रविवार, 26 दिसंबर 2010

कांग्रेसवाणी

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का अंकाड़ा जब 200 को पार कर गया तो पार्टी में हर कोई फूले नही समा रहा था। कोई इसे सोनिया राहुल का करिश्मा बताते नही थक रहा था तो कोई इसे काम का इनाम बता रहा था। चुनाव ने सबकों चैंकाया भी। खासकर आंध्रप्रदेष में मिली 33 लोकसभा सीटें या दिल्ली उत्तराखंड की एकतरफा जीत। ऊपर से यूपी के फैसले ने तो मानों मन की मुराद पूरी कर दी। यह कांग्रेस का फीलगुड फैक्टर का दौर था। प्रधानमंत्री ने मंत्रीमंडल के सहयोगियों को कह दिया की पहले 100 दिन के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करें और फिर रिपोर्ट कार्ड पेश करें। सारे मंत्री इसी पर लग गए। कोई शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन की बात कर रहा था तो कोई एक दिन में 20 किलोमीटर सड़के बनाने की। माहौल ऐसा बना गया कि मानों कांगे्रसी 60 साल के तकलीफों को 100 दिन में दूर कर देंगे। बहरहाल जनता यह सब देख रही थी। यही वह दौर था जब खाद्य आधारित महंगाई अपने चरम पर थी। आवष्यक चीजों के दाम आसमान छू रहे थे। सरकार कम होनी की भविष्यवाणी करकर अपना दामन बचा रही थी। इसके बाद अचानक एक अखबार ने खबर प्रकाशित की की केन्द्र सरकार के दो मंत्री होटल में रूकते हैं और बिल करोड़ो में पहुंच गया है। ध्यान रहे यह 100 दिन के पहले की उपलब्धि है। इसके पास कांग्रेसियों के बचत का नाटक शुरू हुआ। बिजनेस क्लास की जगह इकोनामी क्लास में सफर कर उदाहरण पेश किए जाने लगे। ऐसा लग रहा था की हिन्दुस्तान की सारी फिजूलखर्ची रूक गई है। मगर एक साहब को यह सब पसन्द नही आया। भला वो भी कब तक नाटक करते कह दिया इकोनामी क्लास कैटल क्लास है। फिर नाम आ गया आइपीएल में। आगे क्या हुआ आप जानते है। सनद रहे की महंगाई से जनता को कोई राहत नही मिल पा रही थी। इस मोर्चे पर जनता के पास वाकई कुछ था तो भविष्यवाणियां। किसी तरह 100 दिन खत्म हुए। लम्बे चैड़े वादों का कुछ नही हो पाया। खैर इसमें किसी को हैरानी नही हुई। पब्लिक है यह सब जानती है। कांग्रेस के लिए सबसे दुखी समाचार आंध्रप्रदेश से आया वह कि राजशेखर रेडडी नही रहे। इसके बाद यहां लगभग मृत हो चुके तेलांगाना मुददे ने जो जोर पकड़ा उसने सरकार की जडें हिला दी। इस बीच मीडिया राष्टमंडल खेलों की तैयारी के पीछे हाथ धोकर  पड़ गया। भ्रष्टाचार के कई सीन सामने आए। बहरहाल जांच चल रही है। सरकार की न सिर्फ देश में भी किरकिरी हो गई बल्कि उसकी विदेशी साख पर मानो रोडरोलर चल गया। वो तो भला हो खिलाड़ियों का जिन्होने लाज बचा दी। इधर रेल हादसों की संख्या में तेजी से बढोत्तरी हुई। सरकार को अपनी नक्सल नीति के चलते भी विरोध का सामना करना पड़ा। खासकर कुछ बड़े हादसों के चलते। बिहार में एकला चलो का नारा फ्लाप शो साबित हुआ। इसके बाद तो मानो पहाड़ ही टूट गया। राजा के खेल में सरकार ऐसी फंसी की आगे कुआ पीछे खाई की नौबत आ गई। इस खेल ने मिस्टर क्लिन को भी मुश्किल में डाल दिया। बची खुसी कसर सुप्रीम कार्ट की सख्त टिप्पणीयों ने पूरी कर दी। चाहे वह सड़ते राशन मुफ्त में बांटने को लेकर हो या मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर। बहरहाल साल खत्म होने को है मगर कांगे्रस की मुष्किल कम होने काम नाम नही ले रही है। डीएमके डरा रहा है ममता धमका रही है। सुप्रीम कोर्ट रूला रहा है और विपक्ष चिड़ा रहा है। आंध्रप्रदेष का हाल क्या होगा। किसी को पता नही। बहरहाल हम तो यही दुआ करेंगे की 2011 का सूरज इस पार्टी के लिए नया सवेरा लेकर आए।

