बुधवार, 18 मई 2011

बाघ की कथा-व्यथा

बाघों का नरभक्षी होना कोई नई बात नहीं है। आदमी को देखकर ही रास्ता बदल लेने वाला बाघ जो उसके सामने भी नहीं पड़ना चाहता। वह आखिर आदमी का जानी दुश्मन कैसे हो गया। इस गुत्थी को सुलझाने हम पहुंचे सुंदरखाल। स्थानीय लोग बताते हैं कि पिछले महीने यहां एक आदमखोर बाघिन ने बहुत कहर ढाया था। सुंदरखाल में पिछले छह महीने में आदमखोर बाघिन चार से अधिक महिलाओं को अपना शिकार बना चुकी थी। उनमें से एक पीड़ित परिवार के घर हम पहुंचे। यह घर शांति देवी का है। वह अब इस दुनिया में नहीं है। शांति देवी भी उसी आदमखोर बाघिन की भेंट चढ़ी थी। पिछले साल नवम्बर में सुबह 11.30 बजे बाघिन उसे पास के ही जंगल से अपने खूनी पंजे में दबोच कर ले गई थी। उसके बाद वह घर नहीं लौटी। वह अपने पीछे छह छोटे-छोटे मासूम बच्चों को छोड़ गई। पति मजदूरी करता है। घर में बूढ़ी बीमार मां है। ये भी उस आदमखोर के खौफ के साए में जी रहे हैं। इनके दर्द की दास्तान पड़ोस में रहने वाले केशव इस तरह सुनाते हैंµ आदमखोर के खूनी पंजों से जिंदा बच जाने वाले एक भाग्यशाली हैं हरिदत्त पोखरीयाल। पांच साल पहले इन पर बाघ ने हमला बोला था। इनकी जान तो बच गई, मगर जख्म पांच साल बाद भी हरे हैं। पूरे डेढ़ साल के उपचार के बाद ही वे पैरों पर खड़े हो सके थे। अब यह लाठी ही इनका सहारा है। 2005 में ढिकाला में कार्यरत मदन पांडे पर भी आदमखोर ने इसी साल हमला किया था। इनका पैर और कंधा बुरी तरह से नोच डाला था। ऐसा नहीं कि आज सिर्फ आदमी ही बाघ से बचता फिर रहा है। बल्कि बाघ भी आदमी के हाथों लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुका है। आदमी के ‘खूनी पंजों’ से बाघों को बचाने की मुहिम तीन दशक पहले प्रोजेक्ट टाइगर के नाम से शुरू हुई थी। काॅर्वेट नेशनल पार्क इस परियोजना से सबसे पहले जुड़ा था। 2010 की गणना में जिन अभ्यारण्यों में बाघों की तादाद बढ़ी है, उनमें काॅर्वेट नेशनल पार्क भी शामिल है। 2200 स्कवायर किलोमीटर में फैले इस अभ्यारण्य में 2003 में कुल 164 बाघ विचरते थे, आज इनकी तादाद बढ़कर 214 हो चुकी है। यहां मौजूद आला अधिकारियों की एक ही राय है कि चाहे बाघों का सरंक्षण हो या फिर दूसरे वन्य जीवों का संरक्षण इसमें आम सहभागिता जरूरी है। देश के बाघों के संरक्षण के लिए और उन्हें आदमखोर होने से बचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सबसे जरूरी बात है कि जंगलों को इंसानी दखल और चोर शिकारियों से बचाया जाए। आदमी जब बाघ का चित्रा बनाता है, तो बाघ को आदमी द्वारा जबड़ों से पकड़कर फाड़ते हुए बनाता है। क्या हमने कभी सोचा है कि यदि बाघों के हाथ में कलम होती और वे आदमी का चित्रा बनाते तो निश्चित ही आदमी के शरीर की बोटी-बोटी करके बनाते।हमारी बाघ की कथा-व्यथा का यह अध्याय तो खत्म हो चुका है, लेकिन हम कामना करते हैं कि हमारे देश के जंगलों की शान बाघ कभी खत्म न होने पाए।

