शनिवार, 30 मार्च 2013

शिक्षा है मेरा अधिकार


शिक्षा का अधिकार कानून को आज तीन साल पूरे हो गए हैं। 1 अप्रैल 2010 से यह अस्तित्व में आया था। सूचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार,शिक्षा का अधिकार और अब भोजन का अधिकार जैसे कानून किसी भी देश की दिशा और दशा बदल सकते है बशर्ते की उन्हें अच्छी सोच के साथ लागू किया जाए। 3 साल बीत जाने के बाद भी कई स्कूल आरटीई के प्रावधानों का मज़ाक उड़ रहे है। बावजूद इसके की कानून के सभी पहलुओं पर सुप्रीम कोर्ट भी अपनी मुहर लगा चुका है। आरटीई को लेकर दरअसल बहस 25 फीसदी आरक्षण स्कूलों में लागू कराने पर रही। मगर बुनियादी सुविधा मसलन खेलन का मैदान, लड़कियों के लिए शौचालय, शिक्षा की गुणवत्ता और ड्राप आउट रेश्यों जैसे मुददों पर अब तक कई स्कूलों ने कुछ नही किया। सबसे बुराहाल शिक्षा का गुणवत्ता को लेकर है। हमारा उददेश्य बच्चों को सिर्फ स्कलू से जोड़ना नही है अपितु उन्हें गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करना है जो की नही हो रहा है। आज देश में 8.50 लाख शिक्षक ऐसे है जिन्हें किसी तरह की कोई ट्रेनिंग नही दी गई है। 11 लाख शिक्षकों की कमी है। इसमें सबसे ज्यादा हालात खराब देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश की है। आरटीई में छात्र शिक्षक अनुपात 30ः1 का प्रावधान है। मगर कई राज्यों में तो यह अनुपात 70ः1 का है। कई विद्यालय आज भी केवल एक शिक्षक के बल पर चल रहें है।बावजूद इसके सरकार शिक्षा पर भारी भरकम खर्च कर रही है। ऐसे में यह जरूरी है की जिन विद्यालयों ने कानून के प्रावधान को तीन सालबीते जाने के बाद भी इसे लागू करने में आनाकानी की है उसके खिलाफ सख्त से सख्त कारवाई हो।

