रविवार, 28 अगस्त 2011

लोकपाल के बाद संसद के एजेंडे में हो चुनाव सुधार

27 अगस्त का दिन भारत की संसदीय प्रणाली के इतिहास में हमेशा याद रखा जायेगा। आखिरकार संसद को जनमानस के दबाव के आगे झुककर 74 साल के अन्ना हजारे की तीन मांगों पर बहस करानी पड़ी। आजाद भारत में शायद ही ऐस कोई मौका आया हो जब किसी खास विधेयक को लेकर जनचेतना चरम पर हो और उसे पारित कराने का बीड़ा स्वयं जनसंसद ने अपने हाथ में उठा लिया हो। आखिरकार 7 घंटों की मैराथन बहस के बाद अन्ना हजारे की उन तीन मांगों पर प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें राज्यों में लोकायुक्त नियुक्त करने, सीटीजन चार्टर बनाने और सभी सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने को लेकर सर्वसम्मित बन गई। इसी के साथ 12 दिन से चला आ रहा अन्ना हजारे का अनशन समाप्त हुआ। लेकिन देश की अवाम को इंतजार उस दिन का है जब 43 सालों से लंबित पड़े लोकपाल अस्तित्व में आयेगा। आज देश में लोकपाल को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक प्रभावी हथियार माना जा रहा है। मगर क्या अकेला लोकपाल भारत में फैले भ्रष्टाचार को खत्म कर पायेगा। शायद नही, क्योंकि समस्या को समाप्त करने के लिए व्यापक सुधारों की आज नितांत आवश्यकता है। इसमें सबसे जरूरी है चुनाव सुधार। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर हमेशा सहमति जताते हैं, मगर सही मायने में चुनाव सुधार को लेकर कोई भी राजनीतिक दल प्रतिबद्ध नही। अब अन्ना ने राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट की ओर संकेत कर चुनाव सुधारों की बरसों रूकी बहस को एक नया आयाम जरूर दे दिया है। मगर क्या इस संकेत को राजनीतिक दल समझ रहें हैं। क्या यह राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी नही हैं। अगर हां तो चुनाव सुधार करने का सही वक्त आ गया है। अगर नहीं तो राजनीतिक दलों और संसद को फिर एक अहिंसक जनआंदोलन के लिए तैयार रहना चाहिए। सोचिए एक लोकतंत्र में यह कैसे मान्य होगा कि गंभीर अपराधों में लिप्त व्यक्ति देशकी सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने का काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों से परहेज करें। हमारे देश में चुनाव सुधार पर बहस लगभग तीन दशक से ज्यादा पुरानी है। सरकार के पास सिफारिशों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मगर जनप्रतिनिधित्व काननू 1951 में बदलाव करने की जहमत किसी ने नही उठाई। सुधारों की वकालत हर दल की जुबां पर है, मगर सवाल यह की इसे धरातल पर उतारेगा कौन। जबकि इसके लिए अब तक आधा दर्जन से ज्यादा समितियों की सिफरिशें सरकार के पास मौजूद हैं। 1975 तारकुण्डे समिति, 1990 में दिनेष गोस्वामी समिति, 1993 एनएन वोहरा समिति और 2001 में इंद्रजीत गुप्ता समिति का गठन चुनाव सुधार को उद्ेदश्य बनाकर किया गया था। इसके अलावा विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के साथ विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई समिति की रिपोर्ट भी सरकार के पास मौजूद हैं। लगता है यह सिफारिशें आज भी सिर्फ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रही है। दरअसल चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर जमीन में इसे लेकर कुछ नही हुआ। यही वजह है कि चुनाव सुधार से जुड़े मुददे आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक ही सिमट कर रह गए हैं। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते हैं। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी- कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है, मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। हालांकि चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। अगर आज हमें जनप्रतिनिधियों के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से ही संभव हो पाया।  वरना नेताओं की जमात को यह बर्दाश्त नही होता कि कोई उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्ति के बारे में जाने। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर देष में बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया, मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौटा दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से काई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान था। वही लोकसभा में लाए गए एक निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है। खुद मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला इसे अव्यवहारिक करार दे चुके है। मगर वर्तमान में चुनौतियां जबरदस्त है। 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहते हैं कि अगर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में बदलाव नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब लोकसभा और विधानसभा में दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैसे लोगों के पहुंचने का गंभीर खतरा है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट ऐसे गंभीर आरोप तय करता है, जिसकी सजा 5 साल से ज्यादा है तो उसे चुनाव लड़ने के लिए अवैध करार दिया जाए। फिर उसके खिलाफ मामले में सुनवाई ही क्यों न चल रही है। दरअसल हमारे देश में जब तक कोर्ट किसी व्यक्ति को मुजरिम करार नही दे देता तब तक उसके चुनाव लड़ने में प्रतिबंध नही है। एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा बन बैठे हैं। आज जरूरत है कि हर कीमत पर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जाए। हमें विचार करना होगा की चुनावों में पैसों के बेताहाशा इस्तेमाल पर कैसे अंकुष लगे। आयाराम गयाराम की परंपरा को कैसे रोका जाए। पेड न्यूज के बड़ते चलन पर पर कैसे रोक लगे। एक व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो राजनीतिक दल उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं। क्या यह जनता के मत का अपमान नही है। एक व्यक्ति को एक ही जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विकल्प पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। हाल के दिनों में विधि मंत्रालय ने चुनाव सुधार के कुछ छोटे मोटे सुधारों पर मुहर लगाई है। मगर जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आम सहमति बनाये और इसे लागू करे। वरना फिर एक जन आंदोलन खड़ा होगा और सरकार और संसद को जनभावनाऐं सुधार के लिए विवश कर देंगी।

