली सवाल यह है कि कानून बनाने से पहले जो काम सरकार को करना चाहिए था वह नही किया गया। इसलिए डर है कि यह कानून भी भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ जाए। सरकार को केवल सियासी माहौल बनाने तक समिति नही रहना चाहिए बल्कि इन चुनौतियों के समाधान के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। वरना एक और महत्वकांक्षी योजना मनरेगा की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाएगी। दरअसल इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए सरकार को कई मोर्चों पर काम करना होगा। सबसे पहली चुनौति है। इस देश का कौन आदमी गरीब है। गरीबी मांपने का आदर्श पैमाना क्या होना चाहिए। गरीबों का सही और सटीक आंकलन कैसे हो। इस पर राज्य सरकारों से बात करनी चाहिए। आज देश के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों को पीडीएस के माध्यम से सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। मगर दूसरी तरफ राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यह मसला अकसर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव का कारण बनता रहा है। राज्य सरकारें खुले आम केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। यहां यह बात बता देना भी जरूरी है कि 2006 के बाद इस देश में 2 करोड़ से ज्यादा फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके हैं। इस फेहरिस्त में आंध्रप्रदेष का नाम सबसे उपर है। कानून को लागू करने में आने वाली दूसरी चुनौति है उत्पादन और उत्पादकता कैसे बढ़ाई जाए? इस देष में खेती की कथा -व्यथा किसी से छिपी नही है। आलम यह है 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोड़ना चाहते हैं। बीते 13 सालों में 2.50 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें है। उत्पादकता के मामले में विकसित देशों से हम खासे पीछे है। एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में हमारा उत्पादन 245 मिलियन टन के आसपास है जबकि 2020 तक हमें 281 मिलियन टन अनाज की दरकार होगी। इसके लिए जरूरी है की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाई जाए। हमारे देश में चावल की उत्पादकता में सुधार जरूर हुआ है मगर यह नाकाफी है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 3000 किलो ग्राम के आसपास है, जबकि चीन में यही उत्पादन 6074, जापान 5850 और अमेरिका में 7448 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है। इससे जाहिर होता होता है कि अभी खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से हमें एक लंबी मंज़िल तय करनी है। क्या महज पूर्वी भारत में हरित का्रंति का अगाज इस समस्या का समाधान है? सरकार चाहे कितनी समितियों का गठन करले । बात बड़ी सीधी और सपाट है। जब तक खेती किसानों के लिए फायदेमंद सौदा साबित नही होगी तब तक इस चुनौति से नही निपटा जा सकता। तीसरा मुददा है खाद्यान्न के रखरखाव की उचित व्यवस्था कैसे की जाए। खाद्यान्न के रखरखाव के लिए भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था का अभाव इस काूनन की हवा निकाल सकता है। आज भंडारण के अभाव में हजारों करोड़ का राशन हर साल खराब हो जाता है। बहरहाल सरकार ने निजि क्षेत्र को लाकर इसका समाधन ढूंढने की कोशिश की है मगर यहा नकाफी है। आज जरूरत है सरकार इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खर्च कर रखरखाव के संसाधन को मजबूत करे। इसके बाद मरणासन्न पड़ी वितरण प्रणाली का में दुबारा जान कैसे डाली जाए। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं कि देष की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का राशन काले बाजार में बिक जाता है। मतलब साफ है, राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। चैकाने वाली बात तो यह है कि जिस देश में 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है वहां केवल मुठठी भर षिकायतें दर्ज होती है। क्या आपने कभी सुना है कि वितरण प्रणाली में भारी गडबड़ी के चलते किसी खाद्य मंत्री या खाद्य सचिव को जेल जाना पड़ा है? राज्यों के पास आवष्यक वस्तु अधिनियम कानून 1955 है। मगर इसका इस्तेमाल ज्यादातर मामलों में नही होता। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। मतलब साफ है कि मौजूदा वितरण व्यवस्था के सहारे हम इस कानून को लागू करने का सपना भूल जाऐं। वितरण प्रणाली को कैसे दुरूस्त किया जाए इसके अध्यन के लिए सरकार के पास कई रिपोर्ट मौजूद है। इनमें प्रमुख है 1998 में टाटा इकोनामिक कंसल्टेंसी सर्विसेस रिपोर्ट, 2005 की ओआरजी मार्ग की रिपोर्ट, 2007 और 2009 की नेषनल काउंसिल आफ एमलाइड इकानामिक रिसर्च और 2010-11 में आई नेषनल इंस्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिषट्रेषन। इन सभी रिपोर्ट का लब्बोलुआब एक ही था। देष की वितरण प्रणाली में भारी खामियां है और इसका फायदा जरूरत मंदों तक नही पहुंच पाता। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वाधवा के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने 19 राज्यों के अध्ययन में यह पाया की यह प्रणाली भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी है। लिहाजा इसमें व्यापक सुधार की जरूरत है। इन रिपोर्ट में यह तक कहा गया की पूर्वोत्तर राज्यों में 100 फीसदी तक राषन डाइवर्ट हो जाता है। बावजूद इसके अब तक इस प्रणाली में सुधार के लिए कोई खास पहल नही की गई। गाहे बगाहे केन्द्र ने राज्यों को दिषनिर्देष जारी कर दिए। और पांचवा की कानून लागू करने के लिए जरूरी धन का इंतजाम। हर साल एक करोड़ से ज्यादा का बजटीय आवंटन इस योजना के लिए इतना आसान नही होगा। खाद्य सुरक्षा कानून की सोच पर किसी को षक नही। चिंता तो सरकार की नियत पर है कि वह इसे क्यों पारित करा रही है। आने वालों चुनावों में सियासी फायदा लेने के लिए भूखों का पेट भरना उसका उददेष्य है।