बाघ की कथा-व्यथा

आदमी की बाघ के इलाकों में बढ़ती घुसपैठ से बाघ आदमी के प्रति आक्रामक हुआ है। चाहे घास काटने वाले घसियारे हों, चाहे लकड़ी बीनने वाले लक्कड़हारे, चाहे पशु चराने वाले मालधारी हों, चाहे शहद बीनने वाले, चाहे जड़ी-बूटी बटोरने वाले हों, चाहे वन्य जीवों के अवैध तस्कर बड़े पैमाने पर बाघ के इलाकों में आदमी की घुसपैठ हुई है। इसके अतिरिक्त पर्यटकों की आवाजाही कोई कम चिंताजनक नहीं है। एक बाघ के पीछे पर्यटकों की 50.50 गाड़ियां पड़ी रहती हैं। ऐसे में बाघ का आक्रामक होना बाजिव है। वह अब दो पैर के जानवर को अपना दुश्मन नम्बर एक मानकर चल रहा है और उस पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा है। इस तरह से कहा जा सकता है कि बाघों के आदमखोर बनने की मुख्य वजह आदमी ही है। ढिकाला प्रवास के दौरान हमारी मुलाकात हुई याकूब से। यह पिछले तीन साल से इसी इलाके में रह रहा है। पेशे से महावत है, लेकिन समय के साथ-साथ उसके पेशे में भी बदलाव आया है। आज वह महावती नहीं करता, बल्कि यहां आने वाले पर्यटकों की जरूरतों का ध्यान रखता है। वह इस इलाके से जुड़ी हर खट्टी-मीठी यादों का गवाह है। याकूब उस सनसनीखेज घटना का भी गवाह है, जब वह किसी तरह आदमखोर बाघ से जान बचाकर भागने में कामयाब रहा था। लेकिन याकूब का साथी इतना भाग्यशाली नहीं था। उसका साथी आदमखोर बाघ ने हमेशा के लिए उससे छिन लिया। दूसरे कुछ महावत जो पिछले 25 सालों से यहां पर काम कर रहे हैं। वे भी आदमखोर बाघों के दर्जनों सनसनीखेज किस्से सुनाते हैं।

बाघ की कथा-व्यथा। सफर का पांचवा दिन

पांचवें दिन हम फिर उसी जगह पहुंचे। मगर जंगल बिलकुल शांत था। कहीं कोई आवाज नहीं, कोई हलचल नहीं। ऐसा दो ही वजहों से होता है। या तो बाघ आराम फरमाने में मस्त है या फिर शिकार खाने में व्यस्त। बाघ को आराम करने के लिए बिलकुल वीरान जगह पसंद है। यहां किसी की उस पर नजर न पड़े। क्योंकि उसे मालूम है कि उसके दिखने का मतलब है जंगल में कोहराम। इससे उसके आराम फरमाने में खलल पड़ता है। वह शिकार पर भी चुपके-चुपके ही निकलता है। क्योंकि शोर-शराबे के बीच दूसरे जीव सतर्क हो उठते हैं। ऐसे में शिकार उसके पंजों से निकल जाता है। लगभग शाम 6 बजे पूरे 9 घंटे के बाद बाघ हरकत में आया। हम वापिस अपने ठिकाने पर पहुंच चुके थे। हमारी बाघ की तलाश पूरी हो चुकी थी। मगर हमारी कथा के तीन महत्वपूर्ण सवालों के जवाब जानने अभी बाकी थे। पहला बाघ की गणना की पद्धति क्या है? दूसरा बाघ और आदमी के बीच टकराव क्यों बढ़ रहा है और तीसरा काॅर्वेट नेशनल पार्क ने बाघों के संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए हैं? हमारे देश में बाघों की गणना के लिए ‘पगमार्क पद्धति’ यानी उसके पंजों के निशानों की गणना अपनाई जाती रही है, मगर अब इसके लिए उन्नत तकनीक का प्रयोग होने लगा है। इसे कहते हैंµ‘कैमरा टैपिंग’। इसके लिए जगह-जगह पेड़ों में एक निश्चित ऊंचाई पर कैमरे लगा दिए जाते हैं। इन कैमरों में सेंसर लगे होते हैं। जैसे ही बाघ यहां से गुजरता है, उसकी तस्वीर इस कैमरे में कैद हो जाती है।

