सोमवार, 30 दिसंबर 2013

झारखंड की बर्बादी का जिम्मेदार कौन?

झारखंड में मोदी ने लंबी चैड़ा भाषण दिया। लोगों से पूछा कि इतनी बड़ी खनजि संपदा के बावजूद यह राज्य
इतना पिछडा़ हुआ क्यों है? जवाब जनता से नही आया। मोदी के के मुखारबिन्दु से ही निकला। बीजेपी झारखंड में नही है। मगर मोदी जी यह भूल गए की बीते तेरह सालों में में साढ़े 8 साल में झारखंड में  बीजेपी ने राज किया ऐसे में बीजेपी अपनी जवाबदेही से कैसे बच सकती है। हर बात के लिए कांग्रेस के मथ्थे ठीकरा फोड़ना कितना उचित है? आखिर क्यों नही नरेन्द्र मोदी ने यह माना की बीजेपी से भी चूक हुई है। बीजेपी सरकार, शिबू सोरेन की सरकार या फिर निर्दलीय मधुकोड़ा की सरकार ने बस एक ही काम किया। झारखंड की लूट खसूट। मधुकोड़ा सबसे पहले बाबू लालू मरांडी सरकार मंे पंचायती राज मंत्री बनें। 2005 में बीजेपी ने इन्हे टिकट देने  से मना कर दिया तो कोड़ा जगन्नाथपुर से निर्दलीय जीत कर आए। मगर बीजेपी की सरकार ने इनसे समर्थन लेने में जरा भी देरी नही की। इसके बदले इन्हें खनिज भूगर्भिय और सहकारिता मंत्रालय दिया गया। बाद में मधुकोड़ा समेत दूसरे समर्थकों ने बीजेपी की सरकार गिरा दी। 14 सितंबर 2006 को कांग्रेस ने निर्दलीय मधुकोड़ा को मुख्यमंत्री बना दिया। उसके बाद मधुकोड़ा ने कांग्रेस के सरंक्षण में 23 महिने जमकर लूट घसूट मचाई। मगर झारखंड तबाह होता रहा। जहां कोयले और लौह अयस्क की खदानें है वहां बड़ी आबादी अंधरे में जी रही है।जहां इतनी बड़ी खरिज संपदा है वहां 69 लाख परिवारों में से 35 लाख परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहें हैं। 24 जिलों में से 19 नक्सलप्रभावित जिले हैं। यानि सरकार एक बड़ा हिस्सा कानून व्यवस्था पर खर्च करती है। इसके अलावा शिशु मुत्यु दर 41 फीसदी, मातृ मृत्यु दर प्रति लाख 261, टीकाकरण 64 फसदी, और साक्षरता दर 67.6 फीसदी जो राष्टीय औसत से बहुत नीचे हैं। 30 फीसदी क्षेत्रफल जंगल से घिरा हुआ है।प्रति व्यक्ति आय 30719 और देश की विकास दर में इस राज्य की भागीदारी 1.72 फीसदी है। झारखंड की आर्थिक हालात इतनी खराब हैं कि राज्य पर 34869 करोड़ का कर्ज है। उच्च शिक्षा में जीईआर 7.5 फीसदी है यानि 100 में से 7 लोग ही उच्च शिक्षा में दाखिला ले पातें हैं। 26 फीसदी आबादी आदिवासी समुदाय से है। केवल 7 फीसदी ग्रामीण आबादी के पास पाइप के जरिये पानी पहुंचता है। अस्पलात में प्रसव कराने का दर 45 फीसदी है। यानि सामाजिक सूचक इतने खराब है की शर्म आ जाए। बुनियादी ढांचे की भारी कमी है। गरीबी बड़े पैमाने पर है। कुषि क्षेत्र बहुत सीमित है। बुनियादी ढांचे के निर्माण में बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा लागत आती है। कुल मिलाकर इन तेरह साल के झारखंड के सफरनामें को देखें तो राज्य में सिर्फ और सिर्फ खुली लूट होती रही। इसके लिए क्षेत्रीय पार्टिया जितनी जिम्मेदार रही उससे कही ज्यादा जिम्मेदारी बीजेपी और कांग्रेस की है। 

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

बदलती राजनीति!

चुनाव सुधार का यह विषय आज सभी विषयों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है। इसी बुनियादी सुधार के लिए यह देश 4 दशक से इंतजार कर रहा है। मगर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में अनूठा प्रयोग करके यह साफ कर दिया है कि अगर राजनीतिक दल बदलाव नही करेंगे तो वह सुधार का बीड़ा खुद उठाऐंगे। इसमें सबसे जरूरी है चुनाव सुधार। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर हमेशा सहमति जताते हैं, मगर सही मायने में चुनाव सुधार को लेकर कोई भी राजनीतिक दल प्रतिबद्ध नही। देश में
राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट जैसे मुददों पर बहस की शुरूआत हुई है मगर लगता नही की इस संकेत को राजनीतिक दल समझ रहें हैं। क्या यह राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी नही हैं। कि राष्टीय पार्टियों को दरकिनार कर लोगों ने एक नई पार्टी पर भरोसा जताया है। यानि जनता बदलाव के लिए उत्सुक है। अगर ऐसा है  चुनाव सुधार करने का सही वक्त आ गया है। सोचिए एक लोकतंत्र में यह कैसे मान्य होगा कि गंभीर अपराधों में लिप्त व्यक्ति देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने का काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों से परहेज करें। हमारे देश में चुनाव सुधार पर बहस लगभग तीन दशक से ज्यादा पुरानी है। सरकार के पास सिफारिशों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मगर जनप्रतिनिधित्व काननू 1951 में बदलाव करने की जहमत किसी ने नही उठाई। सुधारों की वकालत हर दल की जुबां पर है, मगर सवाल यह की इसे धरातल पर उतारेगा कौन। जबकि इसके लिए अब तक आधा दर्जन से ज्यादा समितियों की सिफरिशें सरकार के पास मौजूद हैं। 1975 तारकुण्डे समिति, 1990 में दिनेष गोस्वामी समिति, 1993 एनएन वोहरा समिति और 2001 में इंद्रजीत गुप्ता  समिति का गठन चुनाव सुधार को उद्ेदश्य बनाकर किया गया था। इसके अलावा विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के साथ विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई
समिति की रिपोर्ट भी सरकार के पास मौजूद हैं। लगता है यह सिफारिशें आज भी सिर्फ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रही है। दरअसल चुनाव सुधार को  लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर जमीन में इसे लेकर कुछ नही हुआ। यही वजह है कि चुनाव सुधार से जुड़े मुददे आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक ही सिमट कर रह गए हैं। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते हैं। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी- कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है, मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं  सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। हालांकि चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को  छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। अगर आज हमें जनप्रतिनिधियों के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से ही संभव हो पाया।  वरना नेताओं की जमात को यह बर्दाश्त नही होता कि कोई उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्ति
के बारे में जाने। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर देष में बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया, मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौटा दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से काई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान था। वही लोकसभा में लाए गए एक निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है।  मगर वर्तमान में चुनौतियां जबरदस्त है। 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहते हैं कि अगर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में बदलाव नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब लोकसभा और विधानसभा में दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैसे लोगों के पहुंचने का गंभीर खतरा है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट ऐसे गंभीर आरोप तय करता है, जिसकी सजा 5 साल से ज्यादा है तो उसे चुनाव लड़ने के लिए अवैध करार दिया जाए। फिर उसके खिलाफ मामले में सुनवाई ही क्यों न चल रही है। दरअसल हमारे देश में जब तक कोर्ट किसी व्यक्ति को मुजरिम करार नही दे देता तब तक उसके चुनाव लड़ने में प्रतिबंध नही है। एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा बन बैठे हैं। आज जरूरत है कि हर कीमत पर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जाए। हमें विचार करना होगा की चुनावों में पैसों के बेताहाशा इस्तेमाल पर कैसे अंकुष लगे। आयाराम गयाराम की परंपरा को कैसे रोका जाए। पेड न्यूज के बड़ते चलन पर पर कैसे रोक लगे। एक व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो राजनीतिक दल उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं। क्या यह जनता के मत का अपमान नही है। एक व्यक्ति को एक ही जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विकल्प पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। हाल के दिनों में विधि
मंत्रालय ने चुनाव सुधार के कुछ छोटे मोटे सुधारों पर मुहर लगाई है। मगर जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आम सहमति बनाये और इसे लागू करे।

नक्सलवाद का समधान क्या!

मित्रों नक्सलवाद की समस्या और उसके समाधान को लेकर आज गंभीर मंथन की जरूरत है। देश के
लिए आज यह विषय इसलिए जरूरी है क्योंकि आन्तिरक सुरक्षा के लिए स्वयं प्रधानमंत्री ने कई मंचों से इसे सबसे बड़ी चनौती करार दे चुकें हैं। आप सभी के स्मरण में होगा होगा की पिछले साल मई में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के दौरान कांग्रेस के कई बड़े नेताओं की नक्सलवादियों ने हत्या कर दी। इससे पहले वह छत्तीसगढ़ के ही दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ के जवानों की हत्या कर दी। इससे जाहिर होता  है कि नक्सलियों के इरादे कितने खतरनाक है और क्या सरकार इसके लिए अपनी रणनीति में तब्दीली ला रही है। बहरहाल सरकार दो स्तरीय रणनीति पर काम कर रही है। पहला सरकार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नागरिक प्रशासन की बहाली के साथ साथ विकास का कार्य कराने के लिए प्रतिबद्ध है। 8 राज्यों के प्रभावित 33 जिलों में में इन योजनाओ की प्रगति रिपोर्ट अपे्रल 2009 से जनवरी 2010 तक की सरकार ने जारी की है। मैं आपके सामने इस रिपोर्ट की कुछ बातें भी रखना चाहूंगा कि आखिर नक्सल प्रभावित राज्यों में विकास कार्यक्रमों की स्थिति क्या है।