कृषि ऋण में सुधार जरूरी

बजट 2013. 14 में सरकार ने  कृषि  ऋण का लक्ष्य 7 लाख करोड़ रखा है। यह पिछले साल के मुकाबले 1 लाख 25 हजार करोड़ ज्यादा है। ऋण खेती की एक बुनियादी आवश्यकता है। खासकर भारत जैसें देश में जहां 81 फीसदी किसान 1 हेक्टेयर से कम जोत का मालिक है। लिहाजा बीज की बुआई से लेकर कटाई तक तक उसे धन की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उसे बैंको से ऋण लेना पड़ता है। आज सरकार 3 लाख तक का फसल लोन सालाना 7 फीसदी के ब्याज़ दर पर दे रही है। प्रावधान यह किया गया है कि समय से कर्ज भुगतान करने वाले किसानों को 3 प्रतिशत की ब्याज में छूट दी जाएगी।  यहां गौर करने लायक बात यह है कि कृषि मंत्रालय से जुड़ी स्थायी समिति ने फसल लोन की राशि को 3 लाख से बढ़ाकार 5 लाख करने की सिफारिश की थी। इसके पीछे सबसे बड़ तर्क है किसान की खेती में लागत आज कई गुना बढ़ चुकी है। मतलब पहले के मुकाबले आज किसान को उत्पादन में ज्यादा खर्च करना पड़ता है। राष्ट्रीय किसान आयोग पहले ही किसान को 4 फीसदी की ब्याज दर पर कर्ज देने की सिफारिश कर चुका है। यह इसलिए भी जरूरी है की देश की खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने वाला किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। वैसे भी ज्यादातर अनुमानों ने यह साफ किया कि देष में किसानों की बढ़ती आत्महत्या के लिए कर्ज का समय से ना चुकाया जाना जिम्मेदार है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1997 से लेकर 2007 तक 2 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। इसमें से ज्यादातर किसानों ने इसलिए आत्महत्या की क्योंकि वह कर्ज के बोझ तले दबे थे। खेत में उपजी फसल से आमदनी इतनी भी नही की परिवार का गुजर बसर हो सके। फिर कर्ज का भुगतान कहां से करें। इसी को ध्यान में रखकर 2008 में केन्द्र सरकार कर्ज माफी योजना सामने लेकर आई। कहा जाता है कि इससे तकरीबन 4 करोड़ किसानों को फायदा पहुंचा। वैसे इस पूरे फैसले पर गौर करें तो ऐसा लगता है की सरकार ने एक तीर से तीन निषाने साधे। पहला किसानों का ऋ़ण माफ कर उन्हें राहत पहुंचाई। दूसरा बैंकों का खराब वित्तिय हालात में नई जान फंूकी और तीसरा चुनाव में जाने के लिए एक मजबूत मुददा तैयार किया। इसका फायदा भी मनमोहन सरकार को मिला। 2004 में 145 सीटें जीतने वाली कांग्रेस ने 2009 में 206 सीटों पर कब्ज़ा जमाया। मगर ज्यादातर लोगों ने सवाल उठाया कि उनका क्या जिन्होने साहूकारों से कर्ज ले रखा है। इसी को ध्यान में रखकर सरकार ने 3 साल पहले एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था  जिसका जिम्मा था कि पूरे देष में कितने किसानों ने साहूकारों  से कर्ज ले रखा है। पहले यह केवल महराष्ट्र के किसानों के लिए सीमित था बाद में इसे  पूरे देश के लिए व्यापक अध्ययन करने को कहा गया है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने विदर्भ क्षेत्र के लिए एक स्पेशल पैकेज की घोषणा की। इसमें 6 जिलों को शामिल किया गया।  यवतमालए अमरावतीए अकोलाए वाशिमए बुल्धाना और वर्धा जिले को यह राशि ध्यान में रखकर दी गई। मगर वसंत राव नायक शेठठ्ी स्वालंभन मिशन के मुताबिक उन 6 जिलों में 17 लाख 64 हजार किसानों में से महज 4 लाख 48 हजार किसानों ने बैकों से कर्ज ले रखा था। यानि 75 फीसदी किसानों ने साहूकारों और व्यापारियों से कर्ज ले रखा था। तो उनको कैसी कर्ज माफी की राहत। इसके अलावा जुलाई 2006 में चार राज्यों के जिन 31 जिलों को ध्यान में रखकर पैकेज दिया गया उसका भी कोई बडा फायदा किसानों तक नही पहुंचा। बहरहाल अच्छी खबर यह है कि कृषि ऋण हर साल अपने लक्ष्य को पार कर रही है। अकेले 2010.11 में 375 हजार करोड़ के कृषि ऋण का लक्ष्य था मगर साल पूरा होने तक यह 446778ण्96 करोड़ तक पहुंच गया। 30 सितंबर 2011 तक 233380ण्18 करोड़ ऋण बांटा जा चुका है। साल 2009 .10 में छोटे और सीमांत किसानों के कृषि ऋण खातों की संख्या 284ण्73 फीसदी थी वह वर्ष 2010.11 में बढ़कर 334ण्67 लाख हो गई है। मौजूदा वर्ष में सितंबर 2011 तक 321 लाख कृषि ऋण खातों को निधियां उपलब्ध कराई गई थी और इन खातों में छोटे तथा सीमांत किसानों के 193ण्73 लाख खाते भी हैं। इसके अलावा 50 हजार रूपये तक के छोटे ऋण के लिए अदेयता प्रमाण पत्र की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया है। गौरतलब है कि व्यास समिति एसी रंगराजन समिति एवैघनाथन समिति और राधाकृष्णा समिति की सिफारिशें सरकार के पास मौजूद है। हमारे देश में 37 फीसदी किसान की पहुंच संस्थागत ऋण तक है। 73 फीसदी के भी एक तिहाई किसानों केा अपनी जरूरत के मुताबिक कर्ज नही मिला पाता। उदारहण के तौर पर अगर कोई किसान 5 लाख का कर्ज लेना चाहता है तो उसे वह नही मिला सकता। 63 फीसदी आज भी साहूकारों के भरोसे हैं। सबसे बुरे हालात पूर्वोत्तर राज्यों में है। यहां सबसे ऋण को लेकर सबसे ज्याद मुश्किल हालात का सामना किसान को करना पड़ता है। इस समय औसतन 20 गांवों में एक बैंक है। मान लिजिए अगर एक गांव एक किलोमीटर के दायरे में फैला है तो किसान को 20 किलोमीटर की यात्रा ऋण लेने के लिए करनी होती है। इसके अलावा बैंक में मानव संसाधन का अभाव इस मुश्किल को और बड़ा रहा है। इन बैंकों को नरेगा का धन देना है। किसान को ऋण देना है। वृद्धावस्था पेंषन योजना का निपटान करना है। षिक्षा से जुडी स्कालरषिप बांटनी है। इसके अलावा रोजमर्रा का काम अलग है। लिहाजा ऋ़ण लेना भी मुष्किल भरा काम है। बहरहाल सरकार ने 2 हजार की आबादी पर 2012 तक बैकिंग सुविधा पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य के पूरे होने के बाद सरकार 1 हजार तक की आबादी तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाऐंगी। इंतजार इस बात का है की सरकार कब किसनों को बिना शर्त 4 फीसदी की ब्याज दर पर ऋण मुहैया कराती है। यहां राज्य सरकारें भी अपनी भूमिका अदा कर सकती है। चूंकि कृषि राज्यों का विषय है लिहाजा राज्य सरकारें अपनी मद से किसानों को ब्याज दर में छूट दे सकती है। वैसे कई राज्य इस तरह की योजना चला भी रहें है मगर देश भर के किसानों को इसका फायदा हो इसपर व्यापक विचार विमर्श करना होगा। क्योंकि आने वाले समय में बढ़ती आबादी को ध्यान में रखकर हमें 2020 तक 281 टन का खाद्यान्न उत्पादन करना है। लिहाजा जरूरी होगा की सरकार न सिर्फ सालान ऋण बंाटने का लक्ष्य बढ़ाये बल्कि किसानों को सस्ता और आसान ऋण कम ब्याज दर पर मुहैया कराने की व्यवस्था करे।