महा - भारत

अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन। दुनिया के सबसे ताकतवर देश। 2010 का साल इन पांचों महाशक्तियों के भारत आगमन के लिए जाना जाएगा। इनका भारत प्रेम से स्पष्ट है कि भारत विश्व मंच में अपनी एक अलग पैठ बना चुका है। खासकर हमार अर्थव्यवस्था ने मंदी से बाहर निकलते हुए जिस तरह की विकास दर हासिल की है उसने सबको मजबूर कर दिया है कि वर्तमान में भारतीय बाजार में निवेष की बड़ी गुंजाइश है। भारत को भी अपने कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश की जरूरत है। खासकर ढांचागत विकास की गति को बनाए रखने के लिए।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार 
चीन को छोड़कर बाकी चारों देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार के साथ भारत की उसमें अहम भागीदारी की पुरजोर वकालत की हमें खुश कर दिया। पहली बार अमेरिका ने न सिर्फ भारत की दावेदारी का खुलकर समर्थन किया बल्कि अफगानिस्तान में हमारे काम की जमकर सराहना भी की। इधर चीन के रवैये में कुछ खास बदलाव देखने को नही मिला। मगर सवाल उठता है कि उसका यह विरोध अकेले क्या गुल खिलाएगा। वह कहते है न कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़े। मतलब चीन को भी देर सबेर भारत का समर्थन करना ही पड़ेगा। बहरहाल संयुक्त राष्ट्र में सुधार की प्रक्रिया काफी जटिल है। फिलहाल इसी झुनझुने से दिवाली मनानी चाहिए।
आतंकवाद और पाकिस्तान 
सिक्के के दो पहलू। दोनों के बीच के इस अटूट रिश्ते को चीन को छोड़कर सभी ने जमकर खरी खोटी सुनाई। पाकिस्तान को 26/11 के हमलावरों को कानून के दायरे में लाने और आतंकी ढांचा नष्ट करने की चेतावनी दी गई है। आज की भारतीय विदेश नीति में यह बात बड़ी मायने रखती है कि किसी देश का प्रमुख का भारत दौर बिना पाकिस्तान को सुनाए खत्म नही होना चाहिए। वरना सीधे तौर पर इसे रणनीतिकारों की असफलता माना जाता है।
व्यापार
 मेरे ख्याल से पांचों महाशक्तियों की भारत प्रेम की यह सबसे बड़ी वजह रही है। आज भारत के बाजार में भारी क्षमता है। 450 बिलियन के खुदरा बाजार और 150 बिलियन के परमाणु बाजार पर ज्यादातर देश अपनी लार टपका रहे हैं। साथ ही हमें हमारी ढांचागत सुविधाओं के बेहतर बनाने के लिए भारी निवेश की जरूरत है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविट कैमरून जून में अपनी भारत यात्रा के दौरान 40 अद्योगपतियों का प्रतिनिधिमंडल लेकर आए। दोनों देशों के बीच वर्तमान व्यापार जो 11.5 बिलियन अमेरिकी डालर है, उसे बड़ाकर 2014 तक 24 बिलियन अमेरिकी डालर करने का लक्ष्य रखा गया। बराका ओबामा तो अपने साथ 215 आर्थिक दिग्गजों को लेकर आये थे। क्योंकि वह अपने घर में बढ़ती बरोजगारी दर जो 10 प्रतिशत के आसपास थी, से निपटना चाहते थे। वह सफल भी हुए तकरीबन 54 हजार नौकारियां जो ले गए। साथ ही दोनों देशों के बीच व्यापार वर्तमान 37 से बड़ाकर 2015 तक 75 बिलियन अमेरिकी डालर करने का लक्ष्य तय किया गया। फ्रांस और रूस के साथ भी व्यापार बड़ाने को लेकर सहमति बनी। फ्रांस के साथ 2016 में हमारा व्यपार 16 बिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंचेगा जो फिलहाल 8 बिलियन अमेरिकी डालर के आसपास है। जबकि रूस के साथ व्यापार बड़ाकर 2015 तक 20 बिलियन अमेरिकी डालर करने का लक्ष्य है। साथ ही रूस के साथ अब तक 30 बिलियन अमेरिकी डालर की सबसे बड़ा रक्षा समझौता हुआ है। आखिर में चीन जो 400 उद्योगपतियों का प्रतिनिधि मंडल लेकर भारत पहुंचा था। दोनों देशों बीच का व्यापार इस वर्ष 60 बिलियन अमेरिकी डालर को पार कर जायेगा। इसे भी बड़ाकर 2015 तक 100 बिलियन अमेरिकी डालर करने पर समझौता हुआ है।
चीन की यात्रा से नाउम्मीदी 
वेन जियाबाओं की यात्रा से किसी को ज्यादा उम्मीद नही थी। मगर जानकारों की माने तो इस बार भारत ने चीन को एक संदेश देने की जरूर कोशिश की। खासकर स्टेपल वीजा को लेकर। विगत है की चीन लम्बे समय से भारत की घेरेबंदी में जुटा हुआ है। खासकर हमारे पड़ोसी मुल्कों में उसके द्धारा किया जा रहा ढांचागत विकास संदेह के घेरे में है।
कुल मिलाकर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत एक तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्ति है बल्कि ओबामा के शब्दों में उभर गया है। अब बस जरूरत है इस बड़ती विकास दर को सर्वसमावेशी बनाने की।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

लोकपाल विधेयक कब आयेगा

पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। अभी और कितना इंतजार करना पड़ेगा किसी को मालूम नही। बहरहाल प्रधानमंत्री ने भी लोकपाल के तहत आने की अपनी मंशा साफ कर दी है। देश को पीएम, सीएम और डीएम चलाते हैं। इसलिए इनके स्तर से ही जवाबदेही और पारदर्शिता की शुरूआत होनी चाहिए। सवाल यह उठता है कि अगर लोकपाल विधयेक कानून की शक्ल ले भी लेता है तो क्या सबकुछ ठीक हो जाएगा। आज तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। ये मौजूद जरूर है मगर मौजूदगी का अहसास ना के बराबर है। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया क्या हुआ। नौबत इस्तीफा देने तक की आ गई। क्योंकि जहां मुखिया ही भ्रष्ट हो तो जांच क्या खाक होगी। आज देष में भ्रष्टचार से लड़ने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी एक सिफारिशी संस्थान है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां कितनी न्याय कर पाती होगीं। हाल ही में मुख्य सतर्कता आयुक्त पी जे थामस की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने इस संस्थान की विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया। मेरा मानना है कि अगर इन्हें ही स्वतंत्र तरीके से काम करने दिया जाए तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टचार पर अंकुष लगाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकपाल की दषा भी कहीं ऐसी ही न हो जाए। इसलिए जरूरी है कि न सिर्फ इस संस्थान को पूरी स्वतंत्रता दी जाए बल्कि इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से भी दूर रखा जाए। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेन्स की बात कहने वाले नेता इसे मूर्त रूप दे पायेंगे। अगर हां तो हालात में सुधार आयेगा और अगर नही तो हमें प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट 1988 की जगह प्रमोषन आफ करप्षन एक्ट 2011 में बना देना चाहिए। ताकी सबको जेब गरम करने का मौका मिले। अगर हालात नही बलने तो रोजनगार का अधिकार सूचना का अधिकार शिक्षा का अधिकार और भोजन के अधिकार पर इतराने वाली यूपीए सरकार से जनता कहीं यह न कहे कि राइट टू करप्षन एक्ट भी लाओ। ताकि खेल सबके सामने हो।





  

महंगाई डायन खाए जात है

महंगाई डायन से जनता परेशान और सरकार हैरान है। जनता इसलिए की बजट गड़बड़ा गया है और सरकार इसलिए की राजनीति कही गड़बड़ा न जाए। महंगाई रोकने का सरकारी खेल भी एकदम निराला है। यह न जनता के समझ में आता है और न ही महंगाई डायन को डराता है। महंगाई बड़ती है। प्रधानमंत्री चिन्ता प्रकट करते हैं। कृषि मंत्री जल्द ही दाम घटने की बात कहते हैं। इतना ही नही ज्यादा कुरेदने पर वह आगबबूला हो जाते हैं। अरे भाई। कोई ज्योतिषी थोड़ी न हैं, जो यह बता देंगे की दाम कब कम थमेंगे। विपक्ष सरकार को कोसता है। अर्थशास्त्री मांग और आपूर्ति के खेल में मामले को उलझाकर अपनी विद्धवता का परिचय देते हैं। सरकारी प्रवक्ता राज्यों को जमाखोरों पर नकेल कसने की नसीहत देते फिरते रहते हैं। और विपक्षी प्रवक्ता पानी पी पी कर सरकार को कोसते है। इन सबके के बीच इस नाटक में जनता और परेशान नजर आती है। पहले बड़ते दामों से और बाद में नेताओं के इस नाटक से। वह ना थोक मूल्य सूचकांक को समझती है और न ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का मतलब जानती है। उसे तो यह भी नही पता कि बार बार ऐसा क्यों कहा जाता है कि पहले जुलाई फिर नवंबर और बाद में मार्च तक खाद्य आधारित महंगाई 5.5 तक आ जाएगी। दुर्भाग्य से उसे असली सवालों का जवाब कभी नही मिलता। दरअसल सरकार के पास महंगाई रोकने के लिए व्यापक तंत्र है। साथ ही जमाखोरों को ठिकाने लगाने के लिए कानून भी। मगर महंगाई डायन है कि न तंत्र से डरती है न कानून से। वह तो बस सरकार की नीतिगत खमियों का फायदा उठाकर बिचैलियों और जमाखारों पर धन बरसा कर जनता को रूलाती रहती है। जनता जिसे न तंत्र का पता न कानून का। मगर कहानी बिना इसके अधूरी सी लगती है।
पहला तंत्र यह है कि उपभोक्ता मामले मंत्रालय के तहत एक दाम नियंत्रक सेल है। यह देशभर में 17 आवश्यक वस्तुओं के थोक और खुदरा मूल्य पर रोजना और साप्ताहिक नजर रखता है। मोटे तौर पर इसका काम  मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन साधना है। ताकि जनता को उचित दामों पर जरूरी साजो समान मिला जाए
प्रश्न नं 1- क्या यह विभाग अपनी जिम्मेदारी को निभा पा रहा है। अगर नही तो बिना देरी किए इसमें बदलाव लाया जाए नही तो ताला डाल दिया जाए।