मनमोहन बनाम सोनिया


पहली बार मनमोहन सिंह और सोनियां गांधी के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गए हैं। पवन बंसल और अश्विनी कुमार की विदाई के बाद अबक्या हमला करने की बारी मनमोहन सिंह की है? क्या यह पूरा प्रकरण कांग्रेस के भीतर मचे घमासान की बानगी नही है। क्या कानून मंत्री के तौर पर अश्विनी कुमार कोयले घोटले पर सीबीआई की रिपोर्ट में बदलाव किसके कहने पर कर रहे थे। वह किसको बचाना चाहते थे। पवन बंसल पर सीबीआई का कारवाई की स्क्रिप्ट किसने लिखी। किसने इसे अंजाम दिया। यह बस जानते हैं की मंत्रीमंत्रडल दो भागों में बंटा हुआ है। एक टीम सोनिया की है तो दूसरी मनमोहन सिंह की। क्या आने वाले दिनों में कुछ और मंत्रियों पर इस तरह के आरोप लग सकते है। आखिरकार मंत्रियों के विशोषाधिकार को खत्म करने की मंत्रियों के समूह की सिफारिश का क्या हुआ। इतना तय है की अगर बात प्रधानमंत्री के उपर आयी तो वह फिर कांग्रेस की हवा निकालने में बिलकुल भी देरी नही करेंगे। आने वाले दिनों में कुछ और ऐसे प्रकरण सामने आए तो हैरत नही। मगर वह अरोप टीम मनमोहन पर होंगे या टीम सोनियां भर। भले ही कांग्रेस कह रही हो की दो को हटाने का फैसला प्रधानमंत्री और यूपीए अध्यक्ष का संयुक्त था। मगर सब जानते है की प्रधानमंत्री और सोनियां इस प्रकरण को लेकर खुलकर एक दूसरे के सामने आ गए। और बरसों से जो सत्ता के दो केन्द्रों की चर्चा इस देश में चल रही थी। उसपर मुहर खुद कांग्रेसी रणनीतिकारों ले लगा दी। अगर मनमहोन रिएक्ट न भी करें तो रिटायमेंट के बाद किताब जरूर निकलें। आखिर उनके दिल में छिपे राज को देश भी जानना चाहेगा।