बुधवार, 27 मार्च 2013

देश में अंडरट्रायल की स्थिति


एनसीआरबी 2010 65.1 फीसदी अंडरट्रायल कुल 240098 लोग अंडट्रायलजेल राज्यों का विषय है उसके एडमिनिश्ट्रेशन और रखरखाव की जिम्मेदारी लिस्ट 3 संविधान के 7वे शिडयूल के चलते राज्यों की इसके लिए काम करना चाहिए।2002-03 में जेलों के आधुनिकीकरण के लिए एक योजना चलाई गई। योजना की कुल लागत 1800 करोड थी जिसमें अरूणांचल प्रदेश को शामिल नही किया गया। केन्द्र और राज्यों के बीच 75ः25 के अनुपात परखर्च करना था। जेल में क्षमता से ज्यादा कैदियों की संख्या जहां 2009 में 22.8 फीसदी थी वह कम होकर 2010 में 15.1 फीसदी होगई। देश में कुल 1374 जेल हैं। जिसकी क्षमता 307053 कैदियों को रखने की है। वर्तमान में इसमें 250204 कैदी अंडरट्रायल हैं।

तीसरे मोर्चे का बेसुरा राग

मुलायम तीसरे मोर्चा का राग अलाप रहे है। यह जानते हुए भी की यह राजनीति का सबसे बेसुरा राग है। मगर मुलायम बिना किसी मतलब के कुछ नही बोलते। दरअसल वह कांग्रेस को अपनी अहमियत का अहसास कराना चाहते है कि आपकी सरकार मेरे पर टिकी है। मगर सरकार जानती है की मुलायम पर कठोर कब बनना है। यहि वजह है कि कांग्रेस मुलायम के बयानों को भाव नही दे रही है।इस देश मेंतीसरे मोचे को बनाने की कवायद कई बार हो चुकी है। मगर हर बार जमावडे के अलावा कुछ नही हो पाता है। जानकार भी इसे बेकार की कवायद बताते है पिछले दिनों लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लाग में लिखा था देश का अगला प्रधानमंत्री गैर यूपीए और गैर एनडीए से होगा।