दूसरा वित्त मंत्रालय के आर्थिक विभाग के तहत भी एक दाम नियंत्रक सेल काम करता है। इसका भी कामों दामों को नियंत्रित करना है। मगर नतीजा सिफर।
प्रश्न नं 2- क्या यह विभाग मात्र आंकड़े एकत्रित करने का तंत्र है।

तीसरा मंत्रीयों का समूह- सीधी भाषा में इसे ऐसे समझ सकते है कि दो मंत्रालय की जब किसी मुददे पर ठन जाती है तो मामला मंत्रीयों के समूह को भेज दिया जाता है। बहरहाल  महंगाई पर इसकी भी पैनी नजर होती है।
प्रश्न संख्या 3- इस समूह ने महंगाई रोकने के लिए कोई रामबाण तैयार किया।

चैंथा सचिवों की समिति- इसकी अध्यक्षता कैबीनेट सचिव करते है। महंगाई बड़ने के बाद यह प्रधानमंत्री के इशारे पर यह मैराथन बैठकें करता है। मानों की इनकी बैठकें महंगाई डायन की बढ़ते कदम थाम देगी।
प्रश्न संख्या 4- क्या इसके पास महंगाई रोकने के लिए कोई दीर्घकालिक योजना है।

पांचवा कैबीनेट कमिटि आन प्राइसेस- यह सबसे मजबूत समूह है। मतलब जब हालत काबू से बाहर हो जाए तो यह समूह हरकत में आता है। घंटों की माथापच्ची के बाद बैठक खत्म होती है। महंगाई कम करने के दर्जन भर सरकारी उपायों का ढोल पीटकर अपने कर्मों की इतिश्री कर ली जाती है। यह तो रहा सरकारी कारनामों का लेखा जोखा। मगर मामला इतने में ही नही थमता। मसला महंगाई का हो और  विपक्ष का गुस्सा सातवें आसमान पर न हो, भला यह कैसे हो सकता है। यह बात दीगर है कि आटा, चावल, दूध सब्जी, तेल और अन्य वस्तुओं के दाम उन्हें मालूम भी है या नहीं। खैर छोड़िये। मामला संसद में उठाऐंगे कहकर वह मामले के प्रति अपनी गंभीरता को प्रकट करते हैं। संसद सत्र शुरू होता है। सत्र के पहले कुछ दिन इस बात पर बर्बाद हो जाते हैं कि महंगाई पर चर्चा आखिर कौन से नियम के तहत हो। नियम 193 या 184 के तहत। यहां यह बताते चले की नियम एक 184 के तहत वोटिंग का प्रावधान है। लिहाजा ज्यादातर सरकारें इस नियम के तहत चर्चा कराने से दूर ही रहती हंै। इसी मुददे पर कई दिन तक हंगामा चलता है। बहरहाल सहमति बन जाती है। सदन में चर्चा शुरू होती है। आंकड़ों का महायुद्ध चलता है। विपक्ष के नेताओं की तीखे प्रहारों के बीच वित्तमंत्री चर्चा में हस्तक्षेप करते हैं। हस्तक्षेप का मुख्य जोर महंगाई रोकने से ज्यादा विपक्षियों को जलील करने पर रहता है कि हमसे ज्यादा महंगाई तो आपके कार्यकाल में थी। यानि इशारों को अगर समझो, राज़ को राज़ रहने दो। कृषि मंत्री के जवाब से असंतुष्ट विपक्ष वाक आअट करता है। खबर बनती है। और जयरामजी की। ऐसा लगता है कि कोई फिल्म चल रही है। जिसका कोई क्लाइमेक्स नही है। बेशर्म महंगाई डायन नेताओं की इतनी मेहनत के बाद भी कम होना का नाम नही लेती है। इसके बाद बारी आती है कानून की। डायन को डराने के लिए भी कानून है। दो कानून है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955। प्रिवेंशन आफ ब्लैक माकेर्टिक एक्ट 1988। कायदे से इसका इस्तेमाल राज्य सराकरों को जमाखोरों पर नकेल कसने के लिए करना चाहिए। मगर होता कुछ और है। इसका सही इस्तेमाल केन्द्र सरकार करती है। यह कहकर  कि राज्यों को इस कानून के तहत पूरी ताकत दी गई है। मगर राज्य इसका इस्तेमाल नही कर रहे हैं। क्योंकि महंगाई को रोकने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य दोनों की है। अब मामला ठंडा पड़ने लगता है। इधर जनता महंगाई से ज्यादा इस नाटक से परेशान है। कुछ दिनों की शांति के बाद अचानक विपक्ष की ओर से बयान आता है। अगर महंगाई डायन को थामने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्यों की संयुक्त है तो केन्द्र राज्यों के मुख्यमंत्री को बुलाकर बैठक करे। विज्ञान भवन में जलसा लगता है। प्रधानमंत्री लिखा हुआ भाषण पड़ते हैं। कुछ छोटी मोटी दिखावटी नोंकझोंक के साथ ममाला शांति से निपट जाता है। अब मुसीबत यह कि बाहर जाकर मीडिया को क्या कहें। जवाब तैयार हेाता है। मीडिया को कहा जाता है कि तीन है समिति बना दी गई है। पहली महंगाई को रोकने को लेकर, दूसरी वितरण प्रणाली को कैसे दुरूस्त किया जाए और तीसरी कृषि उत्पादन कैसे बड़ाया जाए। इन सब के बावजूद मगर महंगाई जारी है।
 इतिश्री महंगाई पुराणों प्रथमों सोपानः समाप्तः

