मंगलवार, 27 नवंबर 2012

खुदरा क्षेत्र में एफडीआई पर राजनीति

संसद का सत्र मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को को लेकर नही चल पा रहा है। सरकार की विपक्ष को मनाने की हरंसभव कोषिष नाकाम साबित हो रही है। विपक्ष लोकसभा में नियम 184 और राज्यसभा में नियम 168 के तहत बहस कराये जाने से कम में कुछ भी माननू को तैयार नही। वही सरकार का नम्बर गेम उसके लिहाज से फिट तो बैठता है मगर इस नियम के तहत चर्चा कराये जाने को लेकर वह मानने को तैयार नही। विपक्षा का आरोप है की वित्तमंत्री रहते हुए प्रणव मुखर्जी ने लोकसभा में और वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने राज्यसभा में सभी को विष्वास में लेकर इस मुददे का हल निकालने का विष्वास दिलाया था। मगर सरकार ने बिना विपक्षी यहां तक की सहयोगियों को विष्वास में लिए इससे जुड़ा नोटिफिकेषन जारी कर दिया। इससे पहले कांग्रेस दिल्ली में महारैली का आयेाजन कर चुकी है। जिसे उसके नेता एक सफल आयोजन बता रहे थे। मगर सरकार कोई बडा़ राजनीतिक संदेष और सुधारों को लेकर अपना बचाव कर पाई ऐसा लगता नहीं। प्रधानमंत्री ने इन सुधारों को वक्त की दरकार बताकर ड़ीजल के दाम बढ़ाने और सब्सिडी से जुड़े एलपीजी सिलेंडर को 6 तक सिमित करने के पीछे मजबूरी का रोना रोया। देश का राजनीतिक लिहाज से दूसरे सबसे ताकतवर व्यक्ति व्यवस्था परिवर्तन की दुहाई देता है तो सवाल उठता है कि यह व्यवस्था किसकी देन है जहां गरीब और मजदूर की कोई सुनवाई नही है। मगर इस महारैली का अयोजन का खास मकसद किसानों को मल्टीब्रांड रिटेल सेक्टर में एफडीआई को लाने को लेकर था। मगर क्या सरकार देश को इससे हेाने वाले फायदे जैसा की सरकार तर्क दे रही है, जनता को समझा पाई। इसका जबाव आने वाले चुनावों से मिलेगा। मगर  सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में दूसरे मुददों के साथ- साथ इस मुददे पर घिरना तय है। सवाल यह उठता है कि 16 साल से लटके पड़े इस मुददे का महज यह एक राजनीतिक विरोध है या वाकई इस कदम से इस देश के किसान, खुदरा कारोबारी और रेहड़ पट्टी वालों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। चूंकि इसके विरोध में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि खुदरा क्षेत्र से जुड़े 4 करोड़ से ज्यादा कारोबारी सरकार के इस कदम से तबाह हो जाऐंगे। लघु उद्योग प्रतियोगी माहौल में दम तोड़ देंगे। यह बड़ी कंपनियां आकर हमारे देश में मनमानी करेंगी। मगर किसी भी निर्णय में पहुंचने से पहले यह समझना जरूरी है कि भारत में खुदरा बाजार की क्या स्थिति है? इसका हमारी अर्थव्यवस्था में क्या योगदान है? रोजगार के क्षेत्र में यह क्या भूमिका निभाता है? क्या महंगाई को कम करने में यह कदम रामबाण साबित होगा। क्या सालाना होने वाली फल और सब्जियों की बर्बादी में कमी आएगी? यह ऐसे सवाल है जो हर किसी के ज़ेहन में उठ रहे होंगे। दरअसल भारत में खुदरा कारोबार वर्तमान मंे 28 बिलियन डालर का है जिसके 2020 तक 260 बिलियन डालर तक पहुंचने की उम्मीद है। मतलब इस क्षेत्र में वर्तमान से 9 गुना ज्यादा बढ़ोत्तरी होगी। साथ ही जीडीपी में इसका योगदान बढ़ेगा और  रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। आज हमारे खुदरा क्षेत्र में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि खुदरा क्षेत्र में 95 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र से हैं। महज 5 फीसदी लोग संगठित क्षेत्र से हैं। खुदरा क्षेत्र का 70 फीसदी कारोबार खाद्य से जुड़ा है। बस इसी को सामने रखकर विरोध में कहा जा रहा है की हमारी खाद्य सुरक्षा पर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिपत्य हो जाएगा। मगर इसके पक्ष में भी बेशुमार तर्क है। उदाहरण के तौर पर, इससे उपभोक्ताओं को 5 से 10 फीसदी की बचत होगी। किसान को अपने उत्पाद के 20 से 30 फीसदी ज्यादा दाम मिलेंगे। 30 से 40 लाख नए रोजगार उपलब्ध होंगे। इसके अलावा अप्रत्यक्ष तौर में 40 से 60 लाख रोजगार का सृजन होगा। सरकार को इससे जुड़े ढंाचागत विकास मसलन प्रोसेसिंग, मैनूफैक्चरिंग, वितरण, डिजाइन, गुणवत्ता, कोल्ड चेन, वेयरहाउस और पैकेजिंग जैसे कामो में तेजी आएगी। इन सब वजहों की कमी के चलते सालाना 50 हजार करोड़ का नुकसान हमें उठाना पड़ता है। मसलन 16500 करोड़ का अनाज जो उत्पादन का 10 फीसदी है, बर्बाद हो जाता है। इसी तरह 15 फीसदी दालें, 30 फीसदी फल और सब्जियां और 40 फीसदी फलोरीकल्चर से जुड़े उत्पाद रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाते हैं।। अगर निवेश का 50 फीसदी हिस्सा इस बुनियादी क्षेत्र को विकसित करने में लगता है जैसे की कहा गया है तो हालात में तेजी से सुधार आएगा। सरकार के मुताबिक  बैक एंड इन्फ्रास्ट्रकचर में कुल निवेष का 50 फीसदी खर्च करना अनिवार्य होगा। बहरहाल सरकार के इस फैसले से वालमार्ट, कैरीफोर, टेस्को और मेट्रो जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत में कारोबार करने का रास्ता खुल गया है। मगर वर्तमान राजीनीतिक माहौल में यह कदम सरकार की साख और  सुधारों को गति दे पाएगा इसपर कुछ नही कहा जा सकता। बहरहाल सरकार ने 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में इन रिटेल स्टोरों को खोलने की अनुमति दी है। साथ ही कुछ ठोस प्रावधान भी किए हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक देष में 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों की संख्या 53 है। इससे पहले औद्योगिक और संर्वधन विभाग द्धारा जारी चर्चा पत्र में मल्टी ब्रांड रिटेल के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात कही गई है। रिटेल भारत में कृषि क्षेत्र के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। 8 से 9 प्रतिशत की सालाना दर से यह क्षेत्र आगे बढ़ रहा है। इससे पहले एकल रिटेल ब्रांड में 2006 में 51 फीसदी एफडीआई को अनुमति दी थी। जिसे अब 100 फीसदी कर दिया गया है। साथ ही होलसेल में 100 फीसदी विदेशी निवेश लागू है। एक अनुमान के मुताबिक 2006 से मई 2010 तक 901 करोड़ का निवेश इस क्षेत्र में आया है। इसमें से ज्यातातर निवेश खेल से जुडे परिधानों मसलन लग्जरी समान जेवरात और हैंडबैग में आया है। आज सरकार को यह स्थिति भी स्पष्ट करनी चाहिए कि छोटे कारोबारियों और रेहडी पटटी वालों पर इसका क्या प्रभाव  होगा? क्या वालमार्ट और कैरीफोर जैसी दिग्गज कंपनियां जो भारत के बाजार में प्रवेश के लिए ललायित हंै,उतने लोगों को रोजगार दे पायेंगी जितने लोग असंगठित खुदरा कारोबार से जुडे़ हैं? इस बात में कितना दम है कि किसान और ग्राहकों का इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा? क्या सरकार के इस कदम थोक और फुटकर दामों में अन्तर  पाटने में हमें कितनी मदद मिलेगी? क्या महंगाई की रफतार को थामने में यह कदम कितना मदद करेगा? और आखिर में सबसे अहम भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पडे़गा? सच्चाई यह है कि सिंगल ब्रांड में इन नियमों का पालन नही हो रहा है। भारत में रिटेल में जीडीपी की हिस्सेदारी 10 फीसदी के आसपास है जबकि चीन में यह 8 फीसदी, ब्राजील में 6 फीसदी और अमेरिका में 10 फीसदी है। भारत में तकरीब 1.5 करोड़ रिटेल स्टोर है जिनमें प्रमुख है पैन्टलून, सौपर्स स्टाॅप ,स्पैंसर, हाइपर सीटी, लाइफस्टाइल, सुभिक्षा और रिलायंस।  वाणिज्य मंत्रालय से जुड़ी स्थाई समिति ने मल्टी ब्रांड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर असहमति जताई थी। इस समिति ने सरकार से इस कार्य को करवाने के लिए देश के निजि क्षेत्र को षामिल करने का सुझाव दिया था। मगर सरकार ने इस सुझाव को नकार दिया था। खुदरा व्यापार राज्य का विषय है। लिहाज इस मामले में हरी राज्यों की भी हामी जरूरी है। बहरहाल कई राज्य इसे अपने यहां लागू न करने की बात साफ कर चुके हैं। इसलिए देखना दिलचस्प होगा की बीजेपी ़द्धारा शासित राज्य में इन दिग्गज कंपनियों का प्रवेश होता है या नही। इसमें कोई दो राय नही भारत और चीन दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार है ऐसे में यह कंपनियां यहां आने के लिए लम्बे समय से प्रयासरत थी। मगर आशंकाओं के सहारे भविष्य की आवश्यताओं को नकारना बुद्धिमानी नही। आज इस क्षेत्र में निवेश की जरूरत है। खुदरा क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की जरूरत है। महंगाई से आम आदमी को राहत देने की जरूरत है। मगर अच्छा होता सरकार इससे पहले अपने देष के मौजूदा ढांचे में व्यापक बदलाव कर लेती। मसलन सरकार ने यह तय नही किया की खुदरा कीमत का कितना प्रतिषत यह कंपनियां किसान को देंगी। किसान को कितने समय के अंतराल में उसके उत्पाद की कीमत मिलेगी। क्यों किसी निगरानी तंत्र जैसे प्राधिकरण का गठन नही किया गया? इनके क्रियाक्लापों पर नजर रखने वाली संस्था कौन होगी ? गुणवत्ता के नाम पर कहीं ये कंपनियां किसान को परेषान तो नही करेंगी। क्यों कई देषों में इन कंपनियों का विरोध हो रहा है?