गुरुवार, 9 मई 2013

कर्नाटक से सबक


कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस का सरकार बनाने का 7 साल के बाद जनादेश जरूर मिला। मगर साथ ही जनता ने संदेश भी दिया है कि अगर प्रशासन में सुधार नही हुआ तो हाल बीजेपी से भी बुरा होगा। बहरहाल कांग्रेस के लिए खुश होने की कोई वजह नही। उसकी जीत का कारण बीजेपी के पाचं साल का कुशासन भ्रष्टाचार और गुटबाजी है। बचा हुआ काम कर्नाटक जनता पक्ष के नेता यदयुरप्पा ने कर दिया। जिस लिंगायत
वोट के सहारे 2008 में बीजेपी को 110 सीटें मिली वही लिंगायत वोट उसके खिलाफ पड़ा। जाहिर तौर पर बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस इस जनादेश से डरी होगी क्योंकि जो काम बीजेपी ने कर्नाटक में किया उससे कही ज्यादा को भ्रष्टाचार कांग्रेस ने केन्द में किया है। घोटालों की मानो बाड़ सी आ गई है। सीडब्लूजी टूजी कोलगेट रेलगेट मनरेगा हेलीकाप्टर खरीद जैसे मुददों ने सरकार की गत बिगाड़ दी है। इससे कांग्रेसी रणनीतिकारों की संदेश मिला गया है की 15वीं लोकसभा के नतीजे क्या होने वाले हैं। दूसरा राजनीति में परिवारवाद को भी एक तरह से झटका लगा है। कुमारास्वामी की पत्नी को उनके ही पार्टी के नेता ने समाजवादी पार्टी के टिकट से शिकस्त दे दी। कर्नाटक में लिंगायात वोकालिक्का कोरूबा ब्राहमण ओबीसी दलित और आदिवासी की मौजूदगी है। कांग्रेस को लगभग पूरे राज्य में हर तबके ने वोट दिया है। मगर उसके काम के लिए नही बीजेपी को सबक सिखाने के लिए। बीजेपी हार से तिलमिलाई है और कांग्रेस डरी हुई है। यदुरप्पा खुश होंगे उनकी पार्टी की सीटें महज़ 6 तक समिति नही मगर वह बीजेपी से बदला लेने में सफल रहे। लगभग 12 मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा। इसे एस ईश्वरप्पा जो बीजेपी की सरकार में ग्रामीण और पंचायती राज मंत्री थे वह तीसरे नंबर पर रहे। ईश्वरप्पा यदयुरप्पा की हिट लिस्ट में थे। जो नतीजे हैं वो
इस प्रकार है। कुल सीटे 224। चुनाव हुए 223 सीटों पर। सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा 113
पार्टी                     सीट           वोट प्रतिशत
बीजेपी                   40
कांग्रेस                  121
जेडीएस                  40
केजीपी                    6
अन्य                      15

क्षेत्रवार नतीजे
क्षेत्र                     बीजेपी                       कांग्रेस             जेडीएस               केजीपी
                   2008        2012          2008      2012       2008      2012      2008      2012
मुंबई कर्नाटक        33         13              12         31        2           2        -          2
हैदराबाद कर्नाटक   19       04              17         20         3           3        -          2
सेटल कर्नाटक        21          3              14         28        4           12        -         2
कोस्टल कर्नाटक     15          4              7          12        2            2                 कुछ नही
साउथ कर्नाटक        5            4              21         18       12          15                कुछ नही
बैंग्लूरू सीटी          17           12             8           12       3             6             कुछ नही

इन चुनावों का अगर आंकलन करना हो तो मालूम चलता है की बीजेपी को हर क्षेत्र से नुकसान हुआ है और उसका कारण भी एक ही है। बेड गर्वेनेंस और यदयुरप्पा।


रविवार, 5 मई 2013

चुनाव सुधार


चुनाव सुधार को लेकर हमारे देष में बहस कोई नई नही है। मगर बहस नतीजे तक पहंचने के बजाय सिमट कर रह गई है। मामले की गंभीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त केा पत्र लिखकर कहा कि जनप्रतिनिधत्व कानून 1951 में अगर संषोधन नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैस लोग संसद और विधानसभाओं में  दिखेंगे। चुनाव लडने के लिए आज मैन मनी और मसल पावर की जरूरत है। अब तो राजनीतिक दल भी इससे परहेज नही कर रहे है। हर हालत में जीत करने की चाहत में वो बाहुबलियेां को भी टिकट द रहे है। हालात की सुधार की हिमायत करने में अपनी हामी जरूर भर रहे है। चुनाव सुधार केा लेकर दिनेष गोस्वामी कमिटि अपनी सिफारिषें पहले ही दे चुकी है। इसके अलावा इंद्रजीत गुप्ता कमिटि चुनाव के दौरान होने वाले खर्च पर सिफारिष मौजूद है। ला कमीषन की चुनाव सुधार को लेकर अपनी सिफारिष दे चुका है। मगरअब तक कुछ खास नही हो पाया
है। आज ज्यादातर विशेषज्ञ सबसे ज्यादा जोर चुनाव सुधार पर दे रहे है। क्यों इसके बिना इस व्यवस्था को पटरी पर लाना आसान नही होगा।

संसद की गिरती साख

संसद की गिरती साख को बचाने की चिन्ता हर एक राजीनीतिक दल को है। लेकिन किया क्या जाए इसको  लेकर स्थिित क्या करें, क्या न करें जैसी है। सरकार सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने की अपनी जिम्मेदारी को तो मानती है मगर हंगामें में अपनी भूमिका को सिरे से खारिज करती है। उधर विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल इस आरोप को गले उतारने को राजी नही। उसकी माने तो हंगामें के कारणों में जाना चाहिए
और इसका रास्ता सरकार की गलियों से होकर गुजरता है। की वजह सरकार हेाती है। दरअसल यह समस्या के लिए जिम्मेदार कोई एक राजनीतिक दल नही। सत्ता में रहते हुए ज्ञान बांटना  और विपक्ष में रहते हुए शोर करना रणनीति का एक हिस्सा बन गया है। सच्चाई यह है कि सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी जितनी सत्तापक्ष की है उतनी ही विपक्ष की है।