मित्रों  जिन 33 जिलों की हम बात कर रहे है। हालांकि नक्सल प्रभावित जिलें इससे कही ज्यादा है। उनमें झारखंड के 10 जिले , छत्तीसगढ़ के  7, उडीसा के 5, बिहार के 6, महाराष्ट्र के 2, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के 1-1 जिले शामिल है। केन्द्र की कल्याणकारी योजनओं में खर्च प्रतिशत में भी हमें सुधार देखने को मिला है। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी नरेगा जैसी योजनाओं 72.76 फीसदी,  प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना में  - 41.04 फीसदी, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन -57.44 फीसदी, वनाधिकार कानून 2006 -37.06 फीसदी। यानि वहां विकास का कुछ प्रतिशत पहुंच रहा है। मगर बुनियादी सवाल यह की हिंसा का रास्त सिर्फ प्रतिहिंसा से होकर गुजरता है। क्या इस मामले को केवल कानून व्यवस्था के नजरिये से  देखना चाहिए या इसपर आगे बड़कर इसका कोई राजनीतिक दल ढंूढना चाहिए। मुझे मालूम है कि यहां मौजूद कई साथी मेरी इस बात से सहमत न हो मगर रास्त हमें ही तलाशना है। क्योंकि रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है
विनय न मानत जलधि जरः, गए तीन दिन बीत
बोले राम सकोप तबः, भय बिनू होय न प्रीत।
मगर किसी भी चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले उसके पृष्टिभूमि को जानना आवश्यक है। आखिर कैसे भारत जैसे देश में नक्सलवाद का जन्म हुआ। नक्सलवाद या कहें माओवाद सही मायने में व्यवस्था के खिलाफ एक जंग का ऐलान था। 1967 में कानू सान्याल और चारू माजूमदार के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन एक बडा परिवर्तन था। आंदोलन शुरू करने के पीछे की विचारधारा इतनी प्रबल थी कि कई लोग जो उस समय आईएएस और पीसीएस जैसी  परीक्षाओं की तैयारी कर रह थे वह भी इस आंदोलन के साथ जुडे। और नक्सलाबारी से शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे धीरे बढ़ता चला गया। मगर तब किसी ने यह नही सोचा था कि एक नये परिवर्तन के आगाज के लिए शुरू हुई यह विचारधारा इस कदर हिंसक गतिविधयों में तब्दील हो जायेगी की देश के प्रधानमंत्री को बार बार सार्वजनिक मंच से कहना पडे़गा कि नक्सलवाद इस देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बडा खतरा है। यह सही है कि यह सामाजिक और आर्थिक असुंतलन के चलते उपजी समस्या है मगर वर्तमान में इसका रूप इतना कुरूप है जिसे खत्म कैसे किया जाए इसपर विचार करने की जरूरत है। मसलन
1-प्रश्न नं एक -यह समस्या सामाजिक और आर्थिक असुंतुलन के खिलाफ एक लड़ाई थी।
2- मिटाने के लिए हमने पिछले 40 सालों में क्या कदम उठाये हैं?
3-आखिर क्यों शांतिप्रिय देश में इन लोगों ने बंदूक उठा ली?
4-सरकार इन क्षेत्रों में जो विकासकार्य कर रही है, उसका फायदा क्या आदिवासियों को मिल पर रहा है?
5-नक्सलवादियों के आर्थिक स्रोत क्या हैं?
6-राज्य सरकारें इस समस्या के समाधान को लेकर कितने सजक हैं।यह कुछ ऐसे सवाल है जिसपर विचार किया जाना चाहिए। साथ में यह भी  उस क्षेत्र में हुए अधिग्रहण और पुर्नवास की समस्या पर भी अपनी राय रखें। आशा करता हूं कि कुछ जरूर महव्वपूर्ण बिन्दू यहां से नकलेंगे?

बड़बोली राजनीति पर लगाम लगे!

कृष्ण ने गीता में कहा है परिवर्तन संसद का नियम है। तो क्या भारतीय राजनीति भी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। या वही चुनावी बिसात पर राजनेताओं का विकास का उदघोष। मानों भविष्य के कर्णधार देश को बदलने के लिए छटपटा रहें है। जनमानस को यकिन दिला रहें हों समाज सेवा का कीड़ा कुछ कर गुजरने की चाह लिए हिलोरे मार रहा है। पांच साल में भारत को न जाने कहां पहुंचा देंगे। 66 साल का रिकार्ड के बारे में पूछना मना है। सड़क, बिजली, पानी, महंगाई, बेरोजगारी, सुरक्षा और क्षेत्रीय समस्याऐं का समाधान इनके मुताबिक इनके पास है। मगर इससे पहले इन्हें  लोकतंत्र में पांच साल का सर्टिफिकेट चाहिए। यानि आपके मताधिकार का प्रयोग इनके पक्ष में होना चाहिए। इसके बाद ही यह आपकी सेवा करेंगे।  यह सही बात भी है। क्योंकि कानून बनाने की ताकत संसद को है। विधानसभाओं का हैं। विकास की योजना सरकार बनाती है। मगर सवाल यह है क्या वाकई सियासतदान इस काम में माहिर हैं। आपका जवाब मुझे मालूम है। क्योंकि आजतक यही होता आया है। इसलिए 60 से 70 फीसदी लोगों को जनता बदल देती है। मगर अगले पांच साल का बदलाव कुछ अलग नही होता इसलिए सवाल यह कि जनता कितने प्रयोग करेगी। इसलिए जरूरी है कुछ
जरूरी बदलाव। मसलन चुनावी घोषणा पत्र को कानूनी रूप दिया जाए। कोई सरकार विधायक यहां तक की गांव का सरपंच इन्हें पूरा नही करता तो उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी हो। चुनावी में सस्ता या फ्री अनाज, लैपटाप टीवी फ्रिज मंगलसूत्र आरक्षण या कुछ भी ऐसा जो लालच पैदा करता हो  तो  इसपर प्रतिबंध लगना चाहिए। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को और मजबूत बनाया जाए। आदर्श आचार संहिता को मजबूती से लागू किया जाए। हमारे नेताओं में एक खूबी कूट कूट के भरी है। मौके पर चैका लगाना। मगर जब दबाव रहेगा तो वादा करने से पहले 100 बार सोचेंगे। फिर न कोई कहेगा 100 दिन में महंगाई कम कर देंगे न ही कोई यह कहेगा 5 साल दे दो सब बदल दूंगा। भारत 1 अरब 25 करोड़ की जनसंख्या वाला देश है। यहां सभी
समस्याओं का निदान आसान नही मगर नामुमकिन नही। सिर्फ जरूरत है बेदाग और निशकलंक नेतृत्व की, तभी हम भारत की तकदीर और तस्वीर बदल सकते हैं। मगर आम आदमी पार्टी ने तस्वीन बदलने की किरण दिखाई है। दिल्ली के चुनाव में नया प्रयोग किया है। परंपराऐं टूटी है मगर क्या भारत बदलेगा? क्या राजनीति बदलेगी? क्या सुराज स्थापित हो सकेगा? क्या सबको समाज में सम्मान से जीने का अवसर मिल सकेगा?  

आप की चुनौतियां

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बन चुकी है। अब केजरीवाल मुख्यमंत्री बन चुके है। यानि अब काम प्रतीकात्मक संदेशों से नही, बल्कि वादों को निभाकर करना होगा। घूस लेने या नही देने के कसमें खिलाकर
भ्रष्टाचार खत्म नही होगा। बिजली पानी शिक्षा स्वास्थ्य और सड़क जैसे मुददों पर काम करके दिखाना होगा। दिल्ली कई मायनों में एक नायाब राज्य है। पूर्ण राज्य के दर्जे के अभाव में यहां नीतियों या कानून बनाने को लेकर कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मान लिजिए मामला कानून व्यवस्था से हो तो दिल्ली पुलिस सीधे गृहमंत्रालय के तहत आती है। दूसरा जमीन से जुड़ा मामला हो तो डीडीए केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय के तहत आता है। अगर कोई कानून संसद से पारित हो गया हो तो उसे राज्य में पारित करने से पहले
केन्द्र से हरी झंडी लेना जरूरी है। दिल्ली में संस्थाऐं दर्जनों है मगर इनकी जवाबदारी और जवाबदेही अलग अगल लोगों को है। यानि एमसीडी, सीपीडब्लूडी और डीडीए केन्द्र सरकार के अधिन है जबकि पीडब्लूडी, दिल्ली जल बोर्ड और राज्य परिवहन निगम राज्य सरकार के अधीन  है। प्राथमिक शिक्षा एमसीडी के भरोसे है तो माध्यमिक और उच्च शिक्षा के साथ साथ कौशल विकास राज्य सरकार के अधीन है। दिल्ली में तीन बड़े अस्पताल यानि एम्स, सफदरजंग और राममनोहर लोहिया केन्द्र सरकार के जिम्मे हैं। कुछ अस्पताल राज्य के तहत आते  है तो कुछ को एमसीडी चलाता है। उदाहरण के लिए मानों सड़कों में पानी भर जाऐं तो आप तय नही कर पाऐंगे की आम आदमी किससे शिकायत करें। अभी हाल यह है की राज्य में आप की अल्पमत सरकार है जिसे कांग्रेस ने न गिरने देने का वादा किया है। सबकी नजर सदन में आने वाले विश्वास प्रस्ताव पर रहेगी।  महत्वपूर्ण पहलू यह है कि एमसीडी में बीजेपी का राज है और केन्द्र में कांग्रेस नीत यूपीए की सरकार है। दिल्ली को विकास के लिए केन्द्रीय सहायता भी मिलती है। साथ ही केजरीवाल अब तक विपक्ष की राजनीति करते रहे मगर सरकार चलाने की हकीकत से वाकिफ दो चार होने का समय अब आ गया है। एक और बात जो आम आदमी पार्टी को ध्यान रखनी होगी वह है विधासभा अध्यक्ष का पद जो हर कीमत पर उन्हें अपना रखना होगा। 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

अर्थव्यवस्था का गुलाबी सफरनामा

भारतीय अर्थव्यस्था मौजूदा दौर में मुश्किल से गुजर रही है। हालांकि दुनिया के कई देशों से अब भी भारत की विकास दर ज्यादा है। मगर 2008 में आए वैश्विक संकट और यूरोजोन संकट ने दुनिया समेत भारत की अर्थव्यवस्था पर भी बड़ा असर डाला। हालांकि घरेलू तौर पर भारत ने इससे निपटने के लिए कई उपाय किए मगर बावजूद इसके इस वित्तिय वर्ष में भारत की विकास दर 5 फीसदी या उससे कम रहने की उम्मीद है। भारत को हर लिहाज़ से अपने विकास को आगे बढ़ाने के लिए 9 फीसदी या इससे उपर की विकास दर की जरूरत है मगर अगले 1 या दो सालों में ऐसा होता दिखाई नही देता। मगर भारत ने आर्थिक क्षेत्र में अच्छी खासी तरक्की की है। यही कारण है कि सालाना 3 लाख करोड़ से ज्यादा का खर्च हम सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी
योजनाओं पर करते है। गरीबों के लिए भारी भरकम सब्सिडी देते हैं। अकेले खाद्य सुरक्षा में ही 1 लाख करोड़ से ज्यादा सालाना खर्च होन का अनुमान है। मगर आंकड़े बताते है की आर्थिक क्षेत्र ने कई अच्छे साल भी देखें है जो हम सब के लिए जानना बेहद जरूरी हैं।

सबसे ज्यादा विकास दर वाले साल
2004-08 -  8.7 फीसदी औसतन

सबसे कम महंगाई दर वाले साल कौन से थे?
1999-2003   औसतन 4.7 फीसदी

सबसे ज्यादा निवेश दर वाले साल कौन से रहे?
2009-2013  36 फीसदी औसतन

सबसे ज्यादा बचत किन सालों में हुई?
2004-2008 में औसतन 33.2 फीसदी सालाना रही।

सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश किन सालों में आया?
2009-2013 औसतन 39.6 बिलियन डालर

विदेशी संस्थगत निवेशक एफआइआई
2009-2013 20.5 बिलियन डालर औसतन

भारत का निर्यात किन सालों में सबसे अच्छा रहा?
2004-2008- 25.3 फीसदी औसतन

भारत का मुद्रा भंडार किन सालों में लबालब भरा रहा?
2004-2008  औसतन इन सालों में 196.7 बिलियन रहा।

करेंट एकाउंट डैफिसिट किन सालों में सबसे कम रहा?
1999-2003 इन सालों में औसतन यह -0.21 फीसदी रहा।

राजकोषिय घाटे का बेहतर प्रबंधन किन सालों में देखने को मिला?
2004-2008 तक 3.6 फीसदी औसतन रहा।

बेरोजगारी दर किन सालों में सबसे कम रही?
1994-1998 के बीच सालाना 6.1 फीसदी रही।

यानि केवल एक दल यह नही कह सकता की यह सब हमारी सरकार के दौरान हुआ। 1991 में उदारीकरण के बाद
भारत की अर्थव्यवस्था के व्यापक बदलाव आए। जितने तेजी से बदलाव आए उतनी तेजी से असामनता बड़ी इसलिए हर
कोई यही चाहता है कि विकास दर अगर सर्वसमावेशी नही हो तो बेकार है। इसलिए माडल ऐसा चाहिए जो सबके विकास
में सहायक हो केवल चंद लोगों के नही।

हर क्षेत्र में सुधार की जरूरत!