सोमवार, 26 नवंबर 2012

आधार योजना और चुनौतियां

आधार! भारत में यह शब्द आजकल आम चर्चा का विषय है। इसलिए नही की यह हिन्दी के शब्दकोष से निकला एक बेहद अच्छा और भावपूर्ण शब्द है। बल्कि इसलिए यह राजनीतिक तौर पर यूपीए दो के महत्वाकांक्षी योजना का हिस्सा बनने जा रहा है। प्रधानमंत्री की आधार योजना को अंतिम रूप देने को लेकर हुई पहली बैठक इसकी तस्दीक है। भारत सरकार की मंशा इस योजना के सहारे सब्सिडी का सीधा फायदा जरूरतमंदों तक पहुंचाना है। फिलहाल कई राज्यों में इस योजना का प्रयोग पाइलट प्रोजेक्ट के तौर पर चल रहा है। मगर प्रधानमंत्री के मुताबिक 2014 यानि चुनावी साल तक 60 करोड़ लोगों तक आधार कार्ड पहुंच जाएगा। तो क्या आधार योजना अगले लोकसभा चुनाव का बड़ा मुददा साबित होगी? वैसे भी किसानों की कर्ज माफी और मनरेगा जैसी योजनाऐं का फल सरकार को 2009 के आम चुनाव में मिल चुका है। इससे उत्साहित सरकार के रणनीतिकार इस योजना  में भी वही गुण ढूंढ रहे हैं।  बहरहाल अगले साल 1 जनवरी से 16 राज्यों के 51 जिलों से इसकी शुरूआत होने जा रही है। आधार कार्ड के तहत 12 अंक का एक विशिष्ठ पहचान संख्या दी जाएगी। इस कार्ड के के जरिये आपको नकद भुगतान के अलावा और कई सेवाऐं प्राप्त होंगी। मसलन बैंक में खाता खोलने, टेलीफोन कनेक्शन लेने, हवाई या रेल सफर के लिए रेल टिकट लेने में आधार कार्ड का इस्तेमाल किया जा सकेगा। इस समय भारत सरकार 1.50 करोड़ छात्रों को वजीफा देती है। तकरीबन 2 करोड़ बुर्जुग पेंशन के दायरे में आते हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 3 करोड़ परिवार लाभार्थी हैं और देश में रोजगार की गारंटी देने वाली विश्व की सबसे बड़ी योजना माहात्मा गांधी नरेगा के तहत 5 करोड़ परिवार के खाते में सीधे नकदी जाएगी। यह सोच अपने आप में नायाब है मगर जमीन पर कैसे लागू होगी इसको लेकर संषय बरकरार है। आज सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता था। योजना आयोग के मुताबिक सरकार केन्द्र से जरूरमंदों को जो एक रूपया भेजती है उसे उस तक पहुंचाने के लिए अतिरिक्त खर्चा 3.50 रूपया आता है। यानी सरकार के पैसों की चांदी कोई और ही काट रहा है। वैसे भी पूर्व प्रधानमंत्री स्व राजीव राजीव गांधी की यह कहावत सुप्रसिद्ध है की केन्द्र से भेजे जाने वाले एक रूपये में से गरीब को सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाता  हैं। दुर्भाग्य देखिए तीन दशक बीते जाने के बाद भी हालात में कोई परिवर्तन नही आया। वैसे नकद राशि सीधे खाते तक पहुंचाने के पीछे सरकारी तर्को की भरमार है। जैसे जरूरमंदों तक पैसा पहुंचेगा, बर्बादी रूकेगी, खर्च घटेगा और सरकारी धन की लूट रूकेगी। सबसे ज्यादा फायदा खुद सरकार को मिलेगा जिसका सब्सिडी का बजट बढ़ता जा रहा है। मगर मुख्य सवाल यह है कि आधार योजना क्या वाकई सरकारी पैसों की लूट को रोक पाएगी? क्या गरीब तक सरकारी मदद पहुंच पाएगी। इसे समझना सबसे जरूरी है। क्योंकि इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए यहां कई मंत्रालयों के बीच समन्वय की दरकार होगी। आधार योजना में वित्त, सामाजिक अधिकारिता, मानव संसाधन, अल्पसंख्यक, श्रम और रोजगार, स्वास्थ्य, खाद्य, पेट्रोलियम और नैचूरल गैस, कैमिकल और फर्टीलाइजर मंत्रालय सहित योजना आयोग की भूमिका अहम होगी। सवाल यह है कि जब यहां 2 मंत्रालयों के बीच समन्वय नही है इतने सारे मंत्रालयों के विचारों का संगम कैसे होगा। क्या आधार योजना को सफल बनाने के लिए यह सभी मंत्रालय एक जुट होकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करेंगे। दूसरी ओर  इसके विरोध करने वालों के तर्कों को भी दरकिनार नही किया जा सकता। मसलन क्या बीपीएल परिवारों की सही पहचान कैसे होगी। जब गरीब का ही नही पता तो योजना का क्या हश्र होगा।  यानि जब सही पात्र व्यक्ति का चयन नही हो पाएगा तो आधार की सफल होने की संभावना न के बराबर है। इसलिए कौन गरीब, कितने करीब, इन दो सवालों का जवाब हमें सबसे पहले ढंूढना होगा। खासकर राज्य सरकारों की जिम्मेदारी यहां पर महत्वपूर्ण होगी। अभी हालात यह है की पीडीएस में फर्जी राशन कार्डो की भरमार हैै। 2 करोड़ से ज्यादा हम निरस्त कर चुके हैं और न जाने कितन इस सिस्टम में मौजूद है। अकेल दिल्ली में एक महिला के नाम पर 800 से ज्यादा फर्जी राषन कार्ड पाए गए। इसका विरोध करने वाले आधार योजना को पीडीएस पर लागू न करने की सलाह दे रहे है। हालांकि भारत सरकार ने अभी इस तरह के संकेत नही दिए है कि राषन प्रणाली के लिए भी वह नकद भुगतान का रास्ता अख्तियार करेंगे। इस समय सरकार मुख्यतः तीन क्षेत्रों में भारी सब्सिडी देती है। फूड, फर्टीलाइजर और पेट्रोलियम। ज्यादातर विषेषज्ञ पीडीएस में नकद राशि के भुगतान के खिलाफ कई तर्क दे रहे हैं। पहला हर साल होने वाली बंपर पैदावार के प्रोक्यूरमेंट का क्या होगा जिसे एफसीआई करता है। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या होगा? उससे भी ज्यादा आने वाले समय में खा़द्यान्न संकट की स्थिति आ सकती है। दूसरा उस सामाजिक समस्या का क्या जिसके मुताबिक घर में आए पैसे को कहां खर्च करना है, यह अधिकार महिलाओं के पास नही हैं। शायद इसलिए भी महिलाऐं अनाज के बदले नकदी नही चाहती। हाल ही में एक संस्था द्धारा 9 राज्यों में 100 चयनीत गांवों के 1227 परिवारों में एक सर्वे किया गया। इसमें यह बात सामने आई की आंध्र प्रदेश में 91 फीसदी, ओडिशा में 88 फीसदी, छत्तीसगढ़ 99 फीसदी, छत्तीसगढ़ और हिमांचाल प्रदेश में 81 फीसदी लोगों ने अनाज के बदले नकद राशि लेने का विरोध करने की बात कही है। इसलिए जरूरी है कि सरकार खाद्य सुरक्षा काननू लाने से पहले पीडीएस के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करे। वैसे वितरण प्रणाली को दुरूस्त करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। छत्तीसगढ़ द्धारा अपनाये गए माॅडल की आज हर कोई तारीफ करता है। ऐसा क्या है कि बाकि राज्य अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरूस्त क्यों नही कर सकते। आधार कार्ड के पक्ष में एक मजबूत तर्क यह है कि इससे सबसे ज्यादा फायदा उनका होगा जिनके पास अपनी पहचान साबित करने का कोई तरीका नही। खासकर वे लोग जो अपनी रोजी रोटी के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते है या दूसरे शब्दों में जिन्हें हम घुमन्तु समाज कहते हैं। कहा जाता है कि जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी 11 फीसदी के आसपस है। डाक्टर बालकृष्ण रेंगे समिति के मुताबिक आजतक भारत में इनकी गणना ही नही हुई। इनमें नोमेडिक ट्राइब, डिनोटीफाइड नोमेडिक ट्राइब, चरवाहे, सपेरे, बंदर का करतब दिखाने वाले आदि। इनकी संख्या तकरीबन 4 करो़ड के आसपास है। यानि 50 लाख परिवार। अगर ईमानदारी से इनको भी आधार कार्ड मुहैया कराया जाएगा जैसे की कहा जा रहा है तो यह एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा। एक और मुष्किल सरकार के इस महत्वकांक्षी कार्यक्रम को मुष्किल में डाल सकती है। हमारे देष में 40 प्रतिषत आबादी की पहुंच बैकिंग व्यवस्था तक है। निजि बैंक गांवों में बैंकों की षाखा खोलने में दिलचस्पी नही दिखाते। इतना जरूर है  पिछले 3 सालों में  सरकार इसको लेकर गंभीर हुई है।  स्वाभिमान योजना के सहारे लोगों को बैकों को जोड़ने का प्रयास चल रहा है। मगर सच्चाई यह है कि बैंकों का कार्यक्षमता किसी से छिपी नही हैं। अभी हालात यह है कि बैंक मनरेगा तक का भुगतान समय से नही कर पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में हुए एक अध्यन के मुताबिक मनरेगा के तहत की 600 रूपये की मजदूरी बैंक से मजदूरी करने का औसल खर्च परिवहन और दूसरी जगहो ंपर 150 रूपये आया। इसलिए इसे लागू करने से पहले सरकार को इस पहलू पर गौर करना होगा। आधुनिक भारत के निर्माण में तकनीक की भूमिका को नकारा नही जा सकता। मगर साथ ही जमीनी हालात से मुंह भी नही चुराया जा सकता। तकनीक का फायदा हम रेलवे रिजर्वेशन व्यवस्था में देख चुके हैं। लिहाजा इस योजना से लोग उम्मीद पाल रहे हैं तो गलत नही।