अन्याय तंत्र

देश में संजय दत्त की सजा माफ कराने के लिए क्या नेता क्या जज क्या बुद्धिजीवी हर कोई एक सुर में बोल रहा है। मगर इस महान भारत के महान बुद्धिजीवियों को क्या यह नही मालूम की इस देश में 79 फीसदी जेल में कैदी अन्डरट्रायल है। इन्हें भी इंसाफ की दरकार है खासकर वह जो मामूली गुनाहकरने पर जेल डाल दिए गए। क्या इनके साथ बेइंसाफी हम नही कर रहे हैं? यह अपने जुर्म की अधिकतमसजा काट चुके है मगर हमारी न्यायप्रणाली की न्याय मिलने की लंबी प्रक्रिया ने इन्हें जेल में ही रखा है।क्या यह इनके मानवाधिकारों का उल्लंघन नही? आज देश की जेलों में उसकी क्षमता से कई ज्यादा कैदी है बंद हैं।वहां की हालत देख लें तो मन सिहर उठेगा। जेल में होने वाली बर्बर मौतें आए दिन अखबारों की सूखिर्या बनती हैं। क्या श्रीमान मार्केडेय काटजू और श्री दिग्विजय सिंह जी इनके लिए भी अपील करेंगे? दरअसल हम सभी को इसे एक मुहिम की तरह लेना चाहिए ताकि जो अपने जुर्म की सजा काट चुका हो उसे हमारी उबाऊ न्यायप्रक्रिया के चलते जेल में एक में दिन भी दिन ज्यादा नही काटना पड़े। संजय दत्त को कदापि माफी नही मिलनी चाहिए? यह न्याय का अपमान होगा।

सोमवार, 18 मार्च 2013

नीतीश मांगे मोर!


 17 मार्च 2013।  नीतीश कुमार को अधिकार रैली में भाषण देते सुना। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के साथ साथ वह सभी पिछड़े राज्यों को इस श्रेणी में लाने की वकालत करते दिखे। वहीं कांग्रेस भी उनकी मांग के देखते हुए विशेष राज्य के मापदंडों को बदलने की बात कह रही है। लेकिन यह सब इतना आसाननही। आखिर बिहार की इस हालत का जिम्मेदार कौन है। अगर बिहार पिछड़ है तो इसलिए की उसे विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त नही है। या इसलिए की नेताओं की भूख ने इस राज्या का बंटाधार कर दिया। अब भला कांग्रेस क्यों चाहेगी की ऐसा काम करना जिससे विशेष राज्य का दर्जा मांगने वालों की बाढ़ आ जाए। पहले से ही राजस्थान, ओडिसा, झारखंडऔर छत्तीगढ़ विशेष राज्य का दर्जा मांग रहें है। ऐसे में कांग्रेस आ बैल मुझे मार वाली स्थिति क्यों पैदाकरना चाहेगी। दूसरी तरफ सही मायने में नीतीश कुमार इस मांग को अपना एक ऐसा औजार बनाना चाहते हैं कि जिससे बिहार में तीसरी बार वह सत्ता में आ जाऐं। वहीं वह जानते है कि गठबंधन की राजनीति के इस दौर में प्रधानमंत्री बनने की मुराद भी पूरी हो सकती है बर्शतें वह आने वाले लोकसभा चुनाव में बिहार में एक पार्टी के तौर पर उभरें। उन्होने अपने भाषण में कहा जो उनकी मांग मानेगा वही दिल्ली में राज करेगा। यानि वह जनता को संदेश दे रहें है कि यह तभी संभव होगा जब आप मुझे केन्द्र में मजबूत करेंगे। और जब वह मजबूत होंगा तभी जाकर यह लड़ाई जोर शोर से लड़ जस सकेगी। मगर कुछ सवाल उनकी इस राजनीति को लेकर उठते हैं। अगर वह सही मायने में बिहार का विकास चाहते हैं और बिहारी अस्मिता को लेकर इतने फिक्रमंद हैं तो
1-उन्हे इस मुददे पर बिहार की सभी पार्टियों को एकजुट करना चाहिए था।
2-लोकसभा में शरद यादव तकरीबन हर मुददे पर भाषण देते है मगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा
मिले इसको लेकर उन्होने अब तक मुंह नही खोला। यही हाल उनके ज्यादातर सांसदों और प्रवक्ता
शिवानंद तिवारी का है।
3- नीतीश कुमार कांग्रेस के साथ गठबंधन बिहार में नही करेंगे क्योंकि बिहार में कांग्रेस के पास
कुछ नही है।
4- बिहार में नीतिश कुमार की सीटें जरूर बड़ी मगर उनके वोट प्रतिशत में कोई इज़ाफा नही हुआ।
5-नीतीश से अब जनता का मोहभंग हो गया है मगर वह आने वाले चुनाव में विशेष राज्य के दर्जे
को बिहारी अस्मिता से जोड़कर अपनी राजनीतिक नैया पार लगाना चाहते है।
6- बिहार में बीजेपी का अपना वोटबैंक है। बिना गठबंधन के नीतीश का सत्ता में लौटना नामुमकिन है।
 हालांकि बिहार बीजेपी में गुटबाजी चरम पर है।
कुल मिलाकर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नही मिलने वाला। इसके बारे में सबसे ज्यादा अगर
कोई व्यक्ति जानता है तो वह खुद नीतीश कुमार है। वह सिर्फ और सिर्फ राजनीति कर रहे हैं।

