सोमवार, 29 दिसंबर 2014

मेरा गांव, मेरा देश

एक ऐसा गांव जहां गरीबी लोगों को तिल तिल मार रही थी। ऐक ऐसा गांव जहां एक शराब की बोतल में बेटी की शादी का समझौता हो जाता था। जहां सूखा किसानों की किस्मत के साथ आंख मिचैली खेलता था। वह गांव आज देश और दुनिया के लिए एक प्रयोगशाल बन गया है। यहां सबकुछ बदल चुका है। इस गांव में 1995 में प्रति व्यक्ति आय महज़ 830 रूपये थी मगर आज यह 30 हजार रूपये से ज्यादा पहंुच चुकी है। शराब और तंबाकू इस गांव में पूर्ण रूप से निषेध है। ज्वार बाजरा प्याज़ और आलू की खेती यहां के किसानों की आजीविका को मजबूत कर रही है। मजदूरों का दैनिक वेतन यहां 230 रूपये प्रतिदिन से ज्यादा है। 235 परिवारों वाले इस गांव का नाम है हिबड़े बाजार। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले का यह गांव आज दूसरे गांवों के लिए किसी प्रेरणा से कम नही। यह चमत्कार किसी सरकार के प्रयास का नतीजा नही बल्कि गांव के लोगों की जनभागीदारी का परिणाम है। गांव के लोगों की सामूहिक मेहनत और संकल्प ने इस गांव की तस्वीर और तकदीर बदल कर रख दी। हिबड़े बाजार एकेला आदर्श ग्राम नहीं है। तेलांगाना का गंगादेवीपल्ली गांव भी आदर्श गांवों के मानदंडों पर खरा उतरता है। हाल में 8 देशों के 25 प्रतिनिधि इस गांव की कायपलट के लिए किए गए प्रयासों से वाकिफ होन इस गांव पहुंचे थे। यानि जब यह गांव जनभागीदारी के मंत्र के महव्वता समझकर बदलाव ला सकतें है तो देश के 6 लाख गांवों को आदर्श ग्राम क्यों नही बनाया जा सकता। कुछ ऐसी ही पहल का नाम है सांसद आदर्श ग्राम योजना। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के हर गांव को माॅडल विलेज बनाना चाहतें है। प्रधानमंत्री के शब्दों में हर गांव में सुविधाऐं शहरों वाली  हों, मगर आत्मा गांव की हो। इसलिए हर सांसद को एक गांव गोद लेकर उसके सामूहिक विकास का जिम्मा उठाना होगा। अब सवाल यह उठता है कि बेताहाशा स्कीमों वाले भारत में यह योजना क्या नया चमत्कार करेगी? खासकर तब जब घर मुहैया कराने से लेकर पीने के पानी और शौचालय तक की स्कीम जारी है। मसलन भारत में ग्रामीण आवास के लिए इंदिरा आवास योजना है। मगर आज भी बड़ी आबादी खुले आसमान में जीवन बीताने के लिए मजबूर हैं। इस तरह 250 से ज्यादा योजनाऐं देश के विकास के लिए लागू है। मगर क्रियान्वयन को लेकर हमेशा सवाल खड़े होते रहें। लाखों करोड़ों खर्च करने के बावजूद हमारे गांव पीछे क्यों है? शिक्षा, स्वास्थ, पेयजल, शौचालय, आजीविका मिशन, रोजगार, आवास, बिजली और ग्रामीण सड़क से जुड़ी योजनाऐं सालों सालों से चली आ रही है। हर साल इन मदों में बजट बढ़ता गया मगर सुविधाओं में कोई बड़ा बदलाव नही आया। सरकारों ने भी दिल खोल के इन योजनाओं में पैसे लुटाया और सार्वजनिक मंचों से वाहवाही बटोरी मगर जमीन में बड़े बदलाव का सिर्फ इंतजार है। इसका एक मुख्य कारण यह रहा की देश में आउटले पर ध्यान देता जाता रहा गया जो की जरूरी भी था मगर आउटकम क्या रहा इससे नजरें चुरा ली गई। अब सबकी नजरें सांसद आदर्श ग्राम योजना पर है। सबसे पहले इस योजना का कोई बजट आवंटन नही है। यह पहले से चली आ रही योजनाओं के बेहतर परिणामों के लिए जनभागीदारी को बढ़ावा देने जैसे प्रयोगों के तेजी से लागू कराने से जुड़ी योजना है। पहले जिन दो गावों का उदाहरण दिया गया है वह भी जनभागीदारी के चलते आज आदर्श बनें है। मगर सासंदों का रिकार्ड विकास कार्यो की देखरेख को लेकर खराब रहा है। यूपीए सरकार के दौरान केन्द्रीय प्रायोजित योजनाओं के लेकर एक जिला स्तर पर निगरानी व्यवस्था बनाई गयी जिसका अध्यक्ष सांसद को बनाया गया। बाद में जब रिपोर्ट तैयार हुई तो मालूम चला की ज्यादातर माननीयों ने बैठक में हिस्सा ही नही लिया और जिन्होंन तिमाही बैठकों में हिस्सा लिया वह इस बात का रोना लेकर बैठे गए की उनके सुझावों को जिलाधिकारी तवज्जों नही देते। ऐसे में अगर सांसद आदर्श ग्राम योजना को लेकर संशय है तो उसके कारण है। इतिहास है और भविष्य बदलने के लिए हमें नई पहल का स्वागत करना होगा। इस योजना की सफलता 8 मानदंडों पर मापी जाएगी। मसलन व्यक्ति विकास, मानव विकास, सामाजिक विकास, आर्थिक विकास, पर्यायवरण का विकास, बुनियादी सुविधाऐं को मुहैया कराना, सामाजिक सुरक्षा और बेहतर प्रशासन। एक आर्दश गांव में यह खूबिया देखने को मिलेंगी। हम सब इस बात को जानतें हैं कि यह यात्रा बेहद लंबी है। क्योंकि 6 लाख गांवों को आदर्श बनाना एक बड़ी चुनौति है। मगर इस योजना के मुताबिक हर सांसद को 2024 तक 5 गांवों को आदर्श ग्राम बनाना है। इस लिहाज़ से 2019 तक 2500 गांव आदर्श गांव बनेंगे। मगर भारत जैसे देश में सफलता का लक्ष्य हमेशा सुखदायी नही रहा है। इसका प्रमाण है राजीव गांधी का वह बयान जिसमें 1 रूपये में से सिर्फ 15 पैसे ही जरूरत मंदों तक पहुंच पातें है। इस एक रूपये को जरूरत मंदों तक पहुंचाने का खर्च भी इससे जोड़ा जाए तो लागत 4.50 रूपया आती है। ऐसे में आज भी ग्रामीण योजनाओं से जुड़ी धनराशी का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में अगर जनभागीदारी के प्रोत्साहित करने का प्रयास हो रहा है तो सफलता को लेकर अपेक्षा करना जायज़ है। क्योंकि भारत की समस्यओं का हल सरकारों प्रशासन, पंचायत या नगरपालिकाओं के भरोसे नही छोड़ा जा सकता। एक गांव का कायाकल्प तभी संभव है जब लोग बदलाव को लेकर उत्साहित हों। एक गांव तभी आदर्श बन सकता हों जब लोग एक दूसरे के सुख दुख  में बराबर के भागीदार हों। मगर भारत जैसे देश में यह जिम्मेदारी और जवाबदेही केवल सांसदों तक समिति नही रहनी चाहिए। सासंदों से होती हुई यह विधायकों तक और जिला पंचायत से क्षेत्र पंचायत तक पहुंचनी चाहिए। इसके लिए अगर भारत सरकार को ऐसे गांवों को प्रोत्साहित करना पड़े तो तो सरकार को दिल खोल कर करना चाहिए। भारत में व्यवहारिक दृष्टिकोण का अभाव है। एक योजना जो दिल्ली में बनती है उसे देश भर में थोप दिया जाता है। बिना यह जानें की देसरे राज्य की जरूरतें क्या हैं। भूगोलिक परिस्थियां क्या हैं। एक उदाहारण के जरियें हम आसानी से इस व्यवस्था को समझा सकतें है। भारत में गरीबी हटाओं का नारे से कौर वाकिफ नही। समय से साथ सरकार बदली, नारे बदलें मगर गरीबी नही बदलीं। सरकार की गरीब उन्मूल और अपनाए गए मानदंडों से इसे आसानी से समझा जा सकता है। हो सकता है गरीबी का पैमाना तय करने के लिए हमें किसी गणना की जरूरत हो। मगर गणना व्यवहारिक नही तो नतीजों के बजाय निराशा हाथ लगती है। इस देश में गरीबी मापने का मानदंड ले लिजिए। जो प्रतिदिन अपने दिनचर्या के लिए शहर में 32 रूपया खर्च और गांव में 26 रूपये खर्च कर सकता है। वह गरबी नही है। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक एक दिन में एक आदमी प्रतिदिन अगर 5.50 रूपये दाल पर,1.02 रूपये चावल रोटी पर, 2.33 रूपये दूध पर, 1.55 रूपये तेल पर, 1.95 रूपये साग सब्जी पर, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्य खाद्य पदार्थो पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। साथ में एक व्यक्ति अगर 49.10 रूपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नही कहा जाएगा। योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवाओं पर 39.50 रूपये प्रतिदिन खर्च करके आप स्वस्थ्य रह सकते हैं।षिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च कर आप षिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। और आप महिनेवार 61.30 रूपये और 9.6 रूपये चप्पल और 28.80 रूपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं हैं। यह सोच ना तो गरीबी मिटा सकती है और न ही किसी का विकास कर सकती है। इसलिए केवल जनभागीदारी के सहारे योजनाओं के शत प्रतिशत कियान्वयन से हम एक आदर्श गांव की स्थापना कर सकतें है। आने वाले दिनों में हो सकता है कि यह योजना एक स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा को जन्म दें। क्योंकि एक आदर्श गांव का असर उसके आसपास के क्षेत्र में अवश्य पड़ेगा। इस योजना के प्रति सोच भी इसी तरह की प्रतिस्पार्धा बढ़ाने को लेकर है। जरा सोचिए अगर गांव बदलने की सोच और संकल्प की लहर दौड़ने लगी तो हम गांवों के हालात में सध्ुाार ला सकतें है। इसलिए सांसदों की जिम्मेदारी तो बढ़ी ही है, मगर जनभागीदारी को लेकर भाव विकसित करने की आज नितांत आवश्यता है। साथ ही समय- समय पर विकास कार्यो के नतीजों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। योजना के साथ ही सरकार को यहां सबसे ज्यादा ध्यान कृषि क्षेत्र में देने की जरूरत है। चूंकि आर्थिक विकास के लिए जरूरी है कि किसान की आजीविका का संसधान खेती को मजबूत किया जाए। जब हम सब क्षेत्रों में समान रूप से कार्य करेंगे तब जाकर एक आदर्श भारत के निमार्ण का सपना साकार होगा।


बुधवार, 19 नवंबर 2014

आफस्पा पर आफत

जम्मू और कश्मीर में चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। ऐसे में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर पूर्व मंत्री चिदंबरम के बयान पर बीजेपी ने पलवार किया है। बीजेपी ने सवाल पूछा है कि अगर यह कानून अमानवीय है तो यूपीए ने दस साल में इसको मानवीय बनाने के लिए क्या किया। जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस पहले ही इस कानून को लेकर आमने समाने रहे हैं। राज्य में गठबंधन की सरकार बनने के बाद से ही मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला राज्य के कुछ हिस्सों से अशांत क्षेत्र अधिनियम और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की बात कही थी। वैसे यह पहला मौका नही था जब उमर इस कानूून को हटाने की पैरवी कर रहें हों। इससे पहले भी वह कई बार इस कानून को राज्य से हटाने की बात कह चुके हैं। मगर हर बार आमसहमति न बनने के कारण इस मामले पर फैसला नही हो पाता था। खासकर रक्षा मंत्रालय के ऐतराज के चलते गृहमंत्रालय इस मुददे पर फैसला करने में असमर्थ रहा। सश्स्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 में अस्तित्व में आया। इस कानून में सुरक्षा बलों को आतंकवादियों से निपटने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं। मसलन वह बिना वारंट के सर्च कर सकतें है। किसी भी गिरफतारी की जा सकती है। पूछताछ की जा सकती है यहां तक की संदेह की स्थिति में गोली मारने तक का प्रावधान है। मगर उनके उपर मुकदमा या कारवाई बिना केन्द्र सरकार की अनुमति से नही हो सकती। इसी के चलते इस कानून का जम्मू कश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों खासकर मणिपुर में लम्बें समय से प्रबल विरोध हो रहा है। मगर इस कानून के रहने या न रहने पर राय बंटी हुई है। सेना जहां इसके पक्ष मंे है, वहीं मानवाधिकार संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता इसे काले कानून की संज्ञा देते हुए इसे तत्काल हटाने के लिए संघर्षरत है। उनके मुताबिक यह लोगों को मारने के एक तरह से वैध लाइसेंस है जबकि सेना का कहना है इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए उसे इस तरह के अभेद्य कवच की आवश्यकता है। इन सब के बीच कुछ ज्वलंत सवालों का जवाब तलाशना जरूरी है। क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे कानून जो सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देतें हों को जायज ठहराया जा सकता है? क्या वाकई एएफएसपीए के बिना मणिपुर और दूसरे राज्यों में उग्रवाद का सामना नही किया जा सकता? कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई जस्टिस जीवन रेड्डी समिति की सिफारिशों का क्या हुआ? इस कानून की समीक्षा कर इसे और मानवीय नही बनाया जा सकता जैसा की 2006 के असम दौरे में प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी। सवाल उठता है कि कानून लागू होने की आधी सदी के बाद भी पूर्वोत्तर में आतंकवादी समस्याओं का समाधान क्यों नही हो पा रहा है? क्या मणिपुर की तकलीफ, रेड्डी समिति की सिफारिश और इरोम शर्मिला के अनशन की अनदेखी की जा सकती है? इरोम चानू शर्मिला नवंबर 2000 से भूख हड़ताल में हैं। 2004 के उस मंजर को कौन भूल सकता है जब इस कानून के विरोध में मणिपुर के कांगला किले में महिलाओं ने नग्न प्रर्दशन किया था जिसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत हुई। खासकर मणिपुर में इस कानून का भारी विरोध होता राह है। वहां की जनता इसे काले कानून की संज्ञा देती है। इस कानून के तहत राज्यपाल को किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करना पड़ता है। उसके बाद वहां अर्धसैनिक बलों की तैनाती की जाती है। यह पूरा मामला 2004 में तब सूर्खियों में आया  जब असम राइफल्स के जवानों के उपर मनोरमा देवी के बलात्कार और हत्या का आरोप लगा। इसी के बाद जस्टीस जीवन रेड्डी समिति का गठन किया जिसके रिपोर्ट गृह मंत्रालय के पास मौजूद है। मगर भारतीय सेना नही चाहती कि इसे हटाया जाए। क्योंकि कई बार केन्द्रीय बलों को असम, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड, और अरूणांचल प्रदेश के कुछ इलाकों में आतंकवादियों के खिलाफ आपरेशन चलाए जाने के लिए उन्हें सीनियर पुलिस अधिकारियों का मुख देखना पडेगा। इन सबके बीच ज्वलंट सवाल कई हैं। क्या वाकई एएफएसपीए के बिना मणिपुर और दूसरे राज्यों में उग्रवाद का सामना नही किया जा सकता? कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई जस्टिस जीवन रेडडी कमीटि का क्या हुआ? क्या इसे कुछ और  मानवीय नही बनाया जा सकता जैसा की नवंबर 2006 में असम दौरे के दौरान प्रधानमंत्री ने कही। जीवन रेडडी कमिटि ने कहा है कि अनलाफुल एक्टिविटी प्रिवेंशन एक्ट में कुछ बदलाव कर इसे एएफएसपीए के बदले लागू किया जा सकता है। अर्धसैनिक बलों को मुकदमें में छूट का प्रावधान इसी मेें जोडा जा सकता है। मगर सेना की दलील को भी दरकिनार नही किया जा सकता। खासकर अगर कानून हटाया गया तो इससे सेना के मनोबल पर क्या असर पड़ेगा। सेना को बिना आवश्यक कानूनी संरक्षण संरक्षण के बिना उग्रवाद प्रभावित इलाकों में काम करना मुश्किल होगा। मगर जब पोटा जैसे कानून को रदद किया जा सकता है तो एएफएसपीए जैसे कानून केा बनाये रखने का क्या औचित्य? सवाल कई और भी हैं। कि कानून लागू होने की आधी सदी के बाद भी पूर्वोत्तर में आतंकवादी समस्याओं का समाधान क्यों नही हो पा रहा है? क्या मणिपुर की तकलीफ, रेडडी कमिटि की सिफारिश  और शर्मिला के अनशन की अनदेखी की जा सकती है? कानून लोगों की सुरक्षा के लिए बनाया जाता है। अगर लोग ही इसे संदेह की निगाह से देखते हों तो जरूरी है इसमें बदलाव के लिए गंभीरता से विचार करना चाहिए।

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

स्वच्छ भारत, सुखी भारत

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत तो  कर दी है। मगर 2019 तक हम इस लक्ष्य को पूरा कर पाऐंगे इसको लेकर आशंका प्रबल हो  रही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने इस अभियान में जिस तरह लोगों को जोड़ा उसे बदलाव की दिशा में देखा तो जा रहा है मगर समय कम है और काम ज्यादा। अभी हाल ही में मुझे प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी जाने का मौका मिला। प्रधानमंत्री क्योटो
की तर्ज पर काशी को बनाना चाहते हैं मगर वहां के हालात देखकर मेरी चिन्ता स्वाभाविक थी। खासकर गंगा किनारे बने घाटों को देखकर एक साफ सुथरे भारत को देखने की मेरी कल्पना को मानो कपोल साबित हो रही हो। मगर हालात में जो बदलाव आया है उससे यह विश्वास भी जगा है कि कहीं से तो शुरूआत करनी होगी। वह शुरूआत हो चुकी है। जिम्मेदारी जवाबदेही इस बार सरकार या नगरपालिका की नही, बल्कि हमारी है। वैसे भी साफ सुथरा रहना किसकों पसन्द नही। गंदगी से निजात हर कोई पाना चाहता है। मगर भारत में स्वच्छता ज्यादातर आवाम के लिए दूर की कौड़ी है। कारण भी साफ है, जागरूकता और सुविधाओं का आभाव। इसी के चलते पांच में से 1 बच्चा अपनी जान गवा रह है। 10 में से 5 बडी जान लेवा बीमारी आस पास की गंदगी की देन है।  उल्टी दस्त, पीलिया, मलेरिया डेंगू और पेट में कीड़े की बीमारी रोजाना हजारों मासूमों की आखों को हमेशा के लिए बन्द कर देती है। अकेले डायरिया हजारें बच्चों को मौंत की नींद सुला रहा है। इनमें से एक तिहाई अभागों को इलाज़ तक नही मिल पाता। यह उस देश की कहानी है जो अपनी आर्थिक तरक्की में इतराता नही थकता। जहां विकास दर , सेंसेक्स और  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को विकास का शिल्पी माना जाता है। जहां देश की आधी आबादी को समान अधिकार देने की गाहे बगाहे आवाज़ सुनाई देती है। जहां  55 फीसदी महिलाऐं खुले में शौच जाने को मजबूर है। वहां साफ सफाई की महत्वता को केवल सरकार की योजना के भरोसे नही छोड़ा जा सकता। 1986 में सरकार ने केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता अभियान के सहारे इस बदनुमा दाग को धोने की शुरूआत  जरूर की। मगर हमेशा की ही तरह योजना भी अधूरे में ही दम तोडती दिखाई दी। तब जाकर 1999 में सरकार ने सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का नारा छेडा। अभियान के तहत सरकार शौचालय बनाने के लिए सरकार सब्सिडी दे रही है। इसके बाद 2013 में इसे निर्मल भारत नाम दे दिया गया। मगर लक्ष्य के मुताबिक नतीजे नही मिल रहें। पहली सरकार ने 2012 का लक्ष्य रखा मगर पूरा नही कर पाई। अब मंजिल 2019 में पानी है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहलेके मुकाबले इस बार विश्वास और अपेक्षा ज्यादा है। सही मायने में  सवा सौ करोड़ भारतीय की परीक्षा है कि उन्हें अपने देश के प्रधानमंत्री के वचन को सुफल बनाना है।

रविवार, 16 नवंबर 2014

जी 20 सम्मेलन


जी 20 सम्मेलन 18 और 19 तारीक को मक्सीकों के
अन्तर्राष्टीय सहयोग का प्रसिद्ध फोरम
इसके तहत 19 सदस्य देश और यूरोपीय यूनियन है।
90 फीसदी जीडीपी का
80 फीसदी अन्तराष्टीय व्यापार
 दो तिहाई विश्व की जनसंख्या इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस फोरम की महत्वत्ता क्या है।

बैठक का एजेंडा
वैश्विक अर्थव्यवस्था को किस तरह से सुधारा जाए और आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाया जाए।
यूरो कैसे डालेगा विश्व अर्थव्यवस्था को मुश्किल में
विश्व जीडीपी में इन देशें की भागीदारी मतलब ईयू की 26 फीसदी है।
और यूरोजोन की 19.4 फीसदी
ग्लोबल इक्वीटी मार्केट टर्नओवर में 10 फीसदी हिस्सा
ग्लोबल रिजर्व होल्ंिडग में 26 फीसदी हिस्सा।

विकास और रोजगार बढ़ाने पर रहेगा जोर
ग्रोथ कैसे सस्टेन हो।
विश्व के दिग्गजों की मुलाकात एक ऐसे समय में हो रही है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में गिरावट देखने
को मिल रही है। यूरोजोन और वैश्विक अर्थव्यवस्था के मद्देनजर यह बैठक महत्वपूर्ण होने जा रही है।

मुश्किल में यूरोप
यूरोन डाल रहा है सबकेा मुश्किल में। यूरोप इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में उसका
अपना बड़ा अंश है। भारत के लिहाज से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत का बड़ा व्यापार और
निवेश का साझीदार है। इसलिए यहां उपजी दिक्कतों के चलते भारत की वृद्धि दर प्रभावित हो रही है।

प्रधानमंत्री ने मैक्सिकों में जाने से पहले क्या कहा
इस फोरम के सामान वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने की चनौतियेां से निपटने की रणनीति तैयार करना होगा।
फ्रेमवर्क एक मजबूत टिकाउ और संतुलित विकास के लिए जो रूपरेखा तैयार की जा रही है उसको भारत को चेयर कर रहा है।
प्रधानमंत्री  ने कहा कि उनका जोर विकास के र्मोचें पर आगे बढ़ने और मांग में बढोत्तरी के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश करने पर
जोर देना होगा।

यूरो क्राइसेस
1999 में यूरो लांच हुआ
ग्रीस आयरलैंड पुर्तगाल स्पेन और हाल में में इटली ।
सोवरेन डैट की रेटिंग डाउनग्रेड कर दी, जिसके चलते डिफाल्टर होने का भय, और कर्ज में भारी बढोत्तरी।
यह क्राइसेस केवल सोवरेन डैट और बैकिंग फाइनेंशियल तक सीमित नही है बल्कि इसकी जड़े कही ंऔर है यानि स्टैक्चलन प्रोबलम से जुड़ा
 हुआ मुददा है।

भारत और यूरोप
भारत के निर्यात का हिस्सा 20.2 फीसदी
आयात का हिस्सा 13.3 फीसदी
द्धिपक्षिय व्यापार 2006-10 तक 9.6 फीसदी
एफडीआई की बात करें 3 बिलियन एफडीआई ईयू से आई औश्र .6 बिलियन यहां से गई।

चीन और यूरोप

अमेरिका और यूरोप
अमेरिका के सबसे ज्यादा आर्थिक हित यहां लगें है। अमेरिका के बैंक के 600 बिलियन डालर यहां लगे है।
सबसे बड़ा टेडिंग पाटर्नर और निवेश के लिए मुफीद जगह।

सोवरेन डेट क्या होता है
जब कोई सरकार विदेशी मुद्रा में बांड इश्यू करती है ताकि देश की आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखने के लिए वित्त की व्यवस्था की जा सके।
विकासशीन देशों के सोवरेन डैट को रिस्क्यिर माना जाता है जबकि विकसित देश के डैट को सेफ।
सरकार की स्थिरत इस में बहुत बढ़ा रोल अदा करती है।
सोवरेट के्रडिंट ऐजेंसी के माध्यम से आप इसकी स्थिति का पता लगा सकते है।

आरबीई की तिमाहिक मौद्रिक नीति
ब्याज़ दरों में कोई बदलाव नही। निराशा खासकर वर्तमान माहौल में।
रेट ने घटाने के पीछे क्या कारण है। महंगाई

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

भारत नेपाल संबंध

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल की दो दिवसीय यात्रा से पहले दो दिन काठमांडू में अपनी टीम के साथ बिताए। अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं की यूपीए सरकार ने राजनीतिक तौर पर नेपाल के साथ संबंधों को लेकर कुछ खास नही किया। खासकर ऐसा देश जो प्राकृतिक और सांस्कृतिक तौर पर दोनों देशों को जोड़ता है। जल विद्युत परियोजनाओं की अपार संभावनाऐं। वहां के आमजनमानस में मोदी को लेकर एक कौतूहल। खासकर मोदी की हिंदूवादी छवि उन्हें खिंचती है। मोदी के गुजरात माॅडल और कार्यशौली की जानकारी भी वो रखतें है। मगर नेपाल को राजनीति अस्थिरता के डंक ने ऐसा डंसा की वह बेहाल है। गरीबी अशिक्षा खराब सड़कें बेरोज़गारी गंदी नदियां प्रदूषण जैसी समस्याऐं राजधानी में आम है। नेपाली समुदाय को इस तस्वीर के बदल जाने की आस है। पर्यटन को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सोच से उनकी उम्मीदें बड़ी हैं। वह चाहतें है की जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी भारत को सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहतें हैं उसी प्रकार श्रेष्ठ नेपाल की नींच भी उनकी यात्रा में रखी जाए। नेपाल के साथ हमारे व्यापारिक रिश्तों में भी प्रचुर संभावनाऐं हैं। वर्तमान में यह 4.7 अरब डाॅलर है। कुल विदेशी निवेश का 48 फीसदी भारत नेपाल में निवेश करता है। यानि व्यापार घाटा नेपाल की लिए बड़ी चिंता का विषय है। ठीक उसी तरह जिस तरह चीन और भारत के बीच हमारे लिए यह चिंता का कारण है। मगर जल विद्युत  क्षेत्र में आगे बड़कर नेपाल इस घाटे को कम कर सकता है। भारत सरकार नेपाल को रोड और रेल बनाने में मदद कर सकती है। नेपाल सरकार को पीपीपी यानि सार्वजनिक निजि भागीदारी का महत्व समझाने की जरूरत है। इससे उसके पर्यटक क्षेत्रों को जोड़ा जा सकता है। पर्यटन क्षेत्र का अगर सही दोहन किया जाए तो नेपाल अपनी आर्थिक तरक्की की नई इबारत लिख सकता है साथ की विश्वास और सम्मान के साथ इस रिश्ते को आगे ले जाना जरूरी है। भगवान पशुपति नाथ का प्राचीन मंदिर पर्यटकों की पसंदीदा जगह है। इसके अलावा सीता की जन्मस्थली जनकपुर,भगवान बु़द्ध की जन्मस्थली लुंबीनी के अलावा भी कई ऐसे क्षेत्र है जो पर्यटकों के आकर्षक का केन्द्र बनाए जा सकते हैं। 

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

उम्र न पूछों गुनाह की!

सुप्रभात मित्रों
आज का मुददा बेहद अहम है। जुवेनाइल की उम्र 18 से घटाकार 16 कर देनी चाहिए। या अपराध को आधार पर सज़ा तय होनी चाहिए। क्योंकि यौनाचार के 50 फीसदी मामलों में हाथ नाबालिकों का है या यूं कहें कि इनकी उम्र 16 साल है। इनमें शहरों में 2001 से 2010 के बीच जुवेनाइल द्धारा किए गए अपराधों में में 40 फीसदी की बढ़ोत्तरी देखी गई। अकेले देश की राजधानी दिल्ली में 22 फीसदी जुवेनाइल बार बार गुनाई करते
पाए गए जबकि देश में यह आंकड़ा 11.5 फीसदी है। वहीं अमेरिका में जुवेनाइल को भी उम्र कैद की सज़ा का प्रावधान है। कनाड़ा में 14 से 17 साल की उम्र में किया गया गुना दंड संहित से तय होता है तो पाकिस्तान में 7 साल के बाद आप पर अपराध का मुकदमा चलेगा। मगर भारत में 18 साल से कम उम्र होने का लाभ मिल रहा है। निर्भया गैंग रेप मामला हो या मुंबई शक्ति मिल गैंग रेप मामला, सब में सबसे ज्यादा वहशियाना पर जुवेनाइल ने दिखाया। सोचिए अगर कसाब जुवेनाइल होता, सोचिए कल आतंकी 18 साल से कम्र उम्र के लड़कों का भारत के खिलाफ प्रयोग करें? या नक्सलियों  की यंग ब्रिगेड किसी नरसंहार को अंजाम दें? तो हमारे देश का जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 के तहत उसे अधिकतम तीन साल बाल सुधार गृह में सुधार के लिए भेजा जाएगा। आज अपराध को उम्र देखकर नहीं उसकी अपराध  को देखकर फैसला होना चाहिए। 14 वर्ष के बच्चे को मालूम है कि वह क्या कर रहा है। जरूरी नहीं की आप उम्र घटाए बस अपराध को देखकर फैसला होना चाहिए। वरना किसी बड़ी घटना को हम आमंत्रण दे रहें हैं।

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

बजट के कार्यक्रम

वन बंधु कल्याण योजना
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना
किसान टीवी
लखनऊ और अहमदाबाद में मेट्रो
यंग लीडर्सः ग्रामीण युवाओं के लिए कार्यक्रम
हिमालय पर अध्ययन
तकनीकी विकास
किसानों के लिए मृदा कार्ड
मदरसों का आधुनिकीकरण
झारखंड और असम में कृषि अनुसंधान संस्थान
आर्कियॉलजिकल साइट्स का विकास
मणिपुर में स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी
नैशनल वॉर मेमॉरियल और वॉर म्यूजियम
नदियों को जोड़ने की योजना
एशियाड गेम्स के लिए खिलाड़ियों की ट्रेनिंग
वर्चुअल क्लासरूम्स
गुड गवर्नेंस प्रोग्राम
कम्यूनिटी रेडियो
ऐग्री टेक इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड
नैशनल अडैप्टेशन फंड फॉर क्लाइमेट चेंज
नैशनल इंडस्ट्रियल कॉरिडोर अथॉरिटी
अत्याधुनिक थर्मल पावर टेक्नॉलजी
एक मेगावॉट सोलर पार्क्स
तीर्थ यात्राओं और अध्यात्मिक विकास के लिए अभियान
घाट विकास और सौंदर्यकरण
रोजगार केंद्र
नॉर्थ ईस्ट ऑर्गैनिक फूड फंड
विलेज आंत्रप्रन्योरशिप प्रोग्राम

सोमवार, 16 जून 2014

सड़क सुरक्षा


भारत में सड़क हादसे

हर 1 मिनट में सड़क हादसा
हर 1 घंटे में 18 मौत
दुनिया में सबसे ज्यादा लोग भारत में मारे जाते हैं।

भारत में दुनिया का 1 फीसदी वाहन
10 फीसदी सड़क हादसे
6 प्रतिशत मौत

78.7 प्रतिशत हादसे ड्राइवर की गलती से
13 लाख लोग घायल हो जाते हैं।
2011 में 136834 मौतें
2012 में 139091 मौतें
जिस दिन सड़क हादसे की वजह से गोपीनाथ मंुडे की मौत हुई थी उस दिन सड़क हादसों में कुल 400 लोग मारे गए थे।
बीते 10 साल में 55 लाख लोग गंभीर रूप से घायल हो गए या विकलांग हो गए।


प्रदेश         हादसे     मौत
तमिलनाडू    67757      16175
उत्तरप्रदेश    24478      15109
आंध्र प्रदेश    39344      14966
महाराष्ट      45247      13936
दिल्ली       6937        1866

सबसे ज्यादा 23.2 प्रतिशत हादसे दुपहिया वाहन से
दूसरे नं पर 19.2 प्रतिशत हादसे टकों से
नेशनल हाइवे में  30.1 प्रतिशत हादसे, 37.1 मौतें
स्टेट हाइवे   24.6 प्रतिशत हादसे, 27.4 प्रतिशत मौतें

ग्रामीण  इलाकों में 53.5 हादसे, 63.4 प्रतिशत मौतें
शहरी इलाकों में  46.5 प्रतिशत हादसे, 36.6 प्रतिशत मौतें

51.9 हादसों में पीड़ित 25 से 65 साल का
30.3 प्रतिशत हादसों में पीड़ित 15 से 29 साल के बीच
15 प्रतिशत हादसों में पीड़ित महिलाऐं
भारत में 5 से 20 प्रतिशत हादसे की वजह शराब
सड़क दुर्घटना में सालाना 3 लाख करोड़ का नुकसान या 3 प्रतिशत जीडीपी का सालाना।



             

गुरुवार, 29 मई 2014

मोदी सरकार, उम्मीदें हजार!

नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रीमंडल के आकार से साफ कर दिया है कि उनके इरादे क्या हैं। अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को बुलाकर उन्होनें सबकों चैंका दिया। लगे हाथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मुलाकत में आतंकवाद और मुंबई हमलों को लेकर भारत क्या सोचता है इसे दो टूक लहजे में बता दिया। दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव के लिए भी यह एक बेहत जरूरी कदम था की भारत सार्क के इन 8 देशों से अच्छे रिश्ते रखे। अपने पहले इम्तिहान में मोदी ने इसपर अच्छा संदेश दिया है। साथ ही विश्व को भी यह संदेश देने में मोदी कामयाब रहे की वो सबको साथ लेकर चलने पर विश्वास रखतें है। बहरहाल यह तो शुरूआत है, असली परीक्षा तो अभी बाकी है। इसमें कोई दो राय नही की नरेन्द्र मोदी के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। मगर संसद के केन्द्रीय कक्ष में उनके भाषण से यह साफ हो गया की वह आशावाद से भरे हुए है। निराशा के बारे में वह नही सोचते। इस लिहाज़ से हमें वर्तमान चुनौतियों को एक अवसर के तौर पर देखना चाहिए। मेरे विचार से नरेन्द्र मोदी के सामने भारत की विकास गाथा का आगे ले जाने का एक ऐतिहासिक अवसर है। उनके पक्ष में बहुत कुछ जाता है। सारी उम्मीद के केन्द्र में वहीं है यानि जीत के लिए भी वहीं जिम्मेदार और हार के लिए भी वही जिम्मेदार होंगे। यानि जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिहाज़ से उनपर दबाव ज्यादा होगा। इसलिए उन्हें ऐसे भगीरथ प्रयास करने होंगे जिनसे नतीजें निकले। इसलिए मोदी ने अपना मंत्रिमंडल भी छोट रखा है। कई मंत्रालयों को मिलाया गया है। इसके पीछे उददेश्य बेहतर समन्वय की होगा। दरअसल पिछली सरकार में विभिन्न मंत्रालयों  के बीच आपसी मतभेद खुलकर सामने आए। इसके लिए मंत्रियों के समूह और अधिकार मंत्रियों के समूह बनाए गए। मगर कुछ खास नही हो पाया। जब निवेश को लेकर माहौल गिरने लगा तो सरकार ने कैबीनेट कमिटि आॅन इनवेस्टमेंट बनायी। इसने तकरीबन 6 लाख करोड़ के निवेश को हरी  झंडी दिखाई। मोदी सरकार इससे न सिर्फ उभरना चाहेगी बल्कि फैसले लेने के मामलें में दो कदम आगे रहेगी।

केन्द्र राज्य संबंध- यूपीए सरकार के दौरान ज्यादातर गैर कांग्रेसी सरकारें भेदभाव का आरोप लगाती रहीं। कई राज्य सरकारें राज्य से ज्यादा अपेक्षा पाली हुई थी । खासकर वो जो विशेष राज्य के दर्जे की मांग लंबे समय से कर रहें हैं। इससे भी अलग मोदी के लिए सबका साथ सबका विकास गाथा को जमीन पर उतारने के लिए राज्यों से बेहतर रिश्ते कायम करने होंगे। क्योंकि भारत में जनकल्याणकारी योजनाओं के बेहतर
परिणामों के लिए उन्हे राज्य सरकार के प्रदर्शन पर निर्भरता रहेगी। साथ ही वस्तु और सेवाकर जैसे प्रमुख आर्थिक फैसले को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्हें राज्यों का समर्थन चाहिए। चूंकि यह एक संविधान संशोधन विधेयक है।

मंत्रालयों के बीच समन्वय - यूपीए सरकार के दौरान कई मंत्रालयों में आपस में ठनी रहती थी। यही कारण था की इसके निपटारें के लिए मंत्रियों के समूह बनाए गए। समन्वय के अभाव का नतीजा यह रहा की कई क्षेत्रों में इसका नुकसान साफ देखा गया। खासकर गो और नो गो ऐरिया को लेकर पर्यायवरण मंत्रालय और कोयला मंत्रालय के बीच तू- तू मैं -मैं अक्सर देखी गई। इसके चलते जमीन अधिग्रहण के कई मामले लटके रहें।
नतीजा कई बिजली घर कोयले की कमी से जूझते रहे।

बाबू फैसले लेने में डरते हैं- आरटीआई और हाल में आए घोटालों के बाद बाबूओं के फैसले लेने में देरी साफ देखी गई। बाबू किसी भी फाइल में हस्ताक्षर करने से डरतें है। इसका एक बड़ा कारण सूचना का अधिकार भी है। दबी जुबान में इसकी चर्चा होती रही मगर यूपीए सरकार सूचना के अधिकार में जनदबाव के चलते आरटीआई में बदलाव चाहते हुए भी नही कर पायी। मगर सरकार को इसपर गंभरता से विचार करना होगा।

खर्च बनाम परिणाम- भारत में सामाजिक क्षेत्र में खर्च साल दर साल बढ़ता गया मगर नतीजे उस तेजी से नही मिले। यही कारण है की जनता की कमाई का बड़ा पैसा विकास कार्यो के बजाया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। पिछले 10 सालों में शिक्षा, स्वास्थ्य कृषि ग्रामीण विकास और शहरी विकास के लिए जमकर पैसा आवंटित किया गया मगर उसके बावजूद निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हम समय से नही कर पाए।

खर्च पर नियंत्रण- भारत में जनता के पैसों की लूट कोई नही बात नही है। मगर 2008 में जब देश और दुनिया की अर्थव्यवस्थाऐं चरमराने लगी तो एक शब्द बड़ा प्रचलित हुआ आस्टेरिटी मेजर्स। सरकार ने इसकी शुरूआत भी की। मगर खर्चो में कटौति से ज्यादा मंत्रालयों के बजट में कटौति कर दी। भारत के परिपेक्ष में इसका इस्तेमाल सही मायनों में होना चाहिए। मंत्रालयों को अपने खर्च में कटौति करनी होगी। कई सिफारिशें वेस्टफूल एक्सपेंडिचर को कम करने की सिफारिशें कर चुके हैं मगर इसमें कोई खास बदलाव नही आया।

सब्सिडी कैसे कम करेंगे- वित्तमंत्रालय का भार संभालते हुए अरूण जेठली ने साफ कर दिया की उनकी प्राथमिकता में क्या है। उनके मुताबिक आर्थिक विकास दर में सुधार, महंगाई पर लगाम और राजकोषिय संतुलन को बनाए रखना जरूरी है। साथ ही फैसले लेने में देरी को लेकर जो आरोप मनमोहन सरकार पर लगते रहे इससे वो बाहर निकालना चाहतें है। मगर यह सब जमीन पर उतारना इतना आसान नही होगा।
भारत के राजकोषिय घाटे को कम रखने के लिए सब्सिडी को कम करना जरूरी है। खासकर खाद्य तेल और उवर्रक  सब्सिडी का भार लगातार बढ़ते जा रहा है जो लम्बे समय में असहनीय होगा। यूपीए ने जब इसे कम करने की हिम्मत दिखाई तो सहयोगी के साथ साथ बीजेपी से सड़क से संसद तक कोहराम मचा दिया। ऐसे में सरकार में आकार मोदी को देर सबेर इस कड़वे घूंट को पीना होगा।

मंत्रालयों का प्रदर्शन - मोदी ने 17 मंत्रालयों को 7 में मिला दिया है। मसलन काॅरपोरेट मंत्रालय वित्त मंत्रालय में और सड़क परिवहन राजमार्ग मंत्रालय को जहाजरानी मंत्रालय से जोड़ दिया है। यानि मोदी अपने मंत्र मिनिमम गर्वमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस के मुताबिक अपने मंत्रालय का आकार तय किया है। साथ ही वो महत्वपूर्ण मंत्रालयों के काम पर सीधी नजर रखेंगे। इशारा साफ है कि अपने व्यक्तित्व के अनुरूप मोदी का सारा ध्यान जी2 यानि गुड गर्वेनेंस और पी2 यानि प्रो पीपुल नीति पर होगा।

अनुसंधान पर खर्च- भारत दूसरे देशों के मुकाबले अनुसंधान में बेहद कम खर्च करता है। विकास के लिए नित नए अनुसंधानों की जरूरी होती है। खेती से लेकर विज्ञान तक सबमें नई तकनीक की जरूरत है। ऐसे में अनुसंधान आधारित मंत्रालयों के एक निश्चित भाग अनुसंधान में होना चाहिए।

महंगाई पर नकेल- यूपीए सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं के बावजूद वह जनता के बीच इतनी अलोकप्रिय क्यों हो गई। इसका सबसे  बड़ा कारण है महंगाई और भ्रष्टाचार। जहां पिछले 6 सालों में महंगाई ने आम आदमी को खूब रूलाया और सरकार तमाम प्रयासों के बाद इसपर लगाम नही लगाम नही लगा पायी। नई सरकार के लिए भी यह एक टेढी खीर साबित होगी। अगर मौसम विभाग के मुताबिक मानसून कम रहता है, तो उससे निपटने के उपाय अभी से तलाशने होंगे। साथ ही कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के अलावा उसके रखरखाव की उचित व्यवस्था भी जरूरी है। भारत में 50 हजार करोड़ से ज्यादा की फल और सब्जियां सालाना बर्बाद हो जातीं है।

भ्रष्टाचार पर वार- यूपीए सरकार के करारी हार की यह दूसरी सबसे बड़ी वजह रही। 2जी, कोलगेट, रेलगेट, आदर्श सोसाइटी और सीडब्लूजी घोटाले ने सरकार की खूब किरकिरी कराई। यूपीए टू में मनमोहन सरकार इन आरोपों से अपने को बचाती नजर आई। मगर जनता ने अपने जनादेश से यह साफ कर दिया है की प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की इजाज़त किसी को नही दी जा सकती। मोदी सरकार के लिए यह एक संदेश भी है। इसलिए नीतिगत मुददों पर फैसला लेते इन बातों का ध्यान रखना होगा।

कुल मिलाकर मोदी सरकार एक्शन में है। रिएक्शन जनता को करना है। उम्मीदें बेहद है जो स्वयं नरेन्द्र मोदी ने जगाई है। इसलिए जनता की कसौटि पर हार और जीत सिर्फ उनकी होगी। क्योंकि अबकी बार बीजेपी की नहीं, मोदी सरकार है।

बुधवार, 21 मई 2014

मोदी की चुनौतिया

1-आर्थिक वृृद्धि दर में सुधार लाना।
2-महंगाई पर लगाम लगाना।
3-ब्याज़ दरों में कमी करना
4-राजकोषिय घाटे को नियंत्रण में लाने के उपाय ढूंढना।
5-सीएडी पर सीमित दायरे में रखना।
6-विनिर्माण क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र
7-कृृषि में निवेश को बढ़ावा देना
8-बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने के लिए धन जुटाना।
9-मंत्रालयों में समन्वय स्थापित करना
10-निवेश के लिए माहौल बनाना। 

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

मेरा वोट,मेरी हुकुमत पार्ट-2

देश में आम चुनाव का रंग चढ़ा हुआ है। मतदान को लेकर मतदाताओं में जबरदस्त उत्साह है। राजनीतिक दल आरोप प्रत्यारोप के साथ देश की दशा और दिशा बदलने की गुलाबी तस्वीर बनाने का सब्ज़बाम दिखा रहें है। 60 साल के बदले 60 महिने देने की बात कही जा रही है। देश आज एक अभूतपूर्व स्थिति से गुजर रहा है। चुनौतियों का पहाड़ मुंह बायें खड़ा है। मगर भारत के जनमानस की धैर्य की प्रशंसा करनी होगी, की बदलाव के लेकर उसका विश्वास आज भी मौजूदा व्यवस्था में कायम है। मगर भारत जैसे देश की जटिलताओं को देखकर मौजूदा चुनौतियों का समाधान इतना आसान नहीं है? इसका मतलब यह नही है की हम बदलाव नही ला सकते। मगर इस बात में दम कम है कि केवल केन्द्र सरकार की प्रतिबद्धता से देश बदला जाएगा? इस देश को न सिर्फ प्रधानमंत्री प्रतिबद्ध चाहिए बल्कि 28 ऐसे मुख्यमंत्री चाहिए जो कुछ कर गुजरतना चाहते हों। बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध हों? भारत की संघीय प्रणाली में तीन सूचियां है। पहला केन्द्र की सूची, दूसरा राज्य की सूची ओर तीसरा समवर्ती सूची है। सबसे गौर करने वाली बात यह है कि जनमानस से जुड़े ज्यादातर विषय राज्यों के अधीन आते हैं। उदाहरण के लिए महिला सुरक्षा की बात करतें हैं। हम जानते हैं कि कानून व्यवस्था राज्य का विषय है। यानि अकेले केन्द्र सरकार के कहने भर से या कठोर कानून बना देने से महिलओं को सुरक्षा नही मिल सकती। क्योंकि इस दिशा में प्रयास केन्द्र और राज्य को मिलकर करने होंगे? यानि जब तक सब मिलकर समन्वय के साथ कार्य नहीं करेंगे अपेक्षित परीणाम का हमेशा बस इंतजार करना पड़ेगा? यही कारण है कि केन्द्र में अब तक 15 सरकारें रही मगर बुनियादी सवाल आजादी के 6 दशक के बाद भी कायम हैं? मसलन गरीबी, अशिक्षा, कुपोणण, अपराध और भेदभाव। अगर हम शिक्षा व्यवस्था को सुधारना चाहतें है तो इसके लिए अकेले केन्द्र कुछ नही कर सकता। हालांकि शिक्षा समवर्ती सूची में है बावजूद इसके राज्यों को शिक्षा के क्षेत्र में ज्यादा ध्यान देना होगा। हजारों करोड़ खर्च करने के बावजूद क्या हम सही मायने में 6 से 14 वर्ष के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे पाऐं इसका आंकलन करने बैठेंगे तो जवाब ना में होगा। इसी तरह स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव नही आ पाया है। केन्द्र सरकार ने 2006 में राष्ट्रªीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत की मगर राज्यों की हिलाहवाली के चलते अपेक्षित परिणाम नही मिल पाए। कई राज्यों में इस पैसे की खुली लूट हुई खासकर तब जब सालाना 3.50 करोड़ लोग बीमारियों पर खर्च के चलते गरीबी रेखा से नीचे चले जातें हैं। अकेले केन्द्र सरकार सालाना सामाजिक क्षेत्र में 3 लाख करोड़ से ज्यादा खर्च करती है। यानि साल दर साल सरकार का बजट आवंटन बढ़ रहा है। मगर यह बड़ा हुआ पैसा नतीजों में तब्दील नही हो रहा है। इसपर अगर आपने सवाल जवाब कर लिया तो जवाब आपको सधा हुआ मिलेगा। विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। केन्द्र सरकार सिर्फ धन मुहैया कराती है। उस धन के बदले उसे राज्य से यूटीलाइजेशन सर्टीफिकेट मिल जाते हैं। समय आ गया है कि इस पूरी व्यवस्था में आमूचूल परिवर्तन लाया जाए। जिम्मेदारी और जवाबदेही हर तबके की हो और इसकी शुरूआत हमारे जनप्रतिनिधि से हो। जब तक हम यह निश्चित नही करेंगे की जनता का पैसा उसके कल्याण के लिए खर्च हो रहा है तब तक हम सफल नही हो पाऐंगे। इस बात को धार एक और उदाहरण से मिल सकती है। देश में महंगाई आज सबसे बड़ा मुददा है। पूरा जनमानस बढ़ती महंगाई से जूझ रहा है। खासकर खाद्य आधारित महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी। जिस महंगाई को अपने दूसरे कार्यकाल में 100 दिन में कम करने की बात कहने वाल सरकार पूरे कार्यकाल में इसी मुददे से जूझती रही। उसी महंगाई को आते ही दूर करने के वादे किए जा रहें हैं? सच्चाई यह है कि आने वाले दिनों में भी इससे निजात मिल जाएगी ऐसा लगता नही। पिछले कई वर्षो से सावर्जनिक वितरण प्रणाली यानि सस्ता राशन उपलब्ध करने की योजना चल रही है। यही आज भोजन के अधिकार के तौर पर हमारे सामने है। मगर योजना आयोग की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ की 51 फीसदी गरीबों का सस्ता अनाज़ काले बाजार में बिक जाता है। सरकार के पास ऐसी एक दर्जन से ज्यादा रिपोर्ट उपलब्ध हैं जिसमें इस बात की पुष्टि हुई है। खासरकार पूर्वोत्तर राज्यों में सस्ते राशन की खुली लूट है। केन्द्र सरकार का कहना है कि उसका काम राज्यों को सस्ती दरों पर अनाज आवंटन करना है। उसके वितरण और कालाबाजारी में नियंत्रण की पूरा जिम्मा राज्यों के तहत आता है। राज्य सरकारें आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत कार्यवाही कर सकती है। एक साधारण प्रश्न है कि क्या जिस देश में 51 फीसदी गरीब का राशन कालेबाजार में बिक जाता है और एक भी खाद्य मंत्री और सचिव को सज़ा नही हुई? क्या कभी इनकी संपति की जांच हुई? ये लोग चंद दिनों में करोड़ों के स्वामी बन जाते हैं और आम आदमी अपने आप को छला महसूस करता है। क्योंकि राज्यों ने इस व्यवस्था में सुधार लाने के लिए गंभीर पहल नही की। इसी तरह बाकी योजनाओं का भी हाल है। यह विचारणीय प्रश्न है कि जिस देश में भोजन के लिए अधिकार मिला हो, घर के लिए गांव में इंदिरा आवास योजना हो, शहर में राजीव आवास योजना हो, कुपोषण के लिए एकीकृत बाल विकास योजना हो, बिजली के लिए राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना हो, स्वास्थ्य के लिए राष्ट्रªीय स्वास्थ्य मिशन हो, रोजगार के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रªीय रोजगार गारंटी योजना हो, शिक्षा का अधिकार हो, यानि भारत में हर समस्या से निजात के लिए एक कार्यक्रम है। बावजूद इसके यह सारी समस्याऐं आज बड़े पैमाने में हमारी परेशानियों का कारण है? अगर कोई आकर कह दे कि हम इन समस्याओं को सुलझा लेंगे तो यह किसी छलावे से कम नहीं? इसलिए जनता अगर किसी चमत्कार की उम्मीद कर रही है तो सतर्क रहने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नही की देश को एक सशक्त नेतृत्व चाहिए। एक मजबूत सरकार चाहिए। मगर व्यक्तित्व ऐसा चाहिए जो व्यवस्था को बदल सके। मौजूदा व्यवस्था बेहद कमजोर है। इसमें बदलाव लाए बिना हम इस समस्याओं का अवसर का रूप नही दे सकते। हर पांच साल में राजनीतिक दल एक घोषणा पत्र से साथ आतें हैं। जनता से वादों की झड़ी लगा देतें है। मगर घोषणा पत्र कानूनी तौर पर राजनीतिक दलों पर बाध्य नही होता। इसलिए यह दस्तावेज महज़ एक कपोल कल्पना साबित होता है। जरूरी है कि नई सरकार को राज्यों के साथ मिलकर ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे एक साथ कार्य करने की नई संस्कृति को जन्म मिले। जब लक्ष्य सबका जनकल्याण होगा तो कदम भी इसी दिशा की तरफ बढ़ेगें। केवल एक व्यक्ति या सरकार इस कार्य को पूरा नही कर सकती। खासकर इस चुनाव में जिस तरह से अपेक्षाओं का पहाड़ राजनीतिक दलों ने खड़ा किया है अगर वह पूरा नही हुआ तो जनता क्या करेगी इसका पता नही। बस इतना मालूम है कि अब देश का सबसे बड़ा वर्ग युवा है। उसको वादे नहीं, नतीजे चाहिए, भाषण नही, काम चाहिए। अगर सरकारें इस दिशा में काम करने की गंभीर पहल नही करती तो उसे इस वर्ग के आक्रोश को झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। खासकर इस आम चुनाव में यह वर्ग बड़ी संख्या में मतदान का साक्षी बन रहा है। इस आशावाद के साथ कि आने वाले दिन में परिवर्तन होगा। ऐसा परिवर्तन जो समाज में उन्हें सम्मान के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा।

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

मेरा वोट, मेरी हुकूमत पार्ट- 1

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व अपने उफान पर है। जनादेश पाने के लिए राजनीतिक दलों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। हर हाल में सत्ता के करीब पहुंचने  की चाहत में राजनेता कोई कोर कसर बाकी नही छोड़ना चाहते। आम चुनावों की ही तरह विकास और स्वच्छ प्रशासन देने के वादे करने में नेता कोई कोताही नही बरत रहें है। इस चुनाव को मीडिया ने भी हाथों हाथ लिया है। पहले रैलियों में भाषणों को इतनी तरजीह नही दी जाती थी मगर इस बार हर रैली को टेलिविजन में लाइव काटा जा रहा है। राजनेता जनता से जुड़ी बात कर खूब ताली बटोर रहें हैं। मतदाता भी शांति से हर किसी को सुना रहा है। मगर अपनी फैसला वोट से कर रहा है। 16 लोकसभा का चुनाव कई मायने में अहम है। खासकर परिवर्तन के नाम पर लड़े जा रहे इस चुनाव में बढ़ते मतदान प्रतिशत पर हर किसी की नजर है। राजनीतिक विश्लेषक बढ़ते मतदान प्रतिशत के पीछे सत्ता विरोधी रूझान को मानते है। यानि लोग मौजूदा सरकार के कामकाज़ से नाखुश हैं और परिवर्तन चाहते हैं। मगर हाल ही में हुए कुछ चुनावों ने इस मिथ को भी तोड़ा है। खासकर भारत जैसे बड़े देश में जहां चुनाव बहुकोणिय होते है अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है। मगर जिस तरह से शुरू के चार चरणों में जनता ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया है, उससे एक बात तो साबित हो गई है कि देश का मतदाता राजनीतिक क्रियाक्लापों से अंजान नही। बस वह चुपचाप अपने वोट की ताकत का इस्तेमाल कर रहा है। यही कारण है कि दिल्ली में 1984 के बाद पहली बार लोगों ने इतने बड़े पैमाने में अपने वोट का इस्तेमाल किया है।  दिल्ली में 2009 में 51.85 फीसदी वोट बड़े जबकि इस बार यह बढ़कर 64.77 प्रतिशत रहा। तकरीबन 13 प्रतिशत मतदान ज्यादा हुआ है। देश की राजधानी 15वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान कई आंदोलनों की गवाह बनी। लोगों पर आरोप भी लगें की कैंडल मार्च निकालने वाले आखिर वोट देने में दिलचस्पी क्यों नही दिखाते? खासरकार भ्रष्टाचार विरोधी लहर से जुड़ा आंदोलन हो या निर्भया के लिए इंसाफ मांगने की लड़ाई। आम आदमी ने अपनी ताकत का एहसास हुक्मरानों को करा ही दिया। मगर अच्छी बात यह रही कि विधानसभा चुनावों में भी मतदान का प्रतिशत ऐतिहासिक रहा। इसी तरह केरल में भी 76 फीसदी लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया जो 2009 में 73.33 प्रतिशत था। जोश हरियाणा के मतदाताओं ने भी दिखाया जिन्होने पिछले लोकसभा चुनाव से 5.51 फीसदी ज्यादा मतदान किया। सबसे चैंकाने वाली स्थिति उत्तरप्रदेश और बिहार में दिखाई दी। ये राज्य कम मतदान के लिए जाने जाते हैं। मतलब 2009 में उत्तरप्रदेश में 52.22 फीसदी लोगों ने वोट नही डाला। यानि आधे से ज्यादा मतदाताओं ने चुनाव में अपनी सबसे बड़ी ताकत वोट का इस्तेमाल नही किया। इस बार इसमें सुधार आया है ओर इसका प्रतिशत गिरकर 35 फीसदी हो गया। खासकर तीसरे चरण में पश्चिमी उत्तरप्रदेश की 10 सीटों में 65 फीसदी मतदान हुआ। यानि वोटरों ने अपने मत का प्रयोग कर साफ कर दिया है तमाम नाराजगियों के बावजूद उनका लोकतंत्र की इस प्रणाली पर विश्वास कायम है। इसी तरह बिहार में वोट करने वालों की तादाद 2009 में 44.46 फीसदी रही जो इस बार तीसरे चरण के मतदान की 6 सीटों पर 53 फीसदी रहा। बात चाहे पूर्वोतर की हो या उत्तर भारत की। हर जगह बढ़ता मतदान प्रतिशत रोमांचित करने वाला है। तमाम निराशओं के बीच भारत का मतदाता उम्मीद की डोर बांधे रखा हुआ है। खासकर युवा वर्ग जो नेताओं से वादे नहीं नतीजे चाहता है। वह भाषण नही काम चाहता है। इसलिए हर राजनीतिक दल इस वर्ग को लुभाने की कोशिश में जी जान से जुटा है। हमें नही भूलना होगा कि भारत में 80 करोड़ लोग 35 वर्ष से कम आयु के हैं।  आज भी वह इसी इंतजार में है कि हो सकता है अगली सुबह कोई अच्छी खबर लेकर आएगी। अविश्वास की आंधी के बीच उसके विश्वास की लौ कम जरूरी हुई, मगर उसने उसे बुझने नही दिया। चाहे वह महंागई से परेशान गृहणी हो, या बेरोजगारी से परेशान युवा, भ्रष्टाचार से परेशान नागरिक हो, या अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित आधी आबादी। अपने खेत से निकलने वाले घाटे को सहने वाला किसान हो या बदलाव का इंतजार करता भारत का आमजनमानस। हर कोई बदलाव को लेकर आश्वस्त है। शायद विश्वास करने के बजाय उसके पास कोई विकल्प नही है। अगर यह जोश बाकी के चरणों में भी कायम रहा तो यह चुनाव ऐतिहासिक हो जाएगा। अगर राज्यवार 2009 के वोटिंग पर नजर घूमाई जाए तो सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल ने चैंकाया। 81.3 प्रतिशत लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया जबकि सबसे कम मतदान 39.5 प्रतिशत जम्मू कश्मीर में हुआ। चैंकाने वाला तथ्य यह है कि बिहार और गुजरात जहां नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे, वहां के मतदाताओं में जोश की कमी दिखी। खासरकर तब जब नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। मगर लोकसभा चुनाव में बिहार में 44.5 फीसदी जबकि गुजरात में 47.8 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला। अगर लोकसभा चुनावों को मतदान प्रतिशत से देखा जाए, तो 1952 में 61 प्रतिशत, 1967 में 61 प्रतिशत, 1971 में 55 फीसदी, 2004 में 48 फीसदी तो 2009 में   वोट पड़े। मगर लगता है कि 2014 के आम चुनावा पुराने रिकार्डो पर भारी पड़ेंगे। एक बात गौर करने की यह है कि देश में इस वक्त लोगों में एक जबरदस्त निराशा का माहौल है। लोग महंगाई भ्रष्टाचार बेरोजगारी और सुरक्षा के लिहाज़ से सरकार के कामकाज़ से नाखुश है। खासाकर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान लगा की जनता का राजनेताओं से भरोसा उठने लगा है। राजनीति की घटती साख को घटते मतदान प्रतिशत के पीछे सबसे बड़ी वजह माने जाने लगा। लोगों को लगता था की राजनेता सिर्फ सब्ज़बाग दिखाते है जो हकीकत कोसों दूर है। मगर वर्तमान में लोगों ने अपने विश्वास को जगाया है। इसके पीछे चुनाव आयोगी की पहल का भी स्वागत करना चाहिए। जिसने मतदाता को वोट की ताकत का एहसास कराया। 2009 में चुनाव में खर्च 1200 करोड़ रूपये हुआ। इस बार यह अनुमान 1500 करोड़ के आसपास है। यानि 2009 में प्रति वोटर चुनाव आयोग ने 33 रूपये खर्च किए। बावजूद इसके आधे मतदाता अपने मत का प्रयोग नही करते जो लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नही। इस मुददे को लेकर लोकसभा में निजि विधेयक में चर्चा के दौरान अनिवार्य मतदान पर बहस हुई। सभी सांसदों ने इस पर चिंता जाहिर की। उन मुददों पर गौर किया गया जिसकी वजह से वोटिंग का प्रतिशत कम हो रहा है। मगर उपाय जहां से निकलना था, वहां सिर्फ और सिर्फ हंगामा होते रहा। संसद बमुश्किल चल पाई। पूरे पांच साल भ्रष्टाचार के एक के बाद एक मुददे आते गए। महंगाई हर रोज नए रिकार्ड बनाती गई। अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर हो रही थी। यूपीए सरकार का दूसरे कार्यकाल में मनोबल लगातार कमजोर हो रहा था। सरकार का पूरी ताकत अपने को बचाने में लगी रही। इन सबके बीच न महंगाई पर लगाम लगी न ही सरकार अर्थव्यवस्था के हालत को दुरूस्त करने के लिए कुछ कर पाई। बची खुची कसर सप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों ने पूरी कर दी। यानि पूरे कार्यकाल में केवल शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और जमीन अधिग्रहण कानून को छोड़कर देखा जाए तो सरकार बैकफुट में नजर आई। यह लोगों का गुस्सा ही था जो 2013 में हुए पांच राज्यों के चुनावों में नजर आया। जनता ने कांग्रेस को मिजोरम को छोड़कार बाकी सब जगह परास्त कर दिया। राजस्थान में तो कांग्रसे का सूपड़ा साफ हो गया। दिल्ली में उसकी सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री को अरविन्द केजरीवाल ने हरा दिया। इन सब राज्यों में ऐतिहासिक वोटिंग हुई। कहने का तात्पर्य यह है की बढ़ता मतदान प्रतिशत न सिर्फ लोकतंत्र के लिए हितकर है बल्कि लोगों के भरोसे की एक जीत भी है। मगर साथ में एक चेतावनी भी, कि अगर बदलाव की वाहक सरकार नही बनी तो जनता को उसे उखाड़ फेंकने में ज्यादा वक्त नही लगेगा।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

बगावत

राजनीतिक दलों में बगावत शुरू हो गई है। कोई पार्टी इससे अछूती नही रही। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री
किरण कुमार रेडडी ने तो बकायदा अपनी अलग पार्टी बना ली है। जगदंबिका पाल जैसे नेता, पार्टी में वरिष्ठों की अनदेखी का आरोप लगा रहें है। सबसे बड़ा झटका तो भिंड में कांग्रेस के प्रत्याशी भगीरथ प्रयास ने दिया।
टिकट मिलने के बावजूद बीजेपी का दामन थाम लिया। कई बड़े नेता मसलन चिंदबरम और जयंती नटराजन
चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं है। उत्तराखंड के बड़े नेता सतपाल महाराज पार्टी छोड़ने की धमकी दे रहें है।
जिन चेहरों को मसलन मोहम्मद कैफ, नगमा को टिकट दिया है उनका क्षेत्र के कार्यकर्ता विरोध कर रहें हैं।
विरोध केवल कांग्रेस में ही नही बीजेपी में भी खुलकर दिख रहा है। सुषमा, श्रीरामलू के खिलाफ थी बावजूद इसके उनको टिकट दिया गया। बिहार से गिरीराज सिंह दुखी है, बेगूसराय से टिकट चाहते थे, मगर नवादा से मिला। कुछ इसी तरह की नाराजगी अश्वनी चैबे की है। टिकट चाहते थे मगर नही मिला। शहनवाज़ को खरी खोटी सुनाकर दिल हलका कर रहें है। शायद सोच रहें होगे की जो रामकृपाल कल शामिल हुए उनको उनकी पसंदीदा सीट दे दी, और जो नमों नमों कहते थकते नही, उनको खाली हाथ रखा। बीजेपी में मचे घमासन के चलते मोदी और राजनाथ कहां से लड़ेगे, बीजेपी यह भी तय नही कर पा रही है। लगता है की मोदी को गुजरात से ही चुनाव लड़ना होगा। मगर फिलहाल पार्टी में मोदी का सिक्का चल नहा है। इससे बड़े नेता नाराज़ है बस
सह रहें हैं। आरएसएस कह चुका है वह नमो नमो नही करने वाला। आडवाणी पहले से ही नाराज़ है। नये नाम सुषमा और मुरलीमनोहर जोशी के हैं। अब तो मोदी के लिए पलक पांवड़े बिछाने वाले बाबा रामदेव अपने मुददों पर शपथ पत्र मांग रहें है। अगर नही मिला दो दूसरी पार्टी बनाने का विकल्प खुला रखने की बात कर रहें हैं। शिवसेना एमएनएस को लेकर बीजेपी को खरी खोटी सुना रही है। ऐसे में देश के दो बड़े दलों के बीच टिकट
को लेकर घमासान मचा है जिसके आगे भी जारी रहने की उम्मीद है। नई नवेली पार्टी आप में दो टिकटों को लेकर कोहराम मचा है। नए चेहरों पर दावं लगाने से कार्यकर्ता अपने आप को ठगा महसूस कर रहें हैं आशुतोष औरडा आनंद कुमार को टिकट क्यों दिया, इसको लेकर सवाल कर रहें हैं? शाजिया इल्मी भी दुखी है दिल्ली से लड़ना चाहती है पार्टी रायबरेली से चुनावी घंटी बांधना चाहती है। वो तैयार नही। केजरीवाल के तौर तरीकों को भी  कार्यकर्ता पसंद नही कर रहें। यानि सब का हाल खराब है। ये राजनीतिक दल देश को बदलने की बात कर रहें है।मगर पार्टी संभाल नही पा रहें है। देश संभालने का दंभ भर रहें हैं। 

बुधवार, 12 मार्च 2014

अगड़े नेता, पिछड़ा देश!

देश का 16 आम चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। सभी दल अपनी ढपली अपना राग गा रहें है। कोई कह रहा
 है देश को बदल दिया तो कोई कह रहा है कि देश बर्बाद हो गया। मगर जनता से जुड़े मुददों को लेकर कोई
कुछ बोलने को तैयार नही। मसलन
1- 67 साल बाद में आबादी का बड़ा हिस्सा अशिक्षित क्यों?
2- देश में 80 फीसदी स्वास्थ्य का हिस्स निजि हाथों में क्यों?
3- 48 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार क्यों?
4- 67 फीसदी आबादी अब भी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर क्यों?
5- गरीबों का 51 फीसदी सस्ता राशन काले बाजार में क्यों बिक जाता है?
6- बीते 10 सालों में 3 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या क्यों कर चुके हैं?
7-41 फीसदी किसान किसानी क्यों छोड़ना चाहते हैं?
8-100 में केवल 14 बच्चे ही उच्च शिक्षा तक क्यों पहुंच पाते हैं?
9-50 लाख करोड़ करोड़ का अनाज सालाना क्यों बर्बाद हो जाता है?
10-महिला के प्रति हिंसा क्यों बढ़ रही है?
11- 77 फीसदी आबादी प्रतिदिन 20 रूपये तक खर्च रखने की हैसियत रखती है?
12- गरीबी का आंकलन गांव और शहर में 26 और 32 रूपये में क्यों?
जीविकोपार्जन के लिए इन मूलभूत सुविधाओं का अभाव नेताओं के वादों पर सवाल खड़ करता है। क्या मोदी राहुल और केजरीवाल के पास इन मुददों
के समाधान का रास्ता तैयार है?

मंगलवार, 11 मार्च 2014

मोदी राहुल के गरीब

राहुल कह रहें है कि यूपीए के 10 साल में 14 करोड़ गरीब गरीबी रेखा के नीचे से उपर आ गए हैं। उनके आंकलन के पद्धति के बारे में किसी को नही मालूम। हां इतना जरूर है की उनके आंकलन का मापदंड गांव में 26 रूपये और शहर में 32 रूपये है। यानि जो गांव में 26 रूपये प्रतिदिन खर्च कर सकता है वह गरबी नही है और जो शहर में 32 रूपये खर्च कर सकता है वह गरबी नही है। मोदी के गरीब ज्यादा है। वहां 12 रूपये गांव में खर्च करने वाला और 22 रूपये खर्च करने वाला गरीब नहीं है। यह दोनों देश के महानायक हैं। दोनों देश की दशा दिशा सुधारने का दावा कर रहे हैं। मगर दोनों के माडल एक से हैं। बस कहने भर के लिए उनमें अंतर दिखाते हैं। मगर वास्तविक तौर पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों उदारीकरण के माडल को आगे बढ़ा रहें हैं। मोदी के गुजरात में बिजली पैदा होती है जबकि दिल्ली में बिजली खरीदनी पड़ती है। मगर गुजरात में दिल्ली से महंगी बिजली उपभोक्ताओं को दी जाती है। जिसका विरोध करने के लिए बीजेपी कांग्रेस का विरोध करती है। मगर गुजरात में महंगी बिजली को लेकर वह चुप रहती है। उसकी तरह मोदी गुजरात की तुलना भारत से करते हैं, जो अपने आप में गलत है। योजना आयोग को पहले गरीबी मांपने का एक आदर्श मापदंड तैयार करना चाहिए। जब देश को ये ही नही मालूम की गरीब कितने है तो उसको टारगेट करने वाली उसकी नितियां हमेशा अधूरे और कमजोर नतीजे देंगी। यानि दोनों महानायक अपने फायदे के लिहाज़ से जनता साध रहें है। मगर महानायक असली वह है जो गलती कबूलता है और उसे दूर करने की चेष्ठा करता है। यहां दोनो ही मामले में दोनों पीछे दिखाई देते हैं।

सोमवार, 10 मार्च 2014

कांग्रेस की किचकिच!

जगदम्बिका पाल चले गए। राहुल गांधी की हरकतों से आहत थे। मोदी गुजरात में सांसद और कई विधायक
कांग्रेस तोड़ चुके हैं। डी पुंडेश्वरी बीजेपी का हाथ थाम चुकी है। भगीरथ प्रसाद भींड से टिकट मिलने के बावजूद
कांग्रेस से नाता तोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए। यह कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा झटका था और इससे कांग्रेस
की राज्य यूनिट भी सवालों के घेरे में है। राहुल गांधी देश का मूड भांपने निकले है मगर पार्टी के नेताओं का मूड
वह नही भांप पा रहे हैं। टीआरएस विलय तो छोड़िये, गठबंधन के लिए भी अगूंठा दिखा रही है। ऐसा पहली बार नही हो रहा है। 2009 में विदिशा से सुषमा स्वराज के खिलाफ कांग्रेस का उम्मीदवार अपना नामांकन भी दाखिल नही करा पाय। पूरे पांच साल में कांग्रेस एक अविश्वास प्रस्ताव बीजेपी के खिलाफ लाती है मगर वोटिंग से पहले ही उसे सदन के उपनेता राकेश सिंह चतुर्वेदी बीजेपी का दामन थाम लेते हैं। बाकी की कसर राजस्थान,  मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की हार से पूरी हो जाती है। राहुल पार्टी में सिस्टम को खोलने की बात कर रहें हैं मगर उनके बनाए गए सिस्टम से बड़े नेता नाराज़ दिख रहें है। क्या राहुल युवा और अनुभव के बीच संतुलन साध पाऐंगे। जवाब जल्द ही मिल जाएगा।

आयाराम गयाराम

चुनाव नजदीक है। नेता पाले बदल रहें है। जो कल तक कसमें खाते थे, आज पार्टी में उन्हें दोष नजर आने लगा
है। क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी यहां तक की नई पार्टी आप में भी बगावत सड़क पर आ गई है। नेता अपनी सीट
छोड़ने को तैयार नहीं। मोदी की लहर है मगर मोदी और राजनाथ अपने लिए सुरक्षित सीट ढूंढ रहे हैं आरएसएस को हस्तक्षेप करना पड़ा रहा है। मुरलीमनोहर जोशी वाराणसी सीट छोड़ने को तैयार नही तो लालजी टंडन  साफ कर चुके हैं कि मोदी के अलावा वह सीट किसे के लिए नहीं छोड़ने वाले। वहीं महाराष्ट में बीजेपी राजठाकरे का समर्थन ले रही है जो यूपी और बिहार वालों को मुंबई से भगाते हैं। मारते हैं। बीजेपी में सबकुछ ठीक नही चल रहा है। सुषमा श्रीमालू यानी बीएसआर कांग्रेस के बीजेपी में जुड़ने से सुषमा नाराज़ है। वह राजनाथ को इसपर चिठठी लिख चुकी हैं। मुंडे को गडकरी नही भाते तो कर्नाटक में बीएस यदुरप्पा अनंत कुमार को नही  सुहाते, मुंडे मुंबई नाथ ईस्ट से पूनम महाजन के लिए टिकट चाहते हैं तो गडकरी किरिट सोमैया के लिए ताकत लगा रहे हैं। इसलिए मुंडे शिवसेना के करीबी हैं तो गडकरी राजठाकरे के दर पहुंच जाते हैं। बिहार में पासवान के साथ आने का विरोध बीजेपी के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी कुमार का सबने देखा। उत्तराखंड से टिकट कटने से नाराज़ बच्ची सिंह रावत ने इस्तीफा दे दिया। अभी तो शुरूआत है आगे आगे क्या होगा, देखते जाइये।

मोदी मांगे जवाब!

नरेन्द्र मोदी ने बिहार की रैली में नीतीश कुमार पर आरोप लगाए। मोदी के मुताबिक बिहार में दो प्रतिशत स्कूल में कंप्यूटर है मगर यह नही बताते की कितने बच्चे बिहार में कुपोषण का शिकार हैं। यह नही बताते बिहार प्राथमिक स्कूली शिक्षा के मामले में 35 में से 18 स्थान में क्यों है। मोदी कहते हैं कि बिहार में 1900 स्कूल सिर्फ कागजों में है, शिक्षक नाम के है। मीड डे मील का पैसा आता है मगर स्कूलों का वजूद तक नही है। इसमें 90 स्कूल पटना में हैं।  वह कहते हैं कि गुजरात में 71 फीसदी कंम्प्यूटर है जबकि हरियाणा में 40 फीसदी, महाराष्ट में 40 फीसदी, राजस्थान में 22 फीसदी,  और भारत का औसत 22 फीसदी है। मोदी जी ने यह नही बताया की अक्टूबर 2005 से जून 2013 तक बीजेपी और जूडीयू की गठबंधन सरकार थी। बीजेपी जेडीयू गठबंधन 17 साल पुराना है। अगर उक्त प्रकरण के लिए नीतीश जिम्मेदार तो बीजेपी कैसे नही। अगर देश में मोदी की लहर है तो मोदी और राजनाथ सुरक्षित सीट क्यों ढूंढ रहे हैं। मोदी यूपीए सरकार से सवाल पूछ रहे हैं मगर केजरीवाल के सवाल का जवाब नही दे रहे हैं। इन सबसे उपर बिहार में सबसे बड़ा मुददा है विशेष राज्य के दर्जें की मांग। मोदी ने इस पर साफ कुछ नही कहा। ऐसा क्यों?

शनिवार, 8 मार्च 2014

मोदी के गुजरात माडल पर उठते सवाल!

1- लगातर डबल डिजिट ग्रोथ के बावजूद 3 साल के कम उम्र के 47 फीसदी बच्चे कुपोषित क्यों?
2- क्या गुजरात में शहरी गरबी को 16 रूपये में और गांव के गरीब को 11 रूपये में आंका जाता है?
3- देश में गरीबी घट रही है जबकि गुजरात में यह क्यों बढ़ रही है?
4- अडानी को कौड़ियों के भाव जमीन क्यों?
5- कोर्ट से दोषी करार दिए गए मंत्रियों को मंत्रीमंडल में जगह क्यों?
6-महिलाओं में खून की कमी क्यों?
7-प्राथमिक शिक्षा के मामले में हालात खराब क्यों?
8-आइएमआर और एमएमआर में गिरावट की दर धीमी क्यों?
9- किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
10- गुजरात में बरोज़गारों की संख्या क्यों बढ़ रही है?

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

आखिर ऐसा क्यों?

मित्रों आजादी के 67 साल के बाद भी हम गरीबी से नही लड़ पा रहें है। गरीबी हटाओं नारे के बावजूद गरीब बढ़ते जा रहें हैं। सरकार के आंकड़ों में जरूरी गरीबी कम हो रही है मगर उससे ज्यादा तेजी से लोग गरीबी रेख के नीचे जीवन यापन करने के लिए मजबूर हैं। सोचिए जिसे देश में गरबी के घर के लिए इंदिरा आवास योजना 80 के दशक से चल रही है वहां 20 करोड़ से ज्यादा के पास अपना घर नही। शौचालय के लिए निर्मल भारत अभियान के 30 साल बाद भी 67 फीसदी आबादी के लिए शौचालय की व्यवस्था नही। रोजगार के लिए महात्मा गांधी नरेगा है, शिक्षा के लिए सर्व शिक्षा अभियान अब शिक्षा का अधिकार है और बच्चों के भोजन के लिए मीड डे मील योजना है। पीने के पानी के लिए राष्टीय शुद्ध पेयजल मिशन है। स्वास्थ्य के लिए राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन है। महिलाओं के लिए एकीकृत बाल विकास योजना, जननी सुरक्षा योजना जैसी योजनाऐं है। पेट भरने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून है वहां समाज के बड़ा तबका इतना परेशान क्यों है। यहां बिजली भी राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना है। वहां लाखों गांव में उजाला नही है। कहने से तात्पर्य यह है की आजादी के बाद भारती की समस्यओं का हल योजनाओं में ढूंढा गया। नतीजा समस्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। आखिर ऐसा क्यों?

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

केजरीवाल का इस्तीफ अध्याय

अब हमें नींद से जगना होगा। अब हमें लड़ना होगा। किस बात पर गर्व करे?? लाखों करोड़ के घोटालों पर? 85 करोड़ भूखे गरीबों पर? 62 प्रतिशत कुपोषित इंसानों पर? या क़र्ज़ से मरते किसानों पर? किस बात पर गर्व करे?? जवानों की सर कटी लाशों पर? सरकार में बैठे अय्याशों पर? स्विस बैंकों के राज़ पर? किस बात पर गर्व करे?? राज करते कुछ परिवारों पर? उनकी लम्बी इम्पोर्टेड कारों पर? रोज़ हो रहे बलात्कारों पर? या भारत विरोधी नारों पर? किस बात पर गर्व करे?? जवानों की खाली बंदूकों ? सुरक्षा पर होती चूकों पर? पेंशन पर मिलते धक्कों पर? या इप्ल् के चौकों-छक्कों पर? किस बात पर गर्व करे?? किसानों से छिनती ज़मीनों  पर? युवाओं की खिसकती जीनों पर? संस्कृति पर होते रेलों पर? या क्रिकेट-कॉमनवेलथ खेलों पर? किस बात पर गर्व करे?? साढ़े 900 के सिलेंडर पर? इस झूठी शान पर? या 'इंडियन' होने की पहचान पर? किस बात पर गर्व करे?? किस बात पर गर्व करे? अगर जनता नरेन्द्र  मोदी को प्रधान मंत्री ना बनाये तो देश कैसे आगे बढे केजरीवाल के दिल्ली से भागने के प्रमुख कारण :- गर्मियां आ रही है फ़ोकट में पानी दे पाना नामुमकिन। कॉमन वेल्थ घोटाले पर कुछ न कर पाना। बिजली कम्पनियो का दाम घटाने से सीधा इंकार। आम आदमी पार्टी की आपसी फूट। दिल्ली की कानून व्यवस्था में कोई सुधार नहीं। मीडिया द्वारा केजरीवाल के झूठ का समय समय पर पर्दाफास करना। केजरीवाल को स्वयं एवं अपने साथियो की अनुभवहीनता का एहसास होना। कांग्रेस के साथ हुए गुप्त समझौते का उजागर होना | लोकसभा चुनावों की तैयारी ना कर पाना जिससे कांग्रेस के एन्टी वोट जो भाजपा को मिलने जा रहे हैं उसमे सेंध नहीं लग पा रही है | बार बार केजरीवाल के विधायक और मंत्रियों की काली करतूतें उजागर होना | जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल विधेयक के प्रस्तुत करने से पूर्व उप राज्यपाल की सहमति प्राप्त करने हेतु किसी भी प्रकार की कानूनी बाध्यता न होने के सम्बन्ध में दलीलें प्रस्तुत की थीं और उन दलीलों के पक्ष में कई  जाने माने संविधान विशेषज्ञों के नाम का इस्तेमाल किया था उनसे लग रहा था कि उनका पक्ष किसी हद तक सही था. परन्तु जब तीन विशेषज्ञों ने तो पहले ही यह कह कर पल्ला झाड लिया था कि उनसे जनलोकपाल के बारे में राय ही नहीं ली गयी थी तथा आज जिस प्रकार से पूर्व सोलीसीटर जनरल सोली सोराबजी ने भी स्पष्ट कर दिया कि “मुझे बिल नहीं भेजा गया था. मैंने इसे पढ़ा नहीं. इसलिए न तो मैंने इसके पक्ष में राय दी है न विपक्ष में ” तथा जिस प्रकार उन्होंने "आप" को हिदायत दे डाली है कि अपने  कामों को सही ठहराने के लिए उनकी राय का इस्तेमाल न करें, उसे देखकर आम आदमी यह सोचने को विवश है कि कहीं आम आदमी पार्टी केवल झूठ के आधार पर जनता को गुमराह करने की नयी ढंग की राजनीति तो नहीं कर रही है केजरीवलजी शुरु से ही झूठ का सहारा ले रहे हैं.. पहले बोले की चार कॉन्स्टिट्यूशन एक्सपर्ट ने उनको सपोर्ट किया है अब उसमे से
तीन ने मना कर दिया.. अब सोराबजी ने वी मना कर दिया . अब जबरदस्ती बिना सेंटर के अग्रीमेंट के बिल लाने के जिद्द को कैसे जस्टिफाइ करेंगे केजरीवाल.. कोई इसे  त्याग' नहीं मानेगा। कैसा त्यागपत्र? त्याग कहां है इसमें? आप कोई भी एक म़ुद्दा बनाकर, उसे  बढ़ाकर, उसे 'अदर एक्सट्रीम' तक ले जाकर जिम्मेदारी से हटना चाह रहे थे, सो हट गए। शीला के नाम से सत्ता में आए थे... अम्बानी का नाम लेकर भाग निकले... मजे की बात यह कि अधिकाँश चैनलों में मुकेश अंबानी का पैसा लगा हुआ है, फिर भी मीडिया पर सर्वाधिक कवरेज केजरी को मिल रहा है, और फिर भी इस "रोतले" को  शिकायत है. किसी भी आपिये ने अभी तक इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि - १) यदि गवर्नर के पत्र पर आपत्ति थी, तो उसे  लेकर कोर्ट क्यों नहीं गए? २) आठ दिन रुक जाते तथा उस विधेयक को दोबारा राष्ट्रपति-केन्द्र के पास भेजते... जब वहाँ से वापस  आता तो काँग्रेस-भाजपा के खिलाफ "एक्...सपोज"(?) केस और अधिक मजबूत बनता... तब इस्तीफ़ा देते... लेकिन ना तो "युगपुरुष" को न्यायालय पर यकीन है और ना ही इन्हें वहाँ ठहरना था... बस भागने की जल्दी हो रही थी... इनका मन तो नौटंकी-धरने में ही रमा हुआ है... इतना शानदार मौका गँवा दिया कुछ कर दिखाने का.
वो सेंटर को अपना बिल . . सेंटर मना कर देती फिर हम सब केजरीवाल को सपोर्ट करते.?

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

संसद के नियम

संसद में आए दिन हंगामा होना कोई नही बात नही है। हंगामा आज सियासी हथियार बन गया है। राजनीतिक दल इसे अपना विशेषाधिकार समझने लगे है। सदन में सांसदों के लिए कई नियम  बनाये गए है। मगर दुर्भाग्य से इन नियमों का हर रोज चीरहरण हो रहा है।

1-कोई सदस्य अगर भाषण दे रहा हो तो उसमें बांधा पहुंचाना नियम के खिलाफ है।
2-सांसद ऐसी कोई पुस्तक समाचार पत्र या पत्र नही पडे़गा जिसका सभा की कार्यवाही से सम्बन्ध न हेा ।
3- सभा में नारे लगाना नियम विरूद है।
4-सदन में प्रवेश और निकलने के वक्त अध्यक्ष की पीठ की तरफ नमन करेगा।
5-सभा में नही बोल रहा हो तो शान्त रहना चाहिए
6-भाषण देने वाले सदस्यों के बीच से नही गुजरेगा
7-अपने भाषण देने के तुरन्त बाद बाहर नही जायेगा
8-हमेशा अध्यक्ष को ही सम्बोधित करेगा।
9-सदन की कार्यवाही में रूकावट नही डालेगा।
इन सारे नियमों के लब्बोलुआब को कुछ यूं समझ ले कि सदन में अध्यक्ष के आदेश के बिना पत्ता भी नही हिल सकता। ऐसे कई नियम मौजूद है लेकिन मानने वाला कोई नही। नियमों की अनदेखी संसदीय संकट
की ओर इशारा कर रही है। लिहाजा समय रहते इसमें पूर्ण विराम लगाना आवश्यक हो गया है।

संसद से सवाल

क्या संसद सही मायने में लोकतंत्र की पहरेदार है?
क्या यह आवाम की आस्था का मन्दिर है?
क्या किसी भी मायने में यह देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था है?
क्या देश के विकास की नींव यहां रखी जा रही है?
क्या चुने हुए प्रतिनिधी यहाॅ अपनी आवाज बुलन्द कर पाते हैं?
क्या जनता के जुडे मुददों पर सार्थक बहस हो पा रही है?
क्या देश के लिए संसद कानून बना पा रही है?
क्या संसद का सबसे महत्वपूर्ण घंट प्रश्नकाल चल पा रहा है?
यह सारे सवाल उठना लाजमि है। अगर संसद में कानून नही बन सकते, चर्चा नही हो सकती, सांसद अपने क्षेत्र के मुददे नही उठा सकते। तो इस संसद को बुलाने का औचित्य क्या है। अगर यह रस्मअदायगी है तो इसमें हर घंटे में जनता की गाड़ी कमाई के 26 लाख बर्बाद होते हैं। सवाल उठेंगे कि आखिर संसद किसके लिए है। आखिर में सबसे ज्यादा जरूरी विरोध की सीमा क्या होनी चाहिए? संसद में आज के घटनाक्रम ने  सबको शर्मसार कर दिया। मगर कार्यवाही के नाम पर हुआ निष्कासन। यानि आगे भी यह सब देखने को मिलेगा। अगर आज की इन्हें संसद और चुनाव लड़ने से अयोग्य कर दिया जाता तो शायद एक अच्छी नजीर पेश होती। मगर संसद एक उदाहरण पेश करने में चूक गई। अब इस चूक का नुकसानआने वाली पीड़ी को उठाना पड़ेगा। सरकार की नाकामी तो जगजाहिर है, जिसने सबकुछ जानते हुए भी अपने प्रबंधन की दुरूस्त नही किया। 15 वीं लोकसभा का कामकाज अब तक के सबसे निचले स्तर का है। पूरे 5 साल में 35 फीसदी से भी कम संसद चली। इसलिए समय रहते इस बीमारी का निदान जरूरी है।

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

कांग्रेस मांगे ज्यादा वोट!

अर्थव्यवस्था की हालत जर्जर है। विकास दर 5 फीसदी से भी कम रहने की उम्मीद है। राजकोषिय घाटा बढ़ रहा है। निवेश घट रहा है। बचत में भी कमी देखने को मिल रही है। महंगाई आसमान पर है। आरबीआई 18 बार ब्याज़ दर बढ़ा चुकी है। आइआइपी के आंकड़े चिंताजनक है। मगर यूपीए सरकार मस्त दिखाई दे रही है। लगता है कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव कें फैसले का आंकलन कर लिया है। इसलिए अगली सरकार के लिए
अर्थव्यवस्था के हिसाब से वह नर्क कर रही है। बीजेपी जानती है मगर क्या करे अगर विरोध करेगी तो जनता की नजरों के कांग्रेस उसे गरीबों का दुश्मन ठहरा देगी। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो यह फैसले न देश हित में हैं न आम आदमी के हित में। क्योंकि पैसा हमारी ही जेब से निकाला जाता है। यह बात सच है कि पैसे पेड़ में नही उगते।

1-गैसे सिलेंडर- 9 से 12  5000 करोड़ का अतिरिक्त बोझ
2-सीएनजी -30 फीसदी सब्सिडी यानि 14 रूपये 90 पैसे सस्ती
3-पीएनजी- 20 फीसदी सस्ती यानि 5 रूपये तक सस्ती
4-न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की तैयारी!
5-7वें वेतन गठन आयोग का गठन
6-पीएफ योगदान सीमा 15000 तक संभव
7-इपीएफ पर 1000 तक बढ़ोत्तरी।
8-10 फीसदी डीए बढ़ाया। 50 लाख केन्द्रीय कर्मचारी और 30 लाख पेंशनरों को फायदा
9-इएसआईसी - 25000 तक संभव
10-पीएफ डिपोजिट रेट- 8.5 फीसदी से बढ़ाकर 8.75 फीसदी

वोट के लिए कुछ भी करेगा!
9 लाख कर्ज पिछले साल आज हो गया है 25 लाख करोड़।
पिछले 2 सालों से अर्थव्यवस्था की हालत कमजोर मगर आज हालत खराब
अगली सरकारों के लिए होगी मुश्किल।
सरकार का राजकोषित घाटा होगा अनियंत्रित।
प्रधानमंत्री का बयान। पैसे पेड़ में नही उगते। तो अब क्यों लुटा रहे हैं?
यानि अर्थशास्त्र के घोडे़ को राजनीति के चाबुक से हांका जा रहा है।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

ममतावान मोदी

कोलकाता में नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि प्रणव मुखर्जी को जानबूझकर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नही बनने दिया। जबकि इंदिरा गांधी की मौत के बाद और 2004 में वह सबसे योग्य उम्मीदवार थे। उन्होने कहा की कांग्रेस किसी भी बड़े नेता को आगे बढ़ने देना नही चाहती जिससे गांधी परिवार को कोई खतरा हो। मगर यह सवाल का जवाब नरेन्द्र मोदी के पास नही है की उनकी महत्वकांक्षा के चलते आडवाणी जी का स्वप्न चकनाचूर हो गया। यहां तक की आडवाणी जी ने खत लिखकर  भी सार्वजनिक तौर पर बीजेपी अध्यक्ष की कार्यशैली पर सवाल उठाये। यानि पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता को राजनाथ और मोदी ने संघ के साथ मिलकर अलग थलग कर दिया। कमसे कम कांग्रेस के पास कहने के लिए तो है कि उन्होने प्रणबदा का राष्टपति बना दिया। देश का प्रथम नागरिक। मोदी राजनीति में कुछ करने की बात तो करते हैं मगर उनका एक मात्र लक्ष्य है।प्रधानमंत्री पद येन केन प्रकारेण। इसलिए महिला सुरक्षा के लिए बदनाम पश्चिम बंगाल पर ममता सरकार पर वह मेहरबान रहे। 35 साल तक राज करने वाले वामदलों को खरी खोटी सुनाई मगर ममता को कुछ नही कहा। यानि वह जानते है की दीदी की जरूरत आने वाले दिनों में पड़ सकती है।

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

15वी लोकसभा का आखिरी सत्र

5 फरवरी से 15 वी लोकसभा का आखिरी सत्र होने जा रहा है। पूरे 15 वी लोकसभा को अगर देखा जाए तो 2जी स्पैकटम, कोयला आवंटन मामला, महंगाई, राष्टमंडल खेल में घपला, आदर्श सोसाइटी घोटाला और वीवीआइपी हेलीकाप्टर डील में कथित अनियमितता को लेकर खासा हंगामा हुआ। खासकर 2जी मामले को लेकर जांच पीएसी से हो या जेपीसी से इसको लेकर कई सत्रों तक संसद नही चल पाई। इस दौरान महंगाई भ्रष्टाचार आंतरिक सुरक्षा और विदेश नीति से जुड़े मामलों में सरकार की खूब किरकिरी हुई। यही कारण रहा है की सरकार इन मुददों में इतना उलझ गई कि निवेश से जुड़े मामलों में फैसला नही कर पाई। नतीजा आर्थिक विकास दर 5 फीसदी से कम रहने की उम्मीद है। चाहे अद्योगिक उत्पादन की बात हो या सेवा क्षेत्र
की हर जगह गिरावट देखने को मिली। हालांकि बात में सरकार ने निवेश के मामलों को देखने के लिए एक कैबीनेट समिति का गठन किया जो अब तक पांच लाख करोड़ से ज्यादा के निवेश से जुड़े मामलों को हरी झंडी दे चुकी है। सरकार के सामने राजकोषिय घाटे को जीडीपी के 4.8 फीसदी तक रखने की चुनौति है। साथ ही उपभोक्त मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई को 4 फीसदी से कम रखने की है। मगर लगता नही की सरकार यह कर पाएगी। क्योंकि महंगाई रोकने के लिए आरबीआई 2009 से अब तक 18 बार नीतिगत दरों में परिवर्तन कर चुका है। आज रेपो रेट 8 फीसदी है। यानि कर्ज की मांग कम होने के चलते  मांग को रफतार नही मिल पा रही है। कच्चे तेल के दाम अब भी अंतराष्टीय बाजार में 100 डालर प्रति बैरल से उपर है। तेल पदार्थों में सब्सिडी 2013 -14 में 1.5 लाख करोड़ के आसपास रहने का अनुमान है। सरकार के लिए राहत की बात यह है कि सीएडी के मामले में उसके लिए थोड़ा राहत है। सोने में शुल्क बढ़ाने से इसके आयात में कमी आई जिससे सरकार अब सीएडी को कम कर पाई है। मगर लम्बे समय के लिए सरकार को कुछ और उपाय करने होंगे। क्योंकि ऐसे कदमों से सोने की कालाबाजारी को बढ़ावा मिलता है। कुल मिलकार एफडीआई से जुड़े मामले, वस्तु और सेवा कर, डारेक्ट टैक्स कोड बिल जैसे बड़े मुददे सरकार के सामने हैं। अब देखना यह होगा की इस आखिरी सत्र में सरकार क्या रास्ता अख्तियार करती है।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

घोषणापत्र में किए वादे तय समय से पूरें हों!

अरविन्द केजरीवाल की सरकार को दिल्ली में 30 दिन बीत चुके हैं। आम आदती से लेकर मीडिया उनके वादों को लेकर उनसे  सवाल पूछ रहा है। उनके 18 वादों को लेकर उनकी स्थिति जानना चाहता है। उनमें भी सबसे उपर पानी, बिजली और जनलोकपाल विधेयक से जुड़ा सवाल सबसे उपर है। मगर मेरा मानना है कि एक महिने में किसी भी सरकार का आंकलन करना उसके साथ ज्यादती करना  जैसा है। हालांकि आम आदमी पार्टी ने खुद अपने मैनीफेस्टों में काम पूरा करने का समय तय कर रखा है। मसलन सरकार  बनने के 15 दिन के भीतर जनलोकपाल को पारित कराना। 3 महिने में सुराज कानून लाना और अस्थाई कर्मचारियों को एक
साल में नियमितिकरण जैसे वादे शामिल है। मगर अगर आपको याद हो तो 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 100 दिन के एजेंडे में महंगाई  को रोकना शामिल था। 1 दिन में 20 किलोमीटर सड़क बनाऐंगे जैसे वादों की भरमार थी। मगर 100 दिन की जगह आज 1800 दिन से ज्यादा दिन बीत चुके हैं महंगाई कम होने के बजाए बढ़ती गई। हां नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में समिति जरूर बना दी। इसी तरह नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी वादों में 5 साल में 50 लाख घर जिसमें 28 लाख ग्रामीण क्षेत्र में और 22 लाख शहरी क्षेत्र में बनाने का वादा किया था। जिसके लिए न ही जमीन अब तक चिन्हित की गई है और न ही कोई विशेष डिपार्टमेंट बनाया गया है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में 42 लाख परिवारों को 1 रूपये किलो चावल देने का वादा किया गया था। राजस्थान में 24 घंटे बिजली और 15 लाख लोगों को रोजगार जैसे वादे शामिल थे। वहीं मध्यप्रदेश में 15 लाख बेघरों के लिए घर बनाने का वाद किया गया था। ऐसे में इन सरकरों से भी पूछा जाना चाहिए की 40 दिन से ज्यादा बीत जाने को है, आपने कितने वादे पूरे किए हैं। इसलिए जरूरी है की जनता से पूरे किए वादों की एक समय सीमा निर्धारित हो। ताकि हमेशा की तरह जनता अपने आप को ठगा महसूस न करें। 

बुधवार, 22 जनवरी 2014

आप तो ऐसे ना थे!

सोमनाथ भारती। मालवीय नगर से आप के विधायक और केजरीवाल मंत्रीमंडल में कानून मंत्री। जब से मंत्रालय संभाला है, खूब सुर्खिया बटोर रहें हैं।  पहले जजों की बैठक बुलाने की जिद, फिर सीबीआई की विशेष अदालत की भारती पर प्रतिकूल टिप्पणी, आधी रात को खिड़की एक्सटेंशन पर रेड करना, यूगांडा की महिलाओं का उनपर आरोप, अरूण जेठली और हरीश साल्वे के खिलाफ अभद्र टिप्पणी। इस सब से उपर दानिश महिला जिसका गैंगरेप हुआ उसके पहचान सार्वजनिक करना। यह सारे कांड कानून मंत्री सोमनाथ भारती की देन है। मगर केजरीवाल जो हर बात पर इस्तीफा मांगने  और सड़क पर उतरने के लिए जाने जाते हैं आज चुपचाप है। आज ने वो किसी को नैतीकता की दुहाई दे रहें है न ही उनको  सोमनाथ भारतीय में कुछ गलत नजर आता है। यह तो ठीक वही बात हुई जैसे कांग्रेस रेलमंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार को बचाने में लगी रही, या बीजेपी येदयुरप्पा के बचाने में जुटी रही वही काम आज केजरीवाल कर रहें हैं। जनता के लिए इन तीनों पार्टियों में अंतर करना मुश्किल पड़ रहा हैं। दूसरी तरफ कानून मंत्री का आधी रात के रेड करना किसी के समझ में नही आ रहा है। क्योंकि कानून मंत्री किस कानून के तहत आधी रात को रेड डालने गए किसी को नही मालूम? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद किसी महिला को गिरफतार नही किया जा सकता। इससे भी ज्यादा उस रात कोई महिला पुलिसकर्मी वहां मौजूद नही थी। हमारे देश में देवयानी खोबरागडे से अमेरिका में हुए व्यवहार के लेकर जबरदस्त आक्रोश देखा गया, दोनों सरकारों के रिश्तों में  तक तल्खी आ गई। क्या युगांडा की महिलाओं ने जो आरोप लगाए हैं वह गंभीर नही। जरा सोचिए यही व्यवहार किसी अमेरिकी या बितानी महिला से हुआ होता तो क्या होता। उससे भी ज्यादा को अपनी भाष में नियंत्रण लाना होगा। उन्हें ध्यान रखना होगा की अब हव एक आंदोलकारी नहीं बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। आम आदमी पार्टी रायशुमारी के लिए विख्यात है। इसलिए उसेदिल्ली में अपने कानून मंत्री के लिए रायशुमारी करा लेनी चाहिए। क्या सोमनाथ भारती को इस्तीफा देना चाहिए या केजरीवाल को उन्हें हटा देना चाहिए!

सोमवार, 13 जनवरी 2014

कजरीवाल के कथन

1-किसी से न समर्थन लेंगे न देंगे!
कांग्रेस के समर्थन से सरकार चल रही है।
2-सरकारी आवास नही लेंगे!
बड़ा बंग्ले पर हल्ला हुआ तो छोटे बंग्ले की तलाश चल रही है।
3-कोई भी मंत्री सरकारी गाड़ी नही लेगा!
लाल बत्ती नही ली मगर वीआइपी नम्बर की सरकारी गाड़ी से चल रहें हैं।
4-सुरक्षा नही लेंगे!
केजरीवाल की सुरक्षा में कई गुना खर्चा आ रहा है।
5-15 दिन में जनलोकपाल पारित करेंगे!
जनलोकपाल पर समिति कर रही है विचार।
6-हर सप्ताह जनता दरबार लगाऐंगे!
अब जनता दरबार से तौबा। शिकायत दर्ज कराने के लिए दूसरे तरीकों का सहारा लिया जाएगा।
7-सारे पानी के मीटर बदले जाऐंगे!
वही पुराने मीटर लगाए जा रहे हैं।
8-सबको 700 लीटर तक मुफत पानी!
केवल पानी उनको जिनके पास मीटर है। 1 जनवरी से पानी के 10 फीसदी दाम बढ़े।
9-बिजली के बिलों में 50 फीसदी तक की कटौति!
400 यूनिट उपभोग करने वालों को दी जा रही है सब्सिडी।
10-बिजली वितरण कंपनियों का सीएजी से आडिट!
सीएजी को इसके लिए कह दिया गया है।
11-विदेशी किराना स्टोर को न!
इसका आदेश जारी कर दिया गया है।
12-सत्ता में आते ही भ्रष्टाचारियों के जेल भेजेंगे!
भ्रष्टाचार के सबूत जनता जुटाएगी।
13-शीला और उसके मंत्रियों की जांच कराऐंगे!
सरकार शीला के दल के समर्थन पर टिकी है।

रविवार, 12 जनवरी 2014

यह राह नही आसान!

राजनीति के बालकांड के पड़ाव से आगे बढ़ रही में चल रही आम आदमी पार्टी देश में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी है। लोकसभा चुनाव में हाथ आजमाने के लिए तैयार है। 10 जनवरी से देश भर में सदस्यता अभियान चला दिया है। लोगों ने  भी इस पार्टी को हाथों हाथ गले लगाया है। आप से जुड़ने की बेकरारी देखी जा सकती है। एक तरफ आप का सदस्यता अभियान तो दूसरी तरफ बीजेपी का एक वोट एक नोट अभियान शुरू हो चुका है। इसमें कोई दो राय नही की आप ने मोदी के खुले मैदान को मुश्किल बना दिया है। इसलिए मोदी कह रहें है की टेलीविजन में दिखने से वोट नही मिलता, देश चलाने के लिए  विज़न चाहिए। मतबल मोदी के समझ में आ गया है की कही पीएम इन वेटिंग का मामला वेटिंग तक ही सीमट के न रह जाए। दूसरी तरफ आप की मुश्किलें भी कम नही। पार्टी ने आम आदमी की टोपी पहनकर लोगों को आकर्षित तो किया है मगर लगता नही की इतनी जल्दी इनपर विश्वास किया जाए। आप ने हाल के दिनों में कई ऐसे काम किए हैं जिससे लोगों को लगता है  कि कहीं इनका भी कांग्रेसी और बीजेपीकरण न हो जाए। मसलन
1-प्रशांत भूषण का कश्मीर पर दिया गया रायशुमारी का बयान। ऐसा ही बयान पार्टी के विधायक विनोद कुमारी बिन्नी दे चुके है।
2-मंत्री ना बनाए जाने से नाराज विनोद कुमार बिन्नी का बैठक छोड़कर बाहर निकलना।
3-राखी बिरला की कार का शीशा टूटने से जुड़ा विवाद
4-कानून मंत्री सोमनाथ भारती की जजों की बैठक बुलाने का फैसला
5-सचिवालय के बाहर जनता दरबार में हुई बदइंतजामी जैसे कई मुददों ने आप की मुश्किलें बढ़ाई है।
6-बिजली पानी के मामले में 400 यूनिट से उपर खपत करने वाला और 700 लीटर से ज्यादा इस्तेमाल करने वाला अपने आप को ठगा महसूस कर रहा हैं।
7-चार कमरे वाला फलैट लेना और बाद में मीडिया में आने के बाद उसे न लेने का फैसला करना।
8-उपराज्यपाल के अभिभाषण में सिर्फ चार मिनट का जवाब।
9-सुरक्षा न लेकर दिल्ली पुलिस को उनकी सुरक्षा में भारी भरकम खर्च करना पड़ रहा है।

इतिहास गवाह है की 1977 का माहौल भी कुछ इसी तरह था। कांग्रेस के खिलाफ जीतकर जनता पार्टी के नेता रातों रात हीरो बन गए। यहां तक की इंदिरा गांधी रायबरेली से राजनारायणके खिलाफ चुनाव हार गई। लेकिन ढाई साल में जनता पार्टी से त्रस्त आकर जनता ने दुबारा इंदिरा गांधी को सत्ता सौंप दी। इसलिए आम आदमी को अपना हर कदम सोझ समझकर उठाना होगा।

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

मुलायम का समाजवाद!

लोहिया ने नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने वाले नेताओं की भारत में कमी नही है। उनमें से एक बड़ा नाम है मुलायम सिंह यादव। यादव और मुस्लिम वोट के चैपिंयन। उनका एमवाई समीकरण जब जब काम किया उनको राज्य में गददी मिली। मगर हमेशा लोगों को निराशा ही हाथ लगी। खासकार समाजवादी सरकार में कानून व्यवस्था बेलगाम हो जाती है। राज्य में 60 फीसदी आबादी के पास शौचालय नही है। 33 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। प्रति व्यक्ति आय 30 हजार से कम है। बेरोजगारी दर 9 फीसदी तक पहुंच गई है। कानून व्यवस्था का बुरा हाल है। प्रदेश कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है यानि कर्ज का ब्याज़ चुकाना ही आने वालें दिनों में मुश्किल होने वाला है। गन्ना किसान सरकार के बेहद नाराज़ है।मगर राज्य में सबसे बड़े दाग के तौर पर मुज़फरनगर दंगों के देखा गया। इन दंगों में 60 से ज्यादा लोग मारे गए। 60 हजार  से ज्याद लोग बेघर हो गए। इनमें से ज्यादातर अब भी हाड़कपा देने वाली ठंड में पुर्नवास की राह देख रहे हैं। सरकार का कहना है कि उसने सबको मुआवज़ा दे दिया है। मगर ज्यादातर हिंसा पीड़ित वापस नही जाना चाहते क्यों दिल और दिमाग में भय  अब भी व्याप्त है। जो सरकार अपने लोगों को निर्भयता न प्रदान कर सके, उसके बारे में क्या कहा जाए। इन सब कुछ बीते जाने के बावजूद समाजवादी सरकार ने सैफई महोत्सव में जमकर पैसा खर्च किया। मुंबई कलाकारों को विशेष विमान के जरिये बुलाया गया। उनकी आवाभगत में करोड़ों लुटा दिए गए। एक अुनमान के मुताबिक यह आंकड़ा 200 करोड़ से ज्यादा है। इसके  अलावा 18 विधायकों जिसमें सपा के मंत्री भी शामिल है को पांच देशों के 14 दिन की यात्रा पर भेजा गया है। यात्रा का मकसद दूसरे देशों के लोकतांत्रिक तरीकों को सीखना है। इनमें सबसे  दिलचस्प नाम है शहरी विकास मंत्री आज़म खान, जो मुज़फरनगर जिले के प्रभारी भी है, यात्रा में हैं। खैर लोहिया ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी की जिंदा कौमें पांच साल का इंतजार नही करती। इसका अंदाजा समाजवादी मुलायम को जल्द ही मालूम चल जाएगा। मगर इसी राजनीति के अभाव में आज लोग आम आदर्मी पार्टी को गले लगा रहें हैं। ऐसे में समाजवादी मुलायम से कुछ सवाल बनते हैं।
1.लोहिया की कसम खाने वाले मुलायम का समाजवाद कहां है?
2.सामाजिक न्याय की लड़ाई का दंभ भरने वाले मुलायम सिंह का न्याय कहां है?
3.दंगों के तीन महिने बाद भी अगर हिंसा पीड़ित परिवारों के खौफ का माहौल है तो किसी नकामयाबी है?
4. क्यों मौलाना मुलायम दंगा पीड़ितों से मिलने मुजफरनगर नही गए?
5.राहत कैपों में 34 से ज्यादा बच्चों की मौत का जिम्मेदार कौन?
6.सैफई महोत्सव में जनता के पैसों की बर्बादी क्यों?
7.क्या मुंबई के कलाकार के गानों से मुलायम दिल्ली पहंचेंगे?
8.दंगा पीड़ितों के पुर्नवास को लेकर राज्य सरकार संजीदा क्यों नही?
9.मुलायम के मुताबिक अब कोई हिंसा पीड़ित राहत कैंपों में नही है तो कौन है उन राहत कैपों में?
10.अगर यह बीजेपी और कांग्रेस के एजेंट है तो आपकी एलआइयू और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठा है?
11.नेताओं को विदेश में सैर कराने में जनता के पैसों की बर्बादी क्यों?
12. दंगों के दोषियों पर क्या कारवाई हुई?





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सडक बनाओं ग्रोथ बढ़ाओ!

यूपीए के दूसरे कार्यकाल में सड़क एवं परिवहन मंत्रालय का जिम्मा संभालने के बाद कमलनाथ ने प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा। यह वह समय था जब यूपीए सरकार सडकों को बनाने के धीमी प्रगति के चलते विपक्ष का निशाना बना रही थी। यही कारण था की जानकारों और खुद योजना आयोग 20 किलोमीटर सड़क बनाने के लक्ष्य को महत्वकांक्षी मान रहा था। बहरहाल जो तस्वीर समाने है उसमें 12.3 किलोमीटर प्रतिदिन सड़को का निर्माण काराया जा रहा है। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण के मुताबिक जमीन अधिग्रहण में देरी कानूनी दावपेंच, फैसले लेने में देरी, समय से एनओसी का न मिलना, कुशल मानव संसाधन की कमी और कानून और व्यवस्था  जैसे मुददे सड़क बनाने की धीमी प्रगति का मुख्य कारण है। अक्टूबर 2009 से सितंबर 2010 तक कुल 201 परियोजनाओ का ठेका दिया गया है। इन परियोजनाओं की कुल लम्बाई 9923 किलोमीटर है। कुल मिलाकर इस समय 14704 किलोमीटर सड़क कार्य का काम प्रगति में है। सड़कों के मामले में दुनिया में सड़कों का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क भारत में है। देश भर में फैली सड़कों की कुल लम्बाई 33.4 लाख किलोमीटर है।
विश्व का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क
कुल लम्बाई 33.4 किलोमीटर के आसपास
राष्ट्रीय राजमार्ग          66590
राज्य राजमार्ग           128000
प्रमुख जिला सड़कें        470000
ग्रामीण व अन्य सड़कें      2650000
राष्टीªय राजमार्ग का नेटवर्क 2 प्रतिशत से कम है परन्तु यह कुल यातायात का 40 प्रतिशत भार वहन करता है। आज 65 फीसदी माल की ढुलाई और 80 फीसदी यात्री यातायात इन्ही सडको पर होता है। जहां सड़को पर यातायात 7 से 10 फीसदी सालाना आधार पर बढ़ रहा है। वही वाहनों की संख्या में तेजी 12 फीसदी के आसपास रही है। यही कारण है की अर्थव्यवस्था की गति को तेजी से बढाने के लिए सडको का तेजी से निर्माण करना जरूरी है।

देश में बिजली का हाल !

उर्जा खपत के हिसाब से भारत दुनिया का पांचवा देश है। कुल खपत का 3.4 फीसदी भारत करता है। जानकारों की माने क 2030 तक भारत जापान और रूस को पीछ छोड़कर तीसरे स्थान पर काबिज हो जाएगा। भारत की उभरती अर्थव्यवस्था के लिए उर्जा एक बहुत बड़ी जरूरत है। खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद ने देश की तेजी से बढ़ती विकास दर में सबसे बड़ी बांधा उर्जा की कमी को बताया है। भारत आने वाले सालों में दहाई विकास दर का सपना पाल रहा है । मगर इसके लिए जरूरी होगा बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाए। आइये एक नजर डालते है कि भारत में उर्जा की मौजूदा स्थिति क्या है। उर्जा क्षेत्र का बड़ा भाग कोयले से निकलने वाली बिजली पर निर्भर है। यह कुल उत्पादन का 75 फीसदी है। इसके अलावा 21 फीसदी उत्पादन में जलविद्युत क्षेत्र से करते है। और बाकि बची परमाणु क्षेत्र से आती है। इस समय सामान्य अवधि में मांग और आपूर्ति में अन्तर 10 फीसदी है। जबकि पीक आवर में यह 12.7 फीसदी है। आज उर्जा विकास दर 10 प्रतिशत से बड़ रही है जबकि कोयले का उत्पादन 5 से 6 फीसदी के दर से बड़ रहा है। 11वीं पंचवर्षिय योजना में सरकार ने 78700 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा था उसे बाद में 62374 मेगावाट कर दिया गया। इसमें ताप उर्जा का लक्ष्य 59693 मेगावट से घटाकर 50757 मेगावाट जबकि पनबिजली के लक्ष्य 15627 से घटाकर 8237 मेगावाट कर दिया है। बहरहाल 12वीं पंचवर्षिय योजना में बिजली उत्पादन का लक्ष्य 1 लाख मेगावाट रखा गया है। यहां जानना जरूरी है कि उर्जा समवर्ती सूची में आता है और लिहाजा राज्यों को अपने उत्पादन में ध्यान देना होगा। परमाणु बिजली के उत्पादन के लक्ष्य को छोड़कर ताप और पनबिजली से उत्पन्न बिजली के लक्ष्य में बदलाव किया है।जून 2011 तक हम 37971 मेगावाट बिजली उत्पादन कर पाये है। बहरहाल सरकार का लक्ष्य उर्जा कानून 2003 के तहत 2012 तक हर घर में बिजली मुहैया कराना है।  मगर यह वादा सरकार 2013 तक भी पूरा नही कर पायी। मगर हां देश में बिजली के दाम को कम करने पर राजनीति खूब हो रही है।


सोमवार, 6 जनवरी 2014

आपरेशन मेनका से जुड़े सवाल

मुंबई में डांस बार धड़ल्ले से चल रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है की डांस बार के नाम से नही बल्कि आर्केस्ट्रा बार के नाम से चल रहे हैं। आकेस्ट्रा और डांस बार लाइसेंस अलग अलग होते हैं। मगर आकेस्टा को डांस बार में तब्दील होने में चंद पल लगते हैं। डांस बार में लगाम लगाने के लिए महाराष्ट्र सरकर ने बकायदा बोम्बई पुलिस कानून 1955 में संशोधन किया। इसके बाद मुंबई पुलिस संशोधन कानून 2005 अस्तित्व में आया। 14 अगस्त 2005 को महाराष्ट्र में डांस बार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस दौरान राज्य में 1250 डांस बार थे जिसमें 600 मुंबई में और 650 बाकी राज्य में थे। लगभग 50 से 60 हजार महिलाऐं की आजीविका इस पेशे से जुड़ी थी मगर सरकार ने यह कहकर खारिज कर दिया की ज्यादातर बार बालाऐं प्रदेश से बाहर की  हैं। 50 हजार से ज्यादा कर्मचारी इन बार से जुड़े हुए थे उन्हे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इसके बाद हाइकोर्ट सहित  सुप्रीम कोर्ट ने डांस बार पर रोक लगाने वाले कानून को असंवैधानिक करार दिया। मगर राज्य सरकार इस फैसले पर अड़ी हुई है। कहा जा रहा है कि जल्द ही वह एक अध्यादेश या कानून ला सकती है। सबसे ज्यादा नुकसान राज्य के के राजस्व को हुआ क्योंकि 3 हजार करोड़ से ज्यादा राजस्व सालाना इन डांस बार से आता था। लेकिन सबसे दिलचस्प सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी है जिसमें कहा गया कि न्यायिक आत्ममत इस बात की सही नही मानता कि उच्च वर्ग के लोग उच्च नैतिकता और विनम्र व्यवहार ठेकदार है जबकि
जबकि नग्नता और फूहड़ता के लिए निम्न वर्गीय जिम्मेदार है। यह टिप्पणी इसलिए अहम है क्योंकि 3 सितारा या उससे उपर के होटलों के डांस बार में रोक नही है। विधानसभा में डांस बार पर रोक लगाने के पीछे सबसे बड़ी दलील यह थी कि इससे अपराध में कमी आएगी। मगर सरकार की यह दलील भी फीकी दिखाई पड़ती है। मुंबई में बच्चों से बलात्कार के मामलों  के अलाव महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध लगातार बड़े हैं। मसलन 2010 में जहां बच्चों के खिलाफ बलात्कार के मामले 747 थे वह 2012 में 917 हो गए। महिलाओं के खिलाफ अपराध जहां 2010 में 15737 थे वह 2012 में 16353 हो गए। बच्चों के खिलाफ अपराध जहां 2010 में 3264 थे वहां 2012 में  3456 हो गए। यानि इन सालों में अपराध बड़े है। इसके अलावा पुलिस का एक बड़ा तबका सिर्फ सालों से इस काम पर  लगा रखा है कि कहीं डांस बार तो नही चल रहे। यह पूरी तरह पुलिस मशीनरी का दुरूपयोग है। महाराष्ट्र सरकार और खासकर आरआर पाटिल से कुछ सवाल
1.क्या डांस बार पर रोक असंवैधाानिक नही है?
2.क्या यह संविधान के अनुच्छेद 14 जिसमें सबको बराबरी के अधिकार की बात कही गई है उसका दुरूपयोग नही है?
3.क्या यह संविधान के अनुच्छेद 19 1 जी जिसमें अपनी आजीविका के पेशे को लेकर अधिकार दिया गया है?
4.क्या इसे गृहमंत्री आरआर पाटिल ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल नही बना रखा है?
5.क्या यह सुप्रीम कोर्ट की आदेश की अवहेलना नही है?
6.क्या कानून को लागू न करा पाना राज्य सरकार की निष्क्रियता नही है?
7.क्या एक बड़े पुलिस बल को इसके लिए सालों से तैनात करना पुलिसिया मशीनरी का दुरूपयोग नही है?
8.क्या सरकार ने बार बालाओं के लिए पुर्नवास की कोई योजना तैयार की थी?
9.क्या मुंबई में अपराध की दर कम हो गई है?
10.क्या सरकार को सालाना इससे 3000 करोड़ से ज्यादा का नुकसान नही हो रहा है?
11.क्या मजबूर होकर कई बार बालाओं ने वेश्यावृत्ति पेशे को नही अपनाया?
12. क्या बार बालाओं के परिवार की आजीविका के बारे में रोक से पहले सोचा गया था?
13. अगर बार में डांस करना गलत है तो तीन सीतारा और पांच सीतारा होटल में इसकी इजाज़त क्यों?
14.समलैंगिता के पैरोकार इस मुददे पर चुप क्यों?
15. क्या आरआर पाटील के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना को मामला चलना चाहिए?

रविवार, 5 जनवरी 2014

भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम जल्द पास होंगे!

संसद में कई भ्रष्टाचार से लड़ने वाले कानून को मंजूरी देनी है। हालांकि इनमें सबसे उपर लोकपाल था जिसे 46 साल के बाद संसद की न सिर्फ मजंूरी मिली बल्कि नए साल में यह कानून बन गया है। इसके बाद कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नजर बाकी बजे भ्रष्टाचार निवारण विधेयकों पर है। कहा जा रहा है इसके लिए कांग्रेस संसद का एक विशेष सत्र बुला सकती है। अगर ऐसे होता है तो राहुल भ्रष्टाचार के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई के प्रतीक के दौर पर दिखने का प्रयास न सिर्फ करेंगे बल्कि जनता का भरोसा जीतने का वह हर संभव प्रयास करेंगे। लोकपाल की नियुक्ति के लिए भी प्रधानमंत्री कार्यालय को कहा जा चुका है। यानि लोकसभा चुनाव से पहले लोकपाल नामक संस्था का गठन हो जाएगा। इसके अलावा भ्रष्टाचार के खिलाफ बनाए गए विधेयकों  को भी वह इस लोकसभा से पारित कराना चाहते हैं।

भ्रष्टाचार निरोधक संशोधन विधेयक 2013
समयबद्ध वस्तु और सेवा अधिकार और जन शिकायत निवारण विधेयक
पब्लिक प्रोक्यूरमेंट बिल 2011
विदेशों से मिलने वाले घूस संबंधी विधेयक
न्यायिक मानदंड और जवाबदेही विधेयक 2010
व्हिसलब्लोअर संरक्षण विधेयक 2011

शनिवार, 4 जनवरी 2014

राहुल से 20 सवाल

1-क्या यूपीए की नाकामियों के माहौल से वह कांग्रेस को निकाल पाऐंगे?
2-भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता के लिए उनके पास क्या जवाब है?
3-पार्टी के कई नेता उनकी उम्मीदवारी को लेकर एकमत नही इस चुनौति का क्या?
4-राज्यों में पार्टी कई नेताओं में बंटी हुई है कैसे निपटेंगे?
5-सिर्फ मनरेगा जमीन अधिग्रहण कानून, शिक्षा, सूचना और भोजन के अधिकार और आपका पैसा आपके हाथ के सहारे मिशन 2014 फतह कर पाऐंगे?
6-कृषि और किसान के लिए उनका क्या रोड मैप है?
7-महिलाओं की सुरक्षा पर उनका क्या सोचना है?
7-पिछले 2 सालों में कई राज्यों में कांग्रेस की करारी हार हुई है उससे उबरने के लिए क्या करेंगे?
8-युवाओं का बड़ा वर्ग पार्टी से कट चुका है ऐसे में इस वर्ग को पार्टी से कैसे जोड़ेगे?
9-आंध्र प्रदेश जैसा मजबूत राज्य कांग्रेस के हाथ से निकल चुका है? इसकी भरपाई कहां से करेंगे?
10-कांग्रेस के खिलाफ माहौल को लेकर कोई गठबंधन को राजी नही, ऐसे में नए साथी कहां से लाऐंगे?
11-सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए उनके पास क्या रणनीति है?
12- अर्थव्यवस्था में गति देने के लिए उनके पास क्या योजना है?
13- नक्सलवाद के खतरे से कैसे निपटेंगे?
14- देश को आतंकी घटनाओं से सुरक्षा कैसे करेंगे?
15- उनके पिता राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र 1 रूपया भेजता है पहुंचता 10 पैसे है? हालात कुछ ज्यादा नही बदले हैं?
ऐसे में इस स्थिति से कैसे निपटेंगे?
16- विदेश नीति खासकर 2014 के मध्य में नाटों सेना अफगानिस्तान से कूच कर जाएगी? ऐसे में वहां काम कर रहे भारतीयों की सुरक्षा का क्या?
17- भारत अपने पड़ोसी देशों से कैसे संबंध सुधारेगा?
18- 2014 में मोदी और केजरीवाल के खिलाफ चुनाव में क्या तैयारी रहेंगी?
19-शिक्षा स्वास्थ्य स्वच्छता और रोजगार जैसे मुददों पर उनकी नीति क्या रहेगी?
20- अल्पसंख्यक दलित और आदिवासियों के लिए उनके पास क्या नीतियां है?

नरेन्द्र मोदी से 15 सवाल

1-आपके मिशन 272 का राज क्या है?
2-महंगाई को आप काबू में कैसे करेंगे?
3-भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आपके पास भविष्य में क्या योजना है?
4-नक्सलवाद और आतंकवाद से आप कैसे निपटेंगे?
5-गठबंधन के नई साथियों को कैसे जोड़ेगे?
6-अरविन्द केजरीवाल भविष्य में आपके लिए मुश्किल पैदा करेंगे?
7-गिरती अर्थव्यवस्था को थामने के लिए आपके पास क्या कार्यक्रम है?
8-दक्षिण भारत में बीजेपी बेहद कमजोर है? ऐसे में आपके मिशन 272 का क्या?
9-क्या कांग्रेस मुक्त भारत भ्रष्टाचार मुक्त भारत से टक्कर ले पाएगा?
10-पहली बार वोट करने वाले नवयुवकों के लिए आपके पास क्या योजना है?
11-महिलाओं की सुरक्षा के लिए आपके पास क्या कोई कार्यक्रम है?
12-आपकी पड़ोसी मंल्क खासकर पाकिस्तान से निपटने की रणनीति क्या है
13-येदयुरप्पा की वापसी के लेकर कहा जा रहा है कि बीजेपी ने भ्रष्टाचार से समझौता कर रही है?
14- आपको वीजा देने से इनकार करने वाले अमेरिका को लेकर आपका क्या कहना है?
15-महिलाओं की सुरक्षा के लिए आपके पास कोई योजना है?

प्रधानमंत्री से 20 सवाल

1-साल में 1 करोड़ 20 लाख रोजगार देने का वादा करने के बावजूद रोजगार क्यों नही दे पाए?
2-100 दिन में महंगाई कम करने का वादे का क्या हुआ?
3-गिरती अर्थव्यवस्था का कारण अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन तो नहीं?
4-क्या वर्तमान विकास दर को वह सर्वसमावेशी मानते हैं?
5-क्या राहुल में प्रधानमंत्री बनने के गुण हैं?
6-शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर यह देश उनका आंकलन कैसे करेगा?
7-क्या भ्रष्टाचार पर लगाम न लगा पाना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी?
8-क्या कांग्रेस के लिए मोदी से पार पाना नामुमकिन है?
9-देश में काले धन को रोकने और विदेश से कालाधन लाने के लिए उन्होने क्या कदम उठाये?
10- आर्थिक सुधारों को लेकर उनकी सरकार फैसला क्यों नही ले पाई?
11- बार बार कमजोर प्रधानमंत्री कहे जाने से उनके लिए मुश्किल नही होती?
12- निवेश से जुड़ी कई परियोजना को समय से मंजूरी ना दे पाना क्या उनकी अक्षमता नही?
13- क्या राजकोषिय घाटे को वह 4.8 फीसदी तक रख पाऐंगे
14- क्या 4 राज्यों की हार ने कांग्रेस का मनोबल तोड़ दिया है?
15-विदेश नीति के मोर्चे पर आप सबसे अहम फैसला किसे मानते हैं?
16- राजनीतिक प्रशासनिक और पुलिस सुधारों को लेकर उनकी सरकार ने क्या किया?
17- क्या आम आदमी पार्टी भविष्य में कांग्रेस के लिए एक बड़ी मुश्किल बनकर खड़ी होगी?
18- आपके कार्यकाल के दौरान प्रत्यक्ष कर संहिता यानी डीटीसी और वस्तु और सेवा कर क्याों लागू नही हो पाया?
19- नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए क्या बंदूक ही एकमात्र औजार है?
20- क्या सामाजिक योजनाओं को लागू करने के लिए आपने और एनएसी के बीच हमेश मतभेद रहे?

अरूण जेठली के प्रधानमंत्री से सवाल

1-इतिहास उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल यानि मई 2004 से मई 2014 के कार्यकाल को किस तरह देखेगा?
2-वित्त मंत्री रहते हुए उनका कार्यकाल प्रधानमंत्री के कार्यकाल से ज्यादा संतुष्ट करने वाला है?
3-यूपीए सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्टतम सरकार कहा जा रहा है, क्या लगता है की कहां उनसे चूक हो गई खासकर ऐसे मौके पर जब उन्हें कार्यवाही करनी चाहिए थी?
4-अर्थव्यवस्था के प्रबंधन का कहां कमी रह गई जिसके चलते निवेश की चक्र गड़बड़ा गया?
5-सीबीआई, जेपीसी, सीवीसी, जैसी संस्थाओं का कमजोर करने का उन्हें खेद है?

बुधवार, 1 जनवरी 2014

केजरीवाल की सरकार बचना तय है!

केजरीवाल की सरकार गिराने की हिम्मत किस राजनीति दल में है। अगर किसी ने इस काम को किया तो इसे राजनीतिक खुदखुशी कहेंगे। लोकसभा चुनाव के मददेनजर कांग्रेस तो छोड़िए बीजेपी भी सरकार गिराते नही दिखना चाहेगी। दूसरा खतरा दिल्ली में दुबार चुनाव का मतलब आम आदमी पार्टी की बड़ी जीत। यानि कांग्रेस और बीजेपी जानते है कि नतीजें चुनाव में उनके खिलाफ जाऐंगे। यानि मजबूरी में ही सही सरकार गिराने की यह राजनीति दल सोझ भी नही सकते।अरविन्द केजरीवाल को आज विधानसभा में बहुमत साबित करना है। इससे पहले वह साफ कर चुके है कि उनके पास 48 घंटे का समय है। इस बात को कहकर वह कांग्रेस और बीजेपी दोनों पर जबरदस्त मनोवैज्ञनिक दबाव डाल चुकें है। क्योंकि शपथ लेने के बाद आम आदमी पार्टी ने वह सबकुछ किया जिसके बाद उनसे समर्थन लेना का मतलब खुदखुशी करना होगा। 666 लीटर पानी प्रतिदिन मुफत देने के घोषणा हो चुकी है। जो उपभोक्ता 0 से 200 यूनिट तक उपभोग करते हैं उन्हे बिल में सब्सिडी दे दी गई है। इसी तरह की राहत 201 से 400 यूनिट का उपभोग करने वालों को दी जा रही है। बिजली कंपनियों के आडिट का आदेश दिया जा चुका है। सीएजी इन कंपनियों का आडिट करेगी। राजनीति में सादगी का उदाहरण वह पहले ही  दे चुके है। एक पुलिसकर्मी के हत्या करने पर उनके परिवार को वह 1 करोड़ का मुआवजा दे चुकें हैं।  45 जगह रैनबसेरों के लिए चिन्हित कर खुले  आसमान के नीचे सोने वालों के लिए इंतजाम करने के लिए वह एसडीएम को निर्देश दे चुके हैं। यानि अरविन्दकेजरीवाल देश के हीरो बन गऐं है। उनके हर काम पर मीडिया नजरें गढ़ाऐं बैठा है। ऐसे में लगता नही की कांग्रेस सरकार को गिराने की हिम्मट जूटा पाएगी। क्या हो सकता है विधानसभा में एक नजर डालते है।

अरविन्द बहुमत साबित करने से जुड़ा प्रस्ताव सदन में पेश करेंगे।
इसके बाद इस प्रस्ताव पर चर्चा होगी!
अरविन्द अपनी चर्चा में अपने एजेंडे को सामने रखेंगे।
बीजेपी और कांग्रेस के साथ साथ निर्दलीय विधायक भी इस चर्चा में भाग लेंगे।
चर्चा के दौरान ही यह पता चल जाता है कि क्या राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी के बहुमत के प्रस्ताव का समर्थन करेंगे या विरोध।
उसके बाद जैसा कि इस मामले में 2 बजे शक्ति परीक्षण होगा। यह सबसे बड़ी चुनौति कांग्रेस के लिए होगी। अब सवाल यह कि
क्या कांग्रेस और बीजेपी व्हिप जारी करेंगे?
क्या कांग्रेस के विधायक एकजुट हैं?
कहीं क्रास वोटिंग का डर बीजेपी में भी सता तो नही रहा है?
क्या बीजेपी वोटिंग के समय सदन से वाकआउट करेंगे जिसकी की संभावना प्रबल है।
यानि हर स्थिति में केजरीवाल की सरकार बचना तय है!