आज हर राजनीतिक दल देश को बदलने का विश्वास दिला रहें है। बहस चल रही है की देश के लिए कौन अच्छा है। कांग्रेस का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित होने के बाद यह बहस और बड़ जाएगी। मगर जब तक देश बुनियादी सुधारों को गंभीरता के साथ जमीन पर नही उतारेगा तब तक 1 अरब की आबादी से बड़े इस  देश में बदलाव संभाव नही है। भारी भरकम कार्यक्रम बनाने से जनता का संताप नही मिटेगा। अगर ऐसा होता तो 1979 में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओं का नारा दिया था मगर आज भी हालात यह है की अर्जुन सेन समिति के मुताबिक 77 फीसदी आबादी 20 रूपये से ज्यादा खर्च प्रतिदिन करने  की हैसियत नही रखता। उसका कारण सिर्फ यही है की केन्द्र से निकलने वाला पैसा जरूरत मंदों तक नही पहुंच पाता। अगर हमें वाकई देश को बदलना है। लोगों को खुशहला जिन्दगी देनी है तो हमें कई मोर्चे पर सुधार की जरूरत है।

1.चुनाव सुधार
2.पुलिस सुधार
3.प्रशासनिक सुधार
4.न्यायिक सुधार
5.प्राथमिक शिक्षा सुधार
6.उच्च शिक्षा सुधार
7.स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार
8.उर्जा क्षेत्र में सुधार
9.सड़क क्षेत्र में सुधार
10.रेलवे में सुधार
11.वित्तिय क्षेत्र सुधार
12.कृषि क्षेत्र में सुधार
13. बीमा क्षेत्र में सुधार
14. जेलों में सुधार
15. पेंशन क्षेत्र में सुधार
16. बैकिंग क्षेत्र में सुधार
17. रक्षा क्षेत्र में सुधार
18. श्रम सुधार
19. पर्यायवण क्षेत्र में सुधार
20. जल क्षेत्र में सुधार
22. पीडीएस में सुधार
23.  संसद की कार्यवाही में सुधार
24. राज्य विधानसभाओं की
 कार्यवाही में सुधार। 
25. सरकार के खर्च में सुधार
26. पेट्रोलियम क्षेत्र में सुधार
27. असंगठित क्षेत्र में सुधार
28. सेवा क्षेत्र में सुधार
29 मनरेगा में सुधार
30. जमीन अधिग्रहन कानून में सुधार
31. रियल स्टेट में सुधार
32. पंचायतों में सुधार
33. नगरपालिका और नगरनिगमों में सुधार
34. बाल कानूनों में सुधार
35. आदिवासी नीति में सुधार
36. एससी एसटी नीति में सुधार


राहुल अवतार

कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी को मजबूत नेता दिखाने की होड़ लगी हुई है। हाल ही में पांच विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद राहुल आमूलचूल संगठन में परिवर्तन करने का मन बना चुके हैं। जानकारी के मुताबिक राज्यों में युवा चेहरों को संगठन में लाकर वह युवा सशक्तिकरण का संदेश दे रहें है। मगर देखना दिलचस्प होगा कि क्या कोई नया चेहरा संगठन में हिस्सा बन पाएगा या वंशवाद के बेल को ही वह आगे बढ़ाऐंगे। 17 जनवरी को कांग्रेस प्रधानमंत्री के तौर पर राहुल गांधी के नाम की घोषणा कर सकती है। मगर हो सकता है की राहुल अपनी मां की ही तरह इस पद से तौबा कर ले। हालांकि ऐसा होने संभावना क्षीण है मगर कांग्रेसी मौके पर छक्का मारना चाहतें हैं। हाल में जिस तरह राहुल अवतार हुआ हैउससे यह लगता है कि वह एक ऐसे नेता के तौर पर दिखना चाहतें है जो जनता की व्यथा को समझता हो। कार्यकर्ताओं की अनदेखी को समझता हो। सरकार और संगठन में 36 के आंकड़े की बारे में समझ रखता हो। इसलिए दागी नेताओं को बचाने वाले अध्यादेश को उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कचरे के डब्बे में डाल देने को कहा। लोकपाल बिल पारित कराने को लेकर उन्होंने खुद कमान संभाली। आजकल विभिन्न समुदाय से मिलकर कांग्रेस  के मैनीफेस्टों को तैयार करने में लगे हैं। इसके अलावा आदर्श पर भी असहमति जताकर उन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान कर दिया है। यह बात कुछ ऐसी ही लगती है
जुल्म भी वही करते है, सितम भी वही करते हैं
शिकायत करूं तो आखिर किससे करूं
हूकूमत भी वही करते हैं।
अब वह कांग्रेस शासित राज्यों में फरवरी तक लोकायुक्त लाने की बात कर रहें है। यानि बीजेपी शासित राज्यों पर नैतिक दबाव बड़ जाएगा। एक बात जो हर कोई भूल रहा है वह यह कि किसी ने आज तक यह चर्चा नही की कि जिन 18 राज्यों में लोकायुक्त काम कर रहें है उन्होने क्या काम किया। कितने भ्रष्टाचारियों को इन लोकायुक्त ने जेल भेजा। कितनों की संपति जब्त की। कितने लोकायुक्त की रिपोर्ट सालाना विधानसभा
के पटल पर रखी गई। नियमानुसार सालाना लोकायुक्त की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जानी चाहिए। मगर ऐसा होता नही। मगर चुनाव में जनता की नजरों में अच्छा दिखने के लिए नेता सारे हथकंडे अपना रहें है। इसलिए कांग्रेसी हर बड़े मुददे पर राहुल अवतार कराऐंगे। आज महंगाई , भ्रष्टाचार खासकर सरकारी योजनाओं में खुली लूट मची हुई। अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर हो रही है। युवाओं के लिए रोजगार के अवसर क्षीण है। इसलिए कुछ बुनियादी सुधार किए आप सिस्टम को नही बदल सकते। और इसकी शुरूआत राजनीति सुधार से होनी चाहिए?
इतिश्री राहुल पुराणों प्रथमों अध्याय संपन्नोंः

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर धुंधली क्यों है!

भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र का 80 फीसदी हिस्सा निजी हाथों में है। महज 20 फीसदी हिस्सा सरकार के जिम्मे है। इस 20 फीसदी में भी 80 फीसदी राज्य सरकार के नीचे आता है। यही कारण है कि बार बार कहा जाता है की स्वस्थ्य क्षेत्र में राज्यों को भी अपना बजट आवंटन बडाना होगा। केवल केन्द्र सरकार के आवंटन बडाने से कुछ नही होगा। दुनिया में आबादी में हमारी हिस्सेदारी 16 फीसदी के आसपास है, मगर बीमारी में हमारा योगदान 20 फीसदी से ज्यादा है।
स्वास्थ्य बजट
यूपीए सरकार जब 2004 में सर्वसमावेशी विकास के नारे का साथ सत्ता में आसीन हुई तो उसने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बात की घोषणा की कि स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर को बदलने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2 से 3 फीसदी इस क्षेत्र में दिया जायेगा। मगर अभी तक गाड़ी 1.06 फीसदी के आसपास है। वही विश्व स्वस्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों  को जीडीपी का 5 फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करना चाहिए। केन्द्र सरकार की मानें तो वो इस दिश  में तेजी से आगे बड़ रही है। जरूरत है तो राज्यों के बेहतर समर्थन की। यहां यह भी बताते चलें की स्वास्थ्य क्षेत्र राज्यो ंका विशय है। 11 पंचवर्षिय योजना में 140135 करोड की राशि  का निर्धारण किया गया है। 90558 करोड की राशि का प्रबंध किया है। जो 10वी पंचवर्षीय योजना के मुकाबले 227 फीसदी ज्यादा है। इसमें से 90558 करोड़ की राशि केवल  केन्द्र सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए है जिसमें अब तक 42000 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके है। सरकार ने 12वीं योजना में सबसे ज्यादा ध्यान स्वास्थ्य क्षेत्र में देने की बात कही है।
मानव संसाधन की कमी
स्वस्थ्य की सबसे ज्यादा खराब तस्वीर आपको ग्रामीण क्षेत्र में दिखेगी। भौतिक सुविधाओं को मुहैया कराने में सरकार कुछ हद तक जरूर सफल रही है, जिसमें प्रमुख है उपकेन्द, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और जिला अस्पताल । मगर डाक्टर और नर्सो की भारी टोटा सरकार के माथे में बल ला देता है।  हमारे देश में डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः1722 है। यानि 1722 आबादी पर 1 डाक्टर। आदर्श स्थिति 1ः500 की है। डब्लयूएचओं के मुताबिक डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः250 होना चाहिए। मगर ग्रामीण भारत में यह अनुपात तो और ज्यादा बदतर स्थिति मे है। गांव में 34000 की आबादी में 1 डाक्टर है। मौजूदा स्थिति में भारत में 8 लाख डाक्टर और 20 लाख नर्सो की कमी है। इसके अलावा गुणवत्ता पूर्ण पैरामेडिकल स्टाफ की भी बेहद कमी है।
रूरल एमबीबीएस
सरकर अब इस कमी को पूरा करने के लिए बैचुलर आफ रूरल हेल्थ केयर या रूरल एमबीबीएस कोर्स पर विचार कर रह है। साढे तीन साल का यह कोर्स होगा और 6 महिने की इंटरनशिप। इसके बाद तैयार हो जायेगा एक डाक्टर । यह डाक्टर सिर्फ उपकेन्द्र और प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र में तैनात होगें। हालांकि कुछ विशेषज्ञों ने इस पर ऐतराज जताया है। मगर सरकार अब इसपर आगे बढ़ने का मन बना चुकी है। साथ ही एमबीबीएस करने वालों के लिए 1 साल गांव में सेवा देना अनिवार्य कर दिया है। इस पोस्टिंग को उनके आगे की पढ़ाई के साथ ज़ोड दिया गया है।

स्वाथ्य में उत्तर भारत दक्षिण के मुकाबले पीछे
स्वास्थ्य के लिहाज से एक बहुत बडा अन्तर उत्तर और दक्षिण भारत में भी है। मसलन देष में तकरीबन 300 मेंडीकल कालेजों में से 190 सिर्फ पांच राज्यों में है। मसलन बिहार की आबादी 7 करोड़ के आसपास मगर मेडीकल कालेज 9। ऐसा ही हाल झारखंड का है। 3 करोड़ की आबादी में 3 मेडीकल और 1 नर्सिंग कालेज। इस अन्तर को पाटने की भी सख्त दरकार है।