रविवार, 5 अगस्त 2012

किसान


मैं किसान हूं । मझे अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। मेर कंधे पर 1 अरब 21 करोड़ आबादी के लिए अनाज उगाने का ज़िम्मा है। देश के पचास करोड़ पशुधन के लिए चारे का प्रबंध भी मुझे ही करना होता है। उद्योग जगत की निर्भरता भी मेरे पर कम नही है।  भले ही जीडीपी में मेरी भागीदारी 13 फीसदी हो मगर मैं आज भी रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हूं । मेरी मेहनत के चलते ही इस देश ने पहली हरित क्रांति का सपना बुना और उसे साकार किया। मैने वह सबकुछ किया जो मेरा कर्म था। मगर यह करते करते मैं आज टूटता जा रहा हूं।दूसरे को पेट भरने वाला मैं आज अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने में असमर्थ हूं। मैं न चिलचिलाती धूप की चिंता करता हूं ,न हाड़ कपा देने वाले ठंड की, न बाढ़ की, न सूखाड़ की। मेरा कर्म और धर्म एक ही है। धरती का सीना फाड़ कर देश की खाद्य सुरक्षा को बनाए रखना। मेरी इस बात के गवाह है यह आंकड़े जो मेरी मेहनत की चीक चीककर गवाही दे रहे है। मेरी मेहनत का सफरमनामा 1951 में 51 मिलियन टन अनाज से आज 255 मिलियन टन का रिकार्ड तोड़ उत्पादन तक पहुंच गया है। मगर मेरी मेहनत का मुझे मिलता क्या है। जब मैं खुले आसमान के नीचे सड़ते अनाज को देखता हूं तो खून के आंसू रोता हूं। जब मेरी मेहनत का उचित दाम मुझे नही मिलता तो मैं रोता है। प्रकृति, सरकार और बिचैलियों की बेरूखी का शिकार आखिर मैं ही क्यों। मैं पूछना चाहता हूं सियासतदानों से । मेरे उत्पाद का मुझे सही मूल्य क्यों नही मिलता। मुझे समय पर बीज, पानी, उवर्रक और कर्ज क्यों नही मिलता। क्यों आप लोग मुझे अकेला आत्महत्या जैसा महापाप करने के लिए छोड़ देते है। क्यों आप मेरे नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियों सेकते हैं। कभी आपने सोचा है कि क्यों इस देश का 41 फीसदी किसान किसानी छोड़ना चाहता है। कभी आपने सोचा कि 1981 से लेकर 2001 के बीच 84 लाख किसानों ने खेती क्यों छोड़ी। । मैं देश की सबसे बड़ी पंचायत से चंद सवाल करना चाहता हूं। मेर दम पर तुम भोजन के अधिकार देने का सपना देख रहे हो। मेरे और मेरे परिवारो की सुध तुम कब लोगो। क्या संसद में चंद लच्छेदार भाषणों से मेरा संताप मिट जाएगा। मेरे मुश्किलों का हल दिल्ली में बैठकर नही, मेरे खेतों में आकर करो। मेरी दुर्दशा का असली चेहरा दिल्ली से आपकेा नही दिखेगा। मेरा परिवार भी समाज में सम्मान से जीने का हकदार है। मेरे बच्चे भी अच्छी शिक्षा का ख्वाब देखते है। मैं अपने बच्चों के पैसे केा अभाव में मरते तड़पते नही देख सकता। मुझे मेरे सवाल का जवाब दो। जवाब दो। जवाब दो।

