मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मानसून सत्र का लेखाजोखा



लगभग 26 दिन चला मानसून सत्र मंगलवार को अनिश्चित काल तक के लिए स्थगित कर दिया गया। यह 15वीं लोकसभा का पांचवा सत्र था। मानसून सत्र में कुल अवधि 136 घंटे 10 मिनट की रही, जिसमें से 45 घंटे हंगामें की भेंट चढ़ गए। हंगामें के चलते 11 दिन प्रश्नकाल नही चला। इस दौरान 18 विधेयक सभा पटल पर रखे गए। 20 विधेयकों को लोकसभा ने पारित किया जिनमें परमाणु दायित्व विधेयक 2010 और सांसदों के वेतन और भत्तों से जुड़े विधेयक भी शामिल है। सदन में कुल 460 तारांकित सवाल पूछे गए जिनमें से केवल 46 प्रश्नों का मौखिक जवाब मिला यानि प्रतिदिन 1.91 फीसदी। इसके अलावा 5283 अतारांकित प्रश्नों के जवाब सदन पटल पर रखे गए। मौजूदा वित्त वर्ष के लिए अनुदानों की अनुपूरक मांगों पर सामान्य रेलवे और झारखण्ड पर चर्चा हुई और ध्वनिमत से इसे पारित कर दिया। देश भर में उर्वरकों की उपलब्धता पर आधे घंटे की चर्चा हुई। लोकमहत्व के 314 मुददे सांसदों ने उठाये। 276 मामलों को नियम 377 के तहत सासन्दों ने उठाया। विभिन्न मन्त्रालयों से सम्बन्धित स्थाई समितियों की 45 प्रतिवेदन सभा पटल पर रखे गए। इसके अलावा निम्नलिखित लोकमहत्व से जुड़े मुददों पर नियम 193 के तहत चर्चा हुई।
राष्मण्डल खेलों के निर्माण में हो रही देरी।
भोपाल गैस त्रासदी।
देश भर में बाढ़ से उत्पन्न स्थिति।
अनूसूचित जाति और जनजाति पर अत्याचार।

अल्पावधी चर्चा के दौरान गैर कानूनी खनन और जम्मू और कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई। इसके अलावा पहली बार संसदीय इतिहास में नियम 342 के तहत अर्थव्यवस्था पर मुद्रािस्फति का दबाव व इसका आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभाव पर चर्चा हुई। इसके अलावा जनसंख्या को स्थिर रखने जैसे महत्वपूर्ण मददे पर जोरदार बहस देखने को मिली। ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के नीचे दिये गए मुददों पर माननीयों ने सरकार का ध्यान खींचा।
ऑनर किलिंग।
मणीपुर में नगा संगठनों द्धारा किए गए बन्द से उत्पन्न स्थिति।
श्रीलंका में तमिल विस्थापितों का पुर्नवास।
भोजपुरी और राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने।
भारतीय मछवारों पर श्रीलंका के नौसेना के बढ़ते हमले।
पीएयू-201 किस्म के 40 लाख टन चावल को खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम 2006 के चलते अस्वीकार किये जाने।
इतना ही नही मानसून सत्र में मन्त्रीयों से 57 वक्तव्य दिये। लोकसभा की कार्यवाही कई दिन देर रात तक चली। निजि विधेयकों की अगर बात की जाए तो इस सत्र में 25 निजि विधेयक सदन में लाए गए। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने माननीयों से दो टूक कहा कि लाखों बलिदान के बाद ही आज हम यहां बैठे है। लगातार संसद की कार्यवाही में गतिरोध पैदा करना खतरनाक है और भविष्य में इसके गम्भीर परिणाम होंगें। मगर लगता नही कि इसका असर सासन्दों पड़ पड़ेगा। दरअसल माननीयों को इस तरह के भाषणों को सुनने की आदद पड़ गई है। डर इस बात का है कि उनकी यह आदत लोकतन्त्र के लिए वाकई घातक है। क्योंक यह सबसे बड़ी पंचायत से लोगों की भारी अपेक्षाऐं जुड़ी होती हैं और जनप्रतिनिधयों को चाहिए वह इसका सम्मान करें।