मिलीनियम डेवलपमेंट गोल का क्या होगा!
सरकार 2012 तक मातृ मृत्यु दर को यानि एमएमआर को प्रति लाख 100 तक लाना चाहती है। जो 2007 में 254 था। शिशु  मृत्यु दर को 30 तक जो 2007 मंे 55 था। अस्पताल में प्रसव कराने आने वाली महिलाओं की तादाद बड़ रही है। जननी सुरक्षा योजना के तहत अब तक 3 करोड़ से ज्यादा महिलाऐं अस्पतालों में  बच्चों को जन्म दे चुकी है। टीकाकरण में भी अभी रास्ता थोडा कठिन है। 2012 तक 100 फीसदी का लक्ष्य जो फिलहाल 58 फीसदी है।

डाक्टरों का शहरी प्रेम!
अगर आप सोचते है कि डाक्टरी आज भी सेवा करने का एक माध्यम है तो आप गलत है। यह एक विशद्ध व्यवसाय बन गया है। ज्यादा कमाई के चक्कर के चलते  डाक्टर अब गांव की ओर नही जाना चाहता। यही कारण है कि डाक्टरों की ज्यादातर आबादी शहरो ं में सेवाऐं प्रदान कर रही। इंडियन मेडीकल सोसइटी के सर्वे के मुताबिक 75 फीसदी डाक्टर शहरों में काम कर रहे है। 23 फीसदी अल्प शहरी इलाकों मे और 2 फीसदी ग्रामीण इलाकों में। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है की ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य कहां टिकता है।

प्राचीन चिक्त्सा प्रणाली पर कोई ध्यान नही!
आपने रामायण मे संजीवनी बूटी का नाम तो सुना होगा। जिसे संूघने के बाद लक्ष्मण लम्बी मूर्छा से जागे थे। आज आर्युवेदिक, होमयोपैथिक, सिद्धा और यूनानी जैसी चिकित्सा प्रणाली की तरफ को खास रूख नही है। ऐसा नही कि यह चिकित्सा प्रणाली फायदेमंद नही है। दरअसल सवाल यह है कि इसे फायदेमंद बनाने के लिए हम कितने गंभीर है।

निजि अस्पतालों पर कसी जाए नकेल!
जब देश की 77 फीसदी आबादी की हैसियत एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। तो क्या वह इन बडे हांस्पिटलों में अपना या परिजनों का इलाज कर सकता है। निजि अस्पताल इलाज की एवज में मनमाने दाम मांग रहे हैं। गरीब कहां से लायेगा। इसलिए इन बहुमुखी सुविधाओं से लैस अस्पतालों के उपर एक प्राधिकरण हो जो इस पर नजर रखे।

कहते है पहला सुख निरोगी काया। मगर भारत में इस सुख की तस्वीर थोडी धंुधली है। हमारे देश में 20 फीसदी सवस्थ्य सेवाऐं  ही सरकार के तहत आती है। इस 20 फीसदी में भी 80 फीसदी राज्य सरकारों  का क्षेत्र में आता है। यानि स्वास्थ्य सेवाओ ंका 80 फीसदी हिस्सा निजी होथों में है। इसलिए ब्रिटेन की एक मसहूर पत्रिका लैंसेट के मुताबिक भारत में सालाना 3.5 करोड़ लोग अपनी जेब से स्वास्थ्य चेत्र में खर्च कर गरीबी रेखा में चले जाते हैं। अब देखना यह होगा की प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना उनका बेहतर ख्याल रख पाती है या इस ह़़श्र भी बाकी सरकारी योजना जैसा रहता है।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

अटल

मित्रों भारतीय राजनीति के पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी का आज जन्म दिन है। अपने जीवन में उन्होंने कई महत्वपूर्ण आयाम स्थापित किए। सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष हर कोई उनका लोहा मानता था। भाषा बेहद सधी हुई। उनकी ज्यादातर कविताओं को मैने संजो के रखा हुआ है। दर्जन भर ऐसी है जो मुझे कंठस्त है। लोकसभा में जब वह विपक्ष के सवाल का जवाब देने के लिए खड़े होते थे माहौल एक दम शांत हो जाता। क्योंकि हर सांसद उन्हें सुनना चाहता था। वह एक अच्छे वक्ता तो थे ही अच्छे श्रोता भी थे। केन्द्र में गठबंधन की राजनीति का धर्म कैसे चलाया जाता है यह भी देश को अटल ने सिखाया। 22 दलों का गठबंधन चलाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। उनके कार्यकाल में किए गए कुछ महत्वपूर्ण कार्यो ने भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मसलन प्राथमिक शिक्षा को सुधारने के लिए सर्व शिक्षा अभियान की शुरूआत, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जिसने किसान के उत्पाद को गांव से लेकर मंडी तक ले जाने में बड़ी मदद की।स्वर्णीम चतुर्भज योजना के तहत बनाए गए नेशनल हाइवे। अमेरिका के दबाव को दरकिनार करने हुए उन्होने पोखरण में परमाणु परीक्षण कर दुनिया में भारत का नाम रोशन किया। गरीबों के लिए अन्तोदय अन्न योजना की शुरूआत की। भारत की सरकारों के इतिहास में एनडीए सरकार के कार्यकाल में सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा किए गए। इतना ही नही अपने कार्यकाल में उन्होंने महंगाई को भी नियंत्रण में रखा। मुझे याद है संयुक्त राष्ट में उन्होने कहा था, हमने काल के कपाल पर वह अमिट  रेखाऐं खिंची हैं जिन्हें मिटाना संभव नही है। उनके जन्म दिवस के मौकेपर उनकी प्रेरणा स्रोत अविस्मरणीय कविता हम सबको एक नई राह दिखाती है।

भरी दुपहरी में अंधियारा, सूरज परछाई से हारा
अंतर तम का नेह निचोड़, बुझी हुई बाती सुलगाऐं
आओं फिर से दिया जलाऐं

हम पड़ाव को समझे न मंजिल, लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वर्तमान के मोह जाल में आने वाला कल न भुलाऐं
आओं फिर से दिया जलाऐं - 2

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा, अपनो के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियां गलाऐं
आओं फिर से दिया जलाऐं - 2


आखिर कितने दिन चलेगी आप की सरकार!

भारत में गठबंधन की राजनीति का सफर काफी पुराना है। मगर केन्द्र में सफलता से 22 दलों की गठबंधन सरकार चलाने का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को जाता है। उसके बाद 2004 में कांग्रेस ने भी यह मान लिया की केन्द्र में सत्ता चलाने के लिए गठबंधन जरूरी हो गया है। चाहे फिर गठबंधन चुनावसे पहले हो या चुनाव के बाद में। यह भी तय है कि केन्द्र में सरकार गठबंधन की ही चलेगी और आने वाले समय में यह कवायद केन्द्र में जारी रहेगी। गठबंधन धर्म को लेकर अब लोग बात कर रहें हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार कितने दिनों तक चलेगी। खासकर तब जब कांग्रेस का गठबंधन का धर्म निभाने का रिकार्ड बेहद खराब रहा है। उदाहरण के लिए चैधरी चरण सिंह देश में अकेले ऐस प्रधानमंत्री बने जिन्होने संसद का मुंह तक नही देखा। जुलाई 1979 से वह 1980 तक प्रधानमंत्री के तौर पर रहे जिसमें से 5 साल वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर रहे। इसके बाद वीपी सरकार से बीजेपी ने समर्थन लिया तो कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर की सरकार केन्द्र में नवंबर 1999 से जून 1991 तक चली। यानि वह भी केवल 4 महिने ही प्रधानमंत्री रह पाए। इसके बाद देवगौड़ की सरकार जून 1996 से अप्रैल 1997 यानि केवल 10 महिने ही चल पाई। अप्रैल 1997 में इंद्रकुमार गुजराल को कांग्रेस ने प्रधानमंत्री बनाया मगर कांग्रेसी समर्थन में केवल यह 7 महिने प्रधानमंत्री पर पर रहे यानि मार्च 1998 में इंद्र कुमार गुजराल की भी सरकार चली गई। कांग्रसे ने यह  खेल केवल केन्द्र में ही नही राज्यों में भी खेला। कभी इसके शिकार मुलायम सिंह बने तो कभी आदिवासी नेता शिबू सोरेन। कांग्रसे ने भारतीय इतिहास में  एक नई इबारत तब लिखी जब झारखंड में इसने एक निर्दलीय मधु कौड़ा को मुख्यमंत्री बना दिया। मधुकोड़ा ने 23 महिने कांग्रेसी समर्थन के दौरान झारखंड में खूब लूट मचाई। अब आजकल वह रांची में बिरसा मुंडा जेल की शोभा बड़ा रहे हैं। इस रिकार्ड को देखकर लगता नही जो केजरीवाल कांग्रेस के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार की जांच कराकर दोषियों को जेल की हवा खिलाने की बात कर रहें है उन्हें कांग्रेस ज्यादा दिन यानि 6 महिने से ज्यादा सरकार चलाने  देगी। कांग्रेस दिल्ली का चुनाव लोकसभा के साथ कराने का मन बना चुकी है। ऐसे में उसके रणनीतिकारों को यह लगता है की 6 महिने राष्टपति शासन लगाने से
ज्यादा अच्छा आप की सरकार का समर्थन कर उसको जनता के सामने बेनकाब किया जाए। मतलब यह की केजरीवाल ने जो वादे दिल्ली की जनता से किए हैं वह उसे पूरा नही कर पाऐंगे। ऐसा कांग्रेसियों का कहना है। कांग्रेस का यह खेल तय है। यानि दिल्ली की जनता को 6 महिने बाद चुनाव के लिए तैयार  रहना चाहिए। और यह बात केजरीवाल से बेहतर और कोई नही जानता।

इतिश्री कांग्रेस आप राजनीति पुराणों प्रथमों अध्याय समपन्नः

दंगों पर राजनीति बंद करो!

मुजफरनगर में हुए दंगों ने देश के सबसे बड़े लोकतंत्र को फिर शर्मसार कर दिया। अपने राजनीति स्वार्थ के लिए नेताओं ने एक बार फिर धर्म की आड़ में दो समुदाय को झोंक दिया। सपा समेत कांग्रेस और बीजेपी हर कोई इस दंगों में भी सियासत के नफे नुकसान का फायदा तलाश रहा है। पहले दंगों को रोकने की विफलता जिसके लिए सरकार के मंत्री जिम्मेदार रहे। उसके बाद भड़काउ भाषण देना और धारा 144 को दरकिनार कर पंचायत करना। उसके बाद एक गलत विडियो फेसबुक पर लोडकर जनता की भावनाओं से खेलना। यानि सियासतदानों ने वोट के खातिर सब कुछ किया। नतीजा 60 से ज्यादा लोग मारे गए और 40 हजार से ज्यादा लोगों को अपना घरबार छोड़ना पड़ा। शरणार्थी शिविरों में लोगों को बदइंतजामी से दो चार होना पड़ा। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के कहने पर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मुआवज़े से जुड़ी जो लिस्ट दी उसमें केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों के नाम थे। बाद में सुप्रीमकोर्ट कोर्ट के कहने पर उस लिस्ट को सपा सरकार ने वापस लिया। राहत शिविरों में पिछले 2 महिनों में 42 बच्चों की मौत हो चुकी है। 10 हजार से ज्यादा लोग भय के चलते वापस अपने घर नही लौंटना चाहते। इनकी दुश्विारियों पर ध्यान न देते हुए नेताओं को वोट बैंक की चिंता है। मसलन चूल्हे को आधार बनाकर मुआवज़ा देने का ऐलान बंटरबांट का शिकार हो गया। कांग्रेस 8 साल पुराने दंगा विरोधी बिल को लाने के लिए सक्रिय हो गई। जबकि भाजपा और गैरकांग्रेसी सरकारों ने इस संघीय ढांचे पर हमला बताया। कांग्रेस ने अति पिछड़ा वर्ग आयोग से जाटों को केन्द्र में सरकारी नौकरी में आरक्षण देने के अपने 2011 के फैसले पर पुर्नविचार करने को कहा है। राहुल गांधी सार्वजनिक मंच से कहते है की आइएसआई मुजफरनगर के मुस्लिम युवाओं पर डोरे डाल रही है। बीजेपी अपने नेता संगीत सोम और सुरेश राणा जिन पर दंगा भड़काने का आरोप है उनका स्वागत सरकार करती है। राहुल 2 बार दंगा पीड़ितों से मिलने चले जाते है मगर उनकी मुश्किलों का समाधान नही। चैधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर जाटों को लुभाने के लिए सपा प्रादेशिक अवकाश की घोषण करती है। मगर जो नही होता वह है

