शनिवार, 14 नवंबर 2009

झारखंड। ए पेनफुल जर्नी

झारखंड राज्य 15 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया। लम्बे समय के संघर्ष के बाद लोगों ने चैन की संास ली। लेकिन 9 साल की उम्र में इस राज्य का हाल ऐसा होगा किसी को नही मालूम था। नेताओं और अफसरों की मिलीभगत ने राज्य को ऐसे दोराहे पर लाकर खडा कर दिया है जहां से सिर्फ अंधेरा ही नजर आता है। राज्य की सकल घरेलू उत्पाद में जंगल और कृषि का 24 फीसदी, उघोग का 42 फीसदी और 34 फीसदी सेवा क्षेत्र का योगदान है। मगर इसकी पहुंच एक सीमित वर्ग तक है। जहां देश का 40 फीसदी खनिज मौजूद ह,ै वह गरीबी सबसे ज्यादा है। जहां 52 फीसदी जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। वहां नेताओं की संपत्ती चंद सालों में करोडो तक पहुंच चुकी है। मुख्यमंत्री से लेकर चपरासी और अफसर से लेकर ठेकदार, वहां सब मालामाल है। 59 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार है जबकि 80 के दशक से हम इसका उपचार कर रहे है। आज इसे आप एकीकृत बाल विकास योजना के रूप में जानते है। 64 फीसदी गांवों में अब भी मौसमी सडकें नही है। जबकि प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना को आज 9 साल पूरे होने को है। 89 फीसदी ग्रामीण घरों में बिजली की कोई व्यवस्था नही है जबकि केन्द्र सरकार का नारा है ´बिजली टू आल ´ 2012 तक। मुझे मालूम है कि इस चुनाव में नेता एक दूसरे के कपडे उतारने में कोई कोर कसर बाकी नही छोडेंगे । हर राजनीतिक दल में, हम अच्छ,े तुम गंदे का खेल होगा। मगर फैसला तो जनता को देना है। बस इतना जान लेना जरूरी है कि यह राज्य अब एक ओर मधु कोडा या उसके जैसों का भार नही सहन कर सकता। पहले ही काफी देर हो चुकी है। इस बार जनता के पास एक मौका है एक स्थिर सरकार देने का। निर्दलियो और भ्रष्ट नेताओं की भ्रष्टाचार की फिल्म का ´दि एण्ड´ करने का। इससे बडा दुर्भाग्य और क्या होगा कि अपने 9 साल की उम्र में यह राज्य 6 मख्यमंत्री देख चुका है। बाबू लाल मरांडी, शिबू सोरेन, अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा सब मुख्यमंत्री बने, मगर 2 साल से ज्यादा कोई नही टिक पाया। क्योंकि राजनीति के इस बाजार में डील परमानेन्ट नही हो पाई। मतलब साफ है नोट कमाने में नो रूकावट। क्या आप समझे नही। महत्वकांक्षाओं की आंधी में गुरूजी यानि शिबू सोरेन ने क्या कुछ नही किया, पूरे तीन एटम्ट। आखिरकार जनता को ही उनकी हवा निकालनी पडी। तमाड़ में ऐसा तमाचा पडा कि राश्ट्रपति शासन के अलावा और कोई चारा ही नही बचा। अच्छा ही हुआ वरना आगे और कितनी बबाZदी होती इसका एस्टीमेट लगा लिजिए। वैसे भी राजनीति में अगेन ट्राई के नैतिक सिद्धान्त की पूजा हर नेता करता है। भ्रष्टाचार का जो गंदा खेल इस राज्य ने देखा वो कोई और न देखे। मगर राजनीति का वो घिनौना खेल जनता के सामने आ गया जिसकी चर्चा अक्सर होती है। आज नेता फिर जनता के दरबार में हैं। झारखंड राज्य एक सबक है राजनीति के उस बदनाम चरीत्र का जिसको सुधारने की चर्चा होने लगे तो नेता चीख चीख कर अपना गला फाड लेंगे। मगर वो कितने पाक साफ है यह तो उनकी आत्मा ही जाने। भ्रष्टाचार इस देश के सामने सबसे बडी चुनौती है। जब तक समाज के इन दुश्मनों को सजा नही मिलेगी, तब तक भारत नही बदल सकता। फिर चाहे आप मनरेगा का रोना पीटे या इन्क्लूसिव ग्रोथ का। सवाल मधु कोडा या उसके सहयोगियों का नही है। सच्चाई तो यह है इस देश में कई मधुकोड़ा है जो अपने रसूक के चलते भारत के संविधान और उसके दण्ड विधान का बार बार बलात्कार करते है मगर उनको सजा देना तो दूर हम उन्हे अपने पलको मे बैठाये रखते है। हमें जागना होगा। इस देश के नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वो इसके खिलाफ एक जुट हो। तभी इस देश के शक्ति बोध और सौन्दर्य बोध को बचाया जा सकेगा। आज यह लेख लिखते हुए मुझे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की वह पंक्तियां याद आ रही है।
कौन कौरव, पांडव कौन, टूटा सवाल है,
क्योंकि दोनो ओर शकुनि का कूट जाल है।
धर्मराज ने छोडी नही जुए की लत,
हर पंचायत में पांचाली अपमानित है।
आज बिना श्रीकृष्ण के महाभारत होना है,
कोई राजा बने, रंक को तो रोना ह,ै रंक को तो रोना है।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

मिशन यूपी

कांग्रेस के लिए मिशन यूपी मुंगेरी लाल के हसीन सपने से कम नही। पहले लोकसभा में जबरदस्त कामयाबी और फिर फिरोजाबाद का उपचुनाव 85000 से ज्यादा वोटों से जीतना इस बात की गारंटी नही कि यह कांग्रेस की वापसी की शुरूआत है। यूपी के संगठन के स्तर में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। फिरोजाबाद सीट तो मुलायम के गलत फैसले के चलते सपा ने गवांई। जनता ने उनके परिवार से पांच लोगों को तो झेल लिया मगर जब 6वें यानि उनकी बहू की बात आई तो जनता ने उन्हें दरवाजा दिखाना ही था। यह उन नेताओं के लिए भी एक सबक है जो राजनीति में परिवारवाद को जमकर बड़वा दे रहे है। कांग्रेस के राजबब्बर के मुकाबले डिंपल यादव कही नही टिकती थी। बस यही बात कांग्रेस के पक्ष में गई। फिर कैसे पूरी तरह इसे राहुल का करिश्मा कह सकते है। दरअसल मुलायम सिंह इस मुगालते में थे कि जनता उनके नाम पर वोट डालती है। इससे कोई फर्क नही पडता कि चुनाव में उम्मीदवार कौन है। बस यह निर्णय आत्मघाती हुआ। कांग्रेसी चाटुकारों को तो बस मौका चाहिए राहुल गांधी या फिर सोनिया गांधी की तारीफ करने का। मौका मिल गया सो हो गई चाटुकारिता शुरू। अच्छी बात यह है राहुल गांधी राजनीति के इस रंग को बखूबी पहचानते है।