रविवार, 29 अगस्त 2010

क्रिकेट के कलंक

क्रिकेट एक बार फिर शर्मशार है। एक स्थानिय अखबार न्यूज ऑफ द वल्र्ड के खुलासे में पाकिस्तानी क्रिकेटरों पर फििक्ंसग का अरोप लगा है। पाकिस्तान को लॉड्र्स में इंग्लैण्ड के खिलाफ करारी हार का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान यह मैच एक पारी और 235 रन से हार गया जो उसकी अब तक की सबसे बडी हार है। स्कॉटलैण्ड पुलिस ने जिस सटोरिये को गिरफतार किया है उसका नाम मजहर माजिद है। यह पाकिस्तान का रहने वाला है। स्थानिय अखबार के संवादाता द्धारा किये गए स्टिंग आपरेशन में माजिद मैच फििक्ंसग के बारे में बात कर रहा है। यानि मैच से पहले स्पाट फििक्ंसग हुई कि कौन सी गेन्द नो बॉल फेंकनी है। बहरहाल इस पूरे प्रकरण में जांच चल रही है। माजिद के बारे में कहा गया है कि पाकिस्तान मूल का लन्दन निवासी यह व्यक्ति कई पाकिस्तानी खिलाड़ियों का गहरा दोस्त है। बहरहाल क्रिकेट को कलंकित करने वाले इन क्रिकेटरों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने से कुछ नही होगा। आइसीसी को कोई कठोर कदम उठाना होंगें। यह पहला मौका नही जब किसी खिलाड़ी पर मैच फििक्ंसग का अरोप लगा है। 1993 में वसीम अकरम पर आरोप लगा कि उन्होनें तेंज गेन्दबाज अताउर रहमान को लचर प्रदशZन करने के लिए एक लाख रूपये की पेशकश की। बाद में उन्हें इस घटनाक्रम के चलते अपनी कप्तानी गंवानी पड़ी थी। 1994 में कप्तान सलीम मलिक पर भी मैच फििक्ंसग के चलते आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया। साल 2000 कमसे से कम भारतीयों के लिए एक सदमा था। दक्षिण अफि्रका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोनिए के खुलासे ने पूरी दुनिया में हड़कंप मचा दिया। इस घटनाक्रम में अजय जडेजा और मोहम्मद अजरूदीन के भी नाम सामने आए। इतना ही नही पाकिस्तान के लेग स्पीनर दानिश कनेरिया और कामरान अकमल पर भी यह आरोप लगे। इससे बता चलता है कि सटोरिया की खिलाड़ियों के बीच जबरदस्त घुसपैठ है। खासकर पाकिस्तानी टीम पर आए दिन किसी न किसी विवाद में छाई रहती है। आखिर कब तक आइसीसी पाकिस्तान की टीम पर चुप्पी साधे बैठा रहेगा। उसके खिलड़ियों पर आए दिन आरोप लगते रहते है। पाकिस्तान के पूर्व कोच बॉब वूल्मर की हत्या का क्या राज था। श्रीलंकाई टीम पर जानलेवा हमला किसकी साजिश का नतीजा था। पाकिस्तानी गेन्दबाज आए दिन खेल के दौरान गेन्द से खिलवाड़ करते है। कहते है की शरीर का अगर कोई अंग खराब हो जाए तो उसे काट दिया जाता है। आज क्रिकेट कुछ लोंगों की वजह से कलंकित है खासकर पाकिस्तान। लिहाज क्रिकेट की गरिमा के बनाए रखने के लिए पाकिस्तानी क्रिकेटरों पर प्रतिबंध लगाना न सिर्फ  आवश्यक है बल्कि इस टीम को वल्र्डकप से भी बहार का रास्ता दिखा देना चाहिए।

रविवार, 22 अगस्त 2010

इस देश में करोड़ों नत्था हैं

एक नही, दो नही, इस देश में करोड़ों नत्था है। क्या हुआ जो पीपली लाइव का नत्था नही मरा। इस देश में 1997-2007 यानि 10 सालों में 187000 नत्था अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके है। यह तो सरकारी रिकार्ड में दर्ज नत्थाओं के आंकड़े है। ऐसे न जाने कितने नत्था होंगे जिनका नाम सरकारी फाइलों में नही होगा। दरअसल राजनीति और मीडिया के लिए नत्था जैसा मसाला संजीवनी की तरह होता है। एक पक्ष अपने वोट बढ़ने की आस को लेकर आनन्दित होता है तो दूसरा अपनी टीआरपी के खेल में मशगूल। नत्था की कहानी उन करोड़ों किसानों की कहानी है जो हर पल अपनी जिन्दगी को लेकर संघषर्रत है। यही कारण है कि पीपली लाइव फिल्म इन दिनों हर आमोखास के बीच चर्चा का विषय बन गई है। खासकर इससे जुड़े पात्र इसकी कहानी, बेहतर परिकल्पना ठेठ ग्रामीण परिवेश और इन सबसे उपर दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में राजनीति का खेल वाकई देखने लायक है। इन सबके बीच वह किसान जो अपनी खेती से अजीज आकर विकल्प की तलाश में भटक रहा है।   किसानों की दुर्दशा पर फिल्माई गई यह फिल्म इस संवेदनशील मुददे पर सरकारी रूख की पोल खोलती है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं ने सरकारों की नीन्द जरूर खुली मगर किसानों की आत्महत्या अब भी हो रही है। फिल्म से पहले यह जान लेना जरूरी है कि हमारी सरकार इस क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए कितनी गम्भीर हैं। किसानों की आत्महत्या के मामले में कुख्यात राज्यों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल आगे रहे। इन सबके पीछे का कारण किसानों पर कर्ज का बड़ता बोझ था। आज भी हमारे देश में केवल 27 प्रतिशत किसानों की पहुंच बैंकों तक है। इससे साफ है कि किसानों की एक बड़ी आबादी आज भी साहूकारों से कर्ज लेती है। सरकार की 71 हजार करोड़ की कर्ज माफी योजना पर सबसे बड़ी आशंका इसी मुददे को लेकर थी। बहरहाल सरकार ने एक समिति गठित की है जो पता लगाएगी कि देश भर में कितने किसानों ने साहूकारों से कर्ज ले रखा है। बजट 2010-11 में कृषि ऋण बांटने का लक्ष्य 3.25 करोड़ से बढ़ाकर 3.75 करोड़ कर दिया है। साथ ही जो किसान समय से अपने ऋण बैंकों में चुकायेंगे उन्हें 2 प्रतिशत ब्याज दर की छूठ दी जायेगी। यह ऋण 7 प्रतिशत की ब्याज दर में 3 लाख तक लिया जा सकता है। यहां पर यह भी बताना जरूरी है कि खेती में सुधार पर बैठाये गए राष्ट्रीय  किसान आयोग ने कृषि ऋण 4 प्रतिशत की दर पर देने की सिफारिश की थी।  पीपली लाइव में कर्ज के बोझ तले दबे नत्था को अपनी जमीन खो जाने की चिन्ता में वह दरदर भटक रहा होता है। वह जमीन जिससे उसके परिवार की रोजी रोटी चलती है। घर में बूढ़ी मां बीमार है। उसके इलाज में पहले ही बहुत खर्च हो चुका है। उस पर जमीन का चले जाने का मतलब जीवन में हर तरफ अंधेरा आ जाना। फिल्म मे जो काबिलेगौर बात इस मुश्किल घड़ी में मद्यपान करना वह नही भूलता। जाहिर है यह सामाजिक  बुराई भी कोढ़ में खाज का काम करती है। किसान देश की राजनीति में अहम स्थान रखते है। एक आम आदमी की नज़र में वह अन्नदाता है। नेताओं की नज़र में वह वोट काटने की मशीन है। मगर सच मानिए उसकी खुद की नज़र में वह हाण्ड मांस का एक ऐसा इंसान है जो दिन रात खून पसीना एक करके भी परिवार की जरूरतों को पूरा नही कर पाता। मीडिया के लिए नत्था की खबर एक मसाला है जो हाथों हाथ बिकेगा। बस उसे सनसनी की तरह पेश करो और टीआरपी की सीढ़ी चड़ो। किसान वह भी कहकर आत्हत्या करे राजनेताओं के लिए इससे बड़ा कोई मुददा नही। यह मुददा जीत को हार में और हार को जीत में बदल सकता है। यानि जीत और हार के बीच एक महीन रेखा जो नत्था जैसे किसान के जीने या मरने पर निर्भर करती है। इस फिल्म का सन्देश यही है कि मीडिया को जिम्मेदार और नेताओं को वफादार बनना होगा। यह देश किसानों का है। खाद्य सुरक्षा का जिम्मा उनके कंधों पर है। लिहाजा उनके कल्याण के बिना देश के कल्याण के बारे में सोचना बेमानी होगी।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