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

प्रवासी भारतीय


भारत में निवेश यूं तो बड़े पैमाने पर आ रहा है मगर भरतवंशियों का हिस्सा इसमें बहुत कम है। एक अनुमान के मुताबिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासीय भारतीयों का हिस्सा महज 6 फीसदी है। यह चीन के मुकाबले बहुत कम है। एक सर्वे के मुताबिक चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेष में प्रवासियों चीनियों का हिस्सा 67 फीसदी है। जानकार इसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार सरकार की नीतियों को ठहराते है। भारत सरकार ने दुनिया भर में फैले 2.5 करोड़ भारतीयों को लिए एक अलग मंत्रालय की स्थापना की। मंत्रालय केा प्रवासी भारतीयों मंत्रालय नाम दिया गया। मगर मंत्रालय सुविधाओं के आभाव में कुछ भी करने की स्थिति में नही है। स्थिति देखकर ऐसा लगता है, नाम बड़े और दर्शन छोटे। निवेश बढाने के लिए नीतियों में बदलाव की दरकार है। मगर कहानी इतने से सुधरने वाली नही है। सरकार को भरतवंषियों को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनके निवेश से भारत की आर्थिक सेहत में बदलाव आयेगा। हमारे देश में प्रवासी भारतीय दिवस मनाने की शुरूआत 9 जनवरी 2003 को  एनडीए सरकार के कार्यकाल में हुई। इस परंपरा का मूल मकसद दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों केा अपनी जडों से जोड़ना था। दिल्ली में आयोजित हुए पहले सम्मेलन में पूर्व प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 देशों के प्रवासियों केा दोहरी नागरिकता देने का ऐलान किया। मगर उसपर कुछ खास नही हो पाया। हां जरूर मनमोहन सरकार ने उन्हें मत डालने का अधिकार जरूर दे दिया। इसी तरह परंपरा निभाने का कारवां आगे बड़ता जा रहा है। खास बात यह कि भरतवंशी भी इसमें बड़चड़कर कर भाग ले रहे हैं। आज देखें आशवासन और वादों की लम्बी फेहरिस्त तैयार हो गई। कुछ में काम हुआ कुछ कागजों में ही सिमट कर रह गई। जरूरी है इन वादों को बिना देरी किए पूरा किया जाए।

