शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

आखिर ऐसा क्यों?

मित्रों आजादी के 67 साल के बाद भी हम गरीबी से नही लड़ पा रहें है। गरीबी हटाओं नारे के बावजूद गरीब बढ़ते जा रहें हैं। सरकार के आंकड़ों में जरूरी गरीबी कम हो रही है मगर उससे ज्यादा तेजी से लोग गरीबी रेख के नीचे जीवन यापन करने के लिए मजबूर हैं। सोचिए जिसे देश में गरबी के घर के लिए इंदिरा आवास योजना 80 के दशक से चल रही है वहां 20 करोड़ से ज्यादा के पास अपना घर नही। शौचालय के लिए निर्मल भारत अभियान के 30 साल बाद भी 67 फीसदी आबादी के लिए शौचालय की व्यवस्था नही। रोजगार के लिए महात्मा गांधी नरेगा है, शिक्षा के लिए सर्व शिक्षा अभियान अब शिक्षा का अधिकार है और बच्चों के भोजन के लिए मीड डे मील योजना है। पीने के पानी के लिए राष्टीय शुद्ध पेयजल मिशन है। स्वास्थ्य के लिए राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन है। महिलाओं के लिए एकीकृत बाल विकास योजना, जननी सुरक्षा योजना जैसी योजनाऐं है। पेट भरने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून है वहां समाज के बड़ा तबका इतना परेशान क्यों है। यहां बिजली भी राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना है। वहां लाखों गांव में उजाला नही है। कहने से तात्पर्य यह है की आजादी के बाद भारती की समस्यओं का हल योजनाओं में ढूंढा गया। नतीजा समस्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। आखिर ऐसा क्यों?