बाल मजदूरी का दंश

बाल मजदूरी के खिलाफ 1986 में कानून पारित होने के बाद भी आज भी बाल श्रमिक बडे पैमाने पर मौजूद है। सरकार आंकडों के मुताबिक आज इनकी संख्या 90 लाख 75 हजार के आसपास है। जिसमें से उत्तर प्रदेश 2074000 और आंध्रप्रदेश में 1201000 बच्चे आज भी बालमजदूर हैं। अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा बाल मजदूर कृषि क्षेत्र में काम करते है। इसके अलावा 60 हजार बच्चे ग्लास और चूड़ी उद्योग में, 2 लाख माचिस बनाने के कारोबार में, 4.20 लाख कारपेट उद्योग और 50 हजार ताले बनाने के काम में जुड़े हुए है। एक बड़ी तादाद घरेलू नौकरों के तौर पर भी बच्चों की है। बालश्रम का अर्थशास्त्र बिलकुल सीधा है। कानून बनने के बाद भी लोग इनका शोषण करते है तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण इनका सस्ते में मिलना है। दूसरा आप जितना मर्जी इनसे काम करवा सकते है। परिवार गरीब है लिहाजा रोजी रोटी का इन्ताजाम करने की जिम्मेदारी इनके कोमल जीवन को कठोर बना रही है। आज सरकार शिक्षा का कानून अमल में ला चुकी है, मगर जब तक भारत का भविष्य रोटी की तलाश में इस तरह काम का बोझ उठायेगा तक तक विकसित भारत का सपना देखना बेमानी है। बाल श्रम से इस देश को मुक्ति दिलाने में हर एक आदमी बड़चड़कर हिस्सेदार बन सकता है। केवल सरकार के भरोसे सबकुछ छोड़ने से कुछ नही होने वाला। सरकार का प्रर्दशन क्या रहा है। 2001 की जनगणना के मुताबिक बाल श्रमिकों की देश में तादाद 1.26 करोड़ थी। भारत सरकार आज 22 राज्यों के 266 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना चला रही है। मगर इसका कोई खास असर जमीन पर देखने को नही मिल रहा है। आज जरूरत है ऐसे लोगों के खिलाफ कठोर कारवाई करने की जिसने मासूमियत के धन की महत्वकांक्षा के चलते जमीन के तले दबा दिया है। लिहाजा हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि इन बच्चों को हरसम्भव तैयार करें ताकि राष्ट्र निर्माण में इनका योगदान भी मिल सके।