बाघ की कथा-व्यथा। सफर का चैथा दिन

चैथे दिन का हमारा सफर शुरू हो चुका था। हम बाघ की तलाश में तड़के ही निकल पड़े थे। रात को जंगल में मचे शोर ने यह संकेत दिया था कि बाघ इस जंगल में मौजूद हैं। कुछ ही दूर चलने पर हमें वन्य जीवों की आवाजें सुनाई देने लगीं। हमें लगा कि अब हमारी मंजिल करीब है। बाघ यहीं-कहीं है। हम चैकन्ने थे। तभी एकाएक टीम के सदस्य चिल्लाएµ‘बाघ।’ वो रहा। वह हमारे बिलकुल सामने था। हमारे कैमरे हरकत में आ चुके थे। टीम के सदस्यों के चेहरे पर मुस्कान साफ देखी जा सकती थी। थकान पलक झपकते ही काफूर हो चुकी थी। पूरे जंगल में कोहराम मचा था। पशु-पक्षी अपने भीति संकेतों से बाघ के आने की चेतावनी दे रहे थे। जंगल की इस दुनिया में एकाएक भगदड़ का माहौल बन गया था। चीतलों में अजीब-सी बेचैनी देखी जा सकती थी। वे बदहवास थे। जंगल के अपने अनुभवों से वे जानते थे कि बाघ के निशाने पर वही हैं। इस बीच हमारे गाइड ने हमें आगाह किया कि जल्दबाजी में उठाया गया कोई भी कदम जानलेवा साबित हो सकता है। बाघ कभी घूरता तो कभी गुर्राता। लगभग एक घण्टे की चहलकदमी के बाद वह बीच रास्ते पर बैठ गया। उसकी नारंगी देह पर काली धारियां और चमकती हुई आखें उसे एक तेजस्वी जीव बना देते हैं। मानो आग की लपटें उठ रही हों। तभी हमें एहसास हुआ कि जंगल में बाघ की कितनी अहमियत है। वह जंगल के इस रुपहले पर्दे का सूपर स्टार है। उसकी एक झलक पाने के लिए पर्यटकों का तांता लग गया था। जब ज्यादा हो हल्ला होने लगा तो बाघ वहां से दूसरी तरफ निकल गया। इधर नजर घुमाई तो पास में एक बाघिन नजर आई। झाड़ियों के बीच से चमकती उसकी आंखों से ऐसा लग रहा था मानो वह हमारी गतिविधियों पर नजर रखे हुए थी। बहरहाल हम अपनी तलाश की कामयाबी पर खुश थे। देर से ही सही, मगर हम बाघ को ढूंढ़ने में कामयाब रहे थे। 

बाघ की कथा-व्यथा। सफर का तीसरा दिन


तीसरे दिन भी बाघ की तलाश में हम सुबह ही निकल पड़े। पहले सांभर रोड फिर रामसिंह रोड और फिर रामगंगा नदी। रास्ते में बाघ के पगमार्क साफ देखे जा सकते थे। मगर जंगल में सन्नाटा पसरा था। किसी किस्म की कोई हलचल नहीं थी। दरअसल बाघ जब सुबह अपने इलाके में चहल कदमी करता है, तो जंगली जीवों में कोहराम मच जाता है। पेड़ों पर बैठे परिंदे, बंदर और लंगूर सबसे पहले उसे देखते हैं। वे दूसरे जीवों को चेताने के लिए भीति संकेत देते हैं। यह खतरे की चेतावनी होती है। इस चेतावनी से सबसे पहले चीतल और सांभर चैंकते हैं। क्योंकि ये बाघों के प्रिय शिकार हैं। वे अपने दूसरे साथियों को भीति संकेत देने लगते हैं। फिर पूरे जंगल में भगदड़ मच जाती है। बाघ के आने की खबर जंगल में लगी आग की तरह फैलती है। बहरहाल हमारी खोज का सफर जारी था। रास्ते के किनारे पर एक दुर्लभ नजारा दिखा। एक कछुआ मधुमक्खियों के छत्ते से शहद का लुत्फ उठा रहा था। थोड़ा आगे चले तो सन्न रह गए। एक विशाल दतैल (टस्कर) रास्ता रोके खड़ा था। इसे इक्कड़ हाथी भी कहते हैं। यह झुण्ड से अलग रहता है। यह इतना बिगड़ैल होता है कि हाथी इसे अपने झुण्ड के बाहर खदेड़ देते हैं। यह बेहद आक्रामक होता है।
अब हमने बाघ की तलाश का ठिकाना बदला। हमें बताया गया कि बिजरानी में बाघ के दिखने की ज्यादा संभावना है। बहरहाल हम जरूरी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद बिजरानी के लिए रवाना हुए। जंगल के रोमांचक सफर की अलग ही दिक्कतें होती हैं। यहंा तो हल्की-सी बरसात से भी नदियों में पानी का बहाव तेज हो जाता है। नदी को पार करने में पर्यटकों को खासी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा था। किसी तरह हमने नदी को पार किया। बिजरानी पहुंचने तक शाम ढलने लगी थी। नियम के मुताबिक हम सात बजे के बाद जंगल की तरफ रुख नहीं कर सकते थे। बहरहाल अब हमारी सारी उम्मीदें चैथे दिन पर टिकी थीं। बाघ की तलाश में हम बड़ी देर और बड़ी दूर तक निकल आए थे। हमारी टीम में मायूसी छाने लगी थी। बाघ जो हमारी कथा का नायक था कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।