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

केजरीवाल का इस्तीफ अध्याय

अब हमें नींद से जगना होगा। अब हमें लड़ना होगा। किस बात पर गर्व करे?? लाखों करोड़ के घोटालों पर? 85 करोड़ भूखे गरीबों पर? 62 प्रतिशत कुपोषित इंसानों पर? या क़र्ज़ से मरते किसानों पर? किस बात पर गर्व करे?? जवानों की सर कटी लाशों पर? सरकार में बैठे अय्याशों पर? स्विस बैंकों के राज़ पर? किस बात पर गर्व करे?? राज करते कुछ परिवारों पर? उनकी लम्बी इम्पोर्टेड कारों पर? रोज़ हो रहे बलात्कारों पर? या भारत विरोधी नारों पर? किस बात पर गर्व करे?? जवानों की खाली बंदूकों ? सुरक्षा पर होती चूकों पर? पेंशन पर मिलते धक्कों पर? या इप्ल् के चौकों-छक्कों पर? किस बात पर गर्व करे?? किसानों से छिनती ज़मीनों  पर? युवाओं की खिसकती जीनों पर? संस्कृति पर होते रेलों पर? या क्रिकेट-कॉमनवेलथ खेलों पर? किस बात पर गर्व करे?? साढ़े 900 के सिलेंडर पर? इस झूठी शान पर? या 'इंडियन' होने की पहचान पर? किस बात पर गर्व करे?? किस बात पर गर्व करे? अगर जनता नरेन्द्र  मोदी को प्रधान मंत्री ना बनाये तो देश कैसे आगे बढे केजरीवाल के दिल्ली से भागने के प्रमुख कारण :- गर्मियां आ रही है फ़ोकट में पानी दे पाना नामुमकिन। कॉमन वेल्थ घोटाले पर कुछ न कर पाना। बिजली कम्पनियो का दाम घटाने से सीधा इंकार। आम आदमी पार्टी की आपसी फूट। दिल्ली की कानून व्यवस्था में कोई सुधार नहीं। मीडिया द्वारा केजरीवाल के झूठ का समय समय पर पर्दाफास करना। केजरीवाल को स्वयं एवं अपने साथियो की अनुभवहीनता का एहसास होना। कांग्रेस के साथ हुए गुप्त समझौते का उजागर होना | लोकसभा चुनावों की तैयारी ना कर पाना जिससे कांग्रेस के एन्टी वोट जो भाजपा को मिलने जा रहे हैं उसमे सेंध नहीं लग पा रही है | बार बार केजरीवाल के विधायक और मंत्रियों की काली करतूतें उजागर होना | जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल विधेयक के प्रस्तुत करने से पूर्व उप राज्यपाल की सहमति प्राप्त करने हेतु किसी भी प्रकार की कानूनी बाध्यता न होने के सम्बन्ध में दलीलें प्रस्तुत की थीं और उन दलीलों के पक्ष में कई  जाने माने संविधान विशेषज्ञों के नाम का इस्तेमाल किया था उनसे लग रहा था कि उनका पक्ष किसी हद तक सही था. परन्तु जब तीन विशेषज्ञों ने तो पहले ही यह कह कर पल्ला झाड लिया था कि उनसे जनलोकपाल के बारे में राय ही नहीं ली गयी थी तथा आज जिस प्रकार से पूर्व सोलीसीटर जनरल सोली सोराबजी ने भी स्पष्ट कर दिया कि “मुझे बिल नहीं भेजा गया था. मैंने इसे पढ़ा नहीं. इसलिए न तो मैंने इसके पक्ष में राय दी है न विपक्ष में ” तथा जिस प्रकार उन्होंने "आप" को हिदायत दे डाली है कि अपने  कामों को सही ठहराने के लिए उनकी राय का इस्तेमाल न करें, उसे देखकर आम आदमी यह सोचने को विवश है कि कहीं आम आदमी पार्टी केवल झूठ के आधार पर जनता को गुमराह करने की नयी ढंग की राजनीति तो नहीं कर रही है केजरीवलजी शुरु से ही झूठ का सहारा ले रहे हैं.. पहले बोले की चार कॉन्स्टिट्यूशन एक्सपर्ट ने उनको सपोर्ट किया है अब उसमे से
तीन ने मना कर दिया.. अब सोराबजी ने वी मना कर दिया . अब जबरदस्ती बिना सेंटर के अग्रीमेंट के बिल लाने के जिद्द को कैसे जस्टिफाइ करेंगे केजरीवाल.. कोई इसे  त्याग' नहीं मानेगा। कैसा त्यागपत्र? त्याग कहां है इसमें? आप कोई भी एक म़ुद्दा बनाकर, उसे  बढ़ाकर, उसे 'अदर एक्सट्रीम' तक ले जाकर जिम्मेदारी से हटना चाह रहे थे, सो हट गए। शीला के नाम से सत्ता में आए थे... अम्बानी का नाम लेकर भाग निकले... मजे की बात यह कि अधिकाँश चैनलों में मुकेश अंबानी का पैसा लगा हुआ है, फिर भी मीडिया पर सर्वाधिक कवरेज केजरी को मिल रहा है, और फिर भी इस "रोतले" को  शिकायत है. किसी भी आपिये ने अभी तक इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि - १) यदि गवर्नर के पत्र पर आपत्ति थी, तो उसे  लेकर कोर्ट क्यों नहीं गए? २) आठ दिन रुक जाते तथा उस विधेयक को दोबारा राष्ट्रपति-केन्द्र के पास भेजते... जब वहाँ से वापस  आता तो काँग्रेस-भाजपा के खिलाफ "एक्...सपोज"(?) केस और अधिक मजबूत बनता... तब इस्तीफ़ा देते... लेकिन ना तो "युगपुरुष" को न्यायालय पर यकीन है और ना ही इन्हें वहाँ ठहरना था... बस भागने की जल्दी हो रही थी... इनका मन तो नौटंकी-धरने में ही रमा हुआ है... इतना शानदार मौका गँवा दिया कुछ कर दिखाने का.
वो सेंटर को अपना बिल . . सेंटर मना कर देती फिर हम सब केजरीवाल को सपोर्ट करते.?

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

संसद के नियम

संसद में आए दिन हंगामा होना कोई नही बात नही है। हंगामा आज सियासी हथियार बन गया है। राजनीतिक दल इसे अपना विशेषाधिकार समझने लगे है। सदन में सांसदों के लिए कई नियम  बनाये गए है। मगर दुर्भाग्य से इन नियमों का हर रोज चीरहरण हो रहा है।

1-कोई सदस्य अगर भाषण दे रहा हो तो उसमें बांधा पहुंचाना नियम के खिलाफ है।
2-सांसद ऐसी कोई पुस्तक समाचार पत्र या पत्र नही पडे़गा जिसका सभा की कार्यवाही से सम्बन्ध न हेा ।
3- सभा में नारे लगाना नियम विरूद है।
4-सदन में प्रवेश और निकलने के वक्त अध्यक्ष की पीठ की तरफ नमन करेगा।
5-सभा में नही बोल रहा हो तो शान्त रहना चाहिए
6-भाषण देने वाले सदस्यों के बीच से नही गुजरेगा
7-अपने भाषण देने के तुरन्त बाद बाहर नही जायेगा
8-हमेशा अध्यक्ष को ही सम्बोधित करेगा।
9-सदन की कार्यवाही में रूकावट नही डालेगा।
इन सारे नियमों के लब्बोलुआब को कुछ यूं समझ ले कि सदन में अध्यक्ष के आदेश के बिना पत्ता भी नही हिल सकता। ऐसे कई नियम मौजूद है लेकिन मानने वाला कोई नही। नियमों की अनदेखी संसदीय संकट
की ओर इशारा कर रही है। लिहाजा समय रहते इसमें पूर्ण विराम लगाना आवश्यक हो गया है।