रविवार, 14 अगस्त 2011

संसद के 20 सवाल

क्या आपको पता है की संसदीय कार्यसूचि में प्रतिदिन 20 लिखित सवाल पूछे जाते है। इन सवालों के लिए सांसदों को 21 दिन का नोटिस देना होता है। ताकि मंत्रालयों को जवाब तैयार करने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। संसद का पहला घंटा यानि 11 से 12 बजे प्रश्नकाल के लिए होता है। इसमें लगभग 20 मौखिक सवाल पूछे जाते है। इसका निर्धारण लौटरी द्धारा किया जाता है। जिस सांसद ने सवाल के लिए नोटिस भेजा होता है उसे एक सवाल और एक अनुपूरक यानि कुल दो सवाल पूछने का मौका दिया जाता है। और बाकि सासंदों के एक- एक सवाल पूछने का मौका दिया जाता है। इसके लिए बकायदा उन्हें नोटिस देना होता है। साल में सदन के तीन सत्र होते हैं। बजट सत्र मानूसून सत्र और शीतकालिन सत्र  पहला और सबसे महत्वपूर्ण बजट सत्र। इसे दो भागो में बांटा गया है। दरअसल सभी मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर मंत्रालयों से जुड़ी स्थाई समिति विचार करती है। तब जाकर सदन इन मांगों पर विचार कर इन्हें पारित करता है। इसलिए इसे दो चरणों में विभाजित किया गया है। सदन सोमवार से शुक्रवार तक चलता है। यानि कुल सप्ताह में पांच दिन। इस लिहाज से प्रतिदिन मंत्रालयों को सवालों के जवाब देने के लिए बांटा गया है। यानि विभिन्न मंत्रालयों को दिन के हिसाब से बांट दिया गया है। आइये जानते है संसदीय कार्य का सबसे रोचक और महत्वपूर्ण घंटे के बारे में। साथ की किस दिन किस मंत्रालयों को अपने सवालों के जवाब देने होते हैं।
सोमवार को वाणिज्य और उद्योग, रक्षा, पर्यावरण और वन, श्रम और रोजगार, सड़क परिवहन और राजमार्ग,पोत परिवहन, सामाजिक न्याय और अधिकारिता, इस्पात, और वस्त्र मंत्रालय को सवालों के जवाब देने होते हैं।

मंगलवार को कृषि, उपभोक्ता मामले खाद्य और सार्वजनिक वितरण, संस्कृति, उत्तर-पूर्व क्षेत्र विकास, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, गृह, आवास और शहरी गरीबी उपशमन, सूचना और प्रसारण, शहरी विकास, युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय को सांसदों के सवालों से जूझना होता है।

 बुधवार को प्रधानमंत्री, परमाणु ऊर्जा, नागर विमानन, कोयला, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी, विदेश, मानव संसाधन विकास, प्रवासी भारतीय कार्य, कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन, योजना और  अंतरिक्ष मंत्रालय को सवालों से दो चार होना पड़ता है।

गुरूवार को रसायन और उर्वरक, कार्पोरेट कार्य, पेयजल और स्वच्छता, पृथ्वी विज्ञाान, भारी उद्योग और लोक उद्यम, विधि और न्याय, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम, अल्पसंख्यक कार्य,  संसदीय कार्य, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, रेल, ग्रामीण विकास, विज्ञाान और प्रौद्योगिकी, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन और जल संसाधन मंत्रालय को संासदों द्धारा उठाये गए सवालों पर पसीना बहाना पड़ता है।

शुक्रवार को वित्त, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, खान, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा, पंचायती राज, विद्युत, पर्यटन, जनजातीय कार्य, महिला और बाल विकास मंत्रालय की बारी होती है। इस तरह सप्ताह में पांच दिन सांसदों के तीखे सवालों से मंत्रियों को दो चार होना पड़ता है।

आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना


आजादी के 65वें वर्ष में यह देश प्रवेश कर रहा है। ऐसे में प्रसिद्ध कवि गिरिजाकुमार माथुर की ये पंक्तियां अनायास ही मेरे स्मृति पटल में हिलोरे मारने लगीं हैं।

आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना
खुले देश के द्धार अचल दीपक समान रहना।
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का, है मंजिल का छोर
इस जन- मंथन से उठ आई, पहली रत्न हिलोर
अभी षेष है पूरी होना, जीवन मुक्ता डोर
क्यांकि नहीं मिट पाई दुख की विगत सांवली कोर
ले युग की पतवार बने, अंबुधि महान रहना
आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना।