बढ़ती युवा पीढ़ी और रोजगार

श्रम और रोजगार मन्त्रालय भारत की एक बड़ी आबादी को ध्यान में रखकर अपनी नीतियां बनाता है। देश का असंगठित क्षेत्र मतलब 39 करोड़ से ज्यादा लोग इस मन्त्रालय के अधीन आता है। जिसके लिए सरकार 2008 में सामाजिक सुरक्षा विधेयक भी लेकर आई है। असंगठित क्षेत्र की स्थिति पर एक नज़र डालें तो मालूम चलता है कि लोग इसमें कितनी तादाद में किन कामों में लगे हुए है। मसलन 62 फीसदी खेती में, 16 फीसदी वेतन भोगी, 11 फीसदी उद्योगों से जुड़े है। एक दूसरा आंकड़ा यह कहता है कि देश में ज्यादातर आबादी यानि 53 फीसदी स्वरोजगार पर निर्भर है। असंगठित क्षेत्र में महिलाओं की तादाद पुरूषों से ज्यादा है। मन्त्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार के लिहाज से सालाना  2.5 फीसदी रोजगार में वृद्धि होनी चाहिए। मगर इसके लिए जरूरी है सालाना 9 फीसदी की विकास दर। सरकार ने हर साल 1 करोड़ 20 लाख के रोजगार सृजन का लक्ष्य रखा है। गौरतलब है कि 2001 में 15 से 59 वर्ष की आयु के कामगारों का प्रतिशत 58 फीसदी था जो 2021 में चलकर 64 फीसदी हो जायेगा। लिहाजा मन्त्रालय के सामने एक बड़ी आबादी के लिए रोजगार पैदा करने की चुनौति होगी। इतना ही नही 2020 में हर भारतीय की औसत उम्र 29 साल होगी जबकि चीन और अमेरिका में 37 जबकि जापान की बात करें तो यह होगी 48 साल। यानि भारत कहलायेगा विश्व का सबसे युवा प्रदेश। श्रम मन्त्रालय के सामने दूसरी बड़ी चुनौति 2022 में 50 करोड़ कामगारों को दक्ष बनना, जिसके लिए सरकार राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद बनाने की घोषणा कर चुकी है। वह भी इस बात को ध्यान में रखकर की 97 फीसदी कामगारों के पास कोई तकनीकी शिक्षा उपलब्घ नही है। देखना दिलचस्प यह होगा कि क्या सरकार अपने इन लक्ष्यों को पूरा कर पाती है।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सांसदों के वेतन में बढोत्तरी कितनी जायज


पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने कार्यकाल की आखिरी प्रेस वार्ता में एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होनें कहा भारत कई मायनों में अलग हैं। क्योंकि यहां सांसद अपना वेतन खुद तय करते है। न्यायपालिका में जज ही जज की नियुक्ति करता है। और यहां की संसद विश्व की अकेली ऐसी संसद है जो अपना चैनल चलाती है। संयुक्त समिति ने सिफारिश की है कि सांसद के वेतन मासिक 16 हजार से बड़ाकर 80 हजार एक रूपया कर दिया जाए। यह इसलिए ताकि सासन्द को केन्द्र सरकार के सचिव से 1 रूपये बड़कर मिल सके। यानि पूरी 5000 फीसदी की बढ़ोत्तरी। मगर कैबिनेट में मौजूद कई मन्त्रीयों के यह सिफारिश गले नही उतरी जिसके बाद इसे 50 हजार मासिक करने को हरि झण्डी दे दी गई। बस यही बात सांसदों को नागवार गुजरी और संसद में हंगामा शुरू हो गया। सांसद संसद की संयुक्त समिति की सिफारिश को लागू करने पर अड़े है। वही सरकार इस पसोपेश में है कि महंगाई और प्राकृतिक आपदा के इस माहौल में इस तरह का कदम जनता में एक गलत सन्देश भेजेगा। मगर अब लगता नही की सांसद सरकार की सुनेंगे। आखिरकार महंगाई डायन ने उनको भी तो परेशान कर रखा है। सांसदों को  वेतन बढोत्तरी के साथ साथ कार्यालय खर्च 20 से 40हजार कर दिया गया है। संसदीय भत्ते को भी दुगुना कर दिया गया है यानि पहले के 20 से 40 हजार। सांसद बिना ब्याज के निजि गाड़ी खरीदने के लिए 4 लाख तक का लोन ले सकेंगे जिसकी राशि पहले 1 लाख थी। पेंशन राशि भी 8 से बड़ाकर 20 हजार कर दी है। सदन चलने के दौरान  सांसदों को 2 हजार रूपये मिलेंगे। पहले यह राशि 1 हजार थी। इसके अलावा सासन्द महोदय की पित्न ट्रेन की प्रथम श्रेणी और हवाई सफर में एक्जक्यूटिव श्रेणी में सफर कर सकती हैं। इन सब बातों केा अमल में में लाने के लिए सरकार को सांसदों के वेतन और भत्ते सम्बन्धी संसदीय कानून 1954 में संशोधन करना पड़ेगा। इसके अलावा सांसदों को टेलीफोन, अवास, सस्ता भोजन और क्लब सदस्यता जैसी सुविधाऐं भी प्राप्त है। इस पूरी कवायद से सरकार के खजाने में तकरीबन 142 करोड़ का सालाना बोझ पडे़गा।  वेतन बढोत्तरी की जरूरत पर बल देते हुए एक सांसद मजाक में कहते है कि जितना मासिक वेतन मिलता है उससे ज्यादा तो संसदीय क्षेत्र के लोगों की चाय पानी में खर्च हो जाता है। इन सब के बीच वामदलों का कहना है कि सांसदों को खुद के वेतन बढ़ोत्तरी पर इस तरह का रूख अिख्तयार नही करना चाहिए। इसके लिए एक वेतन आयोग की तर्ज पर आयोग बने जो इन सब मुददों पर विचार करे। सवाल उठता है कि वह कौन से कारण है जिसके मददेनज़र बढोत्तर जरूरी हो गई है। पहला, सांसदों के वेतन को आखिरी बार 2006 में बड़ाया गया था। इस बीच 6ठें वेतन आयोग की सिफारिश लागू हुई। दूसरा हिन्दुस्तान के सांसदों को दुनिया में सबसे कम वेतन दिया जाता है। जबकि अमेरिका का एक सांसद सालाना 174000 डालर अपने घर ले जाता है। तीसरा वर्तमान में राष्ट्रपति का वेतन 150000, उपराष्ट्रपति 125000, राज्यपाल 110000, सुप्रीम कोर्ट के जजों को 90000, हाइकोर्ट के जजों को 80000, कैबिनेट सचिव को 90000 और केन्द्र सरकार के सचिव को 80000 रूपये वेतन मिलता है। इस लिहाज से सांसदों का वेतन कुछ भी नही। चौथा सांसदों के भत्ते कई राज्यों के विधायकों से भी कम है। पांचवा कम वेतन के चलते भ्रष्टाचार को बड़ावा मिलता है। मसलन सवाल पूछने के एवज में पैसे लेने के मामला पहले ही इस देश के सामने आ चुका है। इन सब पहलुओं पर अगर विचार करें तो सांसदों की वेतन बढोत्तरी की मॉंग जायज लगती है।
मगर इसका दूसरा पहलु भी समझना जरूरी है। हमारी लोकसभा धनकुबेरों से भरी है। वही इनके राज्यों में गरीबों की भी संख्या कम नही। जहां 543 सांसदों में से 14वीं लोकसभा में 154 सांसद करोड़पति थे आज 15वीं लोकसभा में उनकी तादाद 315 है। अकेले कांग्रेस पार्टी में 137, बीजेपी में 58, सपा में 14 और बसपा में 13 सांसद करोड़पति है। करोड़पतियों की तादाद 58 है। एक नज़र राज्यवार धनकुबेरों पर और राज्यों की गरीबी पर जहां का ये सांसद प्रतिनिधित्व करते हैं। गौर करने की बात है गरीबी मापने का पैमाना गांव में 356 और शहरों में 538 रूपये प्रति व्यक्ति खर्च करने की क्षमता पर आधारित है।
राज्य      करोड़पति सांसद    गरीब जनता ( करोड़ों में )