संसद से सवाल

क्या संसद सही मायने में लोकतंत्र की पहरेदार है?
क्या यह आवाम की आस्था का मन्दिर है?
क्या किसी भी मायने में यह देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था है?
क्या देश के विकास की नींव यहां रखी जा रही है?
क्या चुने हुए प्रतिनिधी यहाॅ अपनी आवाज बुलन्द कर पाते हैं?
क्या जनता के जुडे मुददों पर सार्थक बहस हो पा रही है?
क्या देश के लिए संसद कानून बना पा रही है?
क्या संसद का सबसे महत्वपूर्ण घंट प्रश्नकाल चल पा रहा है?
यह सारे सवाल उठना लाजमि है। अगर संसद में कानून नही बन सकते, चर्चा नही हो सकती, सांसद अपने क्षेत्र के मुददे नही उठा सकते। तो इस संसद को बुलाने का औचित्य क्या है। अगर यह रस्मअदायगी है तो इसमें हर घंटे में जनता की गाड़ी कमाई के 26 लाख बर्बाद होते हैं। सवाल उठेंगे कि आखिर संसद किसके लिए है। आखिर में सबसे ज्यादा जरूरी विरोध की सीमा क्या होनी चाहिए? संसद में आज के घटनाक्रम ने  सबको शर्मसार कर दिया। मगर कार्यवाही के नाम पर हुआ निष्कासन। यानि आगे भी यह सब देखने को मिलेगा। अगर आज की इन्हें संसद और चुनाव लड़ने से अयोग्य कर दिया जाता तो शायद एक अच्छी नजीर पेश होती। मगर संसद एक उदाहरण पेश करने में चूक गई। अब इस चूक का नुकसानआने वाली पीड़ी को उठाना पड़ेगा। सरकार की नाकामी तो जगजाहिर है, जिसने सबकुछ जानते हुए भी अपने प्रबंधन की दुरूस्त नही किया। 15 वीं लोकसभा का कामकाज अब तक के सबसे निचले स्तर का है। पूरे 5 साल में 35 फीसदी से भी कम संसद चली। इसलिए समय रहते इस बीमारी का निदान जरूरी है।

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

कांग्रेस मांगे ज्यादा वोट!

अर्थव्यवस्था की हालत जर्जर है। विकास दर 5 फीसदी से भी कम रहने की उम्मीद है। राजकोषिय घाटा बढ़ रहा है। निवेश घट रहा है। बचत में भी कमी देखने को मिल रही है। महंगाई आसमान पर है। आरबीआई 18 बार ब्याज़ दर बढ़ा चुकी है। आइआइपी के आंकड़े चिंताजनक है। मगर यूपीए सरकार मस्त दिखाई दे रही है। लगता है कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव कें फैसले का आंकलन कर लिया है। इसलिए अगली सरकार के लिए
अर्थव्यवस्था के हिसाब से वह नर्क कर रही है। बीजेपी जानती है मगर क्या करे अगर विरोध करेगी तो जनता की नजरों के कांग्रेस उसे गरीबों का दुश्मन ठहरा देगी। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो यह फैसले न देश हित में हैं न आम आदमी के हित में। क्योंकि पैसा हमारी ही जेब से निकाला जाता है। यह बात सच है कि पैसे पेड़ में नही उगते।

1-गैसे सिलेंडर- 9 से 12  5000 करोड़ का अतिरिक्त बोझ
2-सीएनजी -30 फीसदी सब्सिडी यानि 14 रूपये 90 पैसे सस्ती
3-पीएनजी- 20 फीसदी सस्ती यानि 5 रूपये तक सस्ती
4-न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की तैयारी!
5-7वें वेतन गठन आयोग का गठन
6-पीएफ योगदान सीमा 15000 तक संभव
7-इपीएफ पर 1000 तक बढ़ोत्तरी।
8-10 फीसदी डीए बढ़ाया। 50 लाख केन्द्रीय कर्मचारी और 30 लाख पेंशनरों को फायदा
9-इएसआईसी - 25000 तक संभव
10-पीएफ डिपोजिट रेट- 8.5 फीसदी से बढ़ाकर 8.75 फीसदी

वोट के लिए कुछ भी करेगा!
9 लाख कर्ज पिछले साल आज हो गया है 25 लाख करोड़।
पिछले 2 सालों से अर्थव्यवस्था की हालत कमजोर मगर आज हालत खराब
अगली सरकारों के लिए होगी मुश्किल।
सरकार का राजकोषित घाटा होगा अनियंत्रित।
प्रधानमंत्री का बयान। पैसे पेड़ में नही उगते। तो अब क्यों लुटा रहे हैं?
यानि अर्थशास्त्र के घोडे़ को राजनीति के चाबुक से हांका जा रहा है।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