सोमवार, 2 जुलाई 2012

गंगा पर बांध


गंगा की धारा को अविरल बनाने की कमान और नियंत्रण देानो ही अब केन्द्र के जिम्मे हेागा। भारत सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है। इसके लिए एक गंगा बेसिन प्राधीकरण का गठन हुआ है जिसकी अघ्यक्षता खुद प्रधानमंत्री करते हैं। जिन राज्यों से गंगा बहती है यानि उतराखण्ड, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली बिहार उसके मुख्यमंत्री इसके सदस्य होंगे। गंगा का मैदान दुनिया का सबसे बडा जैव विविधता का क्षेत्र है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की सिंचित भूमि का 40 प्रतिषत भाग इसी के पानी पर निर्भर करता है। मतलब साफ है कि मामला आस्था के साथ साथ आजीविका से भी जुडा है।
मगर इन दिनों बहस गंगा की अविरलता और निर्मलता को लेकर चल रही है। संत समाज गंगा और उसकीसहयोगी नदी भागीरथी और अलकनंदा में बांध बनाने के खिलाफ विरोध कर रहें है जबकि राज्य सरकार इन बांधों के कामों की जल्द से जल्द शुरू करना चाहती है। इन सबके बीच उत्तराखंड की उर्जा सुरक्षा भी मुश्किलो में है। जिन तीन परियोजनाओं के काम पर सरकार ने रोक लगाई है वह हैं


लोहारीनागपाल   600 मेगावाट
पाला मनेरी      480 मेगावाट
भैरोंखाटी       381 मेगावाट

इन परियोजनाओं का ज्यादातर काम कर लिया गया है। साथ ही इन्हें उत्तराखंड की उर्जा सुरक्षा के लिहाज से अहम माना जा रहा है। बहरहाल सरकार ने एक अंतरमंत्रालय समूह का गठन किया है जिसकी अध्यक्षता योजना आयोग के सदस्य बीके चतुर्वेदी करेंगे।  यह समिति प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं पर विचार कर तीन महिने में अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौपेगी। यानी जो निर्माणाधीन हैं
 या बनाए जा चुके है उस पर सरकार विचार नही करेगी। आज उत्तराखंड राज्य के सामने बहुत बड़ी चुनौति है। भूगौलिक स्थिति की बात की जाए तो 86 फीसदी क्षेत्र पहाड़ी है, 65 फीसदी फारेस्ट से ढका है। और पूरा राज्य 4 और सिस्मिक जोन की श्रेणी में आता है। पूरा राज्य 4 और 5 सिस्मिक जोन में है।

आइये उत्तराखंड में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की स्थिति पर एक नजर डालते हैं।
कुल क्षमता                   27664 मेगावाट
मौजूदा उत्पादन               4000 मेगावाट
देश को रोशन करने का ख्वाब देखने राज्य की हकीकत यह है कि हर साल अपनी जरूरत पूरी करने को 700 मेगावाट बिजली का जुगाड़ करना मुश्किल पड़ रहा है। हालात यह है कि जलविद्युत में हम बाकी पहाड़ी राज्यों से खासा पिछ़ड़ रहे हैं।अगर तीन पहाड़ी राज्यों मसलन उत्तराखंड हिमाचंल और जम्मू और कश्मीर की बात की जाए तो 
उत्तराखंड में कुल क्षमता        27664.13 मेगावाट 
हिमांचल   मे कुल क्षमता       19980.62  मेगावाट
जम्मू और कश्मीर              11082.36 मेगावाट
इनमें वो प्रोजेक्ट शामिल है जो स्थापित है, निर्माणाधीन और जिनकी डीपीआर तैयारी की जा चुकी है।
आकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि हिमांचल की तुलना में उत्तराखंड की हाइडल पावर क्षमता 7683.51 मेगावाट से ज्यादा है। जहां उत्तराखंड केवल 14 फीसदी अपनी क्षमता का दोहन कर पाता है जिसे हम ग्रीन क्लीन एनर्जी कहते हैं। वहीं हिमांचल  32 फीसदी और जम्मू और कश्मीर 22 फीसदी अपनी कुल क्षमता का दोहन करने में कामयाब हुए हैं। मगर 10 साल पूरा होने के बाद भी उत्तराखंड कुल क्षमता में से 3164 मेगावाट का ही उत्पादन कर पा रहा है। बहरहाल उत्तराखंड में 70 हाइडल प्रोजेक्ट जिसकी इन्सटाल्ड कैपसीटी 9563 मेगावाट है। इसमें 17 प्रोजेक्ट कमीसन्ड है 14 अन्डर कन्सट्रक्सन  है और 39 प्रस्तावित परियोजना है।

सरकार द्धारा गठित ग्रीन पैनल मतलब वाइल्ड लाइफ इंस्टीटयूट आफ इंडिया के मुताबिक जो 39 प्रोजेक्ट प्रस्तावित हैं उनमें 24 परियोजनाओं बायोडाइवर्सिटी पर बुरा असर डाल सकती है। गंगा और उसकी सहायक नदी अलकनंदा और भागीरथी पर  हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का भारी विरोध हो रहा है। उत्तराखंड में जहां 2000-01 1112 मेगावाट पावर जनरेशन होती थी वह बढ़कर क्षमता 2010-11  3168मेगावाट हो चुकी है। मगर उत्तराखंड में बढ़ती मांग और आपूर्ति के बीच की खाई पांटने के लिए सरकार के पास इन जल विद्युत परियोजनाओं के अलावा कोई और विकल्प नही है।

गुरुवार, 28 जून 2012

कालाधन


आखिरकार काले धन पर सरकार लम्बे इंतजार के बाद श्वेत पत्र लेकर आई। इस श्वेत पत्र में कहा गया है कि स्वीस बैंक एसोशियेशन के मुताबिक विदेशी बैकों में 1500 बिलियन से 1900 बिलियन यूएस डालर के बीच काला धन हो सकता है। ग्लोबल  फाइनेंशनल इंटी्रगिटी के मुताबिक 1948 से लेकर 2008 तक 213 डालर यूएस बिलियन विदेशी बैकों में जमा कराए गए  जिसकी कीमत आज 462 बिलियन यूएस डालर के आसपास है। वहीं बीजेपी टास्क फोर्स के मुताबिक यह धन 500 से 1400 बिलियन यूएस डालर के बीच है। बहरहाल सरकार ने कितना पैसा विदेशी बैकों में जमा है इसको जानने के लिए नेशलन इंस्टिीटीटयूट और पब्लिक फाइनेंस पालिसी,  नेशलन इंस्टीटयूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट और नेशनल काउंसिल फार अप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च को यह जिम्मा सौंपा है। सरकार ने इस  श्वेत पत्र में काले धन को देश में लाने के लिए उठाए गए कदमों का जिक्र भी किया है। मसलन सरकार पांच सूत्रीय एजेंडा के साथ आगे  चल रही है। सवाल यह है की जानकारी कैसे प्राप्त की जा सकती है। एक और सवाल में यहां उठाना चाहता हंू कि एक दौर में 
हाइलेवल टैक्सेशन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता था। 1991 के बाद हम इसमें सुधार करते गए मगर आंकड़े यह कहते है 1991 के बाद काल धन ज्यादा पैदा हुआ। बहरहाल डबल टैक्सेसन अवईडेंस एग्रीमेंट के सहारे सरकार जानकारी जुटाने में लगी है। साथ ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी इन मुददों को उठाया गया है। इसमें अक्टूबर 2008 लंदन समिट में जी- 20 में इस मुददे को उठाया गया। साथ ही स्वीजरलैंड क साथ हमारा एग्रमेंट है। अक्टूबर 2011 में यह रैटीफाई हुआ। सरकार के मुताबिक यह जानकारी 1 अपै्रल 2011 से  प्राप्त होगी। इस श्वेत पत्र में कालाधन कैसे बनता है इसका भी जिक्र है। डरटी मनी जो दवाओं  और मादक पदार्थ की तस्करी से पैदा हुए है  उसपर रोक लगाने के लिए नार्काेटिक एण्ड सादकोटेपिक सब्सटेंस बिल लोकसभा में पेश हो चुका है। जहां तक नाम जो हमें प्राप्त हुए  है उनको सार्वजनिक करने को लेकर सरकार ने तर्क दिया है कि जो नाम हमारे पास उपलब्ध है उनको सार्वजनक करने पर आगे हमें  हमें किसी भी तरह की जानकारी नही मिल पाएगी। बहरहाल सरकार ने 66000 करोड रूपये का पता लगाया है। सरकार ने इनकम टैक्स डिर्पाटमेंट के तहत एक क्रीमिनल विंग बनाया है जो देश में कालेधन के प्रवाह को लेकर नजर रखेगा। इस समय देश में  लड़ाई कर चोर और कर कानून के बीच की है। हमारे पास करचोरो को पकड़ने के लिए पर्याप्त कानून का अभाव है या उसे लागू वाली एजेंसियों में दमखम का अभाव। बात चाहे कुछ भी हो मगर कालधन इस देश की अर्थव्यवस्था को खोखला कर रहा है। ऐसा लगता है की देश में कालेधन की एक समानान्तर सत्ता चल रही है। काले धन के मामले में हमें दो सवालों का जवाब तलाशना हैं? कैसे कालेधन को वापस लाया जाए?  और कैसे कालेधन के प्रसार पर रोक लगाई जाए? जवाब एक ही है कालेधन को देश में लाकर इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर सारा पैसा विकास कार्यो में लगाया जाए।