विषम श्रंखलाएं टूटी है, खुल समस्त दिशाएं
आज प्रभंजन बनकर चलती, युग बंदिनी हवाएं
प्रश्नचिन्ह बन खड़ी हो गई, यह सिमटी सिमाएं
आज पुराने सिंहासन की, टूट रही प्रतिमाएं
उठता है तूफान इंदु, तुम दिप्तिमान रहना
आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना


उंची हुई मशाल हमारी, आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया लेकिन, उसकी छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज, कमजोर हमारा घर है
किंतु आ रही नई जिंदगी, यह विश्वास अमर है
जनगंगा में ज्वार लहर, तुम प्रवहमान रहना
आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना।

आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना


आजादी के 65वें वर्ष में यह देष प्रवेश कर रहा है। ऐसे में प्रसिद्ध कवि गिरिजाकुमार माथुर की ये पंक्तियां अनायास ही मेरे स्मृति पटल में हिलोरे मारने लगीं हैं।

आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना
खुले देश के द्धार अचल दीपक समान रहना।
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का, है मंजिल का छोर
इस जन- मंथन से उठ आई, पहली रत्न हिलोर
अभी षेष है पूरी होना, जीवन मुक्ता डोर
क्यांकि नहीं मिट पाई दुख की विगत सांवली कोर
ले युग की पतवार बने, अंबुधि महान रहना
आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना।

विषम श्रंखलाएं टूटी है, खुल समस्त दिशाएं
आज प्रभंजन बनकर चलती, युग बंदिनी हवाएं
प्रश्नचिन्ह बन खड़ी हो गई, यह सिमटी सिमाएं
आज पुराने सिंहासन की, टूट रही प्रतिमाएं
उठता है तूफान इंदु, तुम दिप्तिमान रहना
आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना।

उंची हुई मशाल हमारी, आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया लेकिन, उसकी छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज, कमजोर हमारा घर है
किंतु आ रही नई जिंदगी, यह विश्वास अमर है
जनगंगा में ज्वार लहर, तुम प्रवहमान रहना
आज जीत के रात पहरूए सावधान रहना।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

उर्जा की कमी

उर्जा खपत के हिसाब से भारत दुनिया का पांचवा देश है। कुल खपत का 3.4 फीसदी भारत करता है। जानकारों की माने क 2030 तक भारत जापान और रूस को पीछ छोड़कर तीसरे स्थान पर काबिज हो जाएगा। भारत की उभरती अर्थव्यवस्था के लिए उर्जा एक बहुत बड़ी जरूरत है। खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद ने देश की तेजी से बढ़ती विकास दर में सबसे बड़ी बांधा उर्जा की कमी को बताया है। भारत आने वाले सालों में दहाई विकास दर का सपना पाल रहा है । मगर इसके लिए जरूरी होगा बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाए। आइये एक नजर डालते है कि भारत में उर्जा की मौजूदा स्थिति क्या है। उर्जा क्षेत्र का बड़ा भाग कोयले से निकलने वाली बिजली पर निर्भर है। यह कुल उत्पादन का 75 फीसदी है। इसके अलावा 21 फीसदी उत्पादन में जलविद्युत क्षेत्र से करते है। और बाकि बची परमाणु क्षेत्र से आती है। इस समय सामान्य अवधि में मांग और आपूर्ति में अन्तर 10 फीसदी है। जबकि पीक आवर में यह 12.7 फीसदी है। आज उर्जा विकास दर 10 प्रतिशत से बड़ रही है जबकि कोयले का उत्पादन 5 से 6 फीसदी के दर से बड़ रहा है। 11वीं पंचवर्षिय योजना में सरकार ने 78700 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा था उसे बाद में 62374 मेगावाट कर दिया गया। इसमें ताप उर्जा का लक्ष्य 59693 मेगावट से घटाकर 50757 मेगावाट जबकि पनबिजली के लक्ष्य 15627 से घटाकर 8237 मेगावाट कर दिया है। बहरहाल 12वीं पंचवर्षिय योजना में बिजली उत्पादन का लक्ष्य 80 हजार मेगावाट रखा गया है। यहां जानना जरूरी है कि उर्जा समवर्ती सूची में आता है और लिहाजा राज्यों को अपने उत्पादन में ध्यान देना होगा। परमाणु बिजली के उत्पादन के लक्ष्य को छोड़कर ताप और पनबिजली से उत्पन्न बिजली के लक्ष्य में बदलाव किया है।जून 2011 तक हम 37971 मेगावाट बिजली उत्पादन कर पाये है। बहरहाल सरकार का लक्ष्य उर्जा कानून 2003 के तहत 2012 तक हर घर में बिजली मुहैया कराना है।