बाघ की कथा-व्यथा। सफर का दूसरा दिन

दूसरे दिन हम बाघ की तलाश में पांच बजे ही निकल पड़े। हमारे गाइड ने बताया कि वह हमें सांभर रोड की तरफ ले जा रहा है। वहां बाघ दिखने की संभावना ज्यादा है। अभी उससे बात चल ही रही थी कि अचानक उसकी नजर जमीन पर पड़ी। कुछ ही दूर पर गाइड ने रुकने के लिए कहा। दरअसल जमीन पर बाघ के पंजों के निशान थे। इन पगमार्कों की दिशा में हम आगे बढ़े। मगर ये कुछ दूरी तक ही दिखे। आगे कोई निशान नहीं थे। बाघ दायीं तरफ गया था या बायीं तरफ कुछ पता नहीं था। हमने तलाश जारी रखी। कुछ दूर चलते ही हमें दिखी रामगंगा। इस नदी को यहां की जीवन रेखा कहा जाता है। मगर पिछले साल की रिकार्ड तोड़ बरसात ने यहां का नक्शा ही बदल डाला है। जगह-जगह भूमि कटाव और ऊबड़-खाबड़ रास्ते। इन्हीं बीहड़ों से रास्ता बनाते हुए हमें सिर्फ और सिर्फ आगे बढ़ना था। कुछ ही दूर चलने पर दिखा एक विशाल ग्रास लैंड। स्थानीय भाषा में इसे ‘चैड़’ कहते हैं। इन्हीं चैड़ों में शाकाहारी वन्यजीव चरने आते हैं और इनकी टोह में आते हैं बाघ। ढिकाला चैड़ काॅर्वेट नेशनल पार्क का सबसे बड़ा चैड़ है। नजर फिराई तो हाथियों का एक बड़ा झुण्ड दिखा। यह झुण्ड पेट पूजा में मस्त था। इस झुण्ड में कई छोटे-छोटे बच्चे भी थे। मगर हमारा कैमरा उस बच्चे पर फोकस था, जो झुण्ड के बाकी सदस्यों के साथ कदम नहीं मिला पा रहा था। घास ऊंची थी। हमें उसकी तकलीफ का पता नहीं था। उस झुण्ड ने जब रास्ता पार किया तो हमने देखा उसका पैर बुरी तरह जख्मी था। हमें लगा कि उसे बाघ ने अपना शिकार बनाने की कोशिश की होगी। झुण्ड के विशाल हाथियों ने बाघ को खदेड़ कर उसकी जान बचाई होगी। दूसरे दिन भी बाघ की तलाश में हमने जंगल का कोना-कोना छान मारा। बाघ का कहीं नामोनिशान नहीं मिला। जंगल एकदम शांत था। पशु-पक्षियों में कहीं कोई हलचल नहीं थी। इधर सूरज अपनी किरणें समेट रहा था। वह पर्वतों की गोद में समाने ही वाला था। यह बाघ के खोज अभियान को आज यहीं रोकने का इशारा था।

बाघ की कथा-व्यथा। सफर का पहला दिन


यह कहानी है देश के राष्ट्रीय पशु बाघ की। यह कहानी है बाघ की उस दहाड़ की, जो पर्यावरण संतुलन के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन यह दहाड़ अब रोमांचित ही नहीं करती, बल्कि खौफ भी पैदा करती है। यह कहानी है उस खूबसूरत वन्य जीव की, जो अब इंसान का जानी-दुश्मन बनता जा रहा है। हालांकि उसके आदमखोर बनने की वजह भी खुद आदमी ही है। बाघों की गणना के तरीके क्या हैं? बाघ आदमखोर क्यों बनते जा रहे हैं? और काॅर्वेट नेशनल पार्क ने बाघों के संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए हैं? इन्हीं चंद सवालों के जवाब तलाशने हम पहुंचे कार्बेट नेशनल पार्क। बाघों की तलाश का यह सफर बेहद रोमांचित करने वाला था। हमें गेट पर ही बता दिया गया था कि गाड़ी से नीचे उतरने की सख्त मनाही है। यह हिदायत इस बात को समझने के लिए काफी थी कि आदमी और बाघ के रिश्तों में अब कितनी कड़वाहट आ चुकी है। पहले दिन हम निकल पड़े ढिकाला के लिए। सुनसान रास्तों पर हम चैकन्नी निगाहों से आगे बढ़ रहे थे। कुछ दूर चलने पर हमारी नजर पड़ी फारेस्ट गार्ड पर। हमने उससे बाघ के बारे में जानने की कोशिश की। रास्ते भर किस्म-किस्म के वन्य जीव दिख रहे थे। मगर हमारी मंजिल का कोई अता-पता नहीं था। इन वन्य जीवों का इस तरह बेखौफ विचरना इस बात का संकेत था कि आसपास कोई बाघ नहीं है। आखिरकार पूरे चार घण्टे का सफर तय करके हम पहुंचे ढिकाला। अब तक शाम के सात बज चुके थे। जंगल में घूमने का समय खत्म हो चुका था। लिहाजा हम अगले दिन की रणनीति बनाने में जुट गए।