उत्तरप्रदेश    52               32.5
आंध्रप्रदेश     37               28
कर्नाटक        51               25
बिहार          25               41.4
तमिलनाडू      17                22.5
मध्यप्रदेश       15                38.3  
गुजरात        12                16.8  
तीसरा और सबसे अहम पहलू यह है कि संसद में आए दिन होने वाले हंगामें से जनता परेशान हो चुकी है। गौर करने लायक बात यह है कि सदन को चलाने का एक दिन का खर्च 7.65 करोड़ रूपये है। मगर इस ओर किसी का ध्यान नही। मानसून सत्र में ही ज्यादातर समय हंगामें की भेंट चड़ चुका है। प्रश्नकाल आए दिन नही चल पाता। जबकि लोकसभा अध्यक्ष लगातार सदन को सुचारू रूप से चलाने की अपील करती रहती है। 1952-1961 के बीच लोकसभा 124 दिन चलती थी जिसका अंकड़ा 1992-2001 में 81 हो गया। सबसे ज्यादा खराब हालात तो 2008 में हुए जब लोकसभा महज 46 दिन चली। जबकि ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में आज भी सदन 140 से 150 दिन चलता है। आज देश की जनता देश की इस सबसे बडी पंचायत के प्रतिनिधियों से यह आशा करती है कि सदन का कामकाज सुचारू रूप से चले। सांसद संसदीय कार्यवाही को लेकर गम्भीर हो। कानून बिना चर्चा के पारित न हो पाये। प्रश्नकाल को हर कीमत पर चलने दिया जाए। पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में सालाना संसद और विधानसभाओ को 100 दिन चलाने का जो सहमति बनी है, उस पर अमल किया जाए।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