नही होती बहस



संसद में बहस का स्थर गिर रहा है। सत्र घट रहे है। कई जरूरी विधेयक बिना बहस के पास हेा रहे है। सभा की कार्यवाही से कई सांसद अकसर नदारद रहते है। कभी कभी तेा कोरम पूरा न होने के हालात भी सामने आ जाते है। अकसर ऐसे हालात अब देखने केा मिल जाते है। चैदहवी लेाकसभा के संसदीय कामकाज पर ही डाल ली जाए जो तस्वीर के कई पहले निकलकर सामने आ जायेंगे। 14वींलोकसभा में अब तक के चार सालों में  तेरह सत्र बैठ चुके है। साल में बजट सत्र के दो चरण, मानसून सत्र और शीतकालिन  सत्र होते है।नियम तो कहता है कि सालाना संसद की बैठकें सौ दिन होनी चाहिए। मगर अब इसका आॅकडा गिरकर 65 तक पहुच गया है। वही सालाना पेश और पास हेाने वाले विधेयकेा की संख्या में खासी कमी देखने के मिली है। संसदीय कामकाज के प्रति भी सांसद गंभीर नही दिखाई देते। 2002 से अब तक की कार्यवाही पर  नजर डाल ले तो सब कुछ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। अब जरा आंकडों पर नजर डाल लेते है 2004 से 2007 तक लोकसभा हंगामें के चलते 365 घंटे 39 मिनट बर्बाद हुए। राज्यसभा में यह आंकड़ा 354.50 धंटे का है। सदन की कार्यवाही में प्रति मिनट 26 हजार रूपये खर्च आता है। गुणाभाग करके कुल बर्बाद समय होता है 720.29 घंटे। मतलब चार साल में 1 अरब 12 करोड़ 39 लाख 54 हजार की बर्बादी। जनता के खून पसीने की गाडी कमाई का यह हाल मगर परवाह किसे है।

संसद में हंगामा

स्ंसद में आए दिन हंगामा होना कोई नही बात नही है। हंगामा आज सियासी हथियार बन गया है। राजनीतिक दल इसे अपना विशेषाधिकार समझने लगे है। सदन में सांसदों के लिए कई नियम
बनाये गए हैं मसलन
नियम 1- कोई सदस्य अगर भाषण दे रहा हो तो उसमें बांधा पहंचाना नियम के खिलाफ है।
नियम दो- सांसद ऐसी कोई पुस्तक समाचार पत्र या पत्र नही पडे़गा जिसका सभा की कार्यवाही से सम्बन्ध न हो।
नियम तीन- सभा में  नारे लगाना नियम विरूद है।
नियम चार- सदन में प्रवेश और निकलने के वक्त अध्यक्ष की पीठ की तरफ नमन करेगा।
नियम पांच - सभा में अगर कोई बोल रहा हो तो शान्त रहना चाहिए।
नियम 6- भाषण देने वाले सदस्यों के बीच से नही गुजरेगा
नियम 7- अपना भाषण तुरन्त समाप्त करने के बाद बाहर नही जाएगा।
नियम 8- हमेश अध्यक्ष को ही संबोधित करेगा।
सदन की कार्यवाही में रूकावट नही डालेगा। लेकिन सांसद अपने ही बनाए नियमों को तारतार कर रहें हैं।
इन सारे नियमों का लब्बोलुआब को कुछ यूं समझ लें कि सदन में अध्यक्ष के आदेश के बिना पत्ता भी नही हिलता।ऐसे कई नियम मौजूद है लेकिन मानने वाला कोई नही। नियमों की अनदेखी संसदीय संकट
की ओर इशारा कर रही है। लिहाजा समय रहते इसमें पूर्ण विराम लगाना आवश्यक हो गया है।

संसद


संसद लोकतंत्र का पहरेदार, आवाम की आस्था का मन्दिर देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था, देश के विकास की नींव यही रखी जाती है। मुल्क के कोने कोने से चुने हुए प्रतिनीधि यहां अपनी आवाज बुलन्द करते है। जनता के जुडे मुददों पर सार्थक बहस इसी जगह होती है। कानून बनाने की ताकत इसी संसद को है। मगर आज यहां हालात बदले बदले नजर आ रहे है। सदन में आए दिन होने वाले हो हंगामें पर अब सवाल उठना शुरू हेा गया है। कि आखिर किसके लिए है संसद। क्या है इसका उददेश्य। आखिर में सबसे महत्वपूर्ण कि संसद में विरोध की क्या सीमा होनी चाहिए? आज जहां बहस का स्तर गिर रहा है वही
सांसद आपसी टोकाटोकी में ज्यादा मषगुल दिखाई देते