ममतावान मोदी

कोलकाता में नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि प्रणव मुखर्जी को जानबूझकर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नही बनने दिया। जबकि इंदिरा गांधी की मौत के बाद और 2004 में वह सबसे योग्य उम्मीदवार थे। उन्होने कहा की कांग्रेस किसी भी बड़े नेता को आगे बढ़ने देना नही चाहती जिससे गांधी परिवार को कोई खतरा हो। मगर यह सवाल का जवाब नरेन्द्र मोदी के पास नही है की उनकी महत्वकांक्षा के चलते आडवाणी जी का स्वप्न चकनाचूर हो गया। यहां तक की आडवाणी जी ने खत लिखकर  भी सार्वजनिक तौर पर बीजेपी अध्यक्ष की कार्यशैली पर सवाल उठाये। यानि पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता को राजनाथ और मोदी ने संघ के साथ मिलकर अलग थलग कर दिया। कमसे कम कांग्रेस के पास कहने के लिए तो है कि उन्होने प्रणबदा का राष्टपति बना दिया। देश का प्रथम नागरिक। मोदी राजनीति में कुछ करने की बात तो करते हैं मगर उनका एक मात्र लक्ष्य है।प्रधानमंत्री पद येन केन प्रकारेण। इसलिए महिला सुरक्षा के लिए बदनाम पश्चिम बंगाल पर ममता सरकार पर वह मेहरबान रहे। 35 साल तक राज करने वाले वामदलों को खरी खोटी सुनाई मगर ममता को कुछ नही कहा। यानि वह जानते है की दीदी की जरूरत आने वाले दिनों में पड़ सकती है।

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

15वी लोकसभा का आखिरी सत्र

5 फरवरी से 15 वी लोकसभा का आखिरी सत्र होने जा रहा है। पूरे 15 वी लोकसभा को अगर देखा जाए तो 2जी स्पैकटम, कोयला आवंटन मामला, महंगाई, राष्टमंडल खेल में घपला, आदर्श सोसाइटी घोटाला और वीवीआइपी हेलीकाप्टर डील में कथित अनियमितता को लेकर खासा हंगामा हुआ। खासकर 2जी मामले को लेकर जांच पीएसी से हो या जेपीसी से इसको लेकर कई सत्रों तक संसद नही चल पाई। इस दौरान महंगाई भ्रष्टाचार आंतरिक सुरक्षा और विदेश नीति से जुड़े मामलों में सरकार की खूब किरकिरी हुई। यही कारण रहा है की सरकार इन मुददों में इतना उलझ गई कि निवेश से जुड़े मामलों में फैसला नही कर पाई। नतीजा आर्थिक विकास दर 5 फीसदी से कम रहने की उम्मीद है। चाहे अद्योगिक उत्पादन की बात हो या सेवा क्षेत्र
की हर जगह गिरावट देखने को मिली। हालांकि बात में सरकार ने निवेश के मामलों को देखने के लिए एक कैबीनेट समिति का गठन किया जो अब तक पांच लाख करोड़ से ज्यादा के निवेश से जुड़े मामलों को हरी झंडी दे चुकी है। सरकार के सामने राजकोषिय घाटे को जीडीपी के 4.8 फीसदी तक रखने की चुनौति है। साथ ही उपभोक्त मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई को 4 फीसदी से कम रखने की है। मगर लगता नही की सरकार यह कर पाएगी। क्योंकि महंगाई रोकने के लिए आरबीआई 2009 से अब तक 18 बार नीतिगत दरों में परिवर्तन कर चुका है। आज रेपो रेट 8 फीसदी है। यानि कर्ज की मांग कम होने के चलते  मांग को रफतार नही मिल पा रही है। कच्चे तेल के दाम अब भी अंतराष्टीय बाजार में 100 डालर प्रति बैरल से उपर है। तेल पदार्थों में सब्सिडी 2013 -14 में 1.5 लाख करोड़ के आसपास रहने का अनुमान है। सरकार के लिए राहत की बात यह है कि सीएडी के मामले में उसके लिए थोड़ा राहत है। सोने में शुल्क बढ़ाने से इसके आयात में कमी आई जिससे सरकार अब सीएडी को कम कर पाई है। मगर लम्बे समय के लिए सरकार को कुछ और उपाय करने होंगे। क्योंकि ऐसे कदमों से सोने की कालाबाजारी को बढ़ावा मिलता है। कुल मिलकार एफडीआई से जुड़े मामले, वस्तु और सेवा कर, डारेक्ट टैक्स कोड बिल जैसे बड़े मुददे सरकार के सामने हैं। अब देखना यह होगा की इस आखिरी सत्र में सरकार क्या रास्ता अख्तियार करती है।