रोजगार गारंटी का सच



आज से लगभग 4 साल पहले देश भर में रोजगार यात्राऐं निकाली जा रही थी। गीत गाया जा रहा था। हमारे लिए काम नही, हमें काम चाहिए। इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए 2006 में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरूआत हुई। यह विश्व की अकेली ऐसी योजना है जो मांगने पर जरूरतमन्दों को रोजगार की गारंटी देती है। योजना का मकसद लोगों को गांव में ही काम मुहैया कराना है। गांव में न सिर्फ स्थाई परिसंपत्तियों का निर्माण हो बल्कि महिला और पुरूषों को समान मजदूरी मिल सके। बीते चार सालों में केन्द्र सरकार इस योजना पर भारी भरकम खर्चा कर रही है। काम का आवेदन करने पर 15 दिन में रोजगार देना अनिवार्य है। काम पूरा होने की तिथि से 15 दिन के भीतर मजदूरी देने का प्रावधान है। अगर मजदूरी समय पर नही मिलती तो मजदूरी मुआवजा अधिनियम 1936 के तहत मुआवजा देना होगा। मनरेगा योजना 16000 करोड़ के बजट के साथ शुरू हुई । आज यानि 2010-11 में इस योजना को 41100 करोड़ रूपये आवंटित किये है। यह मांग आधारित कार्यक्रम है लिहाजा सरकार को जरूरत पड़ने पर धन की उपलब्धता करवानी होगी। बीते तीन साल के औसत रोजगार के आंकड़ों पर अगर नज़र डाली जाए तो
साल                 औसत काम दिनों में 
2007-08               42
2008-09               48
2009-10               52    
इससे एक बात तो स्पष्ट है कानून बनने के चार साल के बाद में 100 दिन का रोजगार उपल्ब्ध कराने में आज भी हम नकामयाब रहे हैं। 11वीं पंचवषीZय योजना के अर्धवाषिZक समीक्षा में मनरेगा कार्यक्रम में क्रियान्यवयन में पिश्चम बंगाल का रिपोर्ट कार्ड सबसे खराब रहा है। पिश्चम बंगाल 28 दिन का ही औसल रोजगार उपलब्ध करा पाया है। जबकि काम मुहैया कराने का राष्ट्रीय औसत 48 दिन है। मगर 15 राज्य मसलन हिमांचल, महाराष्ट्र, हरियाणा, असम, मेघालय, तमिलनाडू जम्मू और कश्मीर, उत्तराखण्ड, उड़ीसा, कर्नाटक, पंजाब, पिश्चम बंगाल, बिहार, गुजरात और केरल जैसे राज्य सालाना 48 दिन का औसत रोजगार मुहैया कराने में नकामयाब रहे हैं। सालाना आधार में देश भर में कितने परिवारों को रोजगार मिला इन आंकड़ों पर अगर गौर करें तो
साल                कितने परिवारों को रोजगार मिला  करोड़ों में
2006-07             2.10
2007-08             3.39  
2008-09             4.51 
2009-10             5.06  
नरेगा के तहत 60 फीसदी न्यूनतम राशि मजदूरी के लिए खर्च करनी आवश्यक है। राज्यों ने इस बात का ध्यान रखा है कि योजना के मुताबिक  60 फीसदी न्यूनतम हिस्सा मजदूरी के तौर पर प्रदान करना है। एक नज़र राज्यवार मजदूरी के औसत आंकड़ों पर
साल                आवंटित राशि का मजदूरी पर खर्च
2006-07             66
2007-08             68  
2008-09             67 
2009-10             68
नरेगा के तहत कानून के मुताबिक 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना जरूरी है। मगर इस कार्य में ज्यादातर राज्यों का रिपोर्ट कार्ड निराश करने वाला है। 100 दिन रोजगार पाने वाले परिवारों की अगर बात की जाए को रोजगार गारंटी का सच खुद पर खुद सामने आ जायेगा। 2006-07 में 10.29 फीसदी, 2007-08 में 10.62 फीसदी, 2008-09 में 14.48 फीसदी और 2009-10 में 13.24 फीसदी परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिला पाया। अरूणांचल प्रदेश, नागालैण्ड, मणीपुर और मिजोरम जैसे राज्यों में किसी भी परिवार को 100 दिन का रोजगार नही मिल पाया। फरवरी 2006 से सितम्बर 2009 के बीच 79 लाख कार्य चलाए गए जिनमे केवल 31 लाख ही पूरे हो पाये जो पूरे काम का 39 फीसदी है। 2009-10 में 40.98 लाख काम चलाए गए जिनमें 67 फीसदी काम जल संरक्षण से जुड़े है।

महात्मा गांधी नरेगा में शिकायतों का अंबार है। यह बात दिगर है कि हमारी सरकारों के कानों तक कितनी शिकायतें पहुंच पाती है। जो शिकायतें आम है उनमें प्रमुख है जागरूकता का अभाव, समय से काम का न मिलना, मजदूरी का समय पर और पर्याप्त राशि का न मिलना, मस्टर रोल जैसे उचित रिकार्ड का ना रखा जाना, बैंक और पोस्ट आफिसों के बार बार चक्कर लगाना और योजना के तहज तैयार का की गुणवत्ता। सरकारी आंकड़़ों के लिहाज से बीते तीन सालों में 1331 शिकायतें सरकार के संज्ञान में आई जिसमें सबसे ज्यादा 419 उत्तर प्रदेश से 235 मध्य प्रदेश 180 राजस्थान 125 बिहार और 87 झारखण्ड से है।