पहला दंगों के लिए जिम्मेदार लोगों की धरपकड़।
मुआवजे को जरूरतमंदों तक पहुंचना।
राहत शिविरों में मानवीय इंतजाम का अभाव
दंगा पीड़ित अब भी खौफ के साये में जी रहें हैं।
दंगों की जांच कर रही जस्टिस सहाय आयोग की समय से रिपोर्ट का न आना। बढ़ा 6 महिने का कार्यकाल।
दंगा विरोधी बिल का पारित न होना
राहत और पुर्नवास को लेकर सरकारी मशीनरी का लचर रवैया।
आखिर में अखिलेश सरकार ने राजधर्म का पालन नही किया।

नमोः बनाम डायरेक्ट डिमोक्रेसी

केजरीवाल के मिशन 2014 ने बीजेपी के पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी के रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है। केजरीवाल की डायरेक्ट डिमोक्रेसी बनाम नमो मंत्र अगर आमने सामने आता है तो डायरेक्ट डिमोक्रेसी लोगों के लिए ज्यादा आकर्षण का केन्द्र होगी। मतलब की मोदी का विजयरथ केजरीवाल थाम सकते हैं। इससे मोदी के रणनीतिकारों को अपनी रणनीति दुबारा बदलने को मजबूर होना पड़ेगा। क्योंकि जिन राज्यों में मोदी मिशन 2014 की तैयारी कर रहे हैं वहां केजरीवाल मुहल्ला सभा और जनता की सरकार जैसे जुमलों से लोगों को खिचेंगे। देश में इस समय 94 शहरी लोकसभा सीट और 122 सेमी अरबन लोकसभा सीट शामिल है। इसमें कोई दो राय नही की दिल्ली में मिले अभूतपूर्व समर्थन ने आप के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा दिया है। मसलन मोदी के रणनीति कार सोशल साइट के जरिये 160 लोकसभा सीटों पर नजर गढ़ाये थे। यह वह सीटें है जहां का युवा मतदाता सोशल साइट पर अपने विचार रखता है। यही मतदाता मोदी के लच्छेदार भाषण से ज्यादा केजरीवाल के डायरेक्ट डेमोक्रेसी के फार्मूले से ज्यादा नजदीक नज़र आ रहें है। वही 2009 के चुनाव में कांग्रेस को इसी शहरी मतदाता ने दिल खोल कर वोट दिया जो अब कांग्रेस की नीतियों और घोटलों से उब चुके है। ऐसे में मोदी में उनको देश चलाने की झलक दिखाई दे रही थी। मगर आम आदमी पार्टी ने राजनीति में जो प्रयोग किय उसने मौजूदा अध्याय को ही बदल दिया है।  अब केजरीवाल दिल्ली में एक एक वह बयान दे रहें है जो जनता को पसंद आते है। लाल बत्ती से परहेज, जेड सिक्यूरिटी को ना, सरकारी बंगले पर नही रहने की बात जैसे जन पसंदीदा बातें कहकर मतदाताओं पर जबरदस्त प्रभाव डाल रहें हैं। वहीं कांग्रेस चाहती है की मोदी और केजरीवाल को भिड़ाकर राहुल को मोदी के सामने सीधे खड़े होने से बचाय जाए। बीजेपी अन्ना और किरन बेदी को भी अपने से जोड़ना चाहेगी। इसका संकेल हाल फिलहाल की घटना से मिलता है। मसलन इसमें लोकसभा में सुषमा स्वराज ने लोकपाल के लिए अन्ना हजारे को पूरा श्रेय देने की बात कही। दिल्ली विधानसभा में चुनाव परिणाम आने के बाद किरन बेदी ने बीजेपी और आप के बीच सरकार बनाने को लेकर मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाल बयान शामिल है।

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

दर्द- ए- किसान

मैं किसान हूं। मझे अर्थव्यवस्था की रीढ की हड़डी कहा जाता है। मेर कंधे पर 1 अरब 21 करोड़ आबादी के लिए अनाज उगाने का जिम्मा है। देश के पचास करोड़ पशुधन के लिए चारे का प्रबंध भी मुझे ही करना हेाता है। उद्योग जगत की निर्भरता मेरे पर कम नही है।  भले ही जीडीपी में मेरी भागीदारी 13 फीसदी हो मगर मैं आज भी 60 फीसदी आबादी के रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हूूं। मेरी मेहनत के चलते ही इस देश ने पहली हरित का्रति का सपना बुना उसे साकार किया। मैने वह सबकुछ किया जो मेरा कर्म था। जो मेरा कर्तव्य था। मगर यह करते करते मैं आज टूटता जा रहा हूं। दूसरे को पेट भरने वाला मैं आज अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने में असहाय हूं।  मैं न चिलचिलाती धूप की चिंता करता हूॅं, न हाड़ कपा देने  वाले ठंड की, न बाढ़ की न सूखाड़ की। मेरा कर्म और धर्म एक ही है। धरती का सीना फाड़ कर देश की खाद्य सुरक्षा को बनाए रखना। मेरी इस बात के गवाह है यह आंकड़े जो मेरी मेहनत की चीख चीखकर गवाही दे रहे हंै। मेरा मेहनत का सफरमनाम 1951 में 51 मिलियन टन अनाज से आज 255 मिलियन टन का रिकार्ड तोड़ उत्पादन तक पहुंच गया है। मगर मेरी मेहनत का मुझे मिलता क्या है। जब मैं खुले आसमान के नीचे सड़ते अनाज को देखता हूं तो खून के आंसू रोता हूं। जब मेरी मेहनत का उचित दाम मुझे नही मिलता तो मैं रोता है। प्रकृति, सरकार और बिचैलियों की बेरूखी का शिकार आखिर मैं ही क्यों। मैं पूछना चाहता हॅं सियासतदानों से । मेरे उत्पाद का मुझे सही मूल्य क्यों नही मिलता। मुझे समय पर बीज पानी उवर्रक और कर्ज क्यों नही मिलता। क्यों आप लोग मुझे अकेला आत्महत्या जैसा महापाप करने के लिए छोड़ देते है। क्यों आप मेरे नाम पर आपनी राजनीतिक रोटियों सेकते हैं। कभी आपने सोचा है कि क्यों इस देश का 41 फीसदी किसान  किसानी छोड़ना चाहता है। कभी आपने सोचा कि 1981 से लेकर 2001 के बीच 84 लाख किसानों ने खेती क्यों छोड़ी। । 2007 से अब तक 4 लाख किसानों को आत्महत्या क्यों करनी पड़ी। मैं देश की सबसे बड़ी पंचायत से चंद सवाल करना चाहता हूं। मेर दम पर तुम भोजन के अधिकार देने का सपना देख रहे हो। मेरे और मेरे परिवारो की सुध तुम कब लोगो? क्या संसद में चंद लच्छेदार भाषणों से मेरा संताप मिट जाएगा? मेरे मुश्किलों का हल दिल्ली में बैठकर नही मेरे खेतों में आकर करो। मेरी दुर्दशा का असली चेहरा दिल्ली से आपकेा नही दिखेगा। मेरा परिवार भी समाज में सम्मान से जीने का हकदार है। मेरे बच्चे भी अच्छी शिक्षा का ख्वाब देखते है। मै अपने बच्चों के पैसे को अभाव में मरते तड़पते नही देख सकता। मुझे मेरे सवाल का जवाब दो? मुझे जवाब दो? मुझे जवाब दो?