कंपनी विधेयक 2011


हमारे देश का कंपनी एक्ट 1956 का है। इसे आए हुए 55 साल बीत चुके हैं। इसमें अब तक 24 संशोधन हो चुके है। सरकार गहन विमर्श के बाद इसमें बदलाव करके नया कंपनी विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है।वर्तमान दौर में राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य में व्यापक  बदलाव देखने को मिले है, और आगे भी यह बदलाव जारी रहेंगे। इस लिहाज से कंपनी एक्ट में बदलाव जरूरी था। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1956 में कंपनियों की संख्या 30 हजार थी जो आज बढ़कर 30 लाख से उपर हो गई है।  नए बिल में सीएसआर और कारपोरेट गर्वेनेंस का खासतौर पर जिक्र किया गया है। अगर बिल की खास बातों पर अगर नजर मारेतो माइनोरिटी शेयरधारक को संरक्षण देना, बोर्ड में एक महिला डायरेक्टर का होना आवश्यक, और आडिटर का रोटेशन जैसी बातें इसमें अहम हैं।फिलाहाल कंपनी विधेयक 2011 को दुबारा स्थायी समिति के पास भेजा गया है। विधेयक के प्रारूप के मुताबिक कंपनियों के लिए अपने दस्तावेजों को इलोक्ट्रेनिक फार्म में रखना अनिवार्य किया जा रहा है। साथ ही सीएसआर को भी अनिवार्य बना दिया गया है। मतलब यह कंपनियां लाभ का 2 फीसदी हिस्सा सामाजिक कार्यो में लगाऐंगी। कहा यह भी जा रहा है की सत्यम से सबक लेकर भी सरकार बहुत कुछ बदलाव कर रही है मसलन आडिटर की स्वतंत्रता जरूरी बहुत जरूरी है। अभी पब्लिक सेक्टर कंपनियों के लिए अपने लाभ का 5 फीसदी सीएसआर के तौर पर देते थे। अब कहा जा रहा है की सीएसआर के मामले में कंपनियां खुद फैसला करें और अगर वह ऐसा नही कर पाते तो इसका कारण बताऐं। अभी तक भारतीय कंपनी का विलय विदेशी कंपनी के साथ नही हो सकता था। हां विदेशी कंपनियों का विलय भारतीय कंपनियों के साथ हो सकता है। मतलब कोरस का विलय टाटा स्टील में हो सकता है मगर टाटा स्टील का विलय कोरस में नही हो सकता। इसमें संशोधन किया गया है। साथ ही इस बिल में इन्साइडर टेड्रिंग को अपराध की श्रेणी में लाया गया है।

देख तमाशा कुर्सी का- भाग 1


जेडीयू का प्रणब मुखजी को समर्थन देना व्यक्तिगत है या पार्टी की सोझी समझी रणनीति का हिस्सा। कुछ लोग इसे बिहार में मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की मात्र कवायद के तौर पर देख रहे हैं साथ ही कुछ का कहना है की जेडीयू और बीजेपी की मित्रता अपने आखिरी पड़ाव में है। जहां तक मुस्लिम वोट बैंक का सवाल है 2010 के विधानसभा चुनावों में उन्हें अच्छा वोट मिला। जहां तक मुस्लिम वोटों का बिहार में सवाल है 1977 और 1989 में कांग्रेस के खिलाफ पड़ा। मतलब इसके 1989 तक कांग्रेस इनके वोटों की चैंपियन रही। 1989 के बाद 2005 तक लालू प्रसाद यादव को यह वोट पड़ा। इसके बाद नीतिश कुमार इसे कई मायने मेंअपने पक्ष में करने में सफल रहे। अब सवाल यह कि जेडीयू मोदी पर इतनी हमलावर क्यों। क्या नीतिश कुमार भी प्रधानमंत्री का ख्वाब पाले हुए है। जैसा ख्वाब ममता जयललितामुलायम और मायावती पाले हुए है। मगर यह कैसे मुमकिन होगा क्योंकि इन क्षत्रपों का दबदबा अपने राज्यों से बाहर नही है। वोट प्रतिशत के हिसाब से मायावती इस रेस में आगे है मगर यह मुमकिन दूर दूर तक नही दिखाई देता। कुछ लोग एनडीए का संगमा को समर्थन  को रणनीति का हिस्सा मानते है यह जानते हुए की प्रणव मुखर्जी की जीत तय है। क्या अगले चुनाव में जयललिता और पटनायक बीजेपी के साथ होंगे। यह मुमकिन है क्योंकि पहले यह दल साथ रहे चुके है।बीजेपी और बीजेडी 11 साल पुराना गठबंधन 2009 में टूटा। दोनो दल 1998 में साथ आए। इसके बाद 1998, 1999 और 2004 में चुनाव साथ मिलकर लड़ा। 2000 और 2004 में ज्यादातर सीटें जीती। मगर 2004 में कंधमाल घटनाक्रम और सीटों पर बात न बनती देख नवीन पटनायक ने बीजेपी से अलग होने का फैसला किया। जहांतक बात जयललिता की हैबीजेपी और जयललिता 1998 में साथ आए। 39 लोकसभा सीट में से एआडीएमके 18 सीटेंएमडीएमके 3 सीट राजीव इंदिरा कांग्रेस 1 सीट और बीजेपी को 3 सीटें मिली। इसे के साथ दक्षिण खासकर तमिलनाडू में बीजेपी का खाता खुला। मगर क्या बीजेपी उन 13 महिनों को याद नही करेगी की आखिर किस तरह जयललिता ने उसे गच्चा दिया था। इसके बाद डीएमके से उसका मेल हुआ।
 2004 में उसने आपसे नाता तोड़ा और यूपीए में शमिल हो गया।