महात्मा गंाधी नरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी में तमिलनाडू राज्य अव्वल रहा है। इस राज्य में मनरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी 79 फीसदी है जबकि 2008-09 साल में बिहार में 30 फीसदी झारखण्ड में 28 फीसदी और उत्तरप्रदेश में 18 फीसदी रही जो की कानून के प्रावधन जिसमें महिलाओं की न्यूनतम 33 फीसदी हिस्सेदारी होनी चाहिए से काफी नीचे है। नरेगा के तहत जारी किये जार्ब कार्ड की वैधानिकता 5 साल की होती है। पिछले साल सरकार के मजदूरी राशि को 100 रूपये तो कर दिया है मगर रोजगार की अवधि 100 दिन से ज्यादा करने पर हाथ खड़े कर दिये हैं। इसके पीछे सीधा सा तर्क है जब हम 100 दिन का रोजगार ही मुहैया नही कर पर रहे है तो काम के दिन बड़ाने से क्या फायदा। मनरेगा के काम का विस्तार किया गया है। इसके तहत सिंचाई सुविधा, बागवानी, पौंधा रोपण और वनीकरण जैसे कामों को लिया गया है। साथ ही इस बात पर जोर दिया गया है कि रोजगार देने में गरीब, अनुसूचित जाति, जनजाति को प्राथमिकता दी जाए। सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का फायदा नरेगा कामगारों को देने का रास्ता साफ कर दिया है

महात्मा गांधी रोजगार में सरकार हर स्तर पर निगरानी व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है। इसके लिए हर जिले पर एक लोकपाल नियुक्त करने के दिशानिर्देश जानी किये गए मगर पंजाब को छोड़कर अब तक किसी राज्य ने इस पर अमल नही किया। समाज के जागरूक लोगों का एक पैनल गठित करने की बात कही गई है। सोशल आडिट को आवश्यक कर दिया गया है। पंचायतों को अपनी भूमिका प्रमुखता से निभानी है। इस योजना को सफल बनाने में सांसदों का भी योगदान अहम हो सकता है। दरअसल जिला स्तर में निगरानी समिति का अध्यक्ष सासन्दों को बनाया गया है। बकायदा सालाना कितनी बैठकें राज्य वार होनी है या जिले वार होनी है इसके दिश निर्देश केन्द्र ने जानी कर रखें हैं। मसलन सालान आधार में 28 राज्यों में 112 बैठकें होनी चाहिए मगर 2006-07 में 35, 2007-08 में 36 और 2008-09 में 35 बैठकें भी हो पायी। हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, मिजोरम ,दादर और नागर हवेली में पिछले 2 सालों में एक भी बैठक नही हुई। वही 619 जिलों में कुल 2476 बैठकें होनी चाहिए। मगर 2006-07 में 619, 2007-08 में 912 और 2008-09 में 579 बैठकें ही हुई। इन बैठको की अध्यक्षता हमारे सासन्द महोदयों को करनी थी। इससे पता चलता है कि निगरानी व्यवस्था की स्तर क्या है। यहां सांसदों का यह भी कहना है कि महज अध्यक्ष बना दिया गया है उनके पास किसी तरह की कोई ताकत नही है।
महात्मा गांधी नरेगा एक ऐतिहासिक योजना है। इसके लिए ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा खर्च किया जा रहा है। मगर जरूरतमन्दों तक अभी भी योजना का सम्पूर्ण लाभ नही पहुंच पा रहा है। इसके लिए राज्य सरकारों को गम्भीरता से काम करना होगा। साथ ही केन्द्र सरकार को अच्छा प्रदशZन करने वाले राज्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए साथ ही खराब प्रदशZन करने वाले राज्यों पर जुर्माना लगाना चाहिए। सिर्फ पैसा बहाने से कुछ नही होगा । मनरेगा के तहत कराये जा रहे कार्यो की समीक्षा करनी होगी। योजना जरूरत ऐतिहासिक है मगर इसे बेहतर बनाने के लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करना पड़ेगा।

रविवार, 15 अगस्त 2010

ममता का मिशन लालगढ़



ममता बनर्जी का लालगढ़ दौरा विवादों से भरा रहा। नक्सली कमाण्डर आजाद पर दिया उनका बयान दूसरे दलों के नेताओं में बदहजमी पैदा कर गया और उसका असर संसद में दिखाया दिया। लगे हाथों बीजेपी ने सरकार खासकर प्रधानमन्त्री से स्पश्टीकरण की मांग कर डाली। किसी तरह यूपीए के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी बयान देकर मामले की आग को ठण्डा किया। ऐसा लग रहा है कि दूर सबेर ममता कांग्रेस के लिए ऐसी मुिश्कलें खड़ी करती रहेंगी। वह भी तब तक जबतक उनका मिशन बंगाल पूरा नही हो जाता। दरअसल ममता लालगढ़ को अपने कब्जे में करना चाहती है जो वामपन्थियों का मजबूत गड़ है। यहां बड़े पैमाने पर अनुसूचित जाति और जनजाती की जनसंख्या है जिसपर पूरी तरह वामपन्थियों का कब्जा है। मौजूदा समय में वामपन्थी नीतियों के खिलाफ चल रही हवा को वह और आग देना चाहती है ताकि इसकी तपिस कामरेडो के 33 साल के राज के अन्त में आखिरी कील साबित हो। पिश्चम बंगाल में कुल 292 विधानसभा सीटें है। जादुई आंकड़ा 147 का है यानि ममता के अपने मिशन को हकीकत में बदलना है तो 147 सीट तक पहुंचना होगा। इसमें से अकेले लालगढ़ में 41 और 6 लोकसभा सीटें है। 2009 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम इसमें पांच लोकसभा सीटें पुरूलिया, बांकुरा, झारग्राम, घाटल और मिदनापुर जीतेने में कामयाब रही। टीएमसी में खाते में केवल बीशनपुर सीट आई। जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में सभी 6 सीटें सीपीएम के पक्ष में थी। 2001 में जब टीएमसी और कांग्रेस ने गठबंधन में साथ मिलकर चुनाव लड़ा था तो उन्हें 41 में से महज़ 4 सीटों पर सन्तोश करना पड़ा। 2006 के विधानसभा चुनाव में दोनों साथ नही थे मगर कांग्रेस के खाते में 3 सीटें आई जबकि ममता के हाथ कुछ नही लगा। राजनीतिक जानकार ममता की लालगढ़ रैली के पीछे यही एक वजह मानते है।  लोकसभा चुनाव के हिसाब से ममता के पास इस समय 130 विधानसभा सीटें है। यानि पूर्ण बहुमत से 17 सीटें दूर। इन 17 सीटों की कसक ममता लालगढ़ से पूरी करना चाहती है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