युवाः बदलाव के वाहक

आप कहेंगे 2014 में समाज और देश में क्या बदलाव आना चाहिए? दरअसल हर नूतन वर्ष के साथ लोग कुछ बदलाव की आकांक्षा लिए प्रयासरत रहते हैं। ऐसे में समाज के हर वर्ग के जेहन में एक सवाल कौंध रहा है। दिल्ली में 16 दिसंबर को गैंगरेप का शिकार निर्भया की मौत को आज एक साल से ज्यादा बीत गया है। हम सबको सिस्टम बदलने की प्रेरणा देकर वह हमेशा के लिए चली गई।क्या निर्भया और भ्रष्टाचार के लिए
दिल्ली की सड़कों में उभरा आक्रोश क्या अंजाम तक पहुंचेगा? क्या एक अभूतपूर्ण युवा का्रंति बदलाव की वाहक बनेगी? क्या बदलाव की आवाज बनकर उभरा भारत का युवा वर्ग सुधारों के लिए जमीन तैयार करवा पाएगा? 23 वर्षिय निर्भया जीवन संघर्ष तो हार गई मगर देश के युवाओं के संघर्ष क एक नई दिशा देने में वह कामयाब रही। जिसने निष्क्रिय पड़ी राजनीतिक मशीनरी को डरा कर रख दिया। यह संघर्ष वही है जिसकी हम सब जरूरत महसूस कर रहे थे। भारत के इतिहास में कभी ऐसा नही हुआ जब आम और अनाम लड़की के लिए देश का हर नागरिक इतना द्रवित हुआ हो। हर हाथ उसके जीवन के दुआ के लिए उठा हो। हर आवाज़ उसकी न्याय की मांग को लेकर उठी हो। किसी घटनाक्रम में जनाक्रोश का यह रूप शायद ही किसी ने पहले कभी देखा हो। युवाओं का जो रूप दिल्ली केराजपथ पर दिखा वह ऐतिहासिक ही नही अभूतपूर्व था। कमसे कम आजाद भारत में युवाओं के इस उग्र रूप के इससे पहले दर्शन कभी नही हुए। मगर इस घटना ने मानो
मरणासन्न पड़ी राजनीतिक चेतना कोे जगा दिया। असर, ऐसा की सरकार की पानी की बौछारें, आसू गैस के गोले, यहां तक की लाठियां भी उनके जोश को ठंडी नही कर पाई। सरकार के साथ पूरा तंत्र युवाओं की इस रूप को देखकर हैरत में पड़ गया। क्या करें किससे बात करें, क्योंकि इस भीड़ का कोई नेता नही था। भीड़ का एकमात्र लक्ष्य इंसाफ और सिर्फ इंसाफ था। और इंसाफ के लिए जरूरी परिवर्तन के लिए सोती सरकार को नींद से जगाना था। सोचिए युवाओं के जोश से लबरेज यह आंदोलन सरकार से रोजगार की मांग नही कर रहा था जबकी बेरोजगारी से वह त्रस्त है। महंगाई से राहत नही मांग रहा था जबकि उसे आवश्यक पदार्थो के उपभोग के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है और आगे आने वाले समय के लिए भी इस मोर्चे पर उसे राहत मिलेगी उसे ऐसा लगता नही। वह तो सिर्फ इंसाफ की अलख जगाने का काम कर रहा था। दिशाहीन सरकार को कानून व्यवस्था दुरूस्त करने के लिए कह रहा था। युवाओं का यह क्रांति कई मायनों में अलग थी । वह इंसाफ की तख्ती हाथ में लिए बदलाव की मांग कर रही थी। ऐस ऐसा समाज के निर्माण की मांग कर रही थी
जहां आधी आबादी के लिए सम्मान हो। मगर बदलाव की इस बयार ने उस तस्वीर को देश के सामने रखा जिसने आधी आबादी पर हो रहे अत्याचार को समाज के सामने रखा। महिलाओं के खिलाफ अपराध की फेहरिस्त ऐसी की मानों रूह कांप जाए। फिर किसी और को इस देश में दामिनी न बनान पड़े। इस आंदोलन का सबसे रोचक तथ्य यह था इस भीड़ का कोई नेता नही था। भीड़ किसी के कहने बुलाने पर सड़को पर उतरी । और न ही इन्हें किराये पर लाया गया जो की अक्सर राजनीति में होता है। यह पूरा आंदोलन लोगों के भीतर पैदा हो चुकी अन्याय के खिलाफ सिहरन का आगाज़ था। जरा सोचिए जिस लड़की का नाम तक नही मालूम मगर उसके साथ हुए अन्याय के खिलाफ करोड़ों हाथ न्याय की मांग करें तो इसे क्या कहेंगे। इसे कहेंगे की देश का नौजवान समाज के अन्याय के खिलाफ आवाज उठायेगा वह चुप बैठने वालों में नही। इस आंदोलन का दुखद पहलू यह रहा की अपने ही देश का नेतृत्व अपने ही लोगों के भावनात्मक ज्वार का सामना करने में सक्षम नही रहा। ऐसे में उससे बदलाव की उम्मीद पालना कितना सही। आज जो देश के सामने परिस्थिति उठ खड़ी हुई है उसमें देश के युवावर्ग के लिए यह आवश्यक हो जाता है की शोक और क्षोभ की इस घड़ी में बड़ी सूझबूझ का परिचय देते हुए शासन और सरकार के सामने अपनी बात रखे। इस बात का स्मरण रखना जरूरी है की हालात ने उन्हें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि उनकी एकजुटता  समाज में मौजूद बुराइयों का अंत कर राष्ट निर्माण में सहायक बन सकती है। आज जरूरत किस बात की है। आज समय की मांग है कि इस घटना ने जो अभूतपूर्व ज्वार लोगों के मन मस्तिष्क में पैदा कर दिया है उसे सही दिश देने की। काबिलेगौर यह भी है की भारतवर्ष का शान उसकी युवा पीड़ी किसी भी तरह के अन्याय को होता देख हाथ पर हाथ धरकर नही बैठने वाली। वह समाज में फैली बुराइयों के समाप्त करके ही दम लेगी और यह ललक इस देश के लिए बहुत संकेत है। वैसे युवाओं के इस रूप को हम भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को धार देते भी देख चुके हैं। मगर उसकी तुलना इस का्रंति से करना उचित नही। लेकिन सच्चाई यह है की उस आंदोलन में भी जान देश के
युवावर्ग ने ही डाली थी। आज राजनीतिक एजेंड और युवा समाज के आकांक्षाओं के बीच फासला इस कदर बड़ गया है की कौन क्या चाहता है, इस बात का इल्म भी सरकारों को नही है। भारत युवा देश है। इसकी असली बुनियाद भी यह युवा वर्ग ही है। जाहिर है वह एक अन्याय मुक्त पारदर्शी समाज की स्थापना को बेचैन है। बेचैनी का आलम का दृश्य राजपथ की सियासतदान देख चुकें है। सवाल यह है कि सियासतदानों के पास इस बेचैनी का उपचार है

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

राहुल का मिशन 2014

कांग्रेस के लिए मिशन 2014 बहुत ही मुश्किल होने जा रहा है। पांच राज्यों के चुनाव में जिस तरह 4 बड़े राज्यों में उसे करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, उसने पार्टी और कार्यकर्ता के मनोबल को बुरी तरह से झकझोर दिया है। मनोबल टूटना किसे कहते है उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जब लंका में हनुमान ने अपनी पूंछ से आग लगा दी तो सारी लंका में यह चर्चा होने लगी की जिसका साधारण सेवक इतना ताकतवर है वह स्वयं आ गया तो क्या होगा।  हालांकि राहुल गांधी संगठन में आमूलचूल परिवर्तन की बात कर रहें है मगर महंगाई और भ्रष्टाचार में बुरी तरह फंसी पार्टी के लिए गठबंधन का दौर भी मुश्किल होन जा रहा है। हालांकि अभी भी कांग्रेस को राज्यों में कई साथी मिल सकतें है। मगर हाल ही में चारा राज्यों के नतीजों ने  सहयोगियों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। मसलन बिहार में नीतीश के साथ जो संभावना बड़ रही थी। वह अब कमजोर पड़ गई है। दूसरा जहां जहां कांग्रेस गठबंधन करेगी वहां वह ज्यादा अपने सहयोगियों को दबा नही पाएगी बल्कि सहयोगी उसके लिए मुश्किल पैदा करेंगे और शर्तें थोपने से बाज नही आऐंगे। मुझे याद है 2009 में राहुल ने एकला चलो का नारा दिया था। मसलन यूपी में वह कामयाब भी रहा मगर बिहार में कांग्रेस को केवल 2 सीट मिल पाई। कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश जो सबसे बड़ा राज्या था वह टूट चुका है। उसकी भरपाई वह कर्नाटक से करने की कोशिश करेगी। मगर राजस्थान जहां से उसे 2009 में 25 में से 21 सीटें मिली थी वह अब 4 या पांच तक सिमट कर रह जाएगा। दिल्ली जहां उसने 2009 में बीजेपी का सूपड़ा साफ कर दिया था अब खुद उसी हाल में जाती दिखाई दे रही है। मध्यप्रदेश में शिवराज के मजबूत होने का मतलब की वहां 2009 के मुकाबले बीजपी का प्रदर्शन अच्छा होगा। बीजेपी को भरोसा है कि इस बार वह 2009 के 16 सीट के मुकाबले 22 सीटों को जीत सकती है। तकरीबन 22 का ही आंकड़ा उसका गुजरात से बनता है उत्तराखंड की चारों सीटें जो 2009 में  कांग्रेस को मिली थी इस बार एक भी उसके लिए फिलहाल बचाना मुश्किल है। महाराष्ट में कांग्रेस का प्रदर्शन 2004 के मुकाबले जबरदस्त रहा। खासकर मुंबई में एमएनस ने वोट कटवा भूमिका निभाकर कांग्रेस के लिए खेल आसान कर दिया। मगर इससे न सिर्फ शिवसेना और बीजेपी को नुकसान हुआ बिल्क उसके सहयोगी एनसीपी को भी कमजोर किया। मगर कांग्रेस के लिए राहत की बात यह है की धर्मनिरपेक्षता और समझौते के दिखावे आदर्शवाद पर अब भी कई राजनीतिक दल उससे जुड़ सकते हैं।
मसलन उसके सबसे बड़े गढ़ आंध्रप्रदेश में उसे टीआरएस का साथ मिल सकता है। बिहार में लालू और पासवान उसके 2014  में फिर से सहयोगी बन सकते है। वैसे भी लालू कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षेता के मामले में सबसे बड़े सहयोगी हो सकते है। दूसरा लालू मोदी विरोधी चेहरा बनकर अपने माई समीकरण को जिन्दा करने की कोशिश करेंगे। बिहार में नुकसान में सिर्फ और  सिर्फ नीतीश कुमार रहेंगे। झारखंड में जेएमएम को मुख्यमंत्री की कुर्सी देने से पहले ही लोकसभा की जोड़ तोड़ तय कर ली गई थी यानि जेएमएम कांग्रेस के साथ होगी। बीजेपी की कोशिश हालांकि बाबूलाल मरांडी को वापस लाने की हो सकती है और इसमें मोदी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। महाराष्ट में शरद भाउ कितनी हल्ला काटे मगर कांग्रेस उनकी मजबूरी भी है और मुश्किल भी। हां सीटों को लेकर वह कांग्रेस पर दबाव डाल सकते है। क्योंकि महाराष्ट में चुनाव सिर्फ लोकसभा के लिए ही नही बल्कि विधानसभा के लिए भी होने हैं। राजस्थान में उसे केवल अब किरोणीलाल मीणा दिखाई देते है जो 2 ; 4 सीटों में  प्रभाव डाल सकते हैं। आंध्र में विभाजन के बाद उसका सारा भरोसा तेलांगान क्षेत्र से है। यानि यहां टीआरएस का विलय करके या मुख्यमंत्री बनाने का सपना दिखाकर अपना हित साध सकती है। आंध्र प्रदेश के कुल 42 संसदीय क्षेत्रों में से 17 संसदीय क्षेत्र तेलांगाना से आते हैं। विधानसभा की कुल सीटों में 150 विधायक इस क्षेत्र से आते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है की राजनीतिक
लिहाज से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। फिलहाल 2009 में यहां से कांग्रेस के 12 सांसद और 50 विधायक जीतकर आऐं हैं। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि  2004 और 2009 में दिल्ली की सत्ता तक कांग्रेस को पहुंचाने में आंध्र प्रेदश का बहुत बड़ा हाथ रहा। ऐसे में कांग्रसे का सारा जोर अब 17 लोकसभा सीट पर हो चुका है। इसलिए वह राज्य बनाने को लेकर अड़ी हुई है। तमीलनाडू में उसके साथ पीएमके आ सकती है मगर यहां लगता नही कांग्रेस के लिए कोई अच्छी खबर आए। क्योंकि उसके सबसे लाडलेमंत्री पी चिंदबरम भी यहां से सीट बचा पाना मुश्किल लगता है। हां कर्नाटक में जरूर सिद्धरमैया कांग्रेस के लिए चमत्कार कर सकते हैं क्योंकि अपने पहले ही बजट में उन्होंने लोकप्रिय घोषणाओं से जनता को लुभाने का प्रयास किया है। उत्तरप्रदेश में  उसका सबसे खराब प्रदर्शन रहेगा क्योंकि 2009 में 22 सीटों को बचाए रखना उसके सांसदों के लिए नामुमकिन है। 2012 के विधानसभा नतीजों से यह अंदाजा लगाना कठिन नही। यूपी के जमीनी हालात से सबसे ज्याद वाकिफ अगर कोई है तो वह खुद राहुल गांधी हैं। 2014 में राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के सामने खड़े होंगे सबसे जरूरी है कि जनता के दिलों को कैसे जीता  जा सकता है उसे राहुल गांधी को सिखना होगा। अपने संगठन के मनोबल को दुबारा मजबूत करना उनके लिए सबसे बड़ा  चुनौतिपूर्ण कार्य होगा।