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

लोकतंत्र से भ्रष्टतंत्र तक

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र या लूटतंत्र आप फैसला करिए। विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका और मीडिया कोई भी ऐसा पक्ष नही जिस पर जनता आंख बंद कर विश्वास कर सके। सब देष को लूटने में लगे हैं। सार्वजनिक जीवन में सदाचार की बातें करने वाले नेताओं की तिजोरियां लबाबलब भरी रहती हैं। और हो भी क्यों न राजनीति में आने का और क्या मकसद है। बेवकूफ तो हम इन्हें अपना जनप्रतिनिधि कहते है। नाम बदलों मित्रों यह धनप्रतिनिधि है। करोड़ों खर्च कर चुनाव जीतकर आने का मतलब यह कतई नही इन्हें समाज सेवा का चश्का है। दरअसल इन्हें नोट कमाने का चश्का है। और यही हो रहा है। जरा सोचिए जब उच्च पद पर बैठा मंत्री भ्रष्ट है तो उसके नीचे के हालात क्या होंगे। राज्य का मुख्यमंत्री अगर भ्रष्ट है तो राज्य का क्या हाल होगा। हालात इतने खराब हो चुके है कि विश्वसनियता का संकट शुरू हो चुका है। किसपर भरोसा करें समझ में नही आता। भ्रष्टाचार आज षिष्टाचार का रूप ले चुका है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि जायज काम कराने के लिए भी घूस देनी पड़ रही है। दैनिका जीवन में यह कैंसर घुलमिल गया है। अगर हालात से निपटना है तो कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। शुरूआत नेताओं से की जानी चाहिए। जिन नेताओं ने अनापशनाप पैस कमा रखा है उनपर नकेल कसी चाहिए। एक शिक्षा और स्वस्थ्य सुधार नामक कोष बनाकर इनकी अवैध कमाई की सारी राशि उसमें डाली जाए। चुनाव में होने वाले बेताहाशा खर्च पर रोक लगाई जाए। अकेले 15वी लोकसभा चुनाव में 10 हजार करोड़ रूपये खर्च हुए। जरा खर्चो के ब्यौरे पर एक नजर डालिए।
चुनाव आयोग     1300 करोड़
केन्द्र और राज्य   700 करोड़
राजनीतिक दल   8000 करोड़
पहला सवाल इतना पैसा आता कहां से है और दूसरा खर्चीले चुनाव के पीछे का मकसद। जाहिर है पैसा कारपोरेट जगत से आता है। सवाल यह कि इस चंदे के बदले वह कितना चंदा वसूलते होंगे। आज इस देश के पास एक मौका है भ्रष्टाचारियों के खिलाफ एक निर्णायक जंग छेड़ने का। शुरूआत राजा और कलमाड़ी से की जाए। मगर इस देष में ऐसे करोड़ों राजा और कलमाड़ी हैं। बदलना है तो इस व्यवस्था को बदलों जिसका फायदा यह लोग उठाते है।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

उच्च शिक्षा के लिए बड़े निवेश की जरूरत

करीब चार साल के लंबे इंतजार के बाद विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010 लोकसभा में पेश हो चुका है। इस विधेयक के कानून बनने के बाद विदेशी शैक्षणिक संस्थाओं को भारत में प्रवेश की इजाजत मिल जायेगी। मतलब अब भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालय में पढाई करने का सपना भारत में ही रहकर पूरा कर सकेंगे। एसोचैम की मानें तो इससे भारत को करीब 34500 करोड़ रूपए की सालाना बचत हो सकेगी। अनुमान है कि इतनी रकम भारतीय छात्र विदेश में पढ़ाई पर हर साल खर्च करते हैं। जानकार सरकार के इस कदम को एक अच्छी पहल मान रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालय भारत में खुलेंगे तो भारतीय प्रतिभाओं को शिक्षा का बेहतर मंच मिलेगा। ब्रेन डेन की कथित समस्या से काफी हद तक राहत मिलेगी। शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी ढांचा मजबूत होगा। लेकिन कुछ सवाल अभी बाकी हैं। मसलन अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के छात्रों को क्या आरक्षण की राहत मिलेगी। प्रवेश प्रकिया किस तरह की होगी। साथ ही प्रवेश शुल्क पर क्या कोई सरकारी नियंत्रण होगा। एक सवाल प्रशिक्षित शिक्षकों की वर्तमान कमी का भी है। वैसे सवाल कुछ और भी हैं। लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को इस विधेयक से काफी उम्मीदें हैं। बीते 6 दशकों से देष में उच्च शिक्षा की तस्वीर बेहतर नहीं है। हर 100 छात्रों में से महज 12 ही उच्च षिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। नैक के मुताबिक देशभर के सिर्फ 10 फीसदी कालेज ही ए श्रेणी में जगह बना पाए हैं। विष्वविद्यालयों में अध्यापकों के 25 फीसदी पद खाली पड़े हैं। शिक्षा की गुणवत्ता आज भी बड़ी समस्या है। देश के 58 फीसदी स्नातक महीने का 6 हजार रूपए ही कमा पाते हैं। जिस तरह की शिक्षा मुहैया कराई जाती है क्या बदलते वक्त में बाजार में उस शिक्षा की मांग है या नहीं। ऐसे में कपिल सिब्बल को उच्च शिक्षा से जुड़े इन आंकड़ों को भी बदलना होगा। जिसके लिए भारी निवेश और बेहतर निगरानी तंत्र की दरकार है।

किसान का सरकारी सुख

देश में खेती को लेकर मंथन जारी है। वैसे इस वर्ष खद्यान्न का रिकार्ड तोड़ उत्पादन होने की संभावना है। खरीफ की फसल अच्छी हुई है। अब माना जा रहा है कि रबी फसल में भी अच्छा उत्पादन होगा। मगर कुछ चिंताऐं अब भी कायम है। दुनिया में सबसे ज्यादा सिंचित भूमि हमारे देश में है। मगर तमाम प्रयासों को बावजूद इसमें कमी आ रही है। 1980-81 में जहां 185.9 मिलियन हेक्टेयर जमीन सिंचित थी वह 2005-06 में यह गिरकर 182.57 मिलियन हेक्टेयर पर आ गई है। इसमें 50 फीसदी जमनी पर एक से ज्यादा फसल उगाई जाती है, वही बाकी 50 में सिर्फ एक ही फसल से संतोष करना पड़ता है। उत्पादकता के लिहाज से अभी भी ठहराव ही है। हमारे देश में उत्पादकता विकसित देशों के मुकाबले एक तिहाई है खासकर चावल के मामले में। साथ की उर्वरकों के इस्तेमाल से होने वाला उत्पादन का औसत भी लगातार गिर रहा है। इसका मुख्य कारण असंतुलित तरीके से उर्वरकों का इस्तेमाल जिसकी वजह से मिटटी की उर्वरा शक्ति में कमी आई है। बहरहाल सरकार इसके लिए सौइल हेत्थ कार्ड जारी कर रही है। इसके अलावा पिछले कुछ सालों में कई बड़े कदम उत्पादन बड़ाने व किसानों के हितों के ध्यान में रखते हुए उठाए गए हंै।
सरकार ने 2006 में 4 राज्यों के 31 जिलों में 16978.69 करोड़ का पुर्नवास पैकेज दिया। इन जिलों में किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्या की थी। अब किसान इस पुर्नवास पैकेज का फायदा 30 सितंबर 2011 तक ले सकते हैं। सरकार ने इसकी अवधि 2 साल के लिए और बड़ा दी है। किसान ऋण माफी योजना जो 2008 में शुुरू की गई से तकरीबन 3.69 करोड़ किसानों को फायदा पहुंचा। इस योजना में 65318.33 करोड़ खर्च किया गया।
इतना ही नही जो किसान अपने तीन लाख तक का ऋण समय से जमा कर देंगे उसे 2 फीसदी ब्याज पर सब्सिडी दी जायेगी। यानि किसान को अब 3 लाख तक के लोन पर 5 फीसदी का ही ब्याज देना होगा बस उसे अपना ऋण समय पर चुकाना होगा। यह पहल किसान आयोग की उस सिफारिश पर की जा रही है जिसमें किसानों को 4 फीसदी की ब्याज पर लोन देने की सिफारिश की गई है। इसके अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी पिछले कुछ सालों में भारी बढोत्तरी की गई है। अच्छी खबर यह है कि इस साल दालों का रिकार्ड उत्पादन होने का अनुमान है। यह अनुमान 16.5 मिलियन टन के आसपास रखा गया है। यह एक अच्छी खबर है। हमारे देश में दालों की खपत 17 मिलियन टन के आसपास है। जबकि हम 14 मिलियन टन के आसपास उत्पादन कर पाते हंै। बाकी के लिए हमें आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। बहरहाल बड़े हुए उत्पादन से आयात में कमी आएगी। वर्तमान में देश भर में दालों का रकबा 23 लाख हेक्टेयर के आसपास है। साथ ही 2010-11 के बजट में प्रथम हरित क्रांति का विस्तार पूर्वी क्षेत्रों में बिहार झारखंड पूर्वी उत्तर प्रदेष, छत्तीसगढ़, ओडिसा और पश्चिम बंगाल तक ले जाने की घोषणा की गई थी। इसके अलावा दलहन और तिलहन के उत्पादन के लिए 60 हजार गांवों को चिन्हित किया जाएगा। इन दोनों योजनाओं के लिए बकायदा बजट में 450 और 300 करोड़ का आवंटन किया गया है। ऐसा लगता है इन दोनों मदों में इस बार अच्छी बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगी।

उर्जावाणी

उर्जा खपत के हिसाब से भारत दुनिया का पांचवा देश है। यानि दुनिया की कुल खपत का 3.4 फीसदी भारत करता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि 2030 तक भारत जापान और रूस को पीछे छोड़कर तीसरे स्थान पर काबिज हो जायेगा।
अमेरिका, चीन जापान रूस और भारत। एक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए उर्जा की बड़ी जरूरत है। यही कारण ही की प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद ने देश की तेजी से बड़ती विकास दर में सबसे बड़ा रोड़ा उर्जा की कमी को बताया था। भारत आने वालें सालों में अपनी विकास दर 10 फीसदी से उपर रखना चाहता है। मगर इसके लिए जरूरी है कि बिजली उत्पादन तेजी से हो। मौजूदा समय में इस देश में सबसे ज्यादा बिजली कोयले से पैदा होती है।
भारत में उर्जा उत्पादन
ताप उर्जा                            75 फीसदी
जलविद्युत उर्जा    21 फीसदी
परमाणु उर्जा                           4 फीसदी
मंाग और आपूर्ति में अंतर
10 फीसदी समान्य
12.7 फीसदी पीक आवर में 5 से रात ग्यारह बजे
कोयला
2012 तक 15 फीसदी की कमी मतलब 8 करोड़ टन से ज्यादा।
उर्जा क्षेत्र की विकास दर 10 प्रतिशत से बड़ रही है जबकि कोयले का उत्पादन 5 से 6 फीसदी की दर से बड़ रहा है।
2016-17 में यह अंतर बढ़कर 86.50 मिलियन टन हो जायेगा।
पवन उर्जा में दुनिया में पांचवा स्थान
अप्रेल 2010 तक 11807 मेगावाट इन्सटाल्ड कर ली गई है।
कुल क्षमता 48500 मेगावाट
10वीं योजना में 2200 मेगावाट टारगेट
प्राप्त किया 5426 मेगावाट
2022 तक 40000 मेगावाट करने का लक्ष्य
एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले 8 सालों में उर्जा के क्षेत्र में 1250000 हजार करोड़ की आवष्यकता होगी। सरकार इसके लिए सार्वजनिक निजि भागिदारी पर जोर दे रही है।
परमाणु उर्जा
फिलहाल कुल उर्जा खपत का 4 फीसदी हिस्सा परमाणु उर्जा से आता है। 2020 तक हमने 20 हजार मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य रख है। जबकि 2050 में हमारा लक्ष्य यह है कि कुल खपत का 25 फीसदी इस क्षेत्र से आयेगा। इस समय देश में 19 परमाणु पावर प्लांट काम कर रहे है जिनकी उत्पादन क्षमता 4560 मेगावाट है।
सौर उर्जा
जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय उर्जा मिशन की शुरूआत नवंबर 2009 से हुई है। इसे तीन चरणों में विभाजित किया गया है। मार्च 2013 तक 4337 करोड़ के बजट से 11000 मेगावट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसी क्रम को आगे बड़ाते हुए 2022 तक 20 हजार मेगावाट का लक्ष्य रखा गया है।
जल विद्युत परियोजना
देश में बिजली उत्पादन का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है। आज कुल खपत का 21 फीसदी इसी क्षेत्र से आता है। भारत में इसकी कुल क्षमता 150000 मेगावाट है मगर अभी तक हम इसका 25 फीसदी ही उपयोग में लाये है। विशेषज्ञों की माने तो बिजली उत्पादन की इस क्षेत्र में अपार संभावनाऐं है।

ढांचागत विकास जरूरी

ढांचागत विकास में तेजी लाने का आज सख्त दरकार है। दूरसंचार क्षेत्र को छोडकर सभी क्षेत्र मसलन सड़क रेलवे सड़क बिजली उत्पादन हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण और बंदरगाहों की क्षमता बढ़ाने जैसे क्षेत्रों में काम काफी धीमा चल रहा है।
सड़क निर्माण -2010-11 में जहां 2500 किलोमीटर सड़कों का निर्माण होना था वही पहले 6 महिने में सिर्फ 691 किलोमीटर सड़कों का निर्माण हो पाया है। इसके लिए बकायदा 36524 करोड़ का आवंटन किया गया था मगर सितंबर तक केवल 7389.91 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाए हैं। सड़क व परिवहन मंत्रालय ने 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा था।
बिजली उत्पादन -  यह क्षेत्र भी बढ़ती विकास दर के साथ कदमताल नही मिला पा रहा है। पहली छमाही में केवल 3.83 फीसदी की ही वृद्धि हुई है जो पिछले साल के इसी अवधि के 6.3 फीसदी के मुकाबले बहुत कम है।
रेलवे - रेलवे भी अपने सालान लक्ष्य से कोसों दूर है। इस मंत्रालय का निजाम जरूर बदल गया मगर परियोजनाओं में भारी देरी इस क्षेत्र के लिए आम बात हो गई है। 2010-11 के लिए 1000 रेलवे लाइन की विद्युतिकरण का लक्ष्य रखा गया था मगर पहुंच पाये सिर्फ 203 किलोमीटर तक। गेज परिवर्तन दोहरीकरण और नई लाइनों को बिछाने के मामले में निर्धारित लक्ष्य के मुकाबले 20 फीसदी भी कार्य नही हो पाया है। सवाल यह है कि शेष बचे 6 महिनों में 80 फीसदी कार्य पूरा हो पायेगा। उदाहरण के तौर पर इस साल 1000 किलोमीटर नई रेल लाइनें बिछाने का लक्ष्य रखा गया था मगर अब तक सिर्फ 59 किलोमीटर तक ही लाइन बिछाई जा चुकी है। अगर बुनियादी क्षेत्र का यही हाल रहा तो विकास दर दोहरे अंक में नही पहुंच पायेगी। फिलहाल उघोग और वाणिज्य संगठन सीआईआई ने ढांचागत विकास के लिए सरकार को दस सूत्रीय कार्यक्रम लागू करने की सिफारिश की है।
1-अहम परियोजनाओं के लिए नियुक्त हो विशेष दूत जो केन्द्र और राज्य सरकार के समक्ष बेहतर तालमेल स्थापित कर सके।
2-सार्वजनिक निजि भागीदारी को मजबूत किया जाए।
3-योजना आयोग के योजना के मुताबिक 11वीं पंचवार्षिय योजना में होगा 500 अरब रूपये का निवेश।
4-राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं को जल्द से जल्द शुरू किया जाए।
5-नए बंदरगाहों का तेजी से निर्माण हो।
6-बिजली वितरण की व्यवस्था को दुरूस्त किया जाए। साथ ही देश में बिजली की एक समान दरें लागू हो।
7-परमाणु उर्जा में निजि क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता साफ हो और निजि क्षेत्र की कंपनियों को परमाणु उर्जा संयंत्रो के निर्माण की छूट मिलें।
8-शहरीकरण पर विशेष ध्यान दिया जाए। 2005 में शुरू हुई इस योजना की समीक्षा की जाए।
9-नागरिक उडड्यन क्षेत्र में रेगुलेटर नियुक्त हेा।
10-हवाई अडडों के आधुनिकीकरण का काम तेजी से हो।

सड़क बनाने के लक्ष्य से काफी पीछे हम

यूपीए के दूसरे कार्यकाल में सड़क एवं परिवहन मंत्रालय का जिम्मा सभालने के बाद कमलनाथ ने प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा। यह वह समय था जब यूपीए सरकार सडकों को बनाने के धीमी प्रगति के चलते विपक्ष का निषाना बना रही थी। यही कारण था की जानकारों और खुद योजना आयोग इस लक्ष्य को महत्वकांक्षी मान रहा था। बहरहाल जो तस्वीर समाने है उसमें 12.3 किलोमीटर प्रतिदिन सड़को का निर्माण कराया जा रहा है। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण के मुताबिक जमीन अधिकरण में देरी, भारी बारिश, समय से पर्यायवरण अनाप्प्ति प्रमाण पत्र का न मिलना, कानून व्यवस्था और कुशल मानव संसाधन की कमी सड़क बनाने की धीमी प्रगति का मख्य कारण है। अक्टूबर 2009 से सितंबर 2010 तक कुल 201 परियोजनाओं का ठेका दिया गया है। इन परियोजनाओं की कुल लम्बाई 9923 किलोमीटर है। कुल मिलाकर इस समय 14704 किलोमीटर सड़क कार्य का काम प्रगति में है। इस समय राष्ट्रीय राजमार्ग का चार चरणों में काम कराया जा रहा है और चारों ही चरणों
में काम की प्रगति काफी धीमी है। अकेले 2010-11 में 25000 मिलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा गया था मगर सितंबर महिने तक यानि पहले 6 महिने में 691 किलोमीटर ही सड़कों का निर्माण हो पाया है। इस मद में इस साल 36524 करोड़ का आवंटन किया गया है मगर पहले 6 महिने में सिर्फ 7389.91 करोड़ की खर्च हो पाये हैं। अब सवाल यह उठता है की मंत्रालय निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति क्या बचे हुए 6 महिनों में कर पायेगा।
आज भारत सड़कों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। देष भर में फैली सड़कों  की कुल लम्बाई 33.4 लाख किलोमीटर है।
विष्व का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क
कुल लम्बाई 33.4 किलोमीटर के आसपास 
राष्ट्रीय राजमार्ग 66590
राज्य राजमार्ग  128000
प्रमुख जिला सड़कें 470000
ग्रामीण व अन्य सड़कें 2650000
राष्ट्रीय राजमार्ग का नेटवर्क 2 प्रतिशत से कम है परन्तु यह कुल यातायात का 40 प्रतिशत भार वहन करता है। आज 65 फीसदी माल की ढुलाई और 80 फीसदी यात्री यातायात इन्ही सडको पर होता है। जहां सड़को पर यातायात 7 से 10 फीसदी सालाना आधार पर बढ़ रहा है। वही वाहनों की संख्या में तेजी 12 फीसदी के आसपास रही है। यही कारण है की अर्थव्यवस्था की गति को तेजी से बड़ाने के लिए सडकों का तेजी से निर्माण जरूरी है।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

ढांचागत विकास में तेजी लाने का आज सख्त दरकार है। दूरसंचार क्षेत्र को छोडकर सभी क्षेत्र मसलन सड़क रेलवे सड़क बिजली उत्पादन हवाई अड्डों के आधिुनकीकरण और बन्दरगाहों की क्षमता बढ़ाने जैसे क्षेत्रों में काम काफी धीमा चल रहा है। 

सड़क-2010-11 में जहां 2500 किलोमीटर सड़कों का निर्माण होना था वही पहले 6 महिने में सिर्फ 691 किलोमीटर सड़कों का निर्माण हो पाया है। इसके लिए बकायदा 36524 करोड़ का आवंटन किया गया था मगर सितम्बर तक केवल 7389.91 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाए हैं। सड़क व परिवहन मन्त्रालय ने 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा था। 
बिजली उत्पादन-  यह क्षेत्र भी बढ़ती विकास दर के साथ कदमताल नही मिला पा रहा है। पहली छमाही में केवल 3.83 फीसदी की ही वृद्धि हुई है जो पिछले साल के इसी अवधि के 6.3 फीसदी के मुकाबले बहुत कम है। 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

उवर्रक क्षेत्र में निवेश

4 सितम्बर 2008 को सरकार ने उवर्रक क्षेत्र के लिए एक नई निवेश नीति की घोशणा की । इसका मकसद उवर्रक क्षेत्र में निवेश को आकिशZत करना था। यह नीति समता मूल्य बैंच अंकन पर आधारित है। इसके अलावा सरकार बन्द पडी  उर्वरक इकाइयों को खोलने पर भी विचार कर रही है। इसके लिए सचिवों के अधिकार प्राप्त समूह का गठन किया गया। जिसकी सिफारिशें सरकार के पास मौजूद है। मौजूदा समय में एचएफसीएल यानि हिन्दुस्तान फर्टीलाइजर कार्पोरेशन लिमिटेड और एफसीआइएल यानि फर्टीलाइजर कार्पोरेशन आफ इण्डिया लिमिटेड की 8 इकाइयां बन्द पड़ी है। इसके लिए विशेष अधिकार प्राप्त समूह ने बनाओं, मालिक बनो तथा चलाओं प्रणाली की सिफारिश की है। देश के सभी भागों में उर्वरकों की उपलब्धता कराने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। मौजूदा समय में उवर्रक की 56 इकाइयां है। इनमें से सार्वजनिक क्षेत्र की 8 और निजि क्षेत्र की 2 इकाइयां बन्द है। अगर इन्हे दोबारा खोला जाता है तो यूरिया की मांग और आपूर्ति में बड़ते अन्तर को यह काफी हद तक कम कर देगी। भारत में उवर्रकों की खपत में भारी बढोत्तरी हुई है। जहां 1951-52 में .49 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उवर्रकों का इस्तेमाल होता था वही आज प्रति हेक्टेयर 117.07 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल होता है वही चीन में 289.1. किलोग्राम प्रतिइहेक्टेयर, इजिप्ट में 555.10 और बग्लादेश में 197.6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल होता है।  इससे भी बड़ी बात कि बड़ती खपत के चलते उवर्रकों की सिब्सडी में 6 फीसदी की बढोत्तरी हुई है। 94 फीसदी की बढ़त का कारण अन्तराष्ट्रीय बाजार में उवर्रकों की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी है। जहां 2001 से 2008 के बीच में खाद्यान्न उत्पादन में 8.37 फीसदी की बढोत्तरी हुई उत्पादकता के मामले में 6.92 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं सिब्सडी का बिल 214 प्रतिशत तक पहुंच गया। अकेले 2007-09 के दरमियान सिब्सडी बिल 146.56 फीसदी तक बड़ गया। इतना ही नही इस क्षेत्र में 2002 के बाद कोई निवेश नहीं हुआ। नाइट्रोजन के क्षेत्र में 1999 से कोई निवेश नही तो फौस्फेट के क्षेत्र में 2002 कोई नया निवेश नही किया गया। साथ ही खेतों की उर्वरा शक्ति लगातार कम होती जा रही है। वैज्ञानिक इसकी वजह उवर्रकों के असन्तुलित इस्तेमाल को मानते हैं। एनपीके का आदशZ अनुपात 4:2:1 है मगर भारत में यह 6:2:1 के के अनुपात में इस्तेमाल होता हैं। खेती में उवर्रको से उत्पादन होने वाले आनाज की मात्रा में भी बदलाव देखने को मिला है। 1960-61 में 13.45 से 2008 में घटकर 3.92 प्रतिशत पर आ गया है। रंगराजन समिति ने अपनी एक सिफारिश में कहा है कि 117 किलो उवर्रक सिब्सडी में दिया जाए बाकी किसान बाजार से खरीदे। इसके पिछे का तर्क है कि 81 फीसदी किसान छोटा और मझोला है।

क्रिकेटवाणी- 2011 का विश्वकप जीतने का सुनहरा मौका

न्यूजीलैण्ड की साथ एक एकदिवसीय श्रंखला को 5-0 से जीतकर भारत ने इतिहास रच दिया। यह पहला मौका होगा कि जब भारतीय टीम ने किसी भी टीम को किसी श्रंखला में क्लीन स्विप कर दिया। गौतम गम्भीर के नेतृत्व वाली इस टीम में भारत के कई होनहार प्रतिभावान और दिग्गज बल्लेबाज न होने के बावजूद हमारी टीम ने जबरदस्त खेल दिखाया। इस श्रंखला को देखकर यह विश्वास हो रहा है कि भारत विश्वकप का प्रबल दावेदार है। दरअसल यह जीत पिछली जीतों से अलग हैं। सबसे बड़ा फर्क यह है कि पहले की जीत मेहमान टीम के खराब प्रदशZन पर टिकी होती थी। इस बार भारत ने हर क्षेत्र में जबरदस्त खेल दिखाया। रनों का पीछा करते हुए भारतीय टीम ने यह संकेत दे दिया है कि उनके भीतर जीतने का जज़्बा है। यह पहला मौका है कि शुरूआती बड़े झटकों के बावजूद भारत ने 300 से ज्यादा रनों का पीछा कर जीत हासिल की। वरना अमूमन भारतीय टीम को शुरू के झटकों के बाद उभरते हुए कम ही देखा गया है वह भी तब जब आप तीन सौ से ज्यादा रन का पीछा कर रहें हों। इस श्रंखला में कई बातें समाने निकलकर आई हैं जिन्हें अगर गौर से देखें तो विश्वकप के लिए एक सन्तुलित टीम बनाने में मदद मिलेगी। गौतम गम्भीर ने इस सीरिज में जो प्रर्दशन किया है वह वाकई काबिले तारीफ है। खासकर विश्व कप से ऐन पहले उनका फार्म में आना और ‘ातक ठोकना भारतीय टीम के लिए अच्छी खबर है। उनकी सबसे बड़ी ताकत है वह बड़ी पारी खेल सकते हैं। विराट कोहली ने फस्ट डाउन में जिस तरह से खेल दिखाया उससे लगा की उनके खिलाने के लिए यह बेहतरीन जगह है। सबसे अच्छी बात जो इस युवा में दिखाई देती है कि वह फील्ड के चारो और शार्ट लगा सकता है। साथ ही गेन्दबाजी और फििल्डंग में भी कामयाब है। युवराज सिंह जो छक्के मारने के विशेषज्ञ माने जाते हैं उनकी फार्म वापस लौटी है। हमें याद रखना चाहिए के पहले 20-20 विश्व कप में इंग्लैण्ड के खिलाफ लगाए के 6 छक्कों की उस विश्व कप को जिताने में अहम योगादान था। चौन्था नाम आर अिश्वन। आर अिश्वन एक अ़च्छे स्पीनर साबित हो सकते है। खासकर जिसे तरह का खेल इस सीरिज में उन्होंने दिखाया है वह बाकी स्पीनरों मसलन प्रज्ञान ओझा और अमित मिश्रा के मुकाबले बेहतर है। यह सच है कि अनुभव के लिहाज से वह इन खिलाड़ियों से पीछे हैं। मगर वह अच्छे शार्ट भी खेलने के लिए जाना जाता है। पांचवा यूसूफ पठान। इस खिलाड़ी के 7 चौक्के और 7 छक्कों को शायद ही कोई भूल पायेगा। अगर युसूफ पठान यह फार्म बरकरार रखते हैं तो विश्वकप में वह किसी भी आक्रमण की कमर तोड़ सकता हैं। छठां धोनी का विकल्प कौन। मेरे हिसाब से पार्थिव पटेल। इस खिलाड़ी में गजब आग है। रिद्धिमान साहा और दिनेश कार्तिक के मुकाबले पार्थिव पटेल ज्यादा अच्छा खेलते है। खासकर उन्की बल्लेबाजी को में आईपीएल में एक ओपनर के तौर पर देख चुका हूं। आठवां सौरव तिवारी। यह खिलाड़ी लम्बी रेस का घोड़ा है। बेहतरीन फुटवर्क, बॉल पर गिद्ध की तरह नज़र और बड़े शार्ट लगाने की क्षमता। यह कछ ऐसे गुण जो उन्हे स्पेशल बनाते है। इसके अलावा गेन्दबाजी में जहीर खान और प्रवीण कुमार भारत को अच्छी शुरूआत दे सकते है। जहीर के पास अनुभव है तो प्रवीण कुमार के पास दोनों तरफ गेन्द को घुमाने की क्षमता। बहरहाल अगर विश्व कप में मुझे टीम चुनने का मौका दिया जाता तो मेरी टीम इस प्रकार होगी। विरेन्द्र सहवाग, गौतम गम्भीर, सचिन तेन्दुलकर, युवराज सिंह, सुरेश रैना, महेन्द्र सिंह धोनी, यसूफ पठान, हरभजन सिंह, प्रवीण कुमार, जहीर खान और आशीश नेहरा। यह क्रम बैटिंग लाइनअप के हिसाब से है। वही विराट कोहली, सौरभ तिवारी, प्रवीण कुमार और रोहित शर्मा को भी जरूरत पड़ने पर खिलाया जा सकता है। गेन्दबाजी को ज्यादा धारधार बनाने के लिए इशान्त शर्मा और एस श्रीशन्त को विकल्प के तौर पर खिला सकते है। 1983 के बाद भारतीय टीम आज सबसे मजबूत दिखाई दे रही है। बस जरूरत है एकजुट होकर खेलने की। अगर ऐसा हो गया तो हम इतिहास रच देंगे।

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

बदलते गांव

भारत और इण्डिया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के यह दो रूप हैं।। दोनों में अन्तर है। अन्तर है विकास का, सुविधओं का । बहरहाल सरकार इस फर्क को मिटाना चाहती है। कही ग्रामीण भारत बुनियादी जरूरतों से वंचित न रह जाए इसके लिए केन्द्रीय कार्यक्रमों की एक लम्बी फेहरिस्त है। जहां गांव में भारत निर्माण किया जा रहा है। वही शहरों की बुनियादी सुविधाओं के लिए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण की शुरूआत की गई है। ग्रामीण विकास के महत्वपूर्ण कार्यक्रम निम्नलिखित है।

इन्दिरा आवास योजना
1985 से शुरू हुई इस योजना का मकसद हर गरीब को छत मुहैया कराना है। इस योजना के तहत सरकार पहाड़ी इलाको में 45000 और प्लेन इलाकों में 48500 रूपये मुहैया करा रही है। 2017 तक हर गरीब परीवार को छत मुहैया कराने का लक्ष्य रख गया है।
प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना
2000 से अस्तीत्व में आई इस योजना का मकसद ग्रामीण भारत में बारहमासी सड़कों का जाल फैलाना है। बहरहाल इस योजना का मकसद हर गांव को जिसकी आबादी पहाडी क्षेत्र में 250 और सामान्य क्षेत्र में 500 हो को बारामासी सडकों से जोड़ना है।
सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान
हर घर में शौचालय के निर्माण के लिए केन्द्रीय सहायता प्रदान करना। बहरहाल इस योजना को देश में के 606 जिलों में क्रियािन्वत किया जा रहा है। प्राथमिक स्कूलों और आंगनवाड़ी को भी शामिल गया है। लगभग 40 फीसदी ग्रामीण आबादी को अभी इस योजना के दायरे में लाना है।
महात्मा गांधी नरेगा
2006 में अमल में आए इस कानून के तहत हर परिवार को साल में 100 दिन रोजगार पाने का अधिकार है। ग्रामीण विकास मन्त्रालय के बजट का सबसे बड़ा भाग इस योजना के पास है। अकेले 2010-11 के लिए इस योजना को 41100 करोड़ आवंटित किये गए है।
स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना
बेरोजगारी को समाप्त करने की दिशा में यह कार्यक्रम मील का पत्थर साबित हो रहा है। यह कार्यक्रम 1999 में सामने आया। इससे पहले यह एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के नाम से जाना जाता था। खासकार उन युवाओ के लिए जो अपने पैर पर खड़ा होना चाहते है। सरकार ऋण पर सिब्सडी देती है। व्यक्तिगत तौर पर यह सिब्सडी 30 फीसदी और अनुसूचित जाति जनजाति और विकालांगों के लिए 50 फीसदी है। स्वयं सहायता समूह को भी 50 फीसदी सिब्सडी देने का प्रावधान है। बहरहाल इस कार्यक्रम का भी नाम बदलकर अब ग्रामीण आजीविका मिशन रख दिया गया है।

राजनीति पर कौन हावी है

जाति या विकास। आज कौन राजनीति की दिशा और दशा तय कर रहा है। क्या विकास का फैक्टर आज की राजनीति का सबसे बडा मुददा है। क्या जाति और धर्म से ज्यादा लोग सुशासन को तव्वजो लगे है। यह मेरी जाति का, यह मेरी बिरादरी का, मेरे मज़हब का जैसी बातो से आज लोग तंग आ चुके है। क्या विकास की राजनीति ने मण्डल और कमण्डल की राजनीति को बौना साबित कर दिया है। जरा सोचिए जो बिहार दशकों से जातियों की बेड़ियों में जकड़ा था, उस बिहार का जनादेश क्या कहता है। जरा सोचिए, क्यों यूपीए सरकार को दोबारा जनता ने केन्द्र की गददी सौंपी।  क्यों नरेन्द्र मोदी, नीतिश कुमार, शीला दिक्षित, रमन सिंह, राजशेखर रेडडी जो आज नही रहे, नवीन पटनायक और शिवराज सिंह चौहान को जनता ने दोबरा सरकार बनाने की बागडौर सौंपी। यह कुछ ऐसे यक्ष प्रश्न जिनका जवाब राजनीति के धुरंधर तलाशने में जुटे हुए हैं। जवाब इसका भी तलाशा जाने लगा है कि उन दलों का क्या होगा जिनका राजनीतिक भविश्य जाति और धर्म के नाम पर टिका है। बदलाव दिख रहा है मगर क्या यह जारी रहेगा। क्या मतदाता इस सिलसिले को बरकरार रखेंगे। बहराहाल कहानी कुछ भी हो जानकर इसे लोकतन्त्र के लिए एक शुभ संकेत मान रहे हैं।