मंगलवार, 12 मार्च 2013

नीतीश का कांग्रेसीकरण

क्या कांग्रेस का बिहार में अगला गठबंधन जेडीयू के साथ होगा? क्या कांग्रेस नीतिश कुमार को अपने पाले में लाने की पूरी तैयारी कर चुकी है? और क्या नीतिश कुमार भी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के लिए बेताब हैं? क्या जेडीयू और बीजेपी का 15 साल पुराना गठबंधन टूटने के कगार पर है? इन सवालों का जवाब जल्द मिलने की उम्मीद है।मगर हाल फिलहाल में हो रही घटनाऐं यह बताने के लिए काफी है कि नीतिश कुमार बीजेपी से दूर और कांग्रेस के नजदीक जा रहें हैं।इसका ताजा उदाहरण है आम बजट में पी चिंदबरम की वह घोषणा जिसमें विशेष राज्य के दर्जे के मापदंडों में नए सिरे से विचार करने की बात कही गई। वर्तमान मापदंडों के लिहाज से नीतिश की बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पूरी नही की जा सकती। लेकिन जिन मापदंडों का जिक्र जिसमें गरीबी प्रति व्यक्ति आय जैसे मापदंडों की बाद वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने उससे नीतिश कुमार की मनोकामनापूरी होती दिखाई दे रही है। दरअसल पिछले चुनाव में राहुल गांधी एकला चलों की नीति पर आगे बढ़े। न साथ में लालू न पासवान। नतीजा कांग्रेस को बिहार में महज़ एक सांसद वर्तमान में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार से संतोष करना पड़ा। राहुल गांधी के तमाम प्रयास के बावजूद विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। अब कांग्रेस अपनी डूबती नैया के लिए नए खेवनहार की तलाश में है। कम से कम बिहार में नीतिश कुमार से बेहतर विकल्प और उसमें पास क्या हो सकता है। इसके अलाव प्रधानमंत्री की नीतिश कुमार और बिहार के विकास की तारीफ में साधारण बयान नही हो सकता। इसके अलावा हाल ही में कांग्रेस ने जिस तरह बिहार के राज्यपाल देबानंद कंवर को त्रिपुरा भेजकर नीतिश के अपने पाले में लाने का एक और दांव खेला। इसके अलाव पिछले साल दो केन्द्रीय विश्वविद्यालय जिसमें एक मोतिहारी और और दूसरी गया में बनेगी। राजभवन और और सरकार के बीच तल्खी जगहजाहिर थी खासरक नियुक्तियों को लेकर।नीतिश कुमार पहले ही यह स्पष्ट कर चुकें है कि जो बिहार राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देगा वह उसका समर्थन करेंगे। दूसरा पहलू बीजेपी में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का लेकर है। नीतिश कुमार इस पर पहले ही साफ कर चुकें हैं कि एनडीए का उम्मीदवार धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। उनकी सबसे बड़ी चिंता उनका मुस्लिम वोट बैंक है। मोदी के समर्थन का मतलब इस तबके का नीतिश कुमार से कटना है। इससे पहले भी नीतिश और मोदी के बीच घमासान हो चुका है। नरेन्द्र मोदी को बिहार में कैंपेन करने से रोकना और साथ ही गुजरात द्धारा दी गई बाढ़ राहत राशि लौटाना जैसे उदाहरण अहम है।इसके अलावा नीतिश कुमार के लिए तीसरी बार सत्ता में आना इतना आसान नही होगा। बहरहाल राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होता हैन दुश्मन। यह कहानी भी इसी ओर इशारा कर रही है। साथ ही राज्य में सत्ता तो मिलेगी ही केन्द्र में भी जगह मिल सकती है जिसका इंतजार पिछले 10 साल से जेडीयू कर रहा है।