रविवार, 15 दिसंबर 2013

अन्ना बनाम सरकार

अन्ना की मांग की तामील हो।
शीतकालिन सत्र में जनलोकपाल बिल हो पारित।
सांसदों के संसदीय प्रदर्षन सालाना अंकेक्षण हो।
जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार और चुनाव के वक्त इनमें से कोई नही ंके प्रावधान पर सरकार करे विचार
ग्राम सभा को ज्यादा शक्ति प्रदान की जाए। खासकर जमीन अधिग्रहण पर ग्राम सभाओं को मिले महत्व।


सरकार ने भ्रष्टाचार में बनाए गए मंत्रियों के समूह की सिफारिश स्वीकार की।
17 फास्ट ट्रैक सीबीआई कोर्ट का गठन हो।
अभियोजन चलाते की इज़ाजत तीन महिने के भीतर देना अनिवार्य।
केन्द्रीय सर्तकता अयोग को मजबूत बनाया जाए।
सरकारी खरीद से जड़ी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए।
सेवनिवृति के बाद भी पेंशन में हो सकती है 10 फीसदी की कटौति।
बड़े मामलों में यह 20 फीसदी भी हो सकती है।
भ्रष्टाचार को रोकने सम्बन्धि कानून में होगा संशोधन
भ्रष्टाचार विरोधी अंतराष्ट्रीय संधियों को किया जाए रेटीफाई

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

आधी आबादी की सुरक्षा का सवाल

16 दिसंबर 2012। यह देश की इस तारीख को कभी नही भूल सकता। भारत के इतिहास में यह तारीख किसी काले दिन से कम नही। क्योंकि इस दिन रात को निर्भया के साथ चलती बस में बर्बर बलात्कार किया गया। इस मामले ने देश की जनता को झकझोर तक रख दिया। इसके बाद जनता का जो रौद्र रूप सड़कों पर दिखा उसने संसद को तक हिला कर रखा दिया। देश भर में आधी आबादी की सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ गई।
पुलिस से लेकर कानून तक में बदलाव की बात होने लगी। इन सबके बीच दिल्ली एक बार फिर सुर्खियों में थी। क्योंकि यह बर्बर कांड देश की राजधानी दिल्ली में हुआ था। पूरे देश से निर्भया को मिले समर्थन ने हुक्मरानों को कानून को कठोर करने के लिए मजबूर किया। निर्भया मामले के बाद सरकार ने जस्टिस वर्मा समिति बनाई। इस समिति ने एक महिने से कम समय में सरकार को अपनी सिफारिशें सौंपी। समिति ने पुलिस सुधार ने लेकर पूरे सिस्टम में बड़े बदलाव की सिफारिश की। एंटी रेप कानून को संसद ने अपनी मंजूरी दे दी। मगर न तो पुलिसया तौर तरीकों में बदलाव आया नही ही महिलाओं के खिलाफ अपराध रूके। आज सबसे अहम सवाल यह है कि क्या महिलाओं देश की राजधानी में अपने आप को सुरक्षित समझती है। कोई पूछे उस परिवार से जिनकी बेटी नौकरी के लिए बाहार जाती है मगर आने में पांच मिनट देरी हो जाए तो मां सहित
पूरे परिवार की स्थिति क्या हो जाती यह हम आप नही समझ सकते। जो सुरक्षा का भाव आधी आबाधी में होन चाहिए वह आज भी नदारत है। जिस देश में महिलाओं को देवी का दर्जा दिया जाता है वहां उसके खिलाफ यह अपराधा की सामाजिक ताने बाने पर भी सवाल उठाते हैं। क्योंकि ज्यादातार मामलों में अपराध करने वाला पीड़िता का जानकार होता है। उसका रिश्तादार होता है।

सोचो न समझो लाचार है औरत
जरूरत पड़े तो दिवार है औरत
मां है बहन है पत्नि है हर जिम्मेदारी के लिए तैयार है औरत। 

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

कौन आम, खास कौन?

राजनीति के क्षेत्र में यह जुमला खास हो चुका है। आम आदमी पार्टी जीत से गदगद है। कल जंतर मंतर में धन्यवाद रैली के दौरान आम आदर्मी पार्टी  ने राष्टीय राजनीति में भी हाथ आजमाने के संकेत दे दिए हैं। मनीष सिसोदिया ने तो यहां तक कह दिया की राहुल गांधी से कुमार विश्वास दो दो हाथ करने  को तैयार हैं। भविष्य में क्या होगा इसका इंतजार करिये। मगर मेरा मानना है कि पार्टी को अतिआत्मविश्वास से ज्यादा सादगी और सरलता का परिचय देना चाहिए। कल यह भी खबर उड़ी कि अब केजरीवाल का अगला वार नरेन्द्र मोदी पर होगा। क्या इन बातों से उत्साह से ज्यादा अहंकार की बू नही आ रही है। इसमें कोई दो राय नही भारत का हर एक नागरिक बदलाव का वाहक बनने के लिए तैयार है। हर कोई भ्रष्टाचार मुक्त परिवेश चाहता है। हर कोई साफ सुथरी राजनीति चाहता है। धनबल और बाहुबल से राजनीति को मुक्त करना चाहता है। धर्म और जाति के प्रभाव को खत्म करना चाहता है। मगर इसके लिए असीम धैर्य का परिचय इस पार्टी को देना होगा। लोगों ने यह साफ कर दिया है की वह राजनीति में कांग्रेस और बीजेपी से तंग आ चुकें है। मेरे विचार से इन दोनों राष्टीय दलों से जनता का मोहभंग कोई लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नही है। मगर इस बात को ध्यान रखना होगा की जनता के मजबूत विकल्प की तलाश में है। दिल्ली में यही विकल्प आम आदमी पार्टी में उन लोगों को दिखाई दिया। मगर दिल्ली एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार हो रही है। जबकि मेरे ख्याल से एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार को चलाया जा सकता है। क्योंकि ने जिन कार्यो के आधार पर आप को वोट दिया वह सड़क बिजली पानी महंगाईभ्रष्टाचार और सुरक्षा जैसे मुददों पर केन्द्रीत था। मगर राजनीतिक दल यह कहते दिखाई दें रहें है कि हमें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। जब सवाल समाज और देश के हित का हो तो राजनीतिक दलों को मतभेद भुलाकर जनता के लिए जुट जाना चाहिए। मगर यहां भी संभावनाओंको भविष्य की कसौटी पर आंका जा रहा है। मैं सिर्फ इतना कहना चाहंूगा की चुनाव में हार जीत लगी रहती है। जो लोग कांग्रेस को खत्म मान रहें है वह यह भूल जाते है कि 1979 में क्या हुआ। यहां तक की 1999 में 114 सीटें पाने वाली कांग्रेस 2009 में 206 सीटों तक पहुंच गई। तो राजनीति में उतार चढ़ाव लगे रहते है। जरूरत है जनता के नब्ज़ टटोलने की। आखिर में आज युवाओं की अपेक्षा और आकांक्षा राजनीतिक दलों से कई ज्यादा है। इसलिए राजनीतिक दल अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने के बजाय देश को आगे ले जाने में मदद करें।



मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

लोकपाल की लड़ाई

हर आमोखास में चर्चा का यही मुददा था। क्या यह संसद एक मजबूत और सशक्त लोकपाल बनाने का इतिहास रचेगी? क्या 45 साल का .इंतजार खत्म होगा? क्या अब तक का किया हुआ यह 10 वा प्रयास सफल रंग लाएगा? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देष में एक लोकपाल आ पाएगा? संयुक्त मसौदा समिति, दो महिने में 9 बैठकों के बावजूद आम सहमति नही बना पाई। इसके बाद संसद ने अन्ना की तीन मांगों पर चर्चा की। एक प्रस्ताव पारित कर विधि मंत्रालय की स्थाई समिति को भेज दिया गया। इसकी सिफारिशों के आधार पर लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक सदन में रखा। लोकसभा में चर्चा के बाद इस पारित किया गया। मगर राज्यसभा में आधी रात को हुए हाइवोल्टेच घटनाक्रम में यह विधेयक पारित नही हो पाया। इसके बाद इसे प्रवर समिति को भेज दिया गया। प्रवर समिति ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी। मगर यह विधेयक फिर सरकार की प्राथमिकता में नही रहा। इन सब के बीच आए दिन नए घोटालों और खुलासे और इसमें राजनीतिज्ञों की भूमिका ने मौजूदा माहौल में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी है। देश की जनता अपने
को ठगा महसूस कर रही है। क्या राजनीतिक दल वर्तमान में आवाम में मौजूद बेचैनी को दूर करने में कामयाब रहेंगे। वर्तमान में मौजूद इस निराशावादी माहौल को दूर करने की आखिरी आष देश की सर्वोच्च नीति निधार्रक संस्था के कंधों पर है। लोकसभा में सत्र को 3 दिन यानि 27 से लेकर 29 तक तारीख बढ़ाई गई। मगर नतीजा ठाक के तीन पात। इधर नागरिक समाज का मसौदा कहता है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए। मगर सरकार इस पर राजी नही। जबकि 2001 में विधि मंत्रालय की स्थाई समिति प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने की सिफारिष कर चुकी है। यहां तक की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और खुद डाॅ मनमोहन सिंह लोकपाल के दायरे में आने की इच्छा व्यक्त कर चुके हैं। पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट ही जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। पिछले तीन विधेयकों को संसद की स्थाई समिति को सौंपा गया। इसके अलावा 2002 में संविधान के कामकाज के आंकलन के लिए बनाये गय राष्ट्रीय आयोग ने भी लोकपाल के जल्द गठन की सिफारिश  की थी। 2007 में गठित दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी एक मजबूत लोकपाल की वकालत की। मगर सरकार आम सहमति के नाम पर इस कानून को अब तक लटकाने में सफल रही। देष में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए 1988 में प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट बनाया गया। देष के तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। मगर ज्यादातर लोकायुक्तों का हमने नाम तक नही सुना होगा। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया तो नौबत उनके इस्तीफा देने तक पहंुच गई। बाकी राज्यों में भी यह महज सिफारिशी संस्थान बन कर रह गए हैं। कई राज्यों में तो सालों से विधानसभा के पटल पर इसकी रिपोर्ट तक नही रखी गई। जबकि सालाना इसकी रिपोर्ट रखने का प्रावधान है।देश में केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी महज एक सिफारिशी संस्थान बनकर रह गया है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां गंभीर मामलों में कितनी न्याय कर पाती होंगी। अगर इन संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा गया होता तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता था। इसीलिए आशंका सरकारी मसौदे का लोकपाल महज एक सिफारिशी संस्थान बनाकर न रख दे। आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सषक्त लोकपाल बनाने का ऐतिहासिक मौका संसद के पास है। अगर सियासतदान फिर भी नही समझे तो आने वाले समय में जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि जनता के सब्र का बांध अब टूट चुका है और इसकी बानगी है जन्तर मन्तर में उमड़ा जनसैलाब है। मगर लगता नही की अब ऐसा आंदोलन निकट भविष्य में जल्द देखने को मिलेगा।



लोकपाल !

आखिरकार क्यों 45 साल से लोकपाल पारित नही हो पाया? क्यों जनआंदोलन भी राजनीतिक दलों को नही हिला सकी? क्या भ्रष्टाचार देश में कोई मुददा नही है? या नेताओं को लोकपाल से डर लगता है? यह कुछ ऐसे सवाल है जिसका जवाब आमजनमानस चाहता है। बहरहाल सरकार के रवैये से नाराज़ अन्ना ने रालेगण सिद्धि में लोकपाल विधेयक को लेकर अनशन शुरू कर दिया। पहले अन्ना ने प्रधानमंत्री को चिटटी लिखकर विधेयक पारित ने करने को लेकर नाराजगी जाहिर की थी। प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री वी नारायणसामी ने विधेयक पारित करने को  लेकर सरकार की गंभीरता दर्शायी है मगर सवाल यह की इस छोटे से सत्र में सरकार इस विधेयक को पारित करा पाएगी। 2 राज्यों में करारी हार के बाद सरकार का एक तबका इस विधेयक को न सिर्फ पारित करवाना चाहता है बल्कि यह चाहता है की इसका श्रेय भी सरकार को मिले। मध्यप्रदेश दिल्ली राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हारी कांग्रेस के लिए क्या करें क्या न करें की स्थिति खड़ी है। ऐसे में इस विधेयक को पारित नही करा पाती तो उसको लोकसभा में गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। इससे पहले सरकार ने यह बहुप्रतिक्षित लोकपाल विधेयक को संसद के पटल पर पेश किया। यह 10 वां मौका होगा जब लोकपाल से जुड़ा विधेयक संसद में पेश किया गया। आखिरकार भारी दबाव के चलते सरकार ने इस पर बहस के लिए 27 से लेकर 29 दिसंबर का तारीख मुकर्रर की है। इसके लिए संसद का सत्र तीन दिन के लिए आगे बढ़ाया गया है। मगर संसद के मूड को देखकर लगता नही की लोकपाल की डगर इतनी आसान होगी। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पाटी समेत सभी राजनीतिक दलों ने सरकार के बिल के मसौदे पर कमियां निकालना शुरू कर दिया है। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तो इसे असंवैधानिक तक करार दे दिया। बीजेपी को सबसे ज्यादा नाराजगी अल्पसंख्यकों के आरक्षण को लेकर थी। दरअसल इस विधेयक में कहा गया है कि लोकपाल का एक 9 सदस्यीय पैनल होगा जिसमें आठ सदस्य और एक अध्यक्ष मतलब लोकपाल होगा। इस पैनल में 50 फीसदी लोग अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जाति, महिलाओं और अल्पसंख्यकों से होंगे। पहले बिल में अल्पसंख्यक शब्द नही था मगर लालू, मुलायम और बीएसपी के विरोध में सरकार ने इसमें अल्पसंख्यक शब्द बाद में जोड़ा। दूसरी सबसे बड़ी अड़चन धारा 253 थी। बीजेपी ने इस धारा की पुरजोर खिलाफत की। इस धारा के तहत ही लोकपाल कानून बनाना प्रस्तावित है। मतलब केन्द्र की ही तर्ज पर राज्य भी लाकायुक्त बनाने के लिए बाघ्य होंगे। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसे संघीय ढांचे के खिलाफ बताया। बीजेपी के लिए मुश्किल यह भी है की हाल ही में उत्तराखंड और बिहार ने लोकायुक्त कानून पारति किया है। मतलब यह कानून इस रूप में पारित होाग तो इन राज्यों को नए सिरे से लोकायुक्त का गठन करना होगा। इसलिए ज्यादातर राजनीतिक दलों का यह कहना है कि यह कानून एक माडल एक्ट की तरह हो जिसे मानने या ना मानने के लिए राज्य सरकारें बाध्य न हो। विधेयक के मसौदे पर कुछ राजनीतिक दलों ने सरकार को सीधे कठघरे में खड़ा कर दिया। मसलन सरकार पर यह आरोप लगा की अन्ना के अनशन से डरकर सरकार जल्दबाजी में ऐसा विधेयक लेकर आई है जिसमें कई गंभीर खामियां हैं। वैसे देखा जाए तो सरकार की मुसीबत कम होने का नाम नही ले रही है। अन्ना हजारे ने लोकपल विधेयक को जनता के साथ धोखा करार दिया है। उनका मानना है कि यह विधेयक 27 अगस्त के उस प्रस्ताव के विपरीत है जिसे संसद ने सर्वसम्मित से स्थाई समिति को भेजा था। गौरतलब है इसमें सीटीजन चार्टर, लोअर ब्यूरोके्रसी और एक ही कानून से लेकापाल और लोकायुक्त बनाने पर सहमति थी। मगर सरकार ने एक को छोड़कर बाकी मांगे नही मानीं। अब अन्ना ने एक बार फिर सरकार के खिलाफ ताल ठोक दी है। 27 को जब सदन लोकपाल पर चर्चा कर रहा होगा अन्ना मुंबई में सरकार को अपनी ताकत का अहसास कराऐंगे। उन्होने अपने कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। तीन दिन के अनशन के बाद वह तीन दिन जेल भरो आंदोलन करेंगे। साथ ही अन्ना हजारे पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में प्रचार करेंगे। कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यह चुनाव ही है। क्योंकि पांच राज्यों में से पंजाब और उत्तराखंड की सत्ता में काबिज होने की उसे पूरी उम्मीद है। राहत की बात यह है कि सोनिया गांधी ने सरकार द्धारा पेष विधेयक का ख्ुालकार समर्थन किया है। बहरहाल अगर संसद की बात करें तो गुरूवार का माहौल देखकर लगता नही कि राजनीतिक दलों में इस कानून को पारित कराने की कोई खास दिलचस्पी दिखाई देती है।। बीजेपी राजनीतिक फायदे का आंकलन करते हुए अन्ना की ज्यादातर मांगों में सुर से सुर  मिला रही है। कांग्रेस पशोपेश में है बस उसकी नजर राजनीतिक दलों के रूख पर टिकी है। गुरूवार को लोकसभा का नजारा बिलकुल अलग था। लालू प्रसाद, अनंत गीते और गुरूदास दास गुप्ता को अपने भाषणों में सबसे ज्यादा तालीयों सरकार की तरफ से मिली। यानि कांग्रेस अन्ना के खिलाफ खुद खड़ा नही दिखना चाहती मगर अन्ना पर हल्ला बोलने वालों पर उसकी नजरे निगेहबान है। राजनीति का खेल देखिए समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव जंतर मंतर पर अन्ना के समर्थन में पहुंचे मगर लोकसभा में मुलायम सिंह को लोकपाल के रूप में ऐसा दरोगा दिखाई दे रहा है जो नेताओं का जीना मुश्किल कर देगा। जंतरमंतर पर सीपीआई के नेता एबी बर्धन अन्ना के समर्थन पर पहुंचे मगर लोकसभा में उनकी पार्टी के सांसद गुरूदास दास गुप्ता यह कहते दिखे की सड़कों के प्रदर्षन संसद को अपने मनमाफिक कानून बनाने के लिए बाध्य नही कर सकते। गुरूवार को अगर देखा जाए तो लोकसभा का नजारा बिलकुल जुदा था। लोकपाल की चर्चा गायब थी हर ओर एक ही षोर था इसमें अल्पसंख्यकों के लिए जगह कहां हैं। मतलब साफ था राजनीतिक दलों के पास मौका था वोट बैंक के लिए बैटिंग करने का लिहाजा लालू ,मुलायम सब सरकार पर आग बबूला हो गए। बुनियादी सवाल यह है कि अन्ना हजारे की मांगों को क्या यह संसद नजरअंदाज कर देगी। क्या वकाई जनप्रतिनिधि एक मजबूत और सषक्त लोकपाल देश को देना चाहते हैं। जहां टीम अन्ना सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए सरकार पर लगातार दबाव बनाये हुए है मगर सरकार ने सीबीआई के निदेशक के चयन के अलावा सबकुछ पहले जैसा ही रखा। सीटीजन चार्टर के तौर पर एक अलग विधेयक पेश किया है। न्यायपालिका में मौजूद भ्रष्टाचार सरकार न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक से करेगी। इसके अलावा व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा और काले धन पर रोक जैसे कानूनों के सहारे सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात कर रही है। इससे पहले सरकार सरकारी खरीद में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नई खरीद नीति को अमलीजामा पहना चुकी है। सबसे दिलचस्प यह देखना होगा कि संसद में होने वाली चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों का क्या रूख रहता है। इतना जरूर है की देश को एक जबरदस्त बहस देखने के लिए अपने आपको तैयार रखना चाहिए। इसमें कोई दो राय नही की कानून बनाना संसद का काम है। और संसद की संप्रभुता सबसे उपर है मगर बुनियादी सवाल यह है की अगर अन्ना का अनशन नही होता तो क्या सरकार लोकपाल को लेकर इतनी गंभीर मुद्रा में कभी आती। आज सदन में सरकार के सामने आमसहमति के अभाव जरूर है। लिहाजा कानून को पारित कराने की चुनौति कांग्रेसी रणनीतिकारों के सामने बरकारार है। संसद को यह नही भूलना चाहिए कि लोकपाल विधेयक आज हर जनमानस की आवाज में रच बस चुका है। पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। बहरहाल अब जनता एक मजबूत और सशक्त लोकपाल के लिए और ज्यादा इंतजार करने की स्थिति में नही है।

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

क्यों जीती आप?

क्यों जीती आप? जवाब आप सबको मालूम है। देश के दो बड़े महारथियों ने क्या आप से सबक लिया होगा। युवराज का प्रयोग तो नही चला मगर आप के करिश्में को वह भी सलाम कर रहे हैं। आप से सीखने की बात कर रहें है। मगर क्या करें उनके पास आज कार्यकर्ता कम, नेता ज्यादा है। राजनीतिक पंडित अब कह रहें है की आप का प्रदर्शन अप्रत्याशित था। मगर दिल्ली की सड़कों पर यह दिख रहा था। लोगों ने नजरियें में यह भाव पड़ा जा सकता था। एक सवाल जिसका जवाब नही मिल रहा है वह है मोदी लहर दिल्ली में कहां गई। क्योंकि उनकी जापानी पार्क की रैली को ऐतिहासिक करार दिया गया। मगर नतीजों में यह नही दिखा। अब कांग्रेस से ज्यादा चिंता बीजेपी के खेमे में है। कहीं मोदी की लहर के आगे केजरीवार भाड़ी न पड़ जाए। क्योंकि आम आदमी का यह प्रयोग लोकसभा चुनाव में भी हुआ तो मोदी का प्रधानमंत्री बनने का सपना काफूर हो जाएगा। इसलिए अब बीजेपी के रणनीतिकार सतर्क हो गए है। बहरहाल मिशन मोदी के सामने अब कांग्रेस के साथ साथ केजरीवाल खड़े होंगें। दिल्ली में जनता के समर्थन के बाद अब साफ हो गया है की देश एक अच्छे विकल्प की तलाश में हैं? दूसरी बात लगता है राजनीतिक दलों ने जनता की मनोभाव पड़ना छोड़ दिया है। अगर ऐसा होता तो भ्रष्टाचार और महंगाई को सरकार हल्के में नही लेती। मगर अभी इस पार्टी को साबित करना है। क्योंकि देश में जाति का वर्चस्व हावी है। ऐसें में ईमादारी की लहर क्या नेताओं के बनाए गए जाति के चक्रव्यूह को तोड़ पाती है, इसका जवाब हमें देश के कुछ बड़े राज्यों के चुनाव के बाद मिलेगा। बहरहाल दिल्ली में आप की इस अप्रत्याशित जीत ने सबको हैरान कर दिया। अब आत्ममंथन की इनका चिंतन जनता के प्रति होता है या नही, यह भी देखना दिलचस्प होगा?