गठबंधन का भविष्य


                                                   
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए और यूपीए दोनों मे फूट पड़ गई है। जहां दीदी ने दादा के समर्थन को लेकरकुछ भी साफ नही किया है,वहीं एनडीए के दो महत्वपूर्ण घटक दल जेडीयू और शिवसेना राष्ट्रपति के लिए कांग्रेस उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन करेंगे। इस चुनाव ने गठबंधन में बनते बिगड़ते समीकरणों को हवा देनी शुरू कर दी है।  जेडीयू भाजपा से नाराज है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उसे बर्दाश्त नही हैं। प्रधानमंत्री सुधारों को लेकर विश्व बिरादरी को भरोसा दे चुके है। आर्थिक सुधारों पर फैसला ने लेने के टीस मिटाना चाहते हैं। मगर तृणमूल सुप्रीमों के रहते क्या सरकार इन सुधारों को अंजाम दे पाएगी। 16वीं लोकसभा का नजारा गठबंधन के लिहाज से कैसा होगा।क्या सरकार को ममता का विकल्प मिल गया है? क्या मुलायम सिंह यूपीए-2 के खेवनहार होंगे ठीक उसीतरह जिस तरह उन्होंने 2008 में अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते के मुददे पर यूपीए की सरकारबचाई थी। सवाल मायावती और नीतिश कुमार को लेकर भी है मगर लगता नही की ये दल यूपीए की डूबती नैया का सहारा बनेंगे। इतना तय है कि ममता के रहते हुए सुधारों की राह में सरकार का चलना नामुमकिंन है। तीस्ता वाटर ट्रीटी से लेकर बीमा पेंशन बैकिंग रिटेल में एफडीआईल, लोकपाल और तेल के दाम बढ़ाने को लेकर वह हमेशा सरकार की किरकिरी करती रहीं है। एनसीटीसी के खिलाफ सरकारको झुकाना और बंगाल को स्पेशल पैकेज देने का दवाब वह आए दिन सरकार पर डालती रही हैं। कुछ सवाल और भी है खासकर वामदलों का प्रणव को समर्थन के पीछे आधार व्यक्तित्व है, बंगाली अस्मिता या ममता और कांग्रेस की दूरियों में उसे उसका फायदा नजर आ रहा है। उधर बीजेपी को संगमा का समर्थनक्या भविष्य की रणनीति का हिस्सा खासकार क्या वह 2014 से पहले अपने पुराने साथियों जयललिता औरनवीन पटनायक को दुबारा साधाना चाहती है।

बुधवार, 21 मार्च 2012

अवसंरचना का बजटनामा


प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अवसंरचना में विकास का अभाव भारत की 9 फीसदी विकासदर को पाने के रास्ते में सबसे बड़ रोड़ा है। अवसंरचना के लिए भारी भरकम धन की जरूरत होती है। भारत सरकार 12वीं पंचवर्षिय में 50 लाख करोड़ खर्च करेगी। इस धनराशी का 50 फीसदी निजि क्षेत्र से आऐगा। 11 वीं पंचर्षिय योजना के मुकाबले यह रकम दुगनी है।इंडिया इंन्फ्रास्टकचर फाइनेन्स कंपनी लिमिटेड जिसकी स्थापना अवसंरचना से जुड़े कार्याे को फंड करने के लिए हुई है कि नियमों में
ठील दी गई है। नए नियम के मुताबिक बीडिंग से पहले कर्ज की सिद्धान्तिक मंजूरी ली जा सकती है। पिछले कई महिनों से कोयले की की के चलते बिजली के उत्पादन में दिक्कतें आ रही थी। इस बजट में कहा गया है की कोल इंडिया लिमिटेड को पावर प्लांटों के साथ समझौता हस्ताक्षर करना होगा। बशर्ते इन पावर प्लांटों को डिस्काम के साथ एक दीर्घकालिक पावर खरीद समझौता करना पड़ेगा जो 31 मार्च 2015 को चालू हो जाएगा। साथ ही पावर प्रोजक्ट को फाइनेन्स करने के लिए इीसीबी के रूट को खोला गया है। सड़कों को बनाने के लक्ष्य में बढोत्तरी की गई है। 2011-12 में 7300 के मुकाबले 8800 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा गया है। 2010-11 में 5082 किलोमीटर सड़कें का निर्माण किया गया था। इसके लिए 25360 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। नागर विमानन क्षेत्रकी अगर बात की जाए तो इंडियन कैरियर सीधे एटीएफ का आयात कर सकते हैं। कार्यशील पूंजी की जरूरतों की पूर्ति के लिए नागरविमानन उद्योग इसीबी के जरिये नकदी की जरूरत को पूरा कर सकता है मगर यह राशि एक बिलियन से कम नही होनी चाहिए। 49 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को हरि झंडी देने पर सरकार विचार कर रही है। 2011-12 में सरकार ने 30 हजार करोड़ रूपये के टैक्स फ्री बांड की घोषण की थी। इस बार इसे बढ़ाकर 60 हजार करोड़ रूपये कर दिया गया है। एनएचएआइ को 10 हजार करोड़, भारतीय रेलवे वित्त संस्थान को 10 हजार करोड़ आइआइएफसिएल को 10 हजार करोड़ हुडको को 5000 करोड़, नेशनल हाउसिंक बैंक, सीडबी को 5000 करोड़, पोर्ट को 5000 करोड और उर्जा क्षेत्र 10 हजार करोड़ रूपये बाजार से टैक्स फ्री बांड के जरिये ले सकता है।

सोमवार, 19 मार्च 2012

किसान का बजटनामा


2012-13 के बजट में किसान को क्या मिला। इस वित्तिय वर्ष में कृषि के बजट में 18 फीसदी की बढोत्तरी की गई। पिछले वर्ष कृषि से जुड़े बजट के लिए 20 पैराग्राफ बजट में देखने को मिले। इस बजट में इनकी संख्या 15 है। कुलआयोजना व्यय 20208 करोड़ रूपये है जो 2011-12 में 17123 करोड़ रूपये था। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना को 7860 करोड़ के मुकाबले 9217 करोड़ दिए गए है। पूर्वी राज्यों में हरित क्रांति लाने का सपना सच होता दिखाई दे रहा है। खरीफ वर्ष 2011 में धान के उत्पाद में 70 लाख टन का ज्यादा उत्पादन देखने को मिला है। इसी से उत्साहित होकर वित्तमंत्री ने योजना का आवंटन 400 करोड़ से बढ़ाकर 1000 करोड़ कर दिया है। कृषि ऋण की लक्ष्य 1 लाख करोड़ बढ़ाकर 57500000 करोड़ कर दिया गया है। समय से लोन अदायगी करने वाले किसानों को 3 फीसदी ऋण में छूट जारी रहेगी। इसका दायरा भी बढा़ दिया गया है। उपज के बाद हारवेस्ट के लिए भी किसान 6 माह का कर्ज ले सकते  है। बस इसके लिए उन्हें अपना उत्पाद वेयरहाउसों में रखना होगा। इस कर्ज की समय से अदायगी में भी 3 फीसदी की राहत दी जाएगी। क्षेत्रीयग्रामीण बैंकों की वित्तिय सेहत सुधारने के लिए नाबार्ड को 10000 करोड़ रूपये का प्रस्ताव किया गया है। इस बजट में कृषि अनुसंधान के लिए 200 करोड़ रूपये जारी किए गए है। सिंचाई से जुडी येाजना एआबीपी को 14242 करोड़ रूपये दिए है। यह पिछले के मुकाबले 12 फीसदी ज्यादा है। लघु सिंचाई ठेका खेती जल प्रबंधन और स्वच्छता के लिए धन की व्यवस्था करने के लिए सिंचाई एवं जल प्रबंधन वित्त कंपनी 2012 से काम करना शुरू कर चुकी है। इस बजट में प्रोसेसिंग क्षेत्र में प्रगती लाने के लिए एक राष्ट्रीय मिशन की शुरूआत की बात कही है। यह क्षेत्र 8 फीसदी के दर से विकास कर रहा है। बाजरा और चारा उगाने से जुड़े कार्यक्रम को राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में शामिल किया गया है। इसके अलावा 2011-12 में शुरू की गई योजनाओं का बजट बढ़ाया गया है। भंडारण के लिए भी इस बजट में कई बातें शामिल है। 2 मिलियन टन आधुनिक साइलोस से जुड़े गोदाम में काम शुरू हो गया है। 15 मिलियन टन में कामनिजि एन्तरोपेनियौर गारंटी स्कीम के तहत चल रहा है जिसमें 3 मिलियन टन भंडारण क्षमता पूरी कर ली गई है।