रविवार, 10 मार्च 2013

नमोः नमोः मोदी

नरेन्द्र मोदी इन दिनों टेलीविजन चैनलों के लाडले बने हुए हैं। उनको कैमरे कैद करने के लिए आतुर है और उनके बोलवचन के लिए चैनलों के रिपोर्टर पागलों की तरह घूम रहें है। एक चैनल ने तो बकायदा सर्वे कर उन्हें देश का सबसे पसंदीदा प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। बाकि भी अलग अलग अंदाज में मोदी परिक्रमा में जुटे हुए हैं। देश के सामने मूल प्रश्न आज यह है की गुजरात को विकास का माडल मानने वाले नरेन्द्र मोदी क्या भारत को विकास का माडल बना पाऐंगे। इस सवाल का जवाब शायद अभी कोई नही दे पाए। लेकिन इसमें कोई दो राय नही कि उन्होने अपने उपर विकासपुरूष होने का मुलम्मा चढ़ा लिया है। कल ही उन्होने धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित किया। इंडिया फस्र्ट। मगर सवाल है, क्या भारत का मतदाता मोदी फस्र्ट का नारा लगाऐगा? मोदी बीजेपी के खेवनहार बन पाऐंगे? उनके नाम पर मतदाता बीजेपी को वोट डालेगा। क्या भारत की समस्याओं का समाधान मोदी के गुजरात माडल में छिपा है। मैं भी मानता हूं किवह एक कुशल प्रशासक है। उन्होंने गुजरात में विकास किया है। मगर गुजरात हमेशा से विकास दर के मामले में अव्वल रहा है। हां यह कहा जा सकता है कि आज के इस माहौल में  भी उनकी छवि अभी तक एक साफ सुधरे नेता की है। मगर 2002 के उन दंगों का क्या, जिसमें 2 हजार से ज्याद मुसलमान मारे गए। अगर वह एक कुशल प्रशासक थे तो इतनी बडे़े पैमाने में एक खास समुदाय के लोगों का मारा जाना क्या उनकी प्रशासकिय अक्षमता को नही दर्शाता। क्या उस समय उन्होनें राजधर्म का पालन किया, जिसके पालन की सीख उन्हें तत्कालिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दी थी। बाकी छोेड़िए उन्होने आज तक इस मासकिलिंग के मामले में देश से क्षमा भी नही मानी। इससे बेहतर तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह है जिन्होन बिना संकोच  के साथ 1984 के सिख दंगों से माफी मांग ली। खैर मैं राजनीतिक दलों से ज्यादा अच्छा मोदी को समझता हूं जो मोदी के नाम पर मुसलमानों को को डराकर अपना वोट बैंक भरते है। चाहे वह बिहार में लालू हों या यूपी में मुलायम। कांग्रसे भी इसे धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का रंग देने में जुटी रहती है। यह सभी बातें भारत के विकास के लिहाज से खतरनाक है। भारत के सामने गरीबी, अशिक्षा, बरोजगारी और आतंकवाद की चुनौति है। मोदी को देश को बताना चाहिए कि वह इसपर क्या सोचते हैं। बहरहाल इतना साफ है कि बीजेपी के पास मोदी के अलावा कोई  और ऐसा नेता नही है, जिसको आगे रखकर वह 2014 का आम चुनाव लड़ सके।