मिशन 2020

क्या 2020 में भारत विकसित राष्ट्र बन पायेगा। 2020 तक का सफर तय करने में अब 10 साल से भी कम का फासला बचा है। आज भारत विश्व की तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था में से एक है। मगर चुनौतियां हर क्षेत्र में है। इन 10 सालों में भारत को विकास की एक नई इबारत लिखनी है। जिसका सपना हर भारतीय की ऑखों में है। आज भारत की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। कृषि क्षेत्र को हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, मगर विकल्प मिलने पर इसी खेती से किसान छुटकारा पाना चाहते है। देश खाघ सुरक्षा कानून पन चर्चा कर रहा है। मगर इसके लिए खेती को किसान के लिए फायदेमन्द बनाना जरूरी है। शिक्षा के अधिकार के कानून तो अमल में आ गया, मगर साक्षर भारत का सपना अभी कोसों दूर है। 80 फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र में निजि क्षेत्र का दबदबा है। खासकर गावों में डाक्टरों नसेZस और परामेडिकल स्टाफ का भारी कमी है। बुनियादी ढांचे को दुरूस्त करने मे तेजी लाने के साथ एक निश्चित समय सीमा तक सभी निर्माण कार्यो के लक्ष्य प्राप्त करने की जरूरत है। आतंरिक सुरक्षा के मददेनज़र आतंकवाद नक्सलवाद और उग्रवाद जैसी चुनौतिया आज मुंह बायें खड़ी है। भारत को न सिर्फ अपनी बड़ती आबादी के लिए रोटी का इन्तजाम करना है बल्कि जल संसाधन को बचाने के लिए भी कुछ नए प्रयास करने होंगे। सुधारों की राह में अब भी हम पीछे है। पुलिस, प्रशासनिक, चुनाव और न्यायिक सुधार में तेजी से आगे बड़ने की आवश्यकता है। सरकार समाजिक कल्याण को ध्यान में रखकर सैकडों योजनाऐं चला रही है मगर जरूरतमन्दों तक इनकी पहुंच उस पैमाने तक नही है जितनी होनी चाहिए। लिहाजा केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर इन मिश्कलों का समाधान ढूंढना होगा।

बुधवार, 4 अगस्त 2010

असंगठित क्षेत्र का फलसफा

2001 की जनगणना के मुताबिक देश में श्रमिकों की संख्या अनुमानित तौर पर 40.2 करोड़ हैं। इनमें 31.3 करोड मुख्य श्रमिक है और 8.9 करोड़ सीमान्त श्रमिक है।  राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में श्रमिकों की संख्या 39.49 करोड़ है जिसमें 36.9 करोड़ अर्थात कुल रोजगार का 93 फीसदी असंगठित क्षेत्र से आता है। असंगठित क्षेत्र से मतलब वे श्रमिक जो अस्थायी कार्य में संलग्न है। खेतिहर मजदूर रिक्शा चालक, निर्माण मजदूर, छोटे किसान, मछुआरे, घरेलू नौकर आदि। महत्वता इसी से समझी जा सकती है देश के सकल घरेलू उत्पादों के लगभग साठ प्रतिशत में असंगठित क्षेत्र का हाथ है। सिंचाई, बिजली परियोजनाऐं या विशाल भवनों का निर्माण शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां असंगठित श्रमिकों का श्रम न लगा हो। देर आये दुरूस्त आए की तर्ज पर भारत सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए असंगठित सेक्टर कामगार सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 को लोकसभा में पारित कर दिया। इस विधेयक से सरकार सबसे पहले 23 करोंड़ भूमिहीन मजदूरों को लाभ देगी। सरकार की योजना असंगठित क्षेत्र के जुड़े लोगों के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत 30 हजार प्रति परिवार तक का बीमा कवर देना है। श्रम मन्त्रालय के आंकड़ो के अनुसार कृशि क्षेत्र में स्त्री और पुरूषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अन्तर है। मगर महात्मा गांधी नरेगा के आने के बाद इसमें जबरदस्त सुधार आया है। बीड़ी मजदूरों के कल्याण के लिए आवंटन 21 हजार करोड़ से बढ़ाकर 43 हजार करोड़ करने की सिफारिश की है। असंगठित क्षेत्र से जुड़े विधेयक के तहत प्रत्येक राज्य और जिले में गैर संगठित श्रमिक कल्याण संघ का गठन किये जाने का प्रावधान है।