रविवार, 18 मार्च 2012

बजटनामा 2012-13


हर साल देश की अवाम को बजट का इंतजार होता है। सरकार की कमाई और खर्च का यह दस्तावेज देश के विकास में अहम साबित होता है। आम आदमी से लेकर उद्योगपति, किसान से लेकर मजदूर सब कुछ न कुछ सरकार से आस लगाए बैठी होती है। आम बजट से पहले सरकार राष्टपति अभिभाषण के माध्यम से बीते साल भविष्य की नीतियों का खाका खिंचती है। इस बार सरकार ने अपनी पांच प्राथमिकताऐं गिनाई हैं।
आजीविका सुरक्षा
आर्थिक सुरक्षा
उर्जा सुरक्षा
पर्यावरण सुरक्षा
आन्तिरक सुरक्षा
भविष्य में सरकार के लिए विकास की यह पांच आधारशिला होगी। इसके बाद रेल बजट में रेल मंत्री ने 9 सालों में हिम्मत दिखाकररेल भाड़ा बढ़ाया। जनरल क्लास में 2 पैसे प्रति किलोमीटर, एसी तीन में 10 पैसे, ऐसी 2 में 15 पैसे और एसी फस्ट में 30 पैसे प्रति किलोमीटर बढ़ाया। हो सकता है राजनीति में मोहफांस में रेल मंत्री सामान्य श्रेणी में बढ़े किराये को वापस ले ले। इसके बाद बारी होती है आर्थिक समीक्षा सदन के पटल में पेश करने की। इसमें देश की न सिर्फ आर्थिक सेहत की तस्वीर पेश की जाती है बल्कि समाधन का रास्ता भी सुझाया जाता है। आखिर में पेश होता है आम बजट। इसमें इस साल जीडीपी 6.9 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है।  

रविवार, 4 मार्च 2012

यूपी का महासंग्राम


उत्तरप्रदेश के महासंग्राम के नतीजे चाहे जो भी हों सबसे बड़ी मुश्किल मायावती के लिए होगी। अपने विधायकों को समेटे रखना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौति होगी। क्योंकि सत्ता के इस खेल में माया पहले भी ऐसा झटका खा चुकीं हैं। लगभग यूपी की तस्वीर साफ है। सपा नम्बर एक पर सबसे बड़े दल के तौर पर उभर रही है। बसपा दूसरे नम्बर जबकि बीजेपी  तीसरे नंबर और कांग्रेस आरएलडी का गठबंधन चैथे नम्बर पर रहेगा। कांग्रेस बसपा और सपा दोनों को समर्थन न देने का ऐलान कर चुकी है। जबकि कुछ ऐसा ही हाल बीजेपी का भी है। किसी एक दल को बहुमत न मिलने पर खिचड़ी सरकार कैसी होगी यह कोई नही जानता। कांग्रेस और बीजेपी मिषन 2014 पर नजरें जमाऐं हुए है। इस चुनाव में अगर दलित बसपा से झटका तो बसपा के कई सासंद 2014 से पहले दूसरे दलों का हाथ थाम लेंगे। इसके लिए कई सांसदों ने बकायदा बातचीत भी षुरू कर दी है। उसके विधायकों का टूटने का खतरा लगातार बना रहेगा। आखिर क्या वजह की की मुलायम के गंुडाराज और मायावती का भ्रष्टाचार देखने के बाद भी उत्तरप्रदेश की जनता कांग्रेस और बीजेपी पर विश्वास नही कर पा रहें है। राहुल गांधी ने जिस तरह उत्तरप्रदेश में पार्टी में एक नई जान फुंकी मगर दूसरे नेता उस उत्साह को बरकरार नही कर परए । मुलायम का माई समीकरण इस बार काम कर गया है मगर सरकार बनाऐंगे इसका इंतजार करना होगा। मायावती दलित ब्राहमण और कुछ हद तक मुस्लिम का वोट मिला है। बीजेपी को अपर कास्ट के साथ भारी मात्रा में ओबीसी वोट पड़ा है। जबकि कांग्रेस को हर तबके का थोडा थोड़ा़ वोट मिलने की संभावना है। कांग्रेस का हालांकि अभी बहुत कुछ मिलता नही नजर आ रहा है मगर उसे आगे इसका फायदा जरूर मिलेगा।

शनिवार, 7 जनवरी 2012

ममता बनाम कांग्रेस


केन्द्र में कांग्रेस और उसकी सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस खुलकर आमने सामने आ गए हैं। ऐसा कोई पहली बार नही जब तृणमूल सुप्रीमों और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने कांग्रेस को मुश्किल में डाला है। लगभग हर बड़े मुददे में ममता बनर्जी ने कांग्रेस की मुश्किल बड़ाई है। तेल बड़ाने के दाम पर ममता बनर्जी के सामने सरकार को झुकना पड़ा। कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर ममता बनर्जी का असहयोग सरकार की किरकिरी का कारण बना। पेंशन बिल पर कांग्रेस बीजेपी को मनाने में कामायाब हो गई मगर ममता की हट ने उसके कदम थाम दिए। सबसे मुश्किल तो तब आई जब ममता ने लोकपाल में लोकसभा में साथ दिया मगर राज्य सभा में वो मुकर गई। नया मामला सामने आया है इंदिरा भवन का नाम बदलने को लेकर। इस मुददे के चलते कांग्रेस और तृणमूल के बीच आरोप प्रत्यारोप जोरों पर है। कांग्रेस ने जहां तृणमूल को वामदल और बीजेपी की बी टीम बता दिया वहीं तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस को सरकार से बाहर निकालते तक की चेतावनी डे डाली। बंग्लादेश में प्रधानमंत्री के प्रतिनिधिमंडल में आखिरी समय से बाहर रहने का फैसला लेकर प्रधानमंत्री की किरकिरी की। बहरहाल जानकार इस तल्खी के कई मायने निकाल रहे है। देखना दिलचस्प होगा की यूपी चुनाव के बाद केन्द्र में भी बदलाव होता है।


केन्द्र में कांग्रेस और उसकी सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस खुलकर आमने सामने आ गए हैं। ऐसा कोई पहली बार नही जब तृणमूल सुप्रीमों और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने कांग्रेस को मुश्किल में डाला है। लगभग हर बड़े मुददे में ममता बनर्जी ने कांग्रेस की मुश्किल बड़ाई है। तेल बड़ाने के दाम पर ममता बनर्जी के सामने सरकार को झुकना पड़ा। कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर ममता बनर्जी का असहयोग सरकार की किरकिरी का कारण बना। पेंशन बिल पर कांग्रेस बीजेपी को मनाने में कामायाब हो गई मगर ममता की हट ने उसके कदम थाम दिए। सबसे मुश्किल तो तब आई जब ममता ने लोकपाल में लोकसभा में साथ दिया मगर राज्य सभा में वो मुकर गई। नया मामला सामने आया है इंदिरा भवन का नाम बदलने को लेकर। इस मुददे के चलते कांग्रेस और तृणमूल के बीच आरोप प्रत्यारोप जोरों पर है। कांग्रेस ने जहां तृणमूल को वामदल और बीजेपी की बी टीम बता दिया वहीं तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस को सरकार से बाहर निकालते तक की चेतावनी डे डाली। बंग्लादेश में प्रधानमंत्री के प्रतिनिधिमंडल में आखिरी समय से बाहर रहने का फैसला लेकर प्रधानमंत्री की किरकिरी की। बहरहाल जानकार इस तल्खी के कई मायने निकाल रहे है। देखना दिलचस्प होगा की यूपी चुनाव के बाद केन्द्र में भी बदलाव होता है।


बुधवार, 4 जनवरी 2012

खाद्य सुरक्षा विधेयक 2011


सरकार अपना महत्वकांक्षी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है। इस विधेयक के मुताबिक केन्द्र सरकार देश की 63.5 फीसदी आबादी को सस्ती कीमत पर राशन मुहैया कराएगी। मसलन ग्रामीण भारत की 75 फीसदी आबादी इसके दायरे में होगी। इसमें 46 फीसदी को प्राथमिकता में रखा गया है। इसी तरह शहरों में 50 फीसदी आबादी इस कानून के तहत होगी। इसमें प्राथमिकता 28 फीसदी आबादी को मिलेगी। प्रथमिकता के मापदंड में खरे उतरने वाला व्यक्ति चावल, गेहूं और ज्वार का हकदार होगा। इसके लिए इसे महज 3 रूपये प्रति किलो चावल के लिए 2 रूपये प्रति किलो गेहूं के लिए और 1 रूपये प्रति किलो ज्वार के लिए चुकाने होंगे। इसमें कोई दो राय नही कि जिस देश का वैश्विक सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान रखता हो वहां यह कानून किसी वरदान से कम नही। मगर उन चुनौतियों का क्या जो सरकार के सामने मुंह बायें खड़ी है।

चुनौति नं 1- इस देश का कौन आदमी गरीब है। गरीबी मांपने का आदर्श  पैमाना क्या होना चाहिए। यानि कानून के रास्ते का सबसे बड़ी चुनौति।  गरीबों का सही और सटीक आंकलन कैसे हो। आज देश के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों का पीडीएस के माध्यम से सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। मगर दूसरी तरफ राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यह मसला अकसर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव का कारण बना है। राज्य सरकारें खुले आम केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। यहां यह बात बता देना भी जरूरी है कि 2006 के बाद इस देश में 2 करोड़ से ज्यादा फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके हैं। इस फेहरिस्त में आंध्रप्रदेश का नाम सबसे उपर है।

चुनौति नं दो- उत्पादकता कैसे बढ़ाई जाए। एक अनुमान के मुताबिक इस कानून को लागू करने के लिए 6 करोड़ टन से ज्यादा अनाज की आवश्कता होगी। फिलहाल खेती की कथा व्यथा किसी से छिपी नही है। आलम यह है 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोड़ना चाहते हैं। बीते 13 सालों में 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें है। उत्पादकता के मामले में विकसित देशों से हम खासे पीछे है। एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में हमारा उत्पादन 245 मिलियन टन के आसपास है जबकि 2020 तक 281 मिलियन टन अनाज की दरकार इस देश को होगी। इसके लिए जरूरी है की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाई जाए। हमारे देश में चावल की उत्पादकता में सुधार जरूर हुआ है मगर यह नाकाफी है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 3000 किलो ग्राम के आसपास है जबकि चीन में यही उत्पादन 6074 जापान 5850 और अमेरिका में 7448 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है। इससे जाहिर होता होता है कि अभी खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से हमें एक लंबी मंज़िल तय करनी है। क्या सरकार की दूसरी हरित क्रांति का अगाज इस समस्या का समाधान है। सरकार चाहे कितनी समितियों का गठन करले । बात बड़ी सीधी और सपाट है। जब तक खेती किसानों के लिए फायदेमंद सौदा साबित नही होगी तब तक इस चुनौति से नही निपटा जा सकता।

चुनौति नं 3- खाद्यान्न के रखरखाव की उचित व्यवस्था। खाद्यान्न के रखरखाव के लिए भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था का अभाव इस काूनन की हवा निकाल सकता है। आज भंडारण के अभाव में हजारों करोड़ का राशन हर साल खराब हो जाता है। बहरहाल सरकार ने निजि क्षेत्र को लाकर इसका समाधन ढूंढने की कोशिश की है मगर यहा नकाफी है। आज जरूरत है सरकार इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खर्च कर रखरखाव के संसाधन को मजबूत करे।

चुनौति नं 4- मरणासन्न पड़ी वितरण प्रणाली का पूर्नजन्म। इस बात को कहने में कोई संकोच नही कि देष की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का राशन काले बाजार में बिक जाता है। मतलब साफ है, राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। चैकाने वाली बात तो यह है कि जिस देश में 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है वहां केवल मुठठी भर षिकायतें दर्ज होती है। क्या आपने कभी सुना है कि वितरण प्रणाली में भारी गडबड़ी के चलते किसी खाद्य मंत्री या खाद्य सचिव को जेल जाना पड़ा है? राज्यों के पास आवष्यक वस्तु अधिनियम कानून 1955 है। मगर इसका इस्तेमाल ज्यादातर मामलों में नही होता। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। मतलब साफ है कि मौजूदा वितरण व्यवस्था के सहारे हम इस कानून को लागू करने का सपना भूल जाऐं। वितरण प्रणाली के अध्यन के लिए सरकार के पास कई रिपोर्ट मौजूद है। इनमें प्रमुख है 1998 में टाटा इकोनामिक कंसल्टेंसी सर्विसेस रिपोर्ट, 2005 की ओआरजी मार्ग की रिपोर्ट, 2007 और 2009 की नेषनल काउंसिल आफ एमलाइड इकानामिक रिसर्च और 2010-11 में आई नेषनल इंस्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिषट्रेषन। इन सभी रिपोर्ट का लब्बोलुआब एक ही था। की वितरण प्रणाली में भारी खामियां है और इसका फायदा जरूरत मंदों तक नही पहुंच पा रहा है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वाधवा के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने 19 राज्यों के अध्ययन में यह पाया की यह प्रणाली भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी है। लिहाजा इसमें व्यापक सुधार की जरूरत है। इन रिपोर्ट में यह तक कहा गया की पूर्वोत्तर राज्यों में 100 फीसदी तक राषन डाइवर्ट हो जाता है। बावजूद इसके अब तक इस प्रणाली में सुधार के लिए कोई खास पहल नही की गई। गाहे बगाहे केन्द्र ने राज्यों को दिषनिर्देष जारी कर दिए। इसमें कोई दो राय नही की खाद्य सुरक्षा कानून एक ऐतिहासिक कानून साबित होगा। मगर इसे लागू करने के लिए केन्द्र और राज्यों दोनों को कमर कसनी होगी। प्रतिज्ञा करनी होगी की इस इस देष का कोई नागरिक बिना भोजन के रात नही गुजारेगा।





रविवार, 1 जनवरी 2012

उत्तर प्रदेश जातिय गणित



अगड़ी जाति 
16 फीसदी वोट बैंक
ब्राहमण - 8 फीसदी
ठाकुर -   5 फीसदी
बनिया -   3 फीसदी

पिछड़ी जाति
35 फीसदी वोट बैंक
यादव - 13 फीसदी
कुर्मी -  12 फीसदी
अन्य -  10 फीसदी

इसके अलावा
दलित - 25 फीसदी
मुस्लिम -18 फीसदी
जाट  - 5 फीसदी
और अन्य - 1 फीसदी

मुआवज़े का हक़


किसी वारदात या हादसे से प्रभावित लोगों को मुआवज़े का अधिकार

हादसों में होने वाली जानमाल की क्षति की पूर्ति के लिए मुआवज़ा

आतंकी वारदातों में घायलों और मृतकों के आश्रितों को मुआवज़े का अधिकार

रेल-सड़क हादसों, हवाई दुर्घटना के पीड़ितों को मुआवज़े का प्रावधान

मुआवज़े के दावे के लिए कई कानूनी और  प्रशासनिक प्रक्रियाएं

पीड़ितों के लिए अपराध संहिता की धारा 357 में मुआवजे का प्रावधान

अपराध संहिता की धारा 357-ए में सरकार को मुआवज़ा राशि के लिए कोष बनाने के निर्देश

13 जुलाई को मुंबई में बम धमाकों में  हुई थी 21 की मौत, 113 घायल

महाराष्ट्र सरकार ने मृतकों के आश्रितों को  पांच लाख का मुआवज़ा देने की कही थी बात

बम धमाके के घायलों के इलाज का खर्च भी उठाया महाराष्ट्र सरकार ने

बलात्कार की शिकार महिलाओं को मुआवज़े की य¨जना 1 अगस्त से शुरु

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