जमीन अधिग्रहण और पुर्नवास विधेयक 2011

जमीन अधिग्रहण और पुर्नवास विधेयक 2011 को लेकर सरकार ने जनता से सुझाव मांगे है। सरकार का जो नया प्रारूप सामने आया है उससे उम्मीद जरूर बंधती है। बहरहाल यह तेजी तब आई जब न्यायपालिका अधिग्रहण के तौर तरीकों को लेकर सख्त हुई। जिसका ताजा उदाहरण है नोएडा एक्सटेंषन । मौजूदा प्रारूप के मुताबिक सरकार तीन फसली या सिंचित जमीन का अधिग्रहण नही करेगी। इमरजेंसी क्लाज का इस्तेमाल दुर्लभ से दुर्लभतम स्थिति में किया जाएगा। 80 फीसदी किसानों की रजामंदी के बाद ही सरकार निजि करोबारियो के लिए जमीन अधिग्रहण करेगी। इसके लिए शहरी हलाकों में मुआवजे की रकम जमीन के बजार भाव से दुगनी होगी जबकि ग्रामीण इलाकों में यह रकम 6 गुना होगी। साथ ही इस प्रारूप में पुर्नवास से जुड़े कई प्रावधान जोड़े गए हैं। मसलन जमीन मालिकों के लिए रोजगार का प्रावधान। ऐसे लोग जिनकि आजीविका उक्त जमीन पर टिकी है। ऐसे परिवारों के 20 साल तक 2000 रूपये दिए जाने का प्रावधान है। अगर अधिग्रहण शहरीकरण के लिए किया गया है तो 20 फीसदी विकसित जमीन जमीन मालिक को वापस दी जाएगी। प्रारूप में यह भी कहा गया है कि आदिवासी समुदाय ज्यादा मुआवजे के हकदार होंगे। अगर 100 एकड़ से ज्यादा जमीन अधिग्रहित की जायेगी तो इसका सामजिक प्रभाव आंकलन करना जरूरी होगा। किसान की शिकायतांे के निपटान के लिए प्राधिकरण का गठन जैसे तमाम बदलावों की बात कही जा रही है। यह इसलिए भी जरूरी है कि किसान का जमीन से पेट के अलावा भावानात्मक और सांस्कृतिक रिश्ता भी है। फिर देश  में सिंगुर और नोएडा एक्टेंषन जैसे घटनाक्रम दुबारा न हेा इसके लिए 117 साल पुराने कानून के स्वरूप को बदले जाने की सख्त दरकार है।

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

बढ़ता तापमान


जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना के तहत 8 मिशन
बनाए गए हैं।
राष्ट्रीय सौर उर्जा मिशन
राष्ट्रीय सवंर्धित उर्जा बचत मिशन
राष्ट्रीय सतत आवास मिशन 
राष्ट्रीय जल मिशन  
राष्ट्रीय हिमालय मिशन 
राष्ट्रीय हरित मिशन  
राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन 
राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन ज्ञान मिशन 

हाईटेक हिन्दी


हिन्दी आज बाजार में अपना दबदबा कायम कर रही है। चैकिये मत, यह बात सौ आने सच है। सूचना तकनीक के फैलते संसार में इस भाषा ने भी अपना नाम दर्ज करा दिया है। हाल ही में इंटरनेट सर्च इंजन गूगल ने गूगल ट्रांसलेट नामक अनुवाद सेवा की शुरूआत कर इसकी तस्दीक कर दी है। दरअसल भारत में आबादी का एक बडा हिस्सा हिन्दी लिखता और बोलता है। मतलब साफ है कि उन तक पहुंच  बनाने का रास्ता उनके ही दिल से होकर गुजरता है और दिल में राज भाषा से होकर गुजरता है। हिन्दी आज सूचना, मनोरंजन और संचार से जुडे लगभग सभी क्षेत्रों में मजबूती से पैर जमाए है। इंटरनेट के रूप में सूचना प्रौद्योगिकी का एक विराट रूप सामने आया है। इससे मानों सूचना तंत्र मानव की मुठ्ठी में आ गया है। हिन्दी में काम करने हेतु आज बाजार में कई साफ्टवेयर उपलब्ध है। विंडोज का संस्करण हिन्दी में निकालने के पीछे बिल गेट्स का मकसद भी शायद यही रहा होगा। प्रभासाक्षी, वेबदुनिया, बीबीसी हिन्दी, जोश 18 डांटकाम और दैनिक जागरण जैसे हिन्दी पोर्टल को देखने वाले दर्शकों की आज अच्छी खासी तादाद है। ईमेल, एसएमएस और चैट की सुविधाऐंदआज हिन्दी में उपलब्ध है। हाल ही दो अखबार समूह टाइम्स आफ इंण्डिया और बीजनेस स्टंडैण्र्ड ने अपने बिजनेस अखबार हिन्दी में प्रकाशित करने आरंभ कर दिये है। विद्यालयों के हिन्दी पाठयक्रम में भी जबरदस्त बदलाव आया है। सूचना प्रौद्योगिकी का संबंध सामाजिक विकास से है। विकास में सबसे बडी बांधा जागरूकता की कमी है। ऐसे में हिन्दी का सूचना प्रौघोगिकी में ज्यादा इस्तेमाल शहर और गांव के बीच बड़ती खाई को पांटने में भी मदद कर सकता है।

कृषि विकास दर

सरकार ने 11वी पंचवर्षिय योजना में कृषि क्षेत्र में 4 फीसदी विकास दर हासिल करने का लक्ष्य रखा था। इसके लिए बाकायदा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाघ सुरक्षा मिशन और राष्ट्रीय हाल्टीकल्चर मिशन जैसे भारी भरकम कार्यक्रमों की शुरूआत की गई। मगर इस क्षेत्र में कुछ बड़ा बदलाव देखने को नही मिला। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुताबिक 11वीं पंचवर्षिय येाजना में केवल 3 फीसदी विकास दर हासिल हो पायेगी। अच्छी खबर यह है कि इस वर्ष 241 मिलियन टन रिकार्ड तोड़ खाघन्न उत्पादन की संभावना है। जबकि 2020 तक यह मांग 280 मिलियन टन तक बढ़ जायेगी। इसके लिए जरूरी होगा प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में सुधार लाया जाए। उत्पादकता के मामले में विकसित देशों के मुकाबले हम काफी पीछे हैं। अगर 1997 से 2007 तक की बात की जाए तो खाघान्न उत्पादन की दर महज 1 फीसदी रही है। आज कृषि में सबसे बड़ी समस्या निवेश की कमी है। साथ ही किसानों को समय से बीज, उवर्रक, सस्ता ऋण और तकनीक नही पहुंच पा रही है। सवाल उठता है कि जिले में कृषि विज्ञान केन्द्र की मौजूदगी के बावजूद यह हालात क्यों हैं। बहरहाल  बजट 2011-12 में सरकार ने इसे क्षेत्र के लिए कई नई घोषणाऐं की है। इनमें प्रमुख है पूर्वी क्षेत्र में हरित क्रांति लाना, 60 हजार दलहन ग्रामों का एकीक्रत विकास, आयल पाम का संवर्धन, सब्जी समूह संबंधी कार्यक्रम, पोषक अनाज कार्यक्रम, राष्ट्रीय प्रोटीन सम्पूरण मिशन, त्वरित चारा विकास कार्यक्रम। इधर सरकार ने 12वीं पंचवर्षिय योजना में भी कृषि विकास दर का लक्ष्य 4 फीसदी